कोरोना के संकट के दौरान पुस्तकें पढ़कर समय बिताना एक बेहतर विकल्प है। बाजार आदि भले ही खुल गए हैं लेकिन बहुत आवश्यक होने पर ही वहां जाना होता है। लोगों से मिलने-जुलने वाली संस्कृति पर भी फिलहाल विराम लगा हुआ है। पिछले करीब अस्सी दिन में कई किताबें पढ़ने का सुयोग बना। नामवर सिंह की पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ को करीब बीस साल बाद दोबारा पढ़ी। इसी क्रम में नामवर सिंह की ही एक और पुस्तक ‘हिंदी का गद्यपर्व’ पढ़ी। यह किताब नामवर सिंह के जीवित रहते ही 2010 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी और इसका संपादन काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के शिक्षक आशीष त्रिपाठी ने किया है। मैंने इस पुस्तक की पहली आवृत्ति, जो 2011 में प्रकाशित हुई थी, पढ़ी। नामवर सिंह के आलोचनात्मक लेखन के साठ साल पूरे होने के अवसर पर प्रकाशित हुई थी। इसके संपादक आशीष त्रिपाठी ने लिखा है कि ‘यह पुस्तक साक्ष्य है नामवर जी के सक्रिय साठ वर्षों का-एक दस्तावेजी साक्ष्य। इसमें उनका पहला प्रकाशित निबंध है और अभी तक लिखित अंतिम निबंध द्वा सुपर्णा... और पुनर्नवता की प्रतिमूर्ति।‘ संपादक के इन दावों को पढ़कर इस पुस्तक को पढ़ने की रुचि और बढ़ गई।
इस किताब में एक लेख है ‘हिंदी साहित्य के पच्चीस वर्ष’। इस लेख के बारे में बताया गया है कि ‘स्वतंत्रता की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर साहित्य अकादमी ने भारत की विभिन्न भाषाओं में साहित्यिक प्रगति का एक सर्वेक्षण अंग्रेजी में प्रकाशित किया गया था, इंडियन लिटरेर सिंस इंडिपेंडेंस। इस ग्रंथ के लिए हिंदी साहित्य का सर्वेक्षण किया था डॉ नामवर सिंह ने। उस सर्वेक्षण का हिंदी रूप।‘ इस पूरे लेख में कई त्रुटियां हैं। नामवर सिंह जैसी पकी आंखों वाले आलोचक जो तथ्यों को लेकर बहुत सावधान रहते थे उनसे एक लेख में इतनी तथ्यात्मक गलतियां चौंकाती हैं। इस लेख (पृ.71) में उन्होंने निर्मल वर्मा की मशहूर कहानी ‘परिंदे’ का प्रकाशन वर्ष 1960 बताया है। जबकि इस कहानी का प्रकाशन 1957 में हुआ था। प्रेमचंद के स्मृति दिवस 8 अक्तूबर 1957 को ‘हंस’ का साहित्य संकलन-1, प्रकाशित हुआ था, जिसके संपादक बालकृष्ण राव और अमृतराय थे। इस संकलन में पहली बार निर्मल वर्मा की कहानी ‘परिंदे’ का प्रकाशन हुआ था। आश्चर्य की बात ये है कि ‘हंस’ के उस संकलन में नामवर सिंह का भी लेख प्रकाशित है। सिर्फ 15 वर्ष के अंतराल में नामवर सिंह से ये चूक हो जाती है। वो भी तब जब नामवर सिंह ने निर्मल की इस कहानी को ‘नई कहानी की पहली कृति’ घोषित करते हुए एक लंबा लेख लिखा था। अगर नामवर सिंह से ये चूक हुई है तो वो एक बेहद असावधान आलोचक थे और अगर अनुवाद और संपादन में ये भूल हुई है तो ये अक्षम्य है। महत्वपूर्ण ये है कि इस पुस्तक का प्रकाशन नामवर सिंह के जीवित रहते हो गया था, लेकिन इस भूल की ओर ध्यान नहीं दिया गया। साहित्य के शोधार्थियों को ध्यान में रखकर अगर विचार किया जाए तो ये गलती बहुत बड़ी नजर आती है।
इस पुस्तक में सिर्फ एक गलती नहीं है बल्कि अनेक तथ्यात्मक भूलें हैं। अपने इसी लेख में नामवर सिंह लिखते हैं कि ‘रोमांटिक मोह के युग में भी मुक्तिबोध मोहभंग के प्रयास करते रहे। उन्होंने 1953 में यह लिखा था कि ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’।‘ नामवर सिंह अपने जीवनकाल में लगातार मुक्तिबोध की कविताओं पर बोलते-लिखते रहे थे। मुक्तिबोध को वामपंथी विचारधारा के अग्रणी कवि के तौर पर स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील भी रहे। वामपंथी विचारधारा के कवि के तौर पर मुक्तिबोध का रेखांकन करते-करते नामवर सिंह इस कविता का प्रकाशन वर्ष लिखने में चूक कर बैठे। मुक्तिबोध की ये प्रसिद्ध कविता ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ पटना से प्रकाशित काव्य संकलन ‘विविधा’ में छपी थी जिसका प्रकाशन 1956-57 में हुआ था। इस काव्य संकलन के संपादक राजेन्द्र किशोर और रणधीर सिन्हा थे। इस एक तथ्य के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि नामवर सिंह असावधान आलोचक थे। साहित्य के इतिहास में तिथियों का बहुत महत्व होता है और एक भी गलत तिथि का उल्लेख कालखंडों के आकलन के निष्कर्षों को गलत कर सकता है। इसी पुस्तक में एक लेख है ‘एक अन्तर्यात्रा के प्रदेश’ इस लेख की पहली पंक्ति है सन 1884 में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का अवसान हुआ और रामचंद्र शुक्ल का उदय। ये तो बहुत ही बड़ी चूक है क्योंकि भारतेन्दु हरिश्चंद्र का निधन 1884 में नहीं बल्कि 1885 में हुआ। इसके आलोक में देखें तो पहली पंक्ति से वो जो स्थापित करना चाहते थे उसकी बुनियाद ही गलत थी। पता नहीं किन परिस्थितियों में नामवर सिंह ने अपने लेख में भारतेन्दु का अवसान उनकी मृत्यु के पहले ही मान लिया था। इसी लेख में ‘हंस’ के आत्मकथा अंक का प्रकाशन वर्ष 1931 बताया गया है जबकि इसका प्रकाशन 1932 में हुआ था। बाद में बनारस के एक प्रकाशक ने भी ‘हंस’ के इस अंक को प्रकाशित किया था। इस पुस्तक में तथ्यात्मक भूलों के अलावा प्रूफ और नाम में भी ढेरों गलतियां हैं, ईश्वरचंद्र को रमेशचंद्र, नागेन्द्र को नरेन्द्र, रामकुमार को राजकुमार कह दिया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि न तो संपादक ने और न ही प्रकाशक ने तथ्यों के अलावा लेखों में उल्लिखित नामों को जांचने का कष्ट किया।
2019 में राजकमल प्रकाशन से ही नामवर जी के साक्षात्कारों की एक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसका नाम है ‘आमने सामने’। इस पुस्तक का संकलन संपादन नामवर सिंह के पुत्र विजय प्रकाश सिंह ने किया। इसमें विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा किया गया नामवर सिंह का एक साक्षात्कार प्रकाशित है जिसका शीर्षक है, ‘भैरव का सोंटा’। इसमें एक जगह विश्वनाथ त्रिपाठी साहित्य अकादमी के पुरस्कारों को छोड़ने और न छोड़ने पर उनकी राय पूछते हैं। इसके उत्तर में नामवर सिंह अपनी बात रखते हैं कि ये संस्था लेखकों की है, सरकार से क्या लेना देना। अपनी बात रखने के क्रम में वो बताते हैं कि साहित्य अकादमी का जब गठन हुआ तो कृष्णा कृपलानी इसकी सचिव थीं। इसको पढ़ते हुए स्पष्ट है कि नामवर सिंह ये कह रहे थे कि कृष्णा कृपलानी महिला थीं। जबकि साहित्य अकादमी से प्रकाशित डी एस राव की पुस्तक ‘फाइव डिकेड्स’ में भी और इसके हिंदी अनुवाद में भी इस बात का साफ उल्लेख है उनका नाम कृष्ण कृपलानी था और वो पुरुष थे। भारत सरकार ने 1954 में उनको दो वर्षों के लिए साहित्य अकादमी के पहले सचिव के रूप में नियुक्त किया था। बाद में अकादमी के कार्यकारी मंडल ने उनको कई सेवा विस्तार दिए और वो 1971 तक साहित्य अकादमी के सचिव पद पर बने रहे। अब ये इतनी हास्यापद बात है कि नामवर सिंह की छवि को देखते हुए इसको स्वीकार कर पाना थोड़ा कठिन है कि नामवर सिंह को ये नहीं पता होगा कि साहित्य अकादमी के पहले सचिव पुरुष थे, महिला नहीं। पता तो इस बात का विश्वनाथ त्रिपाठी को भी होना ही चाहिए। फिर एक संपादक भी हैं जिन्होंने इस तथ्य पर गौर नहीं किया, क्या इतनी असावधानी होनी चाहिए थी ? और सबसे उपर तो प्रकाशक की भी जिम्मेदारी बनती है। एक अच्छा आलोचक वो होता है जिसकी स्मृति बहुत अच्छी हो, वो आलसी न हो और तथ्यों की जांच करने के लिए सिर्फ अपनी स्मृति पर भरोसा न रखे और संदर्भ ग्रंथ देखने के लिए बार बार अपनी मेज से उठे। क्या नामवर इतने सतर्क आलोचक थे? लगता तो नहीं।
1 comment:
ऐसी तथ्यात्मक गलतियां यदि आलोचक से हुई हैं तो आलोचक की वैधता पर प्रश्नचिन्ह लगता है, यदि संपादक और प्रकाशक से हुई हैं तो भी क्षम्य नहीं है, पर इसे सुधारा जा सकता है, कम-से -कम आने वाले संस्करण में। मुझे गीता प्रेस के पोद्दार जी की याद आ रही है जो हर प्रति में खुद पेन से सुधार करते थे। काम समर्पण और निष्ठा से होना चाहिए। आपको ध्यान दिलाने हेतु धन्यवाद व आभार।
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