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Saturday, May 16, 2020

पुरस्कारों को लेकर उदासीनता का भाव


पिछले दिनों भारतीय ज्ञानपीठ से पुरस्कृत लेखकों के उन वक्तव्यों को पढ़ रहा था जो उन्होंने सम्मान समारोह में दिए थे। इसी क्रम में 27 जनवरी 2001 को निर्मल वर्मा का वक्तव्य पढ़ रहा था। उसमें एक जगह वो कहते हैं कि ‘आज अगर साहित्य के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए खड़ा हूं तो सिर्फ इसलिए नहीं कि उसने जीने के मरुस्थल को थोड़ा बहुत सहनीय बनाया है बल्कि इसलिए भी कि उसने उन सब मरीचिकाओं के सम्मोहन को तोड़ने का दुस्साहस किया है जिन्होंने इस सदी के मनुष्य को इतना आहत, इतना दिग्भ्रमित किया था।‘ उनके इस वाक्य से साहित्य की महत्ता तो समझ आती ही है परोक्ष रूप से किसी पुरस्कार की अहमियत भी समझी जा सकती है। इस तरह के स्वर ज्ञानपीठ से पुरस्कृत लेखकों के वकतव्यों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सुनाई देते हैं। वो किसी भी भाषा का लेखक हो उसके मन में ये आकांक्षा रहती है कि उसका काम रेखांकित किया जा सके। काम को पहचान मिले। इस पहचान को रेखांकित करने के लिए भारत सरकार की संस्थाएं और भारत सरकार सं संबद्ध संस्थाएं पुरस्कार देती रही हैं। साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, भारतीय प्रेस परिषद, केंद्रीय हिंदी संस्थान के अलावा कई मंत्रालय भी लेखकों-पत्रकारों को पुरस्कार देती रही हैं। इससे लेखकों-पत्रकारों के ‘जीने के मरुस्थल को थोड़ा सहनीय बनाने में मदद मिलती है’। सराकरी पुरस्कारों के अलावा निजी क्षेत्र में भी कई पुरस्कार दिए जाते हैं। इनमें से कई पुरस्कार तो बेहद प्रतिष्ठित भी हैं।

अब जरा इनमें से कुछ सरकारी पुरस्कारों पर नजर डाल लेते हैं। सबसे पहले विचार करते हैं सूचना और प्रसारण मंत्रालय के भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार पर। वेबसाइट्स पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक ये पुरस्कार हिंदी के पितामह भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाम पर 1983 में शुरू किया गया था। प्रतिवर्ष ये पुरस्कार कई श्रेणियों में दिया जाता था जिनमें पत्रकारिता और जनसंचार, महिलाओं के मुद्दों पर लेखन,और बच्चों पर लिखने के लिए दिया जाता था। आपको ये लग सकता है कि दिया जाता था क्यों लिखा। इसकी वजह ये है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय का ये पुरस्कार समारोह 2014 के बाद आयोजित नहीं किया जा सका है। 2014 में भी वर्ष 2011 और 2012 के लिए ये पुरस्कार दिया गया था। उस वक्त भी सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ही थे और संयोग से इस वक्त भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी प्रकाश जी के कंधों पर ही है। इस बीच अरुण जेटली, वेंकैया नायडू, स्मृति इरानी और राज्यवर्धन राठौर सूचना और प्रसारण मंत्री बने। स्मृति इरानी के कार्यकाल में इस बात की चर्चा हुई थी कि भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार दिए जाएंगें लेकिन उनका कार्यकाल छोटा रहा और पुरस्कार पर काम नहीं हो सका। कार्यकाल तो वेंकैया जी का भी छोटा रहा था। सूचना और प्रसारण मंत्रालय का ये पुरस्कार पिछले छह साल से आयोजित नहीं हुआ है और अभी किसी प्रकार का कोई संकेत भी नहीं मिल रहा है कि इस वर्ष शुरू हो पाएगा या नहीं। 2014 में आयोजित भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार समारोह की बारे में प्रकाशित खबरों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि प्रकाश जावड़ेकर ने तब ये घोषणा की थी ये पुरस्कार नियमित रूप से दिया ही नहीं जाएगा बल्कि हर वर्ष 9 सितंबर को भारतेन्दु के जन्मदिन पर पुरस्कार समारोह आयोजित किया जाएगा। पर ऐसा हो नहीं सका। 2014 के बाद न तो पुरस्कार दिए गए न ही समारोह आयोजित हुआ। पुरस्कार नहीं दिए जाने की कोई वजह भी सामने नहीं आ पाई है, क्या ये पुरस्कार लालफीताशाही की भेंट चढ़ गया? या इस पुरस्कार को किसी नीति के तहत बंद कर दिया गया या फिर अफसरशाही की लापरवाही के चलते ये प्रतिष्ठित पुरस्कार लंबे समय से स्थगित है। बंद होने की घोषणा नहीं हुई है इस वजह से स्थगित लिखा। इस वर्ष भारतेन्दु के जन्मदिन आने में करीब चार महीने हैं। अगर मंत्रालय पहल करे तो इस वर्ष ये पुरस्कार भारतेन्दु के जन्मदिवस पर दिए जा सकते हैं। जरूरत इस बात की है कि मंत्रालय में बैठे ‘यथास्थितिवाद के देवताओं’ को सक्रिय होना पड़ेगा। हो सकता है कि कोरोना की वजह से उत्पन्न हालात में इसपर विचार नहीं हो लेकिन अगर हमें कोरोना के साथ जीने की आदत डालनी है तो इसपर भी विचार तो किया ही जाना चाहिए।

पत्रकारों और लेखकों को एक और संस्था पुरस्कार देती है, वो है आगरा का केंद्रीय हिंदी संस्थान। ये संस्थान मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत आता है। केंद्रीय हिंदी संस्थान बारह श्रेणियों में  देश विदेश के अलग अलग क्षेत्रों में कार्यरत हिंदी सेवियों को सम्मानित करता रहा है। अभी इस संस्थान ने 2017 के पुरस्कारों की घोषणा की है। जब 2017 के पुरस्कारों की घोषणा तो कर दी गई लेकिन 2016 में घोषित किए गए पुरस्कारों का वितरण नहीं हो पाया है। 2016 के पुरस्कारों का वितरण नहीं हो पाने की एक बेहद दिलचस्प वजह है। मसला ये है कि केंद्रीय हिंदी संस्थान जिन हिंदी सेवियों को पुरस्कार के लिए चयनित करता है उनको राष्ट्रपति के हाथों से ये सम्मान मिलता रहा है। पुरस्कारों की घोषणा की गई तो तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने 26 जून 2018 को अपने पत्र संख्या अ.शा.पत्र सं 2-1/हि.से.स/2018 के माध्यम से राष्ट्रपति से समय मांगा। इसके बाद 9 जुलाई 2019 को नए मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने भी राष्ट्रपति महोदय से पुरस्कार समारोह के लिए समय देने का अनुरोध किया। इस बीच मानव संसाधन वितास मंत्रालय के संयुक्त सचिव ने राष्ट्रपति के निजी सचिव को 15 मार्च 2019 को पत्र लिखकर मंत्री के अनुरोध पत्र का हवाला देते हुए समय की मांग की थी। पता चला है कि कुछ दिनों पहले राष्ट्रपति भवन से मंत्रालय को ये सलाह दी गई है कि उपराष्ट्रपति से अनुरोध कर उनके कर कमलों से पुरस्कार वितरण करवा लें। ये सलाह देने में काफी समय लग गया और इस वजह से 2017 के पुरस्कारों की घोषणा टलती रही। पता नहीं किन कारणों से राष्ट्रपति पुरस्कार देने से बचने लगे हैं। पिछले वर्ष राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी उपराष्ट्रपति के हाथों दिया गया। इतनी पुरानी परंपरा को किस आधार पर परिवर्तित किया गया इसकी जानकारी सार्वजनिक होनी चाहिए। हर लेखक, कलाकार की इच्छा होती है कि राष्ट्रपति के हाथों उसका सम्मान हो। कलाम साहब तो पुरस्कार समारोह में कई घंटे रुका करते थे, इस परंपरा का निर्वाह प्रणब मुखर्जी तक हुआ। खैर ये अलग विषय है जिसपर कभी विस्तार से चर्चा होगी।
ये सिर्फ केंद्रीय हिंदी संस्थान या सूचना और प्रसारण मंत्रालय का हाल नहीं है। संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध संगीत नाटक अकादमी के 2018 के पुरस्कारों की घोषणा भी पिछले साल जुलाई में हुई थी और परंपरा के मुताबिक दिसंबर तक पुरस्कार वितरण समारोह हो जाना चाहिए था पर वो हो न सका। अब मार्च से तो कोरोना संकट ही हम सबके सामने खड़ा है और अब तो ये अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है कि सम्मान समारोह आयोजित किए जाएं। लेकिन कोरोना संकट शुरू होने के पहले की स्थितियों को देखते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का भीष्म पितामह पर लिखा एक वाक्य याद आता है, ‘जान पड़ता है कि भीष्म में कर्तव्य अकर्तव्य के निर्णय में कहीं कोई कमजोरी थी। वह उचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पाते थे’। पुरस्कारों के मामले में मंत्रियों को अपने मंत्रालयों में बैठे उन भीष्म पितामहों की पहचान करनी चाहिए जो उचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पा रहे हैं।

2 comments:

veethika said...

आपके लिखे से ये जानकारियां हासिल हुईं। निर्णय लेने-न-लेने की सूचना और कारण जानने का अधिकार जनता को है, उसे बताना आवश्यक है। लेख के लिए धन्यवाद।

Dilip Kumar Singh said...

बहुत सही मुद्दा उठाया गया है। इस समय कई पुरस्कार ऐसे हैं जो कभी माननीय राष्ट्रपति जी के हाथों मिला करते थे, अब वे संबंधित विभाग के मंत्रियों के हाथों मिल रहे हैं।