‘दुख हुआ, वेब-सीरीज ‘रसभरी’ में असंवेदनशीलता में एक छोटी बच्ची को पुरुषों के सामने उत्तेजक नाच करते हुए, एक वस्तु की तरह दिखाना निंदनीय है। आज रचनाकार और दर्शक सोचें कि बात मनोरंजन की नहीं, यहां बच्चियों के प्रति दृष्टिकोण का प्रश्न है, यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है या शोषण की मनमानी? यह प्रश्न उठा रहे हैं केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड, जिसको बातचीत में सेंसर बोर्ड भी कहा जाता है, के अध्यक्ष और मशहूर गीतकार प्रसून जोशी। प्रसून जोशी पहले भी अपनी आपत्तियों को सार्वजनिक करने से बचते रहे हैं और जब से प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष बने हैं तब से तो बिल्कुल ही नहीं बोलते हैं, लेकिन वेबसीरीज ‘रसभरी’ के इस दृष्य ने उनको इतना उद्वेलित कर दिया कि वो सामने आए। उनकी इस आपत्ति का उत्तर दिया ‘रसभरी’ वेबसीरीज की नायिका स्वरा भास्कर ने, ‘आदर सहित सर, शायद आप सीन को गलत समझ रहे हैं, सीन का जो वर्णन किया है वो उसके ठीक उल्टा है। बच्ची अपनी मर्जी से नाच रही है, पिता देखकर झेंप जाता है और शर्मिंदा होता है। नाच उत्तेजक नहीं है, बच्ची बस नाच रही है, वो नहीं जानती समाज उसे सेक्सुअलाइज करेगा-सीन यही दिखाता है।‘ स्वरा बचाव करने की लाख कोशिश करे लेकिन बच्ची से उत्तजेक गाने पर नाच करवाने की कहानी या कहानी में जो पृष्ठभूमि या संवाद है उससे ही मंशा का पता चलता है। बच्ची के नाच के पहले एक महिला का ये कहना कि, ‘थोड़ा बहुत नाच गाना लड़कियों को आना चाहिए, कल को अपने पति को रिझाए रखेगी’ और गाना देखकर फिर वही महिला कहती है कि ‘तेरी बेटी के लक्षण ठीक नहीं लग रहे’ तो दूसरी महिला खास अदा के साथ कहती है कि ‘ये सिर्फ अपने पति को नहीं बल्कि पूरे मुहल्ले को रिझाएगी।‘ अगर इन संवादों के साथ प्रसून जोशी की आपत्ति को देखेंगे तो उसमें एक गंभीरता दिखाई देती है और स्वरा की प्रतिक्रिया बेहद हल्की और तथ्यहीन। किसी भी मुद्दे पर विचार करने से पहले उसपर समग्रता से सोचना आवश्यक होता है अन्यथा प्रतिक्रिया सतही होती है।
‘रसभरी’ और उसमें स्वरा की भूमिका ऐसी है जिसको खुद स्वरा ही नहीं चाहती की उसके पिता इस वेब सीरीज को उस वक्त देखें जब वो उनके आसपास हो। ये तो स्वरा ने सार्वजनिक रूप से माना है। उसके पिता ने अपनी बेटी को शाबाशी देते हुए ट्वीट किया कि उनको अपनी बेटी की प्रतिभा पर गर्व है। इसके उत्तर में स्वरा ने लिखा कि ‘डैडी! कृपया इसको उस वक्त नहीं देखें जब मैं आपके आसपास रहूं।‘ अब जरा इस मानसिकता को समझिए कि एक पुत्री अपने पिता को सार्वजनिक रूप से कह रही है कि वो इस वेब सीरीज को अपनी बेटी के आसपास होने पर न देखें और वही प्रसून जोशी को समाज की मानसिकता आदि के बारे में नसीहत देती है और समझाती है कि बच्ची सिर्फ नाच रही है। वैसे भी ये वेब सीरीज इतना फूहड़ और इसके संवाद इतने स्तरहीन हैं कि इसको कोई भी संजीदा व्यक्ति परिवार के आसपास होने पर नहीं देखना पसंद करेगा। प्रसून जोशी ने एक वेब सीरीज में बच्ची के नाच को लेकर जो सवाल खड़ा किया है उसपर हमारे समाज को विचार करना चाहिए। क्या वेब सीरीज की दुनिया अब इतना नीचे गिर जाएगी कि वो यौन प्रसंगों से भी आगे बढ़कर अब बच्चियों को एक आब्जेक्ट के तौर पर पेश करेगी। लाभ कमाने के लिए इस तरह के हथकंडे अपनाना कहां तक उचित है? दरअसल ये एक और संकेत है कि ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म पर कंटेंट को लेकर कितनी अराजकता बढ़ती जा रही है। इन सीरीज पर किसी भी प्रकार का कोई नियमन नहीं होने की वजह से अराजकता अपने चरम पर है। पता नहीं क्यों वेब सीरीज निर्माताओं को ये क्यों लगता है कि अगर इनकी भाषा स्तरहीन रखी जाएगी, यौन प्रसंग होंगे, भयंकर हिंसा होगी तभी इसको दर्शक मिलेंगे। कुछ शुरुआती वेब सीरीज बनानेवाले निर्देशकों की वजह इस तरह की भ्रांति बनी। ‘रसभरी’ भी इसकी शिकार हुई है क्योंकि प्रचारित ये किया जा रहा है ‘रसभरी के जादू से कोई बच नहीं सकता एक बार आजमा कर तो देखो।‘ दो हजार अठारह में ‘वीरे द वेडिंग’ फिल्म में अपनी भूमिका से स्वरा ने जो छवि बनाई उसको ‘रसभरी’ पुष्ट करती है। कई बार इन सीरीज की प्रचार सामग्री से भी इस बात का अंदाज लग जाता है कि इसमें क्या होगा। लेकिन इसके ठीक पहले हॉटस्टार पर रिलीज ‘आर्या’ और उसके पहले प्राइम वीडियो पर रिलीज ‘पंचायत’ ने इस भ्रांति को भी तोड़ा कि जुगुप्साजनक अश्लीलता, नग्नता और हिंसा ही किसी सीरीज को चर्चित बनाती है। ‘आर्या’ में जिस तरह से ड्रग के धंधे को दिखाया गया है उसमें अश्लील दृश्यों को दिखाने की पूरी संभावना थी लेकिन निर्माता उस रास्ते पर नहीं चले। इस सीरीज में सुष्मिता सेन को लेकर या फिर अन्य नायिकाओं की नग्नता का प्रदर्शन किया जा सकता था लेकिन ऐसा किया नहीं गया और बहुत साफ सुथरे तरीके से कहानी आगे बढ़ती चली गई। दर्शक कहानी के सम्मोहन में इसके साथ जुडा रहता है। आज हालत ये है कि ‘आर्या’ किसी भी सीरीज से कम लोकप्रिय नहीं है। सुष्मिता सेन की अदाकारी, कहानी और संवाद का कसावट दर्शकों को अंत तक बांधे रखता है। इसमें भी कहीं-कहीं निर्माता भटकते दिखते हैं लेकिन फौरन संभल जाते हैं।
वेब सीरीज की अराजकता का दायरा धीरे-धीरे बढता जा रहा है। जो किताबें दशकों पहले फुटपाथ पर पीली पन्नियों में छुपाकर बेची जाती थीं, अब उसी स्तर की कहानियां और उसपर बनी फिल्में इन प्लेटफॉर्म पर वेबसीरीज के रूप में मौजूद हैं। ‘मस्तराम’ के नाम की जो किताबें कई सालों पहले किशोर और युवा छुपा कर पढते थे, कभी अपनी कोर्स की किताबों के बीच छुपाकर तो कभी घर के किसी सूने कोने में छिपकर अब उसी मस्तराम के नाम से पूरी की पूरी सीरीज ओटीटी पर उपलब्ध हैं। जिसमें उन किताबों की कहानियों को फिल्मा दिया गया है। इतना ही नहीं ‘कविता भाभी’, ‘लाली भाभी’ जैसी सीरीज भी उपलब्ध हैं। इन सीरीज में जो नग्नता दिखाई जा रही है उसपर समाज को विचार करना चाहिए। देशभर में इसपर चर्चा होनी चाहिए कि क्या इस तरह की नग्नता किसी प्लेटफॉर्म पर दिखाया जाना उचित है। क्या हमारा समाज इस तरह की सामग्री को परोसने की इजाजत दे सकता है। क्या हमारा समाज इतना परिपक्व हो चुका है कि इस तरह की कामोद्दीपक सीरीज को स्वीकार किया जा सके। कुछ लोग ये तर्क दे सकते हैं कि ओटीटी प्लेटफॉर्म फिल्मों से अलग है क्योंकि फिल्में सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित की जाती हैं, उसको सामूहिक तौर पर देखते हैं और वेब सीरीज को अपने मोबाइल पर व्यक्तिगत तौर पर देखते हैं। यह तर्क अपनी जगह सही हो सकता है लेकिन क्या इन वेब सीरीज पर इतना कंट्रोल है कि जो लोग वयस्क नहीं हैं और किशोरावस्था की दहलीज पर कदम रख रहे हैं या जिनको अभी यौनिकता की समझ विकसित नहीं हुई है वो इसको देख नहीं सके। वेब सीरीज की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए ऐसा लगता है कि अब समय आ गया है कि सरकार इसके बारे में कुछ सोचे। सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष की तरफ से बच्ची के नाच पर बयान आना क्या इस ओर कोई संकेत कर रहा है या फिर प्रसून जोशी के बयान को सिर्फ उनका व्यक्तिगत बयान माना जाए। तमाम नजरें सूचना प्रसारण मंत्रालय की ओर है।