Translate

Saturday, January 9, 2021

हिंदी की मजबूती का मूलमंत्र उदारता


आज विश्व हिंदी दिवस है। इस अवसर पर एक बेहद दिलचस्प किस्सा याद आ रहा है। बात ग्यारह अप्रैल 1941 की है। जबलपुर में सेंट्रल प्रोविंस एंड बेरार स्टूडेंट्स फेडरेशन का एक सांस्कृतिक अधिवेशन होना तय हुआ था। फेडरेशन के सचिव चाहते थे कि इस अधिवेशन का शुभारंभ अभिनेता और निर्देशक किशोर साहू करें। किशोर साहू को आमंत्रित करने के लिए वो बांबे (अब मुंबई) पहुंचे और उनसे मिलकर अपना प्रस्ताव उनके सामने रखा। किशोर साहू ने उनका आमंत्रण स्वीकार कर लिया और नियत दिन वो जबलपुर पहुंच गए। उस वक्त तक किशोर साहू की तीन फिल्में लोकप्रिय हो चुकी थीं और एक निर्माता के तौर पर भी उनकी पहचान बन चुकी थी। रेलवे स्टेशन पर अभिनेता किशोर साहू के स्वागत में काफी लोग जुटे थे। स्टेशन पर ‘कॉमरेड किशोर साहू जिंदाबाद’ का नारा भी लगाया गया था। किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ‘राजनीतिक क्षेत्र में मैने कोई तीर नहीं मारा था, कोई विशेष कॉमरेडी नहीं दिखाई थी।‘ बावजूद इसके उनके स्वागत में कॉमरेड किशोर साहू जिंदाबाद का नारा लगा था। इस प्रसंग पर विचार करने से वामपंथ का वो पहलू सामने आता है जिसमें वो लोगों को छद्म नारों आदि से भरमाते रहे हैं। खैर यह अवांतर प्रसंग है जिसपर फिर कभी चर्चा। 

अभी हम हिंदी की बात कर रहे हैं। शाम को स्टूडेंट फेडरेशन के अधिवेशन का भव्य शुभारंभ हुआ था जिसकी अध्यक्षता विश्वंभरनाथ जी ने की थी। किशोर साहू ने अपना उद्घाटन भाषण अंग्रेजी में दिया था। भाषण को उपस्थित श्रोताओं ने काफी पसंद किया था। यहां तक तो सब ठीक था लेकिन किशोर साहू के बाद के वाले वक्ता जब बोलने खड़े हुए तो उन्होंने अंग्रेजी में भाषण देने के लिए किशोर साहू की जमकर आलोचना की। हिंदी फिल्मों से प्रसिद्धि पाने और भाषण अंग्रेजी में देने को लेकर भी उन्होंने किशोर साहू को घेरा था। किशोर साहू तबतक उनको जानते नहीं थे। अपनी आत्मकथा में किशोर साहू ने इस प्रसंग का विस्तार से उल्लेख किया है। किशोर ने मंच पर साथ बैठे एक व्यक्ति से उनका परिचय पूछा। साहू को बताया गया कि ‘वो यशपाल हैं और खुद को कॉमरेड बताते हैं।‘ तबतक किशोर साहू हिंदी के लेखक यशपाल से या उनके नाम से परिचित नहीं थे। तो उन्होंने उस व्यक्ति से पूछा कि कौन यशपाल ? जवाब मिला ‘अपने को कम्युनिस्ट कहता है अब फॉर्वर्ड ब्लाकिस्ट बना हुआ है और आपके जयघोष से जलकर आपकी खिल्ली उड़ाना चाहता है।‘ यशपाल ने किशोर साहू की इतनी तीखी और व्यक्तिगत आलोचना कर दी थी कि वो गुस्से से लाल-पीला हो रहे थे और मंच से ही यशपाल पर जवाबी हमला करने लगे थे। मामला गरमा गया था। कुछ अप्रिय घटने की आशंका को लेकर अधिवेशन की अध्यक्षता कर रहे विश्वंभरनाथ ने पहले तो किशोर साहू को रोका और फिर उनसे आगे कुछ नहीं बोलने का अनुरोध किया था। विश्वंभरनाथ ने यशपाल की उनके आचरण के लिए सार्वजनिक रूप से निंदा की और कहा, ’अगर किशोर साहू ने अंग्रेजी में भाषण दे दिया तो कोई पाप नहीं किया। उनका दिल और पोशाक तो भारतीय है। मगर, यशपाल जी, अगर आपको अंग्रेजी से इतनी नफरत है तो आपने यह अंग्रेजी पोशाक क्यों पहन रखी है?’ सभास्थल लोगों के ठहाके से गूंज उठा था। आपको बताते चलें कि कॉमरेड यशपाल ने तब कोट-पैंट पहना हुआ था और गले में लाल टाई बांधी हुई थी। किसी तरह अधिवेशन का उद्घाटन सत्र समाप्त हुआ लेकिन यशपाल अपने उपेक्षा से इतने आहत हो गए कि तय समय से पहले ही अधिवेशन छोड़कर जबलपुर से निकल गए। 

हिंदी दिवस पर इस किस्से का स्मरण इस वजह से हो रहा है कि आज भी कई लोग हिंदी को लेकर इतने संवेदनशील हो जाते हैं कि वो उसमें अंग्रेजी के शब्दों के उपयोग को लेकर हाय तौबा मचाने लगते हैं। गैर हिंदी भाषियों से भी अपेक्षा करते हैं कि वो हिंदी में ही बात करें और अगर लिखें तो शुद्ध लिखें। यह आग्रह उचित है लेकिन आग्रह जब जिद में और सामने वाले को अपमानित करने में बदल जाता है तो समस्या गंभीर हो जाती है। किशोर साहू ने साफ तौर पर स्वीकार किया था कि कॉलेज के डिबेट्स में अंग्रेजी में बोलते थे और किसी विषय पर लंबा बोलने के लिए वो अंग्रेजी में ही ज्यादा सहज थे। इसलिए उन्होंने स्टूडेंट्स फेडरेशन के सांस्कृतिक अधिवेशन में अंग्रेजी में भाषण दिया था। यशपाल को ये बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने किशोर साहू को लेकर सार्वजनिक रूप से व्यक्तिगत कटाक्ष कर दिया। वो यह भूल गए कि फिल्मों की दुनिया में काम करनेवाले किशोर साहू न सिर्फ एक अच्छे अभिनेता के तौर पर स्थापित थे बल्कि उनकी हिंदी में लिखी कहानियां उस दौर की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हो चुकी थीं। बाद में तो किशोर साहू ने ‘परदे के पीछे’ के नाम से एक उपन्यास भी हिंदी में लिखा था। 

हिंदी को वैश्विक स्तर पर ना केवल स्वीकार्यता मिल रही है बल्कि व्याप्ति भी बढ़ रही है, लेकिन अगर हिंदी अपना मूल स्वभाव, उदारता, त्यागती है तो स्वीकार्यता और व्याप्ति दोनों में परेशानी हो सकती है। हिंदी में तो शुरू से ही दूसरी भाषा के शब्द लेने की उदारता रही है। हिंदी में आज न सिर्फ अंग्रेजी बल्कि फारसी और पुर्तगाली तक के शब्द बहुत सहजता के साथ स्वीकृत और प्रचलित हैं। इन भाषाओं के शब्दों को हिंदी ने इतनी उदारता के साथ अंगीकार किया है कि लगता ही नहीं है कि वो दूसरी भाषा के शब्द हैं। दूसरी भाषा के शब्दों को लेकर दुश्मनी का भाव नहीं होना चाहिए बल्कि देश काल और परिस्थिति के मुताबिक उसको अपने अंदर समाहित और स्वीकृत करने की उदारता होनी चाहिए। इससे ना केवल भाषा समृद्ध होती है बल्कि उसका शब्द भंडार भी व्यापक होता है। यह भी किया जा सकता है कि विदेशी भाषा के शब्दों को स्वीकार करने के पहले अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों को देखा, परखा और आजमाया जाए। अगर हमें भारतीय भाषाओं में उपयुक्त शब्द मिल जाते हैं तो उसको अंगीकार करने में प्राथमिकता देनी चाहिए। इस प्रयास की सफलता के लिए आवश्यक होगा कि भारतीय भाषाओं के शब्दकोशों को तैयार किया जाए। जो शब्दकोश तैयार हैं उनको जनता के बीच पहुंचाने का उपक्रम करना होगा। आज जिस तरह से इंटरनेट मीडिया का विस्तार हो रहा है, जिस तरह से देशभर में इंटरनेट का घनत्व बढ़ता जा रहा है, उसको ध्यान में रखते हुए भारतीय भाषाओं के शब्दकोशों को इंटरनेट पर उपलब्ध करवाने की कोशिश करनी चाहिए। बोलियों के शब्दों को सहेजने का प्रयास होना चाहिए। ये प्रयास व्यक्तिगत स्तर पर हो रहे हैं, लेकिन वो नाकाफी हैं। इसको संस्थागत स्तर पर शुरू करने का समय है ताकि भारतीय भाषाओं के बीच जो वैमनस्यता बोध कभी कभार गहराने लगता है उसका निषेध किया जा सके।

देश के अलग अलग हिस्सों में केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं, वहां अगर इस काम की शुरुआत करवाई जाए तो ये शब्दकोश आसानी से कम समय में बन सकते हैं। किसी एक संस्थान पर बहुत ज्यादा वित्तीय बोझ भी नहीं पड़ेगा। इसको कुलपति चाहें तो अपने स्तर पर भी आरंभ करवा सकते हैं, लेकिन अगर सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों का केंद्रीयकृत प्रयास हो तो नतीजे बेहतर होंगे। इसकी शुरुआत संविधान में मान्यता प्राप्त भाषाओं से की जा सकती है। यह काम अगर अभी शुरू कर दिया जाए तो इससे नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में भी सुविधा होगी। जिस तरह से राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारतीय भाषाओं में साहचर्य की बात करती है और मातृभाषा में शिक्षा की बात कहती है उसके लिए सभी भाषाओं के आधुनिक शब्दकोश तैयार करने होंगे और हर वर्ष उसको अद्यतन भी करना होगा। करना भी चाहिए।  

1 comment:

Mamta Kalia said...

अनंत विजय ने ये ज़रूरी सवाल उठाए हैं।कम से कम विश्वविद्यालयों को इस पर मेहनत करनी चाहिये।अनाप शनाप विषयोंपर शोध कार्य में समय नाश करने से अच्छा हो वेहिन्दी कि व्यापकता और सर्व स्वीकार्यता पर अनुसंधान व अध्ययन। करवाएं