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Saturday, May 2, 2020

उदार या उधार की भाषा उर्दू


पिछले दिनों गीतकार जावेद अख्तर और कनाडा में रहनेवाले पाकिस्तानी मूल के विद्वान तारेक फतेह के बीच पहले ट्वीटर और बाद में न्यूज चैनल पर हुई बहस के बाद हिंदी-उर्दू को लेकर एक बार फिर से चर्चा आरंभ हो गई है। दरअसल जावेद अख्तर का उर्दू प्रेम पुराना है। प्रेम करना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन जब आप अपने प्रेम को ही सर्वश्रेष्ठ बताने लगते हैं तो फिर विवाद उत्पन्न होता है। जावेद अख्तर के साथ यही कठिनाई है कि वो उर्दू को सभी भारतीय भाषाओं में श्रेष्ठ मानते हैं, उस भाषा से भी जिसने उसे जन्म दिया। जावेद अख्तर के पिता जां निसार अख्तर ने 1973 में दो खंडों में उर्दू की राष्ट्रवादी कविताओं का संकलन ‘हिन्दोस्तां हमारा’ के नाम से किया था जिसका प्रकाशन हिन्दुस्तानी बुक ट्रस्ट, बंबई (अब मुंबई) ने किया था। जब 2006 में इस पुस्तक का पुर्नप्रकाशन हुआ तो जावेद अख्तर ने इसकी प्रस्तावना लिखी. उसकी पहली पंक्ति है,’अपनी प्रकृति से ही उर्दू तमाम भारतीय भाषाओं में सबसे अधिक तरक्कीपसंद, उदार और धर्मनिरपेक्ष भाषा है।‘ अब विवाद इस तरह के वाक्यों को लेकर ही शुरू होता है। जैसे ही आप किसी को सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हैं तो इसे ये ध्वनित होता है कि आप दूसरों को कमतर कहने का प्रयास कर रहे हैं। जावेद अख्तर के इस वाक्य से भी इस तरह के अहंकार या कहें कि श्रेष्ठता का बोध होता है। उर्दू, भारतीय भाषाओं में सबसे तरक्कीपसंद कैसे है ? इस बात को लेकर जावेद अख्तर को कुछ तथ्य, कुछ तर्क पेश करने चाहिए थे। किसी भी भाषा के तरक्कीपसंद होने का अर्थ क्या होता है? क्या हिंदी या तमिल या तेलुगू या बंगाली या मराठी तरक्कीपसंद नहीं हैं या उर्दू से कम तरक्कीपसंद हैं? जावेद अख्तर को अपने कहे को पुष्ट करना चाहिए था पर अफसोस वो तो फतवेबाजी करके निकल गए। फिल्मी संवाद लिखते लिखते ये उनकी प्रकृति का हिस्सा बन गया लगता है कि अपनी बात कहो और निकल लो।

अब उर्दू के लिए दिए उनके दूसरे विशेषण पर विचार करते हैं जहां उन्होंने उर्दू को सबसे अधिक उदार कहा है। ‘हिन्दोस्तां हमारा’ की प्रस्तावना में जावेद अख्तर लिखते हैं ‘वाक्य विन्यास के नजरिए से इसकी (उर्दू) जड़ें खड़ी बोली की जमीन में गहराई तक डूबी है जबकि इसकी शब्दावली हिंदी और संस्कृत के अलावा फारसी, अरबी, टर्की, अंग्रेजी फ्रेंच, पुर्तगाली और उन तमाम भाषाओं के शब्दों को समाहित किए हुए है जो अविभाजित भारत में प्रचलित थीं। यह सब मिलकर उर्दू की जबान और अदब को शक्ल देते हैं’. जावेद अख्तर विद्वान आदमी हैं, उनको शब्दों की महत्ता का पता है लेकिन उनके उपर्युक्त वाक्य से तो यही ध्वनित होता है कि उर्दू उदार भाषा नहीं बल्कि उधार की भाषा है। इसने वाक्य विन्यास खड़ी बोली से लिय़ा और शब्द हिंदी और संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओं से लिया। उदार और उधार का अंतर समझना होगा जावेद अख्तर जी। आपको अपने पिताश्री का उसी पुस्तक का अंश भी याद रखना चाहिए जिसकी प्रस्तावना आपने लिखी। उसी पुस्तक की भूमिका में जां निसार अख्तर लिखते हैं ‘मुसलमान सूफियों ने अपने विचार के प्रसार के लिए जो रास्ता निकाला वो स्थानीय बोलियों में तुर्की, अरबी और फारसी के शब्दों के मिलावट का था। वैसे तो ये मिलावट सिंध के जमाने से ही शुरू हो चुकी थी, सूफियों की कोशिश से इसे और बढ़ावा मिला। उस समय ये मिली जुली जुबान रेख्ता कहलाई।अमीर खुसरो के कलाम में इस रेख्ते का स्पष्ट रूप हमारे सामने आता है। यह रेख्ता खड़ी बोली में फारसी के शब्दों की मिलावट है जिसमें उन्होंने जिसमें उन्होंने गीत पहेलियां और मुकरनियां लिखीं।‘  अगर जां निसार अख्तर की बातों को सही मानें तो जावेद अख्तर जिस भाषा को उदार कह रहे हैं वो एक बार फिर से उधार पर आधारित भाषा प्रतीत होती है। उर्दू पर फिराक साहब ने जो कहा था उसको भी इसी आलोक में देखने और समझने की आवश्यकता है, ‘हमारी उर्दू जबान में कितनी विशालता और कितनी बड़ी संभावनाएं पैदा हो जाएंगी अगर उर्दू शब्दकोश में दो-ढाई हजार संस्कृत के शब्द भी शामिल कर लिए जाएं।‘ आगे भी फिराक साहब ने इसको उर्दू साहित्य के लिए बेहतर बताया है। कहने का अभिप्राय सिर्फ इतना है कि अगर जावेद अख्तर जैसे वरिष्ठ और विद्वान लोग उर्दू को लेकर अहंकारी वक्तव्य देंगे या उस भाषा की श्रेष्ठता साबित करना चाहेंगे तो फिर इस तरह की बातें भी सामने आएंगी ही कि उधार के शब्दों और वाक्य विन्यास से कोई भाषा सबसे अधिक उदार नहीं बन सकती।
तीसरा शब्द उन्होंने उर्दू के लिए उपयोग किया है वो ये कि ये सबसे अधिक धर्मनिरपेक्ष भाषा है। यहां भी वही समस्या है कि जब आप किसी भाषा को सबसे अधिक सबसे अधिक धर्मनिरपेक्ष कहते हैं तो तत्काल ये सवाल मन में कौंधता है कि बाकी भाषाएं या तो अपेक्षाकृत कम धर्मनिरपेक्ष हैं या फिर सांप्रदायिक हैं। अब यहां भी जावेद अख्तर को अपनी पिता की किताब से सहायता मिल सकती थी लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने इस पुस्तक को नहीं देखा, उसमें लिखा है ‘यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि जहां मुसलमान शाइरों ने हिंदुओं के त्योहार होली, दीवाली, वसंत वगैरा पर नज्में लिखीं वहां हिंदी और सिख शाइरों ने इस्लामी त्योहारों पर नज्में लिखीं। यह दरअसल उस मिली जुली सभ्यता का चमत्कार था जो हिंदू, मुसलमान, सिख सभी को प्यारी रही है‘। अब अगर ऐसा रहा है तो फिर जावेद अख्तर उर्दू को सबसे अधिक धर्मनिरपेक्ष कैसे घोषित कर रहे हैं। जावेद अख्तर की छवि एक तरक्कीपसंद व्यक्ति की है लेकिन जब वो उर्दू को लेकर इस तरह की बातें करते हैं तो परोक्ष रूप से उर्दू को लेकर दूसरी भाषा के लोगों के मन में चाहे अनचाहे उपेक्षा का भाव पैदा करते हैं।
एक और बयानवीर हैं मार्कण्डेय काटजू। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश हैं, उन्होंने भी जनवरी में उर्दू के पक्ष में एक लेख लिखा था। उस लेख में वो जावेद अख्तर से आगे चले गए और हिंदी और उर्दू की तुलना कर डाली। इस तुलना में वो इतने उत्साहित हो गए कि उन्होंने हिंदी साहित्य और साहित्यकारों को उर्दू साहित्य और उसके लेखकों की तुलना में कमतर करार दे दिया। उर्दू को बेहतर साबित करने के लिए उनको जो नाम याद आए वो हैं फैज और बिस्मिल। उनका एक मनोरंजक तर्क ये भी है कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उर्दू कवियों के ही तराने गाए गए थे, हिंदी वालों के नहीं। टिप्पणी करने के क्रम में वो महादेवी वर्मा और सुमित्रानंदन पंत का उदाहरण दे बैठे। अब काटजू साहब को कौन बताए कि महादेवी जी और पंत जी की कविताओं का उदाहरण देकर वो अलग-अलग धरातल के रचनाकारों की तुलना कर रहे हैं। काटजू साहब अगर महादेवी और पंत की कविताओं में ओज खोज रहे हैं तो ये हिंदी कविता और कवियों को लेकर उऩका अज्ञान है जिसका वो सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे हैं। वो उर्दू की रचनाओं का हिंदी अनुवाद करते हुए भाषा के उपहास का प्रयास करने की कोशिश करते हैं लेकिन इस कोशिश में वो खुद का ही उपहास कर बैठते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मार्कण्डेय काटजू ने हिंदी की कुछ प्रवृत्तियों का नाम भर सुना है और उसके नामोल्लेख करने भर जानकारी उनको है। वीर रस के कवियों में उनको या तो भूषण का नाम पता है, जबकि हिंदी में वीर रस के कवियों की एक लंबी परंपरा है। स्वतंत्रता आंदोलन में हिंदी के कवियों के गीतों को लोकप्रिय नहीं होने का हवाला देकर भी काटजू अपने अज्ञान का ही परिचय देते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हिंदी के ज्यादातर कवियों ने स्वतंत्रता के गीत लिखे, जो गाए भी गए। नाम गिनाने का कोई अर्थ नहीं है।  दरअसल जब आप मोह में पड़ जाते हैं तो आपको सत्य दिखाई नहीं देता है और काटजू के साथ भी यही हुआ है। वो उर्दू के मोह में इतने ग्रसित हों गए हैं कि उनको अन्य भाषा की रचनाएं दिखाई नहीं दे रही हैं। मार्कण्डेय काटजू और जावेद अख्तर जैसे लोग ही भाषाई खाई पैदा करते हैं। 

3 comments:

ज़ुकरैत said...

दूसरी भाषा को उधार की भाषा कहते हुए आप का लेख भी उसी श्रेष्ठता बोध से भरा हुआ लगता है।

Ashish Anchinhar said...

निश्चित ही तौर पर उर्दू हिंदी जे जियादा पुरानी और तरक्कीपसंद भाषा रही है। हिंदी कुछ नहीं उर्दू की बोली है।

Naresh Jain said...

हिन्दी उर्दू की बहस पुरानी है,आगे भी चलती रहेगी ꫰ लेकिन इस देश में चलेगी हिन्दी - संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों से समृद्ध ꫰