भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित प्रत्येक भाषा के लिए अकादमी स्थापित की जाएगी, जिसमें हर भाषा के श्रेष्ठ विद्वान एवं मूल रूप से वह भाषा बोलनेवाले लोग शामिल रहेंगे ताकि नवीन अवधारणाओं की सरल किंतु सटीक शब्द भंडार तैयार किया जा सके, तथा निमित रूप से नवीन शब्दकोश जारी किया जा सके (विश्व में कई भाषाओं अन्य कई भाषाओं के सफल प्रयोग सदृश)। इन शब्दकोशों के निर्माण के लिए ये अकादमियां एक दूसरे से परामर्श लेंगी, कुछ मामलों में आम जनता के सर्वश्रेष्ठ सुझावों को भी लेंगी। जब संभव हो, साझे शब्दों को अंगीकृत करने का प्रयास भी किया जाएगा। ये शब्दकोश व्यापक रूप से प्रसारित किए जाएंगे ताकि शिक्षा, पत्रकारिता, लेखन, बातचीत आदि में इस्तेमाल किया जा सके एवं किताब के रूप में तथा ऑनलाइन उपलब्ध हों। अनुसूची आठ की भाषाओं के लिए इन अकादमियों को केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों के साथ परामर्श करके अथवा उनके साथ मिलकर स्थापित किया जाएगा। इसी प्रकार व्यापक पैमाने पर बोली जानेवाली अन्य भारतीय भाषाओं की अकादमी केंद्र अथवा/और राज्य सरकारों द्वार स्थापित की जाएगी।‘ यह कहा गया है राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बिन्दु संख्या 22.18 में। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह एक बेहद महत्वपूर्ण कदम है। हमारे देश में सक्रिय भाषा अकादमियों की आवश्यकता है और ये उस आवश्कता पूर्ति की दिशा में उठाया गया एक कदम साबित हो सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लागू होने के बाद इसका देशव्यापी असर होगा।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भाषा अकादमियों के बनाने के प्रस्ताव पर विचार करें तो यह बहुत ही व्यावहारिक विचार लगता है। इस तरह की बात पहले भी हो चुकी है जब 1948 में राधाकृष्णन कमीशन ने भी कुछ इसी तरह का प्रस्ताव दिया था। राजभाषा आयोग के सुझावों में भी भाषा अकादमियों की बात की गई थी। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने भी सितंबर 1959 में राज्यसभा में दिए अपने भाषण में भी कहा था कि ‘मुझे इस बात की नितांत आवश्कता दिखती है कि हिंदी समेत भारत की भाषाओं की एक नेशनल अकादमी बना दी जाए और उसका प्रधान कार्यालय हैदराबाद में रखा जाए। इस अकादमी के जरिए हम प्रत्येक भाषा-क्षेत्र में वहां की भाषा को आगे बढ़ाने में मदद कर सकते हैं। इस अकादमी के जरिए हम प्रत्येक भाषा क्षेत्र में द्विभाषी, त्रिभाषी विद्वान तैयार कर सकते हैं और भाषाओं के भीतर भावात्मक एकता लाने के लिए सभी उपायों को काम में ला सकते हैं।‘ कई बार भाषाओं के नेशनल अकादमी की बात होती है तो लोग कहते हैं कि साहित्य अकादमी है तो, लेकिन भ्रमित नहीं होना चाहिए। साहित्य अकादमी तो भारतीय भाषाओं में रचे साहित्य के लिए है भाषा के लिए नहीं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भाषा को लेकर बहुत महत्वाकांक्षी बातें की गई हैं तो उम्मीद की जा सकती है कि कुछ ठोस भी होगा। हलांकि भाषाई अकादमियों की स्थापना को लेकर चुनौतियां बहुत अधिक हैं।
चुनौतियां इस वजह से कि स्वतंत्रता के बाद देशभर में भाषा को लेकर कई तरह के संस्थान केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर पर बनाए गए। कई राज्यों में अलग अलग-अलग भाषाओं को लेकर अकादमियां हैं। उत्तर प्रदेश को ही लें तो वहां आठ भाषाई अकादमियां और संस्थान कार्य कर रहे हैं। जिनमें हिंदी, संस्कृत, उर्दू, सिंधी, पंजाबी, हिंन्दुस्तानी भाषाओं की अकादमियां हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में एक भाषा संस्थान भी है जिसका उद्देश्य ‘भारतीय भाषाओं और उसके साहित्य का अभिवर्धऩ है।‘ इस तरह से बिहार में मैथिली, अंगिका, भोजपुरी और मगही को लेकर भाषाई अकादमियां हैं। बिहार के इन अकादमियों की हालत पर किसी प्रकार की टिप्पणी करना व्यर्थ है। बिहार के भाषाई संस्थान संसाधनों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनके पा न तो अपेक्षित कर्मचारी हैं न ही धन। राजस्थान में भी आधा दर्जन भाषाई अकादमियां कार्य कर रही हैं, जिनमें राजस्थान साहित्य अकादमी, भाषा और संस्कृति अकादमी,संस्कृत अकादमी,उर्दू अकादमी, सिंधी अकादमी,पंजाबी अकादमी प्रमुख हैं। यहां क्या काम हो रहा है इसके बारे में जानना भी दिलचस्प होगा। राजस्थान में जो सबसे महत्वपूर्ण काम हुआ वो सीताराम लालस ने किया जिन्होंने दस खंडों में राजस्थानी का पहला शब्दकोश बनाया। सीताराम लालस मशहूर कोशकार और भाषाकर्मी थे। उसके बाद छिटपुट काम हुए। दिल्ली की हिंदी अकादमी भी आयोजनों में ही व्यस्त रहती है और अगर उससे समय मिलता है तो साहित्य पर काम होने लगता है। इन भाषाई अकादमियों में जो गड़बड़ियां हुईं वो इनके कर्ताधर्ताओं ने ही कीं। उन्होंने भाषा और साहित्य का घालमेल कर दिया। जिन संस्थाओं को काम भाषा को मजबूत करना और भाषा के क्षेत्र में नवाचार करना था वो साहित्य सेवा में जुट गए। साहित्यिक पत्रिकाएं निकालने लगे, साहित्य उत्सव होने लगे जिसमें भाषा से अधिक साहित्य के प्रश्नों पर चर्चा होने लगी। इससे भाषा के क्षेत्र में काम नहीं या बहुत कम हो सका। साहित्यिक कृतियों पर पुरस्कार देने लगे। इसके अलावा इन संस्थाओं में योग्य व्यक्तियों की नियुक्तियां भी बहुत कम हुईं। भाषाई अकादमियों के नाम पर कांग्रेस शासनकाल में जिन संस्थाओं का गठन किया गया उनमें से ज्यादातर अपने समर्थकों को फिट करने की मंशा थी, कागज पर लिखित उद्देश्य चाहे कुछ भी रहा हो।
केंद्रीय स्तर भी भाषा के संवर्धन के कई संस्थान हैं। मैसूर स्थित भारतीय भाषा संस्थान अपनी स्थापना के पचास साल पूरे कर चुका है। इस संस्थान की स्थापना भारतीय भाषाओं के विकास को समन्वित करने के लिए वैज्ञानिक अध्ययनों के माध्यम से भारतीय भाषाओं की मूलभूत एकता लाने के लिए की गई थी। मैसूर स्थित इस संस्थान ने अबतक अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्या किया इसपर विचार करना चाहिए। इसके अलावा भारतीय भाषाओं के लिए भी अलग अलग संस्थान हैं। तमिल के लिए चेन्नई स्थित सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ क्लासिकल तमिल है। हिंदी के लिए तो दिल्ली में केंद्रीय हिंदी निदेशालय है, आगरा में केंद्रीय हिंदी संस्थान हैं। उर्दू और सिंधी के लिए केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रीय सिंधी भाषा विकास परिषद, राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद हैं। इस तरह के दर्जनों संस्थान देशभर में हैं। जरूरत है कि इन सभी संस्थानों के क्रियाकलापों पर विचार किया जाए और इन सारी संस्थाओं को एक केंद्रीय स्वरूप प्रदान किया जाए। एक ही भाषा के लिए जो अलग अलग संस्थाएं काम कर रही हैं और जिनके कामों के बीच दोहराव है उनका पुनर्गठन किया जाए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए भाषा संस्थाओं का पुनर्गठन बेहद आवश्यक है। भाषा अकादमियों के साथ-साथ जरूरत इस बात की भी है कि एक ऐसे केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना की जाए जहां सभी भारतीय भाषाएं और उसकी उपभाषाओं के संरक्षण और संवर्धन पर काम किया जा सके। यह एक ऐसा उपक्रम होगा जिसमें एक ही परिसर में सभी भारतीय भाषाओं के विद्वान, शोधार्थी और छात्र उपस्थित रहेगें। इसका लाभ यह होगा कि भाषाओं के बीच समन्वय बढ़ेगा, एक दूसरे की भाषा के महत्वपूर्ण गुणों और शब्दों को जानने का अवसर भी मिलेगा। दो तीन वर्ष पूर्व भारतीय भाषाओं के विश्वविद्लाय की स्थापना को लेकर एक एक गंभीर कोशिश हुई थी लेकिन पता नहीं मंत्रालय या सरकारी फाइलों में वो कोशिश कहां गुम हो गई। अब जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने की बात हो रही है तो जरूरत है कि भारतीय भाषा के विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रस्ताव को भी निकालकर फैसला करना चाहिए। अगर ऐसा हो पाता है तो सचमुच आजादी के बाद भारतीय भाषाओं को मजबूती प्रदान करने की एक गंभीर कोशिश होगी जिसका परिणाम देश को मजबूक करेगा, राष्ट्रीय एकता को मजबूत करेगा।
2 comments:
बेहतर आलेख।बधाई
अगर ऐसा हो पता है । सु न्दर।
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