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Monday, February 15, 2021

राजा हरिश्चंद्र नहीं कृष्ण थे पहली पसंद


महाराष्ट्र के नासिक जिले के त्रयंबकेश्वर के एक पुजारी परिवार में 30 अप्रैल 1870 को एक लड़के का जन्म हुआ। उसके पिता अपने बेटे को संस्कृत पढ़ाकर पंडित बनाना चाहते थे। इस बालक का नाम था धुंडीराज गोविंद फाल्के था। जब उसके पिता की मुंबई (तब बांबे) में नौकरी लगी तो वो अपने पिता के साथ नासिक से वहां आ गया। सरकारी नौकरी मिल गई। स्वतंत्रता आंदोलन के प्रभाव में नौकरी छोड़ दी और फोटोग्राफी करने लगा। उसकी रुचि को देखकर कुछ मित्रों ने उसको फोटोग्राफी सीखने के लिए जर्मनी भेज दिया। वहां से 1909 में वापस लौटा तो बीमारी की वजह से भले ही आंखों की रोशनी चली गई लेकिन सपने आकार लेने लगे थे। सालभर के इलाज के बाद जब आंखों की रोशनी लौटी तो वो एक फिल्म देखने गए जिसका नाम था ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ । इस फिल्म को देख तो रहे थे लेकिन उनके दिमाग में राम और कृष्ण की कथा चल रही थी। अगले दिन वो अपनी पत्नी के साथ इसी फिल्म को देखने पहुंचे। पत्नी ने उनको कृष्ण के चरित्र पर फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया। पत्नी ने अपने गहने गिरवी रखे और उससे मिले पैसे को लेकर फाल्के लंदन गए। वहां से सिनेमैटोग्राफी सीखकर वापस लौटे। 

अब अपने सपने को साकार करने का समय था। पहले कृष्ण और फिर राम पर फिल्म बनाने की कोशिश की लेकिन संसाधन के अभाव में इसको छोड़ कर राजा हरिश्चंद्र की कहानी पर काम शुरू कर दिया। महिला कलाकार मिलने में मुश्किल हो रही थी। विज्ञापन के बावजूद कोई महिला अभिनय के लिए तैयार नहीं हो रही थी। निराशा बढ़ती जा रही थी। पास की दुकान में चाय पीने गए। वहां चायवाले लड़के, सालुंके, पर उनकी नजर पड़ी को आंखें चमक उठी। उस लड़के को तारामती के रोल के लिए तैयार कर लिया। इस तरह भारतीय फिल्म में एक पुरुष ने पहली अभिनेत्री का रोल किया। ‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म बन गई। 3 मई 1913 को बांबे के कोरोनेशन हॉल में उसका प्रदर्शन हुआ। फिल्म लगातार बारह दिन चली। 1914 में लंदन में प्रदर्शित हुई। इनकी दूसरी फिल्म ‘भस्मासुर मोहिनी’ में नाटकों में काम करनेवाली कमलाबाई गोखले ने अभिनय किया। कमला बाई को फिल्म में अभिनय के लिए उस वक्त फाल्के साहब ने आठ तोला सोना, दो हजार रुपए और चार साड़ियां दी थीं। इसके बाद इन्होंने ‘कृष्ण जन्म’ बनाई। कहते हैं कि इस फिल्म ने इतनी कमाई की कि टिकटों की बिक्री से जमा होनेवाले सिक्कों को बोरियों में भरकर ले जाना पड़ता था। सफलता के बाद इनको फाइनेंसर मिल गया और उन्होंने हिंदुस्तान फिल्म कंपनी बनाई। लेकिन पार्टनर ने निभी नहीं तो सब कामकाज छोड़कर बनारस जाकर नाट्य लेखन में जुट गए। फिर नासिक लौटे और ‘सेतुबंध’ नाम की फिल्म बनाई। इस बात का उल्लेख मिलता है कि फाल्के साहब ने अपने जीवन काल में करीब नौ सौ लघु फिल्में और बीस फीचर फिल्में बनाईं। 16 फरवरी 1944 को नासिक में भारतीय फिल्मों के जनक दादा साहब फाल्के का देहावसान हो गया। 

4 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18.02.2021 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
धन्यवाद

Amrita Tanmay said...

सुन्दर प्रस्तुति ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बढ़िया जानकारी मिली ।

शिवम कुमार पाण्डेय said...

वाह, बहुत सुंदर।