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Saturday, February 27, 2021

कलात्मक(?) अराजकता पर अंकुश


हाल के दिनों में दो तीन ऐसी खबरें आईं जो मनोरंजन की दुनिया की दशा और दिशा दोनों बदल सकती है। एक खबर है कि अमेजन प्राइम वीडियो से जुड़ीं अपर्णा पुरोहित का पुलिस ने बयान दर्ज करवाया। ये बयान वेब सीरीज ‘तांडव’ में आपत्तिजनक कटेंट को लेकर दर्ज कराए गए केस के संबंध में लिया गया है। साढे तीन घंटे तक अपर्णा पुरोहित से लखनऊ के हरतगंज कोतवाली में पुलिस ने पूछताछ की। इससे ही जुड़ी एक और खबर आई प्रयागराज से। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपर्णा पुरोहित को अग्रिम जमानत देने से इंकार कर दिया। अपर्णा पुरोहित पर वेब सीरीज ‘तांडव’ तो लेकर नोएडा में भी केस दर्ज हुआ था, उस सिलसिले में वो हाईकोर्ट से अग्रिम जमानत चाहती थीं। पिछले कई सालों से वीडियो स्ट्रीमिंग साइट, जिसको ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म भी कहते हैं, पर दिखाई जानेवाले वेब सीरीज की सामग्री को लेकर तो कई बार वहां दिखाई जानेवाली फिल्मों को लेकर विवाद होते रहे हैं। पिछले तीन साल से इन वेब सीरीज पर दिखाए जानेवाली सामग्री में हिंसा, यौनाचार, मनोरंजन की आड़ में विचारधारा की पैरोकारी, हिंदू धर्म प्रतीकों का गलत चित्रण से लेकर अन्य कई तरह के आरोप लगते रहे हैं। जब भी इन बातों को लेकर विवाद उठते थे तो सरकार से ये मांग भी की जाती थी कि ओटीटी पर दिखाई जानेवाली सामग्री के संदर्भ में विनियमन नीति लागू की जानी चाहिए। इस स्तंभ में भी लगातार इस बारे में चर्चा जाती रही है कि इस क्षेत्र में बढ़ रही अराजकता पर अंकुश लगाने के लिए सरकार को दिशा निर्देश या कटेंट के प्रमाणन की व्यवस्था करनी चाहिए। सरकार के स्तर पर विनियमन लागू करने के लिए इस क्षेत्र में काम कर रही कंपनियों के प्रतिनिधियों के साथ कई दौर के  संवाद भी हुए थे, लेकिन किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सका था। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने ओटीटी पर दिखाई जानेवाली सामग्री को लेकर 2018 में सख्त टिप्पणी की थी, संसद में भी ये मामला कई बार उठा । इस पृष्ठभूमि में सरकार ने ओटीटी पर दिखाई जानेवाली सामग्री को लेकर अब एक दिशा निर्देश जारी कर दिया है।

केंद्र सरकार के दिशा-निर्देश में ओटीटी पर दिखाई जानेवाली सामग्री के लिए स्वनियमन की बात की गई है। स्वनियमन की बात तो की गई है लेकिन ये नियमन कैसे हो और इसका दायरा क्या हो इसको सरकार ने स्पष्ट कर दिया है। ये स्पष्ट कर दिया गया है कि कोई भी प्लेटऑर्म भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता को आघात पहुंचानेवाले दृश्य और संवाद नहीं दिखाएंगें। कलात्मक स्वतंत्रता की आड़ में कोई भी ऐसी सामग्री दिखाने की अनुमति नहीं होगी जो कानून सम्मत नहीं है। लेकिन सरकार ने दिशा निर्देश जारी करते हुए सेवा प्रदताओं को इसका तंत्र विकसित करने को कहा है। अच्छी बात ये है कि सरकार ने जो व्यवस्था बनाई है उसमें कार्यक्रमों को दिखाने के पहले किसी से अनुमति लेने की बात नहीं है यानि की प्री सेंसरशिप का रास्ता सरकार ने नहीं अपनाया। उन्होंने सबकुछ इन प्लेटफॉर्म पर छोड़ दिया है। नए नियमों के अनुसार सेवा प्रदाता कंपनियों को खुद अपनी सामग्रियों का वर्गीकरण करना होगा। बच्चों के देखने लायक सामग्री से लेकर अलग अलग उम्र की मनोरंजन सामग्रियों का वर्गीकरण कर दिया गया है। सेवा प्रदाता कंपनियों को इसका पालन करना होगा। अगर किसी को शिकायत होती है या किसी प्रकार से इन नियमों का उल्लंघन होता है तो उससे निबटने के लिए तीन स्तरीय व्यवस्था बनाई गई है। ये व्यवस्था लगभग उसी तर्ज पर है जिस तर्ज पर टेलीविजन के कार्यक्रमों का स्वनियमन होता है। 

सरकार के इस स्वनियम के दिशा निर्देशों को लेकर तमाम तरह की शंकाएं जताई जा रही हैं। फिल्म इंडस्ट्री के कुछ स्वयंभू निर्देशक इस कदम की आलोचना कर रहे हैं और इसको कलात्मक स्वतंत्रता को बाधित करनेवाला कदम बता रहे हैं। दरअसल जब वो कलात्मक स्वतंत्रता की बात करते हैं तो उनको इस बात का ध्यान नहीं रहता कि ये स्वतंत्रता असीमित नहीं है। भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी की सीमाओं को भी स्पष्ट किया गया है। ऐसा भी नहीं है कि इंटरनेट मीडिया पर चलनेवाले इन मनोरंजन के माध्यमों के लिए दिशानिर्देश जारी करनेवाला भारत दुनिया का पहला देश है। कई देशों में ओटीटी के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश हैं। सिंगापुर में तो बकायदा इसके लिए एक प्राधिकरण है जिसको इंफोकॉम मीडिया डेवलपमेंट अथॉरिटी कहते है। इसकी स्थापना ब्राडकास्टिंग एक्ट के तहत की गई थी। इसमें सभी सेवा प्रदताओं को ब्राडकास्टिंग एक्ट के अंतर्गत इस प्राधिकरण से लाइसेंस लेना पड़ता है। ओटीटी, वीडियो ऑन डिमांड और विशेष सेवाओं के लिए एक विशेष कंटेंट कोड है। इसमें सामग्रियों के वर्गीकरण की स्पष्ट व्यवस्था है। सिंगापुर की इंफोकॉम मीडिया डेवलपमेंट प्राधिकरण को अधिकार है कि वो ओटीटी प्लेटऑर्म पर दिखाई जानेवाली सामग्री को अगर कानून सम्मत नहीं पाती है तो उसका प्रसारण रोक दे।इसके अलावा नियम विरुद्ध सामग्री दिखाने पर जुर्माना लगाने का भी प्रावधान है। सिर्फ सिंगापुर ही नहीं बल्कि ऑस्ट्रेलिया में भी इस तरह के प्लेटऑर्म पर नजर रखने के लिए ई सेफ्टी कमिश्नर हैं। उनका दायित्व है वो डिजीटल मीडिया पर चलनेवाली सामग्रियों पर नजर रखें। वहां तो विनियमन इस हद तक है कि ई सेफ्टी कमिश्नर अगर पाते हैं कि किसी मनोरंजन सामग्री का वर्गीकरण अनुचित है या गलत तरीके से उसको किया गया है तो वो दंड के तौर पर उसको प्रतिबंधित भी कर सकते हैं। ऑस्ट्रेलिया में भी ओटीटी पर चलनेवाली सामग्री की शिकायत मिलने पर उसके निस्तारण की एक तय प्रक्रिया है। इसके अलावा भी दुनिया के कई देशों में किसी न किसी तरह के दिशा निर्देश लागू हैं। हमारे देश में अबतक ओटीटी की सामग्री को लेकर किसी तरह का कोई नियमन नहीं था। इसका नतीजा यह था कि कई प्लेटफॉर्म पर तो बेहद अश्लील सीरीज भी परोसे जा रहे थे, बिना किसी वर्गीकरण के। कहीं किसी कोने में छोटा सा अठारह प्लस लिख दिया जाता था लेकिन किसी प्रकार की कोई रोक टोक नहीं थी। कोई भी उसको देख सकता था।

जहां तक कलात्मक स्वतंत्रता को बाधित करने की बात है उसको लेकर जो लोग प्रश्न खड़े कर रहे हैं वो यह भूल रहे हैं कि हमारे देश में फिल्मों को भी रिलीज के पहले प्रमाणन करवाना होता है। क्या इस प्रमाणन की व्यवस्था से हमारे देश में फिल्मों की कलात्मक स्वतंत्रता बाधित हुई? टीवी चैनलों को लेकर स्वनियमन लागू है क्या टीवी चैनलों पर दिखाई जानेवाली सामग्रियों में कलात्मक स्वतंत्रता बाधित दिखती है? दरअसल इस तरह के नियमनों से अराजकता पर रोक लगती है। ये कौन सी कलात्मक स्वतंत्रता है जिसमें वेब सीरीज की आड़ में राजनीति की जाती हो, भारतीय सेना की छवि को धूमिल किया जाता हो, कश्मीर में सेना के क्रियाकलापों को गलत तरीके से पेश किया जाता हो, हिंसा, गाली गलौच और यौनिकता के दृश्यों को प्रमुखता से दिखाया जाता हो। कोई भी माध्यम समाज सापेक्ष होना चाहिए, समाज से, संस्कृति से, निरपेक्ष होकर कला का विकास नहीं हो सकता है। समाज और संस्कृति को छोड़कर कोई भी कला अपने उच्च शिखर को प्राप्त नहीं कर सकती है। और इस मामले में तो सरकार ने बहुत लंबे समय तक प्रतीक्षा की कि ओटीटी प्लेटफॉर्म अपनी तरफ से कोई स्वनियमन की नीति बनाकर देंगे लेकिन जब उनके बीच सहमति नहीं बन सकी तो सरकार ने दिशा निर्देश जारी कर दिए। जो लोग इसको बाधा मान रहे हैं उनको ये पता होना चाहिए कि कला भी अनुशासन की मांग करती है। सरकार ने ओटीटी के लिए दिशा निर्देश जारी करने में थोड़ी देरी अवश्य की लेकिन अब जब ये जारी हो गा है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि ओटीटी पर हम वाक्य में गाली गलौच नहीं होगी और अश्लीलता की सीमाएं भी नहीं टूटेंगीं।  

Saturday, February 20, 2021

पूर्वज नायकों के सम्मान का सही समय


हाल ही में महाराज सुहेलदेव पर आयोजित एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इतिहास लेखन को लेकर बेहद महत्वपूर्ण बात कही। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी उस टिप्पणी में भारतीय इतिहास लेखन को लेकर भी टिप्पणी की। नरेन्द्र मोदी ने कहा कि ‘देश का इतिहास वो नहीं जो भारत को गुलाम बनाने वालों और गुलाम मानसिकता वालों ने लिखा। इतिहास वो है जो लोककथाओं के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचता है।‘ नरेन्द्र मोदी ने इस ओर भी स्पष्ट तौर पर संकेत किया भारत में हमने कई महापुरुषों को अपनी इतिहास की पुस्तकों में भुला दिया। उन्होंने कई उदाहरण भी दिए। भारतीय इतिहास लेखन के संदर्भ में देखें तो अबतक तो यही दिखाई देता है कि हमारे देश का ज्यादातर इतिहास गुलाम बनाने वालों ने या गुलाम मानसिकता वालों ने ही लिखा। मार्क्सवादियों ने जिस प्रकार से इतिहास लेखन किया उसको देखने के लिए ज्यादा मेहनत करने की आवश्यकता नहीं है। सिर्फ भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की स्थापना के उद्देश्यों की पड़ताल कर ली जाए तो दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। जब 1972 में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की स्थापना की गई थी तब इसका प्रमुख उद्देश्य था ‘वस्तुपरक और वैज्ञानिक इतिहास लेखन को बढ़ावा देना, जिससे देश की राष्ट्रीय और सांस्कृतिक विरासत की समझ बढ़े व सही मूल्यांकन भी हो सके।‘  अपने स्थापना काल से ही भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, मार्क्सवादी इतिहासकारों के कब्जे में चला गया। परिणाम यह हुआ कि भारतीय इतिहास लेखन में छल की प्रविधि का उपयोग होने लगा। यह अनायास नहीं है कि प्राचीन भारत के इतिहास से लेकर मध्यकालीन भारत और आधुनिक भारत के इतिहास में भारतीय नायकों को परिधि पर रखने की एक कोशिश दिखाई देती है। इतिहास लेखन के लिए औपनिवेशिक और मार्क्सवादी पद्धति अपनाई गई। वही पद्धति जिसने रूस के लेनिन-त्रॉतस्की शासन को लेनिन-स्तालिन शासन बना दिया। रूस के इतिहास से त्रॉतस्की को प्रयासपूर्वक ओझल कर दिया गया। इस पद्धति के अलावा ब्रिटिश इतिहासकारों के लिखे को भी आधार बनाकर लेखन किया गया। लेकिन ब्रिटिश इतिहासकार किस तरह से सोचते हैं इसका एक उदाहरण डेविड वॉशब्रुक की आधुनिक भारत के संबंध में की गई एक टिप्पणी है। इस टिप्पणी से भारत को लेकर उनकी दृष्टि और मानसिकता का संकेत मिलता है। आधुनिक भारत का इतिहास लिखते वक्त वो एक जगह टिप्पणी करते हैं कि ‘1895 और 1916 के बीच मद्रास की सड़क पर शायद ही कोई ब्रिटिश विरोधी कुत्ता भौंका हो।‘ 

अब जब हमारा देश अपनी स्वतंत्रता के पचहत्तरवें वर्ष में प्रवेश करने जा रहा है तो भारत के वस्तुनिष्ठ इतिहास का प्रश्न एक बार फिर से हमारे सबके सामने चुनौती बनकर खड़ा हो गया है। आज हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती इस बात की है कि हम अपने नायकों को याद करें, उनको पुनर्स्थापित करें और आनेवाली पीढ़ियों को उनके बारे में बताएं। आज आत्मनिर्भर भारत की बात हो रही है, उस दिशा में गंभीर काम भी हो रहे हैं। एक बार फिर से स्वदेशी बनाने और उसको अपनाने पर जोर दिया जा रहा है लेकिन क्या हम आधुनिक भारत में स्वदेशी को लेकर अपना पूरा जीवन होम करनेवाले नायकों को याद कर पा रहे हैं। अंग्रेजों को चुनौती देनेवाले चिदंबरम पिल्लई, जिनको ‘स्वदेशी पिल्लई’ कहा जाता है, को याद करते हैं?  चिंदबरम पिल्लई हमारी धरती का ऐसा साहसी सपूत है जिसने अंग्रेजों को स्वदेशी के नाम पर खुली चुनौती दी थी। तूतीकोरन में 1872 में जन्मे चिदंबरम पिल्लई की कहानी बेहद प्रेरणादायक है, लेकिन मार्क्सवादी इतिहासकारों ने उनको हाशिए पर रखा। चिदंबरम पिल्लई पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने दक्षिण में स्वदेशी का आंदोलन चलाया। उन्होंने ‘ब्रिटिश इंडिया स्टीम नेविगेशन शिपिंग कंपनी’ के मुकाबले अपनी शिपिंग कंपनी बनाकर उनको चुनौती दी थी। उनकी कंपनी का नाम ही ‘स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी’ था और उनके जहाज पर स्वदेशी लिखा होता था। उनकी कंपनी की इतनी लोकप्रियता थी ब्रिटिश कंपनी के लोग अपनी जहाज पर यात्रा करनेवालों को कम किराए का प्रलोभन तो देते ही थे, यात्रा करने वालों को मुफ्त में छाता आदि भी देते थे। बावजूद इसके पिल्लई की कंपनी का मुनाफा इतना बढ़ा कि उन्होंने दो और जहाज आयात किए। ‘स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी’ के बढ़ते कारोबार से अंग्रेज इतना घबरा गए थे कि उन्होंने ब्रिटिश इंडिया नेविगेशन कंपनी के जहाजों पर भी ‘स्वदेशी’ लिखकर यात्रियों के बीच भ्रम की स्थिति पैदा करने की कोशिश की थी। इसी समय से दक्षिण भारत में चिदंबरम पिल्लई को लोग ‘स्वदेशी पिल्लई’ कहने लगे थे। ये समय 1905 के आसपास का था। 

अब अगर हम पिल्लई की विकास यात्रा को देखते हैं तो उसमें तमिलनाडू में चलनेवाले ‘शैव सभाओं’ का बड़ा योगदान रहा है। इन सभाओं में जब पिल्लई सक्रिय हुए थे तब उनके संपर्क का दायरा बढ़ा था और इलाके के बुद्धिजीवियों से उनका संवाद आरंभ हुआ था। इन्हीं सभाओं के सदस्यों के मार्फत उनका परिचय लोकमान्य तिलक के लेखन और कार्य ये हुआ। उन्होंने बाल गंगाधर तिलक को अपना गुरू मान लिया था। वर्षों बाद 1907 में सूरत में आयोजित कांग्रेस की वार्षिक बैठक में पिल्लै अपने गुरू बाल गंगाधर तिलक से मिले थे। 1907 का ये अधिवेशन कई मायनों में ऐतिहासिक रहा था। इस बैठक में ही कांग्रेस उदारवादी और अतिवादी समूह में विभाजित हुई थी। इस बैठक के बाद ही पिल्लई के काम को कांग्रेस ने मान्यता दी और उनको दक्षिण भारत का प्रभार सौंपा। उसके बाद उनकी सक्रियता बहुत बढ़ गई थी। इस बात के भी उल्लेख मिलते हैं कि जब 1911 में उनकी गिरफ्तारी हुई थी तब उनके एक समर्थक ने उस अंग्रेज अफसर की हत्या कर दी थी जिन्होंने इनकी गिरफ्तारी के आदेश दिए थे। इन आरोपों के मद्देनजर पिल्लई को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी लेकिन जनता के गुस्से को देखते हुए सजा को छह साल की कैद में बदल दिया गया था। अब अगर स्वदेशी और आत्मनिर्भरता को केंद्र में रखकर पिल्लई के संघर्षों का आकलन किया जाता तो वो एक राष्ट्रीय नायक के तौर पर बाद की पीढ़ियों में जाने जाते। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। उनपर 1961 में तमिल भाषा में एक फिल्म जरूर बनी लेकिन उनके लेखन को, उनके योगदान को, उनके संघर्षों को वो स्थान नहीं मिला जिसके वो अधिकारी हैं। 

स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्ष में प्रवेश को एक अवसर के तौर पर देखा जाना चाहिए और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों के काम को सामने लाने का प्रयास किया जाना चाहिए। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अलावा अन्य अकादमियों को भी इस काम में आगे आकर पहल करनी चाहिए। इन स्वतंत्रता सेनानियों के लेखन को सामने लाने के लिए साहित्य अकादमी से लेकर देश के विश्वविद्यालयों को भी पहल करनी चाहिए। उनको इतिहास और राजनीति में रुचि रखनेवाले विद्वानों और शोधार्थियों को चिन्हित करके प्राथमिकता के आधार पर ये काम सौंपा जाना चाहिए। शोधार्थियों और विद्वानों के सामने एक समय सीमा हो जिसके अंदर इस तरह के प्रोजेक्ट पूरे किए जाएं। जब पूरा राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मनाए तो इन पुस्तकों का प्रधानमंत्री के हाथों विमोचन हो और उसका खूब प्रचार प्रसार किया जाए। इन सकारात्मक प्रयासों को अलावा जो गलत इतिहास लेखन हुआ है उसको भी चिन्हित करके उसका प्रतिवाद किया जाना चाहिए। जैसे ब्रिटिश सरकार के उस ट्रांसफर ऑफ पॉवर नाम के उस दस्तावेज का प्रतिकार आवश्यक है जिसमें उन्होंने ये मान्यता दी है कि वो भारत को गुलाम बनाने नहीं आए थे बल्कि सभ्य बनाने आए थे। वो भारत का विभाजन नहीं चाहते थे आदि आदि। ये तभी संभव है जब सरकार के स्तर पर इन कार्यों के लिए संसाधन उपलब्ध करवाया जाए और इसको पूरा करने की इच्छाशक्ति हो। 

Monday, February 15, 2021

राजा हरिश्चंद्र नहीं कृष्ण थे पहली पसंद


महाराष्ट्र के नासिक जिले के त्रयंबकेश्वर के एक पुजारी परिवार में 30 अप्रैल 1870 को एक लड़के का जन्म हुआ। उसके पिता अपने बेटे को संस्कृत पढ़ाकर पंडित बनाना चाहते थे। इस बालक का नाम था धुंडीराज गोविंद फाल्के था। जब उसके पिता की मुंबई (तब बांबे) में नौकरी लगी तो वो अपने पिता के साथ नासिक से वहां आ गया। सरकारी नौकरी मिल गई। स्वतंत्रता आंदोलन के प्रभाव में नौकरी छोड़ दी और फोटोग्राफी करने लगा। उसकी रुचि को देखकर कुछ मित्रों ने उसको फोटोग्राफी सीखने के लिए जर्मनी भेज दिया। वहां से 1909 में वापस लौटा तो बीमारी की वजह से भले ही आंखों की रोशनी चली गई लेकिन सपने आकार लेने लगे थे। सालभर के इलाज के बाद जब आंखों की रोशनी लौटी तो वो एक फिल्म देखने गए जिसका नाम था ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ । इस फिल्म को देख तो रहे थे लेकिन उनके दिमाग में राम और कृष्ण की कथा चल रही थी। अगले दिन वो अपनी पत्नी के साथ इसी फिल्म को देखने पहुंचे। पत्नी ने उनको कृष्ण के चरित्र पर फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया। पत्नी ने अपने गहने गिरवी रखे और उससे मिले पैसे को लेकर फाल्के लंदन गए। वहां से सिनेमैटोग्राफी सीखकर वापस लौटे। 

अब अपने सपने को साकार करने का समय था। पहले कृष्ण और फिर राम पर फिल्म बनाने की कोशिश की लेकिन संसाधन के अभाव में इसको छोड़ कर राजा हरिश्चंद्र की कहानी पर काम शुरू कर दिया। महिला कलाकार मिलने में मुश्किल हो रही थी। विज्ञापन के बावजूद कोई महिला अभिनय के लिए तैयार नहीं हो रही थी। निराशा बढ़ती जा रही थी। पास की दुकान में चाय पीने गए। वहां चायवाले लड़के, सालुंके, पर उनकी नजर पड़ी को आंखें चमक उठी। उस लड़के को तारामती के रोल के लिए तैयार कर लिया। इस तरह भारतीय फिल्म में एक पुरुष ने पहली अभिनेत्री का रोल किया। ‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म बन गई। 3 मई 1913 को बांबे के कोरोनेशन हॉल में उसका प्रदर्शन हुआ। फिल्म लगातार बारह दिन चली। 1914 में लंदन में प्रदर्शित हुई। इनकी दूसरी फिल्म ‘भस्मासुर मोहिनी’ में नाटकों में काम करनेवाली कमलाबाई गोखले ने अभिनय किया। कमला बाई को फिल्म में अभिनय के लिए उस वक्त फाल्के साहब ने आठ तोला सोना, दो हजार रुपए और चार साड़ियां दी थीं। इसके बाद इन्होंने ‘कृष्ण जन्म’ बनाई। कहते हैं कि इस फिल्म ने इतनी कमाई की कि टिकटों की बिक्री से जमा होनेवाले सिक्कों को बोरियों में भरकर ले जाना पड़ता था। सफलता के बाद इनको फाइनेंसर मिल गया और उन्होंने हिंदुस्तान फिल्म कंपनी बनाई। लेकिन पार्टनर ने निभी नहीं तो सब कामकाज छोड़कर बनारस जाकर नाट्य लेखन में जुट गए। फिर नासिक लौटे और ‘सेतुबंध’ नाम की फिल्म बनाई। इस बात का उल्लेख मिलता है कि फाल्के साहब ने अपने जीवन काल में करीब नौ सौ लघु फिल्में और बीस फीचर फिल्में बनाईं। 16 फरवरी 1944 को नासिक में भारतीय फिल्मों के जनक दादा साहब फाल्के का देहावसान हो गया। 

Sunday, February 14, 2021

इश्क बागी न हुए, ख्वाब मुकम्मल न हुए

हिंदी फिल्मों में रोमांटिक जोड़ियों की एक लंबी फेहरिश्त है लेकिन उतनी ही लंबी फेहरिश्त रीयल लाइफ रोमांटिक जोड़ियों की भी रही है। उन्नीस सौ पचास के बाद के वर्षों में अगर देखें तो कई ऐसी रोमांटिक जोड़ियां रहीं है जिनके इश्क के किस्से अबतक बॉलीवुड में सुनाई देते हैं। मोतीलाल और शोभना समर्थ के बीच इश्क इतना गाढ़ा था कि एक बार मोतीलाल बीमार पड़े और उनको ऑक्सीजन लगाना पड़ा। शोभना समर्थ उनको देखने अस्पताल पहुंची तो उन्होंने नर्स को इशारा किया कि मास्क हटा दिया जाए। मास्क हटाते ही उन्होंने कहा कि जब शोभना समर्थ उनके आसपास होती हैं तो उनकी सांसें सामान्य रहती हैं। इसी तरह अशोक कुमार और नलिनी जयवंत के बीच प्यार इतना गाढा था कि अशोक कुमार उनको देखेने के लिए बेचैन रहा करते थे। हिंदी फिल्म जगत में ये किस्सा बहुत प्रसिद्ध है कि अशोक कुमार ने अपने घर की छत पर दूरबीन लगा रखी थी जिसके कि वो पड़ोस में रहनेवाली नलिनी को ठीक तरीके से देख सकें। राज कपूर और नर्गिस, देव आनंद और सुरैया के प्रेम के किस्से भी आम हैं। दिलीप कुमार और मधुबाला के बीच अफेयर की भी अलग ही दास्तां है। दिलीप कुमार पहले तो कामिनी कौशल के इश्क में डूबे लेकिन जब उनका प्यार परवान नहीं चढ़ सका तो दिलीप कुमार का दिल मधुबाला पर आ गया। प्यार का रंग गाढा होता चला गया। इनका प्यार अपने अंजाम तक पहुंच पाता इसके पहले मधुबाला के पिता इन दोनों के मोहब्बत के बीच आ गए। 

उस जमाने में नायिकाओं के मुंबई (तब बांबे) से बाहर जाने को लेकर उनके माता-पिता बहुत झंझट किया करते थे। खासतौर पर जब उनको अपनी बेटियों के इश्क के बारे में पता होता था। टी जे एस जॉर्ज ने अपनी किताब द ‘लाइफ एंड टाइम्स ऑफ नर्गिस’ में लिखा है कि राज कपूर फिल्म बरसात की शूटिंग कश्मीर में करना चाहते थे लेकिन नर्गिस की मां जद्दनबाई इस बात पर अड़ गईं थीं कि उनकी बेटी राज कपूर के साथ कश्मीर नहीं जाएंगी। आखिरकार फिल्म के उन दृष्यों को महाबालेश्वर में शूट करना पड़ा था। इसी तरह जब बी आर चोपड़ा अपनी फिल्म ‘नया दौर’ की शूटिंग भोपाल में करना चाहते थे लेकिन मधुबाला के पिता अताउल्लाह खान किसी भी कीमत पर अपनी बेटी को दिलीप कुमार के साथ भोपाल नहीं जाने देने पर अड़े हुए थे। दिलीप कुमार ने मधुबाला से फैसला लेने को कहा लेकिन मधुबाला अपने पिता से बगावत नहीं कर सकी। यहीं से दिलीप कुमार और मधुबाला का इश्क दरक गया। इसके पहले भी कामिनी कौशल ने अपने परिवार की मर्जी बताकर दिलीप कुमार के साथ प्यार को अंजाम तक पहुंचाने से मना कर दिया था। एक बार फिर अपने और अपनी मोहब्बत के बीच परिवार के आने से दिलीप कुमार बेहद खफा थे। अताउल्लाह खान के मधुबाला के भोपाल जाने से मना करने पर बी आर चोपड़ा ने मधुबाला पर केस कर दिया। मधुबाला की बहन मधुर भूषण ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘नया दौर’ फिल्म से संबंधित कोर्ट केस के दौरान दिलीप कुमार ने बी आर चोपड़ा का साथ दिया था। अदालत में मधुबाला के खिलाफ गवाही दी थी। दिलीप कुमार ने तो कोर्ट में यहां तक कह दिया कि वो मधुबाला से बेहद प्यार करते हैं और अपनी महबूबा के मरने तक उससे प्यार करते रहेंगे। मधुबाला के पिता ने भी अपनी बेटी को इस बात के लिए ताना मारा था कि उसका प्रेमी उसके मरने की कामना कर रहा था। इस केस को बाद में बी आर चोपड़ा ने वापस ले लिया था लेकिन मधुबाला कोर्ट में हुए अपमान को भूल नहीं पाई। वो अंदर से टूट गई थीं। ये अनायास नहीं था कि मधुबाला ने अपनी एक सहेली से कहा था कि उससे शादी मत करना जिससे तुम प्यार करती हो बल्कि उस व्यक्ति से शादी करना जो तुम्हें प्यार करता है। आठ साल की उम्र में फिल्मी दुनिया में कदम, बीस साल में तमाम शोहरत और सत्ताइस साल में फिल्मी दुनिया को अलविदा कहनेवाली मधुबाला को छोटी उम्र मिली लेकिन जीवन भर तो प्यार के लिए तरसती ही रहीं। 

Saturday, February 13, 2021

लोकतंत्र में अपीलजीवियों का पाखंड


यह अनायास नहीं होता है कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर अचानक से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ कोलाहल आरंभ हो जाता है। यह भी अनायास नहीं होता है कि हमारे देश के कुछ वैसे कलाकार और लेखक आदि जो अपनी प्रासंगिकता तलाश रहे होते हैं, वो इस कोलाहल में शामिल हो जाते हैं। यह भी अनायस नहीं होता कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर एक नियमित अंतराल पर कुछ जाने पहचाने लोग बयान जारी करते हैं। यह भी अनायास नहीं होता कि इस तरह के अपीलजीवी लेखक,कलाकार एकजुट होते दिखते हैं। यही सब लोग आपको दादरी कांड के दौरान भी नजर आएंगे, पुरस्कार वापसी के दौरान भी नजर आएंगे, नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में भी नजर आएंगे, कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान भी दिखेंगे। दरअसल ये सब एक सोची समझी रणनीति के तहत होता है, जिनमें बार-बार वही चेहरे होते हैं तो इन दिनों अपने अपने क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति और प्रासंगिकता के लिए संघर्षरत हैं। खुद को प्रगतिशील कहते हैं। इनको साथ मिलता है कुछ अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का भी जो भारत को इन्हीं की नजरों से देखते और समझते हैं। ये ताकतें भारतीय कानूनों की उसी व्याख्या को स्वीकार करते हैं जो लेखकों-कलाकारों का ये समूह उनके समक्ष प्रस्तुत करता है। इनको कई बार भारत विरोधी ताकतों का भी प्रत्यक्ष तो कई बार परोक्ष समर्थन मिलता है। कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान भी ये ताकतें दिख रहीं हैं, अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी। 

अब इनको मौका मिला है स्टैंडअप कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी की गिरफ्तारी को लेकर। फारुकी को हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम जमानत दी है। फारूकी को अंतरिम जमानत मिलने के बाद भारत के कई अज्ञात कुलशील लेखकों-अभिनेत्रियों और विदेशों में रह रहे लेखकों कलाकारों के एक समूह ने अपील जारी की है कि मुनव्वर के खिलाफ आरोप वापस लिए जाएं। ये इन अपीलजीवियों का लोकतांत्रिक अधिकार हो सकता है, है भी। इस अपील को जारी करनेवाले संगठनों का नाम देखेंगे तो इनकी मंशा और राजनीति दोनों स्पष्ट हो जाती है। इन संगठनों के नाम हैं पीईएन अमेरिका, प्रोग्रेसिव इंडिया कलेक्टिव, रिक्लेमिंग इंडिया आदि। इनमें से पीईएन को छोड़कर कोई ऐसी संस्था नहीं है जिसके बारे में या जिनके काम के बारे में बहुत कुछ पता हो। ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसी संस्थाएं अपील करने के लिए ही बनाई जाती हैं ताकि इन अपीलजीवियों की दुकानें चलती रहें। अपीलजीवियों ने जो बयान जारी किया है उसका शीर्षक है, हास्य अपराध नहीं है (कॉमेडी इज नॉट अ क्राइम)। इसको समझने के लिए किसी शब्दकोश की या किसी टीका की आवश्यकता नहीं है। भारत में हास्य-व्यंग्य की बहुत लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। जब से ये स्टैंड अप कॉमेडियन नाम की जमात आई है जिसने हास्य के नाम पर फूहड़ता,अश्लील टिप्पणियां या फिर देवी-देवताओँ के बारे में भद्दी टिप्पणियां शुरू कर दी हैं तब से इनकी आलोचना आरंभ हुई है।

हास्य लोगों को प्रसन्न करने के लिए होता है किसी को अपमानित करने के लिए नहीं। व्यंग्य तो व्यवस्था पर चोट करती है किसी व्यक्ति या समूह की धार्मिक आस्था पर नहीं। लेकिन जब हास्य की आड़ में एजेंडा चलाया जाए, जब हास्य की आड़ में विचारधारा विशेष का पोषण होने लगे, जब हास्य की आड़ में धार्मिक आस्थाओं पर चोट होने लगे तो स्वाभाविक है कि समाज में उद्वेलन होगा। जब उद्वेलन होगा तो विरोध भी होगा, जब विरोध होगा तो कानून के दखल की अपेक्षा भी होगी। कानून जब दखल देगी तो उसके लिए संविधान सर्वोपरि होगा। और संविधान अभिव्यक्ति की आजादी के बारे में क्या कहता है, उसको देखने की जरूरत पड़ेगी। इस स्तंभ में इस बात को कई बार कहा जा चुका है कि भारत में अभिव्यक्ति की आजादी असीमित नहीं है। जो अनुच्छेद हमें अभिव्यक्ति की आजादी देता है वहीं पर इस बात की भी व्याख्या है कि अभिव्यक्ति की आजादी की सीमाएं क्या हैं। इसलिए इन स्टैंडअप कॉमेडियन को भी और इनके लिए झंडा-बैनर लेकर खड़े होनेवाले अपीलजीवियों को भी भारत के संविधान का ज्ञान होना आवश्यक है। 

अब जरा नजर डालते हैं अपीलजीवी संस्थाओं पर। पीईएन इंटरनेशनल और उससे संबद्ध संस्थाएं भारत के बारे में वर्षों से अनर्गल प्रचार करते रहे हैं। दो हजार चौदह में जब नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में केंद्र में सरकार बनी थी तो उसके करीब साल डेढ़ साल बाद ही पीईएन इंटरनेशनल ने एक रिपोर्ट जारी की थी। उस रिपोर्ट का नाम था ‘इंपोजिंग साइलेंस, द यूज ऑफ इंडियाज लॉ टू सप्रेस फ्री स्पीच’। इस रिपोर्ट को पीईएन कनाडा, पीईएन भारत और युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो की लॉ फैकल्टी ने संयुक्त रूप से जारी किया था। उस रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लेकर स्थिति अच्छी नहीं है। जो शोध पत्र प्रस्तुत किया गया था उसमें दावा किया गया था ‘भारत में इन दिनों असहमत होनेवालों को खामोश कर देना बहुत आसान है। भारत में धर्म पर लिखना मुश्किल होता जा रहा है।‘  इस अध्ययन ने अपने निष्कर्ष का आधार बनाया था आमिर खान अभिनीत फिल्म ‘पी के’ को लेकर उठे विवाद को और अमेरिकी लेखिका वेंडि डोनिगर की पुस्तक को लेकर उठे विवाद पर। उस अध्ययन में भी दोनों ही उदाहरण अनुचित तरीके से पेश किए गए थे। उस वक्त भी भारत के लिबरल अपीलजीवियों ने पीईएन इंटरनेशनल की उस रिपोर्ट को लेकर माहौल बनाने की असफल कोशिश की थी। पीईएन इंटरनेशनल का दावा है कि वो कवियों, लेखकों, उपन्यासकारों की वैश्विक संस्था है और वो पूरी दुनिया में अभिव्यक्ति और कलात्मक आजादी के लिए काम करती है। परंतु पिछले करीब छह सात साल से तो ये संस्था भारत में राजनीति के औजार की तरह इस्तेमाल हो रही है।

संस्थाओं से अलग हटकर अरुंधति राय जैसों के वक्तव्यों का विश्लेषण करें तो ये साफ दिखता है कि इनको अभिव्यक्ति की आजादी पर संकट तब दिखता है जब इनकी विचारधारा के लोगों का विरोध होता है। अरुंधति राय का तो विदेशी मंचों पर भारत विरोधी बातें कहने का लंबा इतिहास रहा है। अपनी भारत विरोधी बातों को प्रामाणिकता देने के लिए तो वो पाकिस्तान तक की तारीफ कर चुकी हैं। ये सब एक इंटरनेश्नल सिंडिकेट का हिस्सा है। ये लोग तो भारत की छवि को बिगाड़ने के उपक्रम में ही जुटे रहते हैं और ऐसा करने का कोई भी मौका नहीं चूकते। मुनव्वर फारुकी के मामले में उनको एक बार फिर से अवसर नजर आया और वो राग विरोध गाने लगे। लेकिन कहते हैं न कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। इन सबको ये बात समझ लेनी चाहिए कि भारत का लोकतंत्र अब परिवक्व हो गया है, भारत की जनता भी अब बेहद समझदार हो गई है और इन भारत विरोधी बयानों की असलियत समझ चुकी है। अब इनसे ना तो भारत की जनता विचलित होती है और ना ही इनसे उनको बरगलाया जा सकता है। परोक्ष रूप से राजनीति करनेवाले इन लेखकों-कलाकारों को इस देश की जनता ने उनकी सही जगह बता दी है। लगातार दो लोकसभा चुनाव में इस भारत विरोधी विचार को जनता ने ना केवल खारिज किया बल्कि इसके पोषकों को भी नकार दिया। इस नकार को भी वामपंथ के अनुयायी या उनके पोषक समझ नहीं पा रहे हैं और अब भी उन्ही पुराने औजारों से भारत की जनता को भरमाने की कोशिश कर रहे हैं। प्रसिद्ध रूसी लेखक सोल्झेनित्सिन ने लिखा था- कम्युनिस्ट विचारधारा एक ऐसा पाखंड है, जिससे सब परिचित हैं। लेकिन नाटक के उपकरणों की तरह इसका उपयोग भाषण के मंचों पर होता है। अपीलजीवियों को ये समझना चाहिए कि विचारधारा का पाखंड अब नहीं चलनेवाला है। 

Saturday, February 6, 2021

रचनात्मकता सूखी तो विवाद का सहारा

हिंदी के एक कहानीकार हैं। नाम है उदय प्रकाश। उनकी लंबी कहानी ‘मोहनदास’ को साहित्य अकादमी ने उपन्यास मानते हुए पुरस्कृत किया था। उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी पुरस्कार देनेवाली जूरी में अशोक वाजपेयी भी थे। ये वही अशोक वाजपेयी हैं जिनको कभी उदय प्रकाश ने ‘भारत भवन का अल्सेशियंस’ कहा था। ये वही उदय प्रकाश हैं जिनको योगी आदित्यनाथ ने पहला ‘नरेन्द्र स्मृति सम्मान’ दिया था। जब उनको ये पुरस्कार मिला था तब हिंदी के कई लेखकों ने बयान जारी कर उनकी निंदा की थी। इनमें ‘पहल’ पत्रिका के संपादक ज्ञानरंजन के अतिरिक्त विद्यासागर नौटियाल, विष्णु खरे, भगवत रावत, मैनेजर पांडे, राजेन्द्र कुमार, इब्बर रब्बी, मदन कश्यप और देवी प्रसाद मिश्र जैसे वामपंथी लेखक शामिल थे। उस वक्त खूब विवाद हुआ था। इसके बाद उदय प्रकाश ने 2015 में पुरस्कार वापसी का शिगूफा छेड़ा था। ये अलग बात है कि अभी तक वो अपनी पुस्तकों पर अपने परिचय में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक लिखते हैं। पुरस्कार वापसी का शिगूफा छोड़नेवाले उदय प्रकाश पहले लेखक थे लेकिन बाद में अशोक वाजपेयी और मंगलेश डबराल जैसे लेखकों ने इसको लपक लिया था और वो पुरस्कार वापसी अभियान के अगुआ माने गए थे। उदय प्रकाश इस बात को लेकर अपने वामपंथी साथियों से झुब्ध हुए थे कि पुरस्कार वापसी का पर्याप्त श्रेय उनको नहीं मिल पाया। 

उदय प्रकाश ने लंबे समय से छिटपुट लघु कथाएं और कविताओं को छोड़कर कुछ लिखा नहीं। लेकिन चर्चा में बने रहने की कला में माहिर हैं। कभी रेत माफिया से जान का खतरा तो कभी हिंदी लेखक प्रभात रंजन के साथ इंटरनेट मीडिया पर अनावश्यक विवाद खड़ा करके वो चर्चा में बने रहते हैं। उदय प्रकाश के बारे में इतना लिखने का औचित्य ये है कि वो एक बार फिर से विवादों में हैं। दरअसल पिछले दिनों उदय प्रकाश ने अयोध्या में बन रहे राम मंदिर के लिए चंदा दिया और उसकी रसीद अपने फेसबुक अकाउंट पर पोस्ट कर दी। इस टिप्पणी के साथ कि ‘आज की दान दक्षिणा’। इसके नीचे कोष्ठक में लिखा ‘अपने विचार अपनी जगह पर सलामत’। उनकी इस पोस्ट के बाद वामपंथी खेमे से विरोध के स्वर उठने लिखे। कई लोगों ने उदय प्रकाश का नाम लेकर तो कइयों ने बगैर नाम लिए उनपर पाला बदलने का आरोप लगाया। उदय प्रकाश के इस कदम को लेकर हिंदी साहित्य के कई लेखक अबतक उबल रहे हैं। कुछ ने तो सारी हदें पार करते हुए राम मंदिर तक पर मर्यादाहीन टिप्पणी कर डाली। इसके बाद राम मंदिर के पक्षधरों ने भी मोर्चा खोल दिया। परिणाम ये हुआ कि उदय प्रकाश एक बार फिर से चर्चा के केंद्र में आ गए।  

उदय प्रकाश हिंदी के एक ऐसे लेखक हैं जिन्होंने किसी जमाने में कुछ अच्छी कहानियां और कविताएं लिखी थीं। बाद में जब रचनात्मकता का सिरा उनके हाथ से छूटा तो वो साहित्येतर क्रियाकलापों से खुद को प्रासंगिक बनाने की जुगत में लग गए। कुछ सालों पहले इस बात की चर्चा हुई थी उदय प्रकाश अपना पहला उपन्यास लिखने जा रहे हैं। खुद लेखक ने भी इस आशय की बातें की थीं। उस वक्त कवि केदारनाथ सिंह जीवित थे, उन्होंने भी अपने एक साक्षात्कार में ये बात बताई थी कि उदय प्रकाश ‘चीना बाबा’ के नाम से एक उपन्यास लिख रहे हैं। साहित्यिक हलकों में तो इस बात की भी चर्चा थी कि उदय प्रकाश ने एक विदेशी प्रकाशन गृह से इसके प्रकाशन के लिए अनुबंध कर लिया है और उनको अग्रिम धनराशि भी मिल गई है। लेकिन सालों बीत जाने के बाद भी अबतक हिंदी साहित्य जगत ‘चीना बाबा’ का इंतजार कर रहा है। इस बीच ‘चीना बाबा’ को लेकर कई तरह की बातें हिंदी प्रकाशन की दुनिया में होती रहीं। कभी किसी प्रकाशन से तो कभी किसी प्रकाशन से उसके प्रकाशित होने की चर्चा होती रही। इस बीच करीब दो साल पहले उनका एक कविता संग्रह ‘अंबर में अबाबील’ प्रकाशित हुआ था। इस कविता संग्रह को ना तो पाठकों ने पसंद किया और ना ही आलोचकों ने। हिंदी साहित्य जगत में तो इसकी चर्चा ही नहीं हुई। पिछले दो साल से ही उनके नए कहानी संग्रह के प्रकाशन की चर्चा सुनाई दे रही है लेकिन वो भी अबतक प्रतीक्षित है। इन सालों में तात्कालिक घटनाओं पर उन्होंने जो खबरनुमा लघु कथाएं लिखी हैं वो भी अबतक इतनी नहीं हो पाई हैं कि जिसको एक संग्रह का रूप दिया जा सके।     

रचनात्मकता के स्तर पर चुक जाने के बाद उदय प्रकाश ने अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करने के लिए या खुद को चर्चा में बनाए रखने के लिए राम के शरण में जाना तय किया। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए उन्होंने चंदा दिया। राम मंदिर को चंदा देने को वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है। राम को किसी वाद विशेष के अनुयायियों के आराध्य के तौर पर देखनेवालों से इस तरह की गलतियां हो जाती हैं। राम के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करनेवालों से भी अक्सर इस तरह की भूल हो जाती हैं। राम भारतीय संस्कृति में इस तरह से रचे-बसे हैं कि उनके सामने कोई भी वाद अर्थहीन हो जाता है। राम के व्यक्तित्व का जो वैराट्य है वो धर्म,जाति, विचारधारा,तर्क आदि की परिधि से परे है। राम मंदिर निर्माण को किसी संकीर्ण दृष्टि से देखना या उसपर विवाद खड़ा करना अनुचित है। राम मंदिर पर उठने वाले तमाम विवादों को देश की सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले से विराम दे दिया था। उसके बाद ही अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण आरंभ हुआ है। मंदिर का निर्माण पूरे देश की जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप हो रहा है। ऐसे में एक वामपंथी लेखक का प्रभु श्रीराम के अयोध्या में निर्मित हो रहे मंदिर के लिए योगदान करना कोई ऐसी बात नहीं है जिसको लेकर विवाद खड़ा किया जाए। वो उनकी आस्था है। यहां यह याद दिलाना उचित होगा कि अपने जीवन के अंतिम दिनों में नामवर सिंह की ईश्वर में आस्था सार्वजनिक हुई थी। लेकिन उदय प्रकाश ने जिस तरह से मंदिर के लिए दिए गए चंदे की रसीद को सार्वजनिक किया उसको लेकर प्रश्न उठाना सही है। लेकिन वामपंथी लेखक प्रश्न इस बात पर नहीं ख़ड़े कर रहे हैं, उनको आपत्ति इस बात को लेकर है कि उदय प्रकाश ने मंदिर निर्माण के लिए चंदा क्यों दिया? यह अनायास नहीं है कि उदय प्रकाश जैसे विवादाचार्य वामपंथ की इन कमजोरियों का फायदा उठाकर खुद को चर्चा में बनाए रखने का उपक्रम करते हैं। उदय प्रकाश को ये बखूबी पता रहा होगा कि राम मंदिर निर्माण के लिए चंदा देने से वामपंथी नाहक विवाद खड़ा करेंगे। हुआ भी वैसा ही। 

दरअसल भारत के वामपंथी बुद्धिजीवी अबतक ना तो भारत को समझ पाए हैं और ना ही भारतीय मानस को। अगर भारतीय मानस को समझ जाते तो प्रभु श्रीराम के मंदिर निर्माण को लेकर इस तरह की अमर्यादित टिप्पणियां नहीं करते। समझ तो वो भारतीय संस्कृति को भी नहीं पाए, अगर समझ पाते तो राम मंदिर को किसी खास विचारधारा या खास राजनीतिक दल से जोड़कर देखने की गलती नहीं करते। वो बहुधा इस तरह की गलतियां करते रहे हैं और इसी गलत सोच के चलते उनके सारे कदम भारतीय संस्कृति के खिलाफ ही उठते रहे हैं। इन्हीं गलत आकलन के चलते वामपंथ भारत में लगभग अप्रसांगिक हो चुका है। सांस्कृतिक तौर पर भी और राजनीतिक तौर पर भी। आज जब एक बार फिर से पूरा विश्व भारत की ज्ञान परंपरा को, भारतीय संस्कृति को, भारतीय चिकित्सा पद्धति को एक नई उम्मीद के साथ देख रहा है वहीं भारतीय वामपंथी बुद्धिजीवी अब भी विदेशी विचारधारा के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं।