कुछ दिनों पहले बिहार पुलिस ने अश्लील भोजपुरी गाने की रचना करने और उसको प्रचारित प्रसारित करने के आरोप में गायक अजीत बिहारी के खिलाफ केस दर्ज करके उनको गिरफ्तार किया। इसके पहले बिहार सरकार ने गानों के माध्यम से अश्लीलता फैलाने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का आदेश दिया था। दरअसल इंटरनेट मीडिया के फैलाव के बाद कला के नाम पर अराजकता बहुत अधिक बढ़ गई है। ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म पर चलनेवाले वेब सीरीज को लेकर भी इस तरह की बातें सामने आ रही थीं। काफी दिनों तक चले विमर्श और हाल के दिनों में मचे बवाल के बाद सरकार ने वेब सीरीज या ओटीटी प्लेटफॉर्म पर चलनेवाले कार्यक्रमों को लेकर दिशा निर्देश जारी किए थे। इन दिशा निर्देशों को सर्वोच्च न्यायालय ने नख-दंत विहीन बताया था और उसको और अधिक प्रभावी बनाने की अपेक्षा की थी। इस पर कार्य चल रहा है। अब जब बिहार सरकार ने इंटरनेट मीडिया पर अश्लील सामग्री को लेकर कार्रवाई की है तो इस बात पर बहस होनी चाहिए कि कला के नाम पर इंटरनेट पर चल रहे विभिन्न प्लेटफॉर्म पर किस हद तक छूट मिलनी चाहिए। सिनेमा और गानों के नाम पर इन माध्यमों पर अश्लीलता परोसने को लेकर सरकार को नए सिरे से दिशा निर्देश जारी करने की भी जरूरत है। विचार इस बात पर भी किया जाना चाहिए कि वीडियो प्लेटफॉर्म्स पर लोड किए जानेवाले वीडियो में इसके निर्माता किस हद तक जा सकते हैं। असीमित आजादी बहुधा अराजकता को जन्म देती है।
विचार भोजपुरी फिल्मों और गानों से जुड़े लोगों को भी करना चाहिए कि आज भोजपुरी सिनेमा किस राह पर चल रही है। भोजपुरी सिनेमा का एक समृद्ध इतिहास रहा है। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने एक जलसे के दौरान भोजपुरी में फिल्म निर्माण की बात की थी। नकी प्रेरणा से ही भोजपुरी में पहली फिल्म बनी थी जिसका नाम था गंगा ‘मैया तोहे पियरी चढ़ैबो’। इस फिल्म में भोजपुरी की संस्कृति जीवंत हो उठी थी। इस फिल्म का निर्माण नाजिर हुसैन ने विश्वनाथ शाहाबादी के साथ मिलकर किया था। ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैबो’ में लोक संस्कृति के विविध आयाम दिखाई देते हैं।कालांतर में भोजपुरी सिनेमा अश्लीलता का पर्याय बन कर रह गई। भोजपुरी फिल्मों में लोक संस्कृति को इतना विकृत कर दिया गया कि कई बार गैर-भोजपुरी लोग ये सवाल पूछने लगे कि भोजपुरी की संस्कृति में इस तरह की बातें होती हैं क्या? लोक संस्कृति के नाम पर भद्दे और द्विअर्थी संवाद लिखे जाने लगे, गानों में भी इसी तरह की प्रविधि अपनाई गई। संबंधों की गरिमा को भी भोजपुरी फिल्मों में तार-तार कर दिया गया। भाभी और देवर का संबंध इतना पवित्र होता है कि लोक में भाभी को मां समान दर्जा प्राप्त है। भाभी और देवर के बीच मजाक या हंसी-ठट्ठा के प्रसंग लोकगाथाओं में मिलते हैं लेकिन उसको अश्लीलता की छौंक लगाकर बदनाम कर दिया गया। आज भी बिहार की लोक संस्कृति में गाली का रिवाज है। विवाह के अवसर पर ‘गारी’ गाई जाती है, लेकिन जब ‘गारी’ यानि गालियों से भरे गीत गाए जाते हैं तो उससे अश्लीलता का एहसास नहीं होता। जब इन्हीं गालियों को सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए और मुनाफा कमाने के लिए अश्लील दृश्यों के साथ पेश किया जाता है तो लोक संस्कृति विकृत रूप में सामने आती है।
अंग्रेजी में एक जुमला बार बार कहा जाता है कि कंटेंट (सामग्री) और उसको पेश करने के इंटेंट (मंशा) को साथ मिलाकर ही किसी कला का मूल्यांकन किया जाता है। जब ऐसा होता है तभी किसी कला की वैसी तस्वीर उभर कर सामने आती है जो समग्र मूल्यांकन का आधार बनती है। यहां इंटेंट मुनाफा कमाना है, कला तो कहीं आती ही नहीं है। लोक में व्याप्त रीति-रिवाजों को विकृत करके मुनाफा कमाना कितना उचित है, इसपर बहुत गंभीरता से विचार करना चाहिए। देशभर में लोक कला और संस्कृति के लिए काम करनेवाली कई संस्थाएं और संगठन हैं। इनके कर्ताधर्ताओं को इस बात को लेकर उद्वेलित होना चाहिए कि भोजपुरी जैसी महान संस्कृति को भ्रष्ट करने का ये उपक्रम क्यों चल रहा है। कलात्मक आजादी की वकालत करनेवालों ने कला के नाम पर अश्लीलता और फूहड़ता को बढावा देनेवाले इस तरह के गानों और फिल्मों पर कभी चिंता प्रकट की हो, ज्ञात नहीं हो सका।
फिल्मों के अलावा जब इंटरनेट का विस्तार हुआ और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म पर चलनेवाले चैनलों को हिट्स के हिसाब के पैसे मिलने लगे तो इस अश्लीलता और फूहड़ता को पंख लग गए। यौनिकता को फिल्मी आवरण या अश्लीलता को परंपरा का बाना पहनाकर बेचना आसान हो गया था। चूंकि इस माध्यम पर किसी तरह का कोई प्रतिबंध या नियम नहीं है लिहाजा ये प्रवृत्ति और बढ़ती चली गई। एक जमाना था जब लता मंगेशकर और रफी जैसे समर्थ गायक भोजपुरी के गाने गाते थे और शैलेन्द्र और मजरूह जैसे गीतकार भोजपुरी के गाने लिखा करते थे।1965 में एक फिल्म आई थी जिसका नाम था ‘भौजी’ । इसका एक गीत मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा था जिसके बोल थे, ‘ए चंदा मामा आरे आबा पारे आबा नदिया किनारे आबा’ जिसको स्वर दिया था लता मंगेशकर ने। ये गाना बेहद खूबसूरती के साथ फिल्माया गया है। लता मंगेशकर ने संगीत निर्देशक चंद्रगुप्त के साथ कई बेहतरीन भोजपुरी गाने गाए हैं।
हर देश की हर समाज की अपनी मान्यताएं और परंपराएं होती हैं, पहली जिम्मेदारी तो लोगों की होती है कि वो अपनी परंपराओं और विरासत को बचाकर रखें लेकिन अगर ये नहीं हो पाता है तो सरकार की भूमिका शुरू होती है। कानून बनाने की जरूरत तभी होती है जबकि अपराध बढ़ने लगता है। इस माध्यम पर कला के नाम पर फैल रही अश्लीलता को रोकने के लिए फिल्मों और मनोरंजन उद्योग से जुड़े लोगों को भी आगे आना होगा। अश्लीलता बेचकर मुनाफा कमाने की प्रवृत्तिवाले लोगों की पहचान करके उनको रोकने के लिए उनपर दबाव भी बनाना होगा। अन्यथा फिल्म और गीत संगीत के नाम पर जारी ये खेल लोक संस्कृति को इतना नुकसान पहुंचा देगा कि इसकी भारपाई संभव नहीं हो पाएगी।
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