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Friday, November 13, 2020

नियमन से सकारात्मक बदलाव की आस


मेरा बचपन गांव में बीता है। अपने गांव में सुना करता था कि मंदिर के पास की जमीन गैर-मजरुआ है। गैर-मजरुआ का शाब्दिक अर्थ भले ही ये होता है कि जो जमीन जोती न जाती हो या कृषि योग्य न हो। लेकिन गांव में रहते हुए ये समझ आया था कि गैर-मजरुआ जमीन वो होती है जिसपर किसी का मालिकाना हक नहीं होता है। इस जमीन का कोई दस्तावेज किसी के पास नहीं होता था। ये गांव की एक ऐसी जमीन होती है जिसके बारे में किसी को नहीं पता वो किसकी है। जो भी ताकतवर होता था वो उस जमीन पर कब्जा कर लेता था या फिर जिस तरीके से मन होता था उसका उपयोग करता था। इस तरह की जमीन को लेकर गांव में बहुधा झगड़ा-झंझट भी होता रहता था। कई बार मेरे गांव के बड़े बुजुर्ग मिल बैठकर ये तय कर देते थे कि इस जमीन का उपयोग सबलोग करेंगे लेकिन ये समझौता ज्यादा दिन चल नहीं पाता था। फिर से उस जमीन को लेकर मनमानी शुरू हो जाती थी। धीरे धीरे उस जमीन के आसपास रहनेवाले लोग भी उसपर अपनी दावेदारी जताने लगते थे। सरकार को मालगुजारी देकर भी गैर-मजरुआ जमीन पर फर्जी तरीके से मालिकाना हक की बात भी हम बचपन में सुनते थे। किसी भी गैर-मजरुआ जमीन को लेकर जब विवाद बढ़ता था तो जिलाधिकारी या उनका प्रतिनिधि इसका भविष्य तय कर देता था।  

पिछले तीन चार साल से ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म्स को देखकर हमेशा से ये लगता था कि ये गैर-मजरुआ जमीन की तरह है। वैसे तो हमारे देश में 2008-09 में ही ओटीटी प्लेटफॉर्म की शुरुआत हो गई लेकिन 2015 में जब स्टार इंडिया ने हॉटस्टार लांच किया तो पूरे देश का ध्यान इस माध्यम की ओर गया। इसके बारे में इस वजह से भी ज्यादा चर्चा हुई थी क्योंकि इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के प्रसारण का अधिकार स्टार इंडिया के पास था । आईपीएल के मैच को हॉटस्टार पर भी देखा जा सकता था। इसके एक साल बाद नेटफ्लिक्स ने भी हमारे देश में अपने प्लेटफॉर्म को लांच किया। अब तो दर्जनों ओटीटी प्लेटफॉर्म देश के दर्शकों के लिए उपलब्ध हैं। ज्यादातर ओटीटी प्लेटफॉर्म एक तय शुल्क पर ग्राहकों को अपनी सेवा देते हैं लेकिन कुछ मुफ्त भी उपलब्ध हैं। इन प्लेटफॉर्म पर दिखाए जाने वाले कंटेंट को लेकर पिछले तीन-चार साल से देशभर में बहस चल रही है। इस स्तंभ में भी कई बार ओटीटी प्लेटफॉर्म पर दिखाई जानेवाली सामग्री को लेकर लिखा जा चुका है। वापस लौटते हैं इन प्लेटफॉर्म और गैर-मजरुआ जमीन की तुलना वाली बात पर। दरअसल ओटीटी प्लेटफॉर्म पर परोसी जानेवाली सामग्री को देखकर यही भान होता था कि इसकी हालत भी गैर-मजरुआ जमीन जैसी है। किसी को पता नहीं था कि इस तरह के प्लेटफॉर्म किस कानून या किस मंत्रालय के अधीन हैं। चूंकि इन प्लेटफॉर्म्स के प्रशासनिक अधिकार को लेकर बहुत स्पष्टता नहीं थी। इसपर दिखाए जानेवाले कंटेंट को लेकर किसी प्रकार की कोई कानूनी सीमा नहीं है। इसको रेगुलेट करनेवाली कोई संस्था नहीं है लिहाजा यहां लगभग अराजकता जैसा माहौल है। जिसको जो मन हो रहा है वो दिखाया जा रहा है। धर्म और धार्मिक प्रतीकों को किसी खास एजेंडे के तहत व्याख्यायित किया जा रहा है। हिंदू या सनातन धर्म को लेकर इस तरह का माहौल बनाया जा रहा है जैसे भारत बस हिंदू राष्ट्र बनने ही जा रहा है। 

2018 में नेटफ्लिक्स पर प्रसारित एक सीरीज ‘लैला’ में तो चालीस साल बाद हिंदुओं की काल्पनिक कट्टरता को उभारने के उपक्रम की कहानी दिखाई गई थी। परोक्ष रूप से एक फेक नैरेटिव खड़ा किया गया था। उस वेब सीरीज में भविष्य के भारत की जो तस्वीर दिखाई गई थी उसमें हिन्दुस्तान नहीं होगा, उसकी जगह आर्यावर्त होगा। वहां राष्ट्रपिता बापू नहीं होंगे बल्कि एक आधुनिक सा दिखने वाला शख्स जोशी उस राष्ट्र का भाग्य-विधाता था। आर्यावर्त के लोगों की पहचान उनके हाथ पर लगे चिप से होती थी। लोग एक दूसरे का अभिवादन ‘जय आर्यावर्त’ कहकर करते थे। आर्यावर्त में दूसरे धर्म के लोगों के लिए कोई जगह नहीं थी।  कुल मिलाकर एक ऐसी तस्वीर रची गई थी जो ये साफ तौर पर बताती थी कि भविष्य का भारत हिंदू राष्ट्र होगा और तमाम कुरीतियां मौजूद होंगी। ‘आर्यावर्त’ में अगर कोई हिंदू लड़की किसी मुसलमान लड़के से शादी करती है तो उसके पति की हत्या कर लड़की को आर्यावर्त के ‘शुद्धिकरण केंद्र’ ले जाया जाता है। धर्म के अलावा वहां सामाजिक विद्वेष को बढ़ानेवाला जातिगत भेदभाव को पेश किया गया था। इस सीरीज के अलावा कई अन्य वेब सीरीज में खास राजनीति एजेंडे के तहत विचारधारा विशेष को महिमामंडित और दूसरे का निंदाख्यान पेश किया जाता है। किसी में पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था पर अनर्गल आरोप की शक्ल में उनका चित्रण किया जा रहा है। कहीं जुगुप्साजनक हिंसा और यौनिकता, अप्राकृतिक यौनाचार का फिल्मांकन किया जा रहा है। एक सीरीज में तो खुलेआम यौन प्रसंगों के लंबे लंबे दृश्य बेहद घटिया तरीके से दिखाया गया। संवादों में निम्नतम स्तर की गालियों का उपयोग तो वेबसीरीज की पहचान ही बन गई है। गालियां भी जबरदस्ती ठूंसे हुए प्रतीत होते हैं। जिन भौगोलिक इलाकों की कहानियां होती हैं, उन इलाकों में चाहे उस तरह की गालियों का प्रयोग हो या न हो, इन वेबसीरीज उस तरह की गालियों की भरमार रहती हैं। ओटीटी पर चलनेवाले एक वेबसीरीज में भारतीय वायुसेना और कश्मीर को लेकर भी देशहित के विपरीत कहानियां गढ़ी गई और उसको इन अराजक प्लेटफॉर्म पर दर्शकों के सामने पेश किया जाता रहा है।

स्थिति चूंकि स्पष्ट नहीं थी कि ये प्लेटफॉर्म किस मंत्रालय के दायरे में आते हैं तो किसी प्रकार की कोई कार्रवाई हो नहीं पाती थी। वेब सीरीज में आपत्तिजनक मामले के खिलाफ अदालतों में कई मुकदमे हुए। मंत्रालयों को अदालती नोटिस गए। उस समय तक स्थिति साफ नहीं थी कि ओटीटी के लिए संचार और सूचना प्रोद्योगिकी मंत्रालय जिम्मेदार है या सूचना और प्रसारण मंत्रालय। अब जाकर केंद्र सरकार ने ये तय कर दिया है कि ओटीटी का मामला सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आएगा। अब जबकि ओटीटी नाम के इस गैर-मजरुआ जमीन का मालिकाना हक तय कर दिया गया है तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी है कि वो इसके लिए यथोचित नियम कानून बनाए।

पिछले तीन साल से सूचना और प्रसारण मंत्रालय ओटीटी के लिए निमयन बनाने की दिशा में काम भी कर रहा था। ओटीटी प्रदाता कंपनियों के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के कई दौर भी हुए थे। कई प्रस्ताव भी तैयार हुए लेकिन उसपर सहमति नहीं बन पाई थी। इस वर्ष सितंबर में भी 15 बड़े ओटीटी प्लेटफॉर्म ने स्वनियमन का एक प्रस्ताव तैयार किया था। इसमें कंटेंट का वर्गीकरण करने का प्रयास किया गया था लेकिन सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इसको खारिज कर दिया था। ओटीटी के बारे में नियमन तय करने के पहले यहां पेश किए जानेवाले कंटेंट पर समग्रता में विचार करना चाहिए। कुछ ऐसा तंत्र विकसित करना चाहिए जो भारतीय समाज और यहां की संस्कृति को ध्यान में रखकर तैयार किया जाए। इस बात का ङी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कंटेंट में हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों को उसका मूल आधार न बताया जाए। समाज को बांटने वाली बातें न हो, देश की व्यवस्था के खिलाफ जनता के मन में जहर भरने का परोक्ष उपक्रम न हो। परोक्ष रूप से संवाद में इस तरह की बातें न हों जो किसी विचारधारा विशेष का पोषण करती हों। विदेशी सीरीज को भी हमारे देश में जस का तस दिखाए जाने को लेकर विचार किया जाना चाहिए। वैश्विक श्रृंखला के नाम पर नग्नता और जुगुप्साजनक हिंसा को दिखाए जाने की प्रवृत्ति को सूक्ष्मता से विश्लेषित किया जाना चाहिए। इस बात पर भी विचार हो कि क्या हमारा समाज कुछ पश्चिमी देशों की तरह की नग्नता के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए तैयार है। भारतीय सेना को दिखाते समय इस बात का ध्यान रहे कि राष्ट्रीय या अंतराष्ट्रीय मंच पर उसकी बदनामी न हो और उनके मनोबल पर इसका असर न पड़े। 

कुछ लोग अभी से आशंकित हैं। ओटीटी के आसन्न नियमन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर इसकी आलोचना के संकेत देने लगे हैं। उनको पता होना चाहिए कि हमारे देश में मनोरंजन सेक्टर को लेकर पहली बार नियमन नहीं होगा। उदारीकरण के दौर में जब देश में निजी टीवी चैनलों का आगमन हुआ था तब भी कई मनोरंजन चैनलों पर अंतराष्ट्रीय कंटेंट या प्रोग्राम दिखाने को लेकर देशव्यापी बहस हुई थी। भारतीय संस्कृति को और समाज को ध्यान में रखते हुए उस वक्त की सरकार ने भी 1995 में केबल टेलीविजन नेटवर्क रेगुलेशन एक्ट बनाया था। अंतराष्ट्रीय चैनलों के हमारे देश में प्रसारण के लिए अनुमति देने के पहले डाउनलिंकिंग लाइसेंसिंग की व्यवस्था की गई थी। उन नियमनों के बाद हमारी संस्कृति और समाज की संवेदनाओं को ध्यान में रखकर स्थानीय स्तर पर ही प्रोग्राम बनने लगे। नतीजा यह हुआ कि आज हमारे देश का टीवी उद्योग बेहद समृद्ध है। अगर समाचार पत्र, न्यूज चैनल, मनोरंजन चैनल या सिनेमा के लिए नियमन है तो फिर ओटीटी को लेकर क्यो नहीं। किसी भी तरह का अनुशासन उस क्षेत्र के विकास में ही सहायक होता है। अब सूचना और प्रसारण मंत्रालय के सामने चुनौती ये है कि ओटीटी को लेकर वो जो नियमन की व्यवस्था बनाए वो इस क्षेत्र को मजबूत करनेवाला हो बाधित करनेवाला नहीं।   

1 comment:

शिवम कुमार पाण्डेय said...

बहुत बढ़िया लेख। ऐसे फालतू कहानी लिखने या बनाकर दिखाने वालों के ऊपर सरकार को प्रतिबंध लगाने जरूरत है।