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Saturday, January 30, 2021

प्रासंगिकता साबित करने की युक्ति


गणतंत्र दिवस के पहले रविवार को दिल्ली के सिंघु बॉर्डर गया था, सोचा था कि किसानों के आंदोलन को नजदीक से देखूंगा और समझूंगा। दिनभर वहां बिताया और आंदोलन के अलावा जो एक चीज वहां रेखांकित की, उसका उल्लेख करना आवश्यक है। प्रदर्शन आदि समान्य तरीके से चल रहा था। लोग टेंट में और ट्रैक्टर ट्रालियों के नीचे बैठे थे। मुख्य मंच पर जाकर लोग अपनी बातें कह रहे थे। फिर प्रदर्शन स्थल पर घूमने लगा। पूरे प्रदर्शन स्थल पर लोग जत्थों में घूम रहे थे। कई जगहों पर नारेबाजी भी हो रही थी। यहीं पर एक बेहद दिलचस्प नजारा देखने को मिला। जहां समूह में नारेबाजी हो रही थी उस समूह के साथ चल रहे चार-पांच लोग फटाफट अपने हाथ में लिया लाल झंडा खोल कर इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाने लगते थे। इनमें से ही एक दो लोग गत्ते पर हस्तलिखित नारे भी लहराने लगते थे। ये लोग उस समूह के आगे एक जगह इस तरह से जमा हो जाते जैसे कि वो पूरा समूह इनके नेतृत्व में ही प्रदर्शन कर रहा है। जब ये लोग लाल झंडा खोलकर नारे लगा रहे होते थे, या पोस्टर लहरा रहे होते थे तो उनका एक साथी तस्वीरें ले रहा था। तस्वीरें इस तरह से ली जा रही थी कि लगे कि लाल झंडा में जिनकी आस्था है वो लोग किसानों के समर्थन में आए हैं और नारेबाजी कर रहे हैं। थोड़ी देर में नारेबाजी बंद हो जाती थी और फिर झंडा-पोस्टर समेट कर ये लोग आगे बढ़ जाते थे। सिंघु बॉर्डर पर ऐसा कई जगह पर दिखाई दिया था। जब घर वापस लौटा तो वैसे कई फोटो फेसबुक और अन्य इंटरनेट मीडिया माध्यमों पर दिखाई दिए थे जिसमें ये दावा किया गया था कि वामपंथ में आस्था रखनेवाले लोग किसानों के आंदोलन के साथ हैं। बात आई गई हो गई। लेकिन गणतंत्र दिवस के दिन जब लालकिला पर हंगामा चल रहा था और तिरंगा लहराने वाली जगह पर उपद्रवियों ने झंडा लगाना शुरू कर दिया था। उपद्रव के उन क्षणों में एक दृश्य दिखा था जिसमें लाल किला की प्राचीर पर लगी रेलिंग पर कई झंडे एक साथ बांधे जा रहे थे। न्यूज चैनलों पर इसका लाइव करवेज चल रहा था। अचानक दिखा कि एक व्यक्ति लाल झंडा लिए आया और झंडा लगानेवालों के साथ खड़ा हो गया। उसने अपने हाथ में लिया लाल झंडा रेलिंग में इस तरह से फंसाने की कोशिश की जिससे ये लगे कि लाल झंडा प्रमुखता से दिखे। इस दृश्य को देखकर मेरे दिमाग में अचानक से सिंघु बॉर्डर के प्रदर्शऩ के दौरान लाल झंडा लहराने और उसकी फोटो खींचते वामपंथियों का दृश्य कौंध गया। 

उपरोक्त दोनों दृश्यों का विश्लेषण करें तो एक बात उभर कर आती है कि न्यून संख्या होने के बावजूद वामपंथी सिंघु बॉर्डर पर भी और लालकिला पर भी अपनी अपनी प्रासंगिकता और उपस्थिति दिखाने में लगे थे। लालकिला पर तो उपद्रव इतना बढ़ गया कि वहां लगाया गए लाल झंडे के फोटो को इंटरनेट मीडिया पर दिखाने की हिम्मत वामपंथियों को नहीं हुई। अगर किसी ने लगाया हो तो मुझे दिखा नहीं। दरअसल वामपंथियों की ये युक्ति बहुत पुरानी है। वो दूसरों के कंधे पर चढ़कर ना केवल अपनी उपयोगिता और उपस्थिति सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं बल्कि राजनीति और सामाजिक लाभ भी लेते हैं। इसका एक लंबा इतिहास रहा है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी वामपंथियों की ये परजीविता देखने को मिली थी। यह अकारण नहीं था कि डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने 12 दिसंबर 1945 को नागपुर के अपने भाषण में देश की जनता को वामपंथियों के मंसूबों को लेकर आगाह किया था। बाबा साहेब ने तब कहा था कि ‘मैं आप लोगों को आगाह करना चाहता हूं कि आप कम्युनिस्टों से बच कर रहिए क्योंकि अपने पिछले कुछ सालों के कार्य से वे कामगारों का नुकसान कर रहे हैं, क्योंकि वे उनके दुश्मन हैं, इस बात का मुझे पूरा यकीन हो गया है...हिन्दुस्तान के कम्युनिस्टों की अपनी कोई नीति नहीं है उन्हें सारी चेतना रूस से मिलती है।‘ बाबा साहेब के शब्दों पर गौर करने से स्थिति और साफ हो जाती है। उन्होंने कहा कि भारत के कम्युनिस्टों की अपनी कोई नीति नहीं है। तब साफ तौर पर वो उनकी परजीविता को रेखांकित कर रहे थे। दूसरी बात उन्होंने ये कही कि वो कामगारों का नुकसान कर रहे हैं। उनकी दूरदर्शिता ने उस वक्त ही कम्युनिस्टों को पहचान लिया था और बेहद स्पष्ट तरीके से साफ शब्दों में देश को आगाह किया था।

स्वतंत्रता के बाद के राजनीतिक इतिहास को देखें तो कई मौकों पर वामपंथियों की ये परजीविता और उससे लाभ उठाने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के अधिकानयकवाद का समर्थन करके अपने को मजबूत करने की कोशिश दिखाई देती है। ऐसा इसलिए क्योंकि इमरजेंसी के समर्थन के एवज में वामपंथियों ने इंदिरा सरकार से कला और संस्कृति की ठेकेदारी हासिल की थी। ये उसी इंदिरा गांधी को समर्थन था जिन्होंने 1959 में केरल की पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार को अपदस्थ करने में केंद्रीय भूमिका निभाई थी। ऑस्ट्रेलिया के ल ट्रॉब युनिवर्सिटी से संबद्ध रॉबिन जेफ्री ने एक बेहद मशहूर लेख लिखा था, ‘जवाहरलाल नेहरू एंड द स्मोकिंग गन, हू पुल्ड द ट्रिगर ऑन केरला’ज कम्युनिस्ट गवर्मनमेंट इन 1959’ । इस लेख में उन्होंने नेहरू और इंदिरा गांधी की कम्युनिस्टों को लेकर सोच और सरकार बर्खास्त करने के कारणों का विश्लेषण किया था। जेफ्री ने स्पष्ट रूप से इस बात को रेखांकित किया था कि नेहरू उस समय कम्युनिस्टों की जीत को पचा नहीं पा रहे थे। इंदिरा अपना स्थान बनाने के लिए संघर्ष कर रही थी। कम्युनिस्ट सरकार की बर्खास्तगी से दोनों के मंसूबे पूरे हुए थे। इन बातों को जानते समझते हुए भी वामपंथियों ने कालांतर में कई मौकों पर लाभ उठाने के लिए या राजनीतिक हित साधने के लिए कांग्रेस के साथ समझौता किया या उनके अधीन काम करना स्वीकार किया। अभी वामपंथी विचारों वाले कई लोग राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ काम करे हैं।  हाल ही में संपन्न हुए बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान और पश्चिम बंगाल के आगामी चुनाव को लेकर कांग्रेस और वामपंथियों में समझौता हुआ है। विचारधारा की बात करनेवाले वामपंथी दरअसल अवसर को ही विचार के तौर पर देखते और मानते रहे हैं। 

हमेशा से कम्युनिस्ट अपनी विचारधारा की आड़ में सिर्फ और सिर्फ सत्ता या लाभ लेने की कोशिश करते रहे हैं। यह अनायास नहीं है कि वो प्रोलेतेरियत तानाशाही की बात भी करते हैं और समाज या देश के पूंजीवाद से साम्यवादी व्यवस्था की ओर जाने के बीच इस तानाशाही व्यवस्था को जरूरी मानते हैं। जो इनकी इस सोच के हिसाब से नहीं चलता है उसके खिलाफ ये तमाम तरह की अनर्गल बातें करके, माहौल बनाकर दबाव में लेने की कोशिश करते हैं। ये प्रविधि भी पुरानी है। यहां इस बात का उल्लेख इस धारणा को पुष्ट करेगा कि लेनिन ने तो एक बारगी जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी के सिद्धांतों को इंफैंटाइल डिसऑर्डर (शिशु विकार) का शिकार तक कह डाला था। इस तरह के जुमले भारत में सुनने को मिलते रहते हैं। कभी असहिष्णुता का नारा गढ़ा जाता है तो कभी फासीवाद की आहट सुनने लगते हैं और कभी पुरस्कार वापसी की युक्ति अपनाई जाती है। वामपंथी विचारधारा के अनुयायी ये समझ नहीं पा रहे हैं कि लाभ हासिल करने के लिए दबाव बनाने की उनकी ये तरकीबें अब पुरानी हो गई हैं और देश की जनता इसको समझ भी गई हैं। कहते हैं न कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती तो इस कहावत को वामपंथियों को समझ लेना चाहिए।   


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