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Tuesday, March 30, 2021

समकालीन लेखन के केंद्र में पौराणिक चरित्र


पिछले दिनों दो पुस्तकें एक साथ आईं जिसने बरसबस अपनी ओर ध्यान खींचा। एक पुस्तक है लेखिका कोरल दास गुप्ता की ‘अहिल्या’ और दूसरी है ‘उर्मिला: सीता की बहन की गाथा’ जिसे कविता काणे ने लिखा है। इन दो पुस्तकों के अलावा भी कई ऐसी पुस्तकें आई हैं जो भारतीय पौराणिक चरित्रों को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं। दरअसल पिछले कई सालों में अंग्रेजी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में पौराणिक चरित्रों पर ढेरों पुस्तकें लिखी गई हैं। हिंदी में भी लेखकों ने इन चरित्रों को विषय बनाना शुरू कर दिया है। समकालीन साहित्यिक परिदृष्य के विश्लेषण से पौराणिक लेखन की ये प्रवृत्ति साफ तौर पर रेखांकित की जा सकती है, ये एक नया ट्रेंड है। आज से अगर तीन दशक पहले के हिंदी के साहित्यिक परिदृश्य को याद करें तो नरेन्द्र कोहली और मनु शर्मा जैसे लेखक ही थे जो पौराणिक कथाओ और चरित्रों को अपने लेखन का विषय बनाते थे। हिंदी में नरेन्द्र कोहली के अलावा कन्नड़, मलयालम और तमिल में पौराणिक पात्रों पर विपुल और उच्च स्तरीय लेखन हुआ है। इक्कीसवीं सदी के आरंभ में साहित्य सृजन के आकाश पर अमीश त्रिपाठी का उदय होता है। उन्होंने शिवत्रयी की पहली किताब ‘द इममॉर्टल्स ऑफ मेलुहा’ लिखा। अंग्रेजी में लिखी इस औपन्यासिक कृति की सफलता ने अमीश को चर्चित लेखक के तौर पर स्थापित कर दिया। 

इन दिनों ये भी लक्षित किया जा सकता है कि भारतीय भाषाओं में पौराणिक पात्रों को लेकर स्वतंत्र पुस्तकों का लेखन और प्रकाशन हो रहा है। भारतीय पौराणिक ग्रंथों में वर्णित पात्रों पर स्वतंत्र रूप से किताबें लिखी जा रही हैं। ना केवल पात्रों बल्कि घटनाओं और स्थानों को केंद्र में रखकर भी लेखन हो रहा है। इन पुस्तकों को पाठक भी मिल रहे हैं। पाठकों की रुचि को ध्यान में रखते हुए प्रकाशकों ने भी पौराणिक कथाओं और स्थितियों पर पुस्तकें लिखवाने का कार्य आरंभ कर दिया, निवेश भी किया। इससे उत्साहित होकर कई नए लेखक भी पौराणिक चरित्रों में कथालेखन का सूत्र ढूंढने लगे। डॉ विनीत अग्रवाल ने ‘परशुराम’ और ‘विश्वामित्र’ जैसे पौराणिक पात्रों को केंद्र में रखकर स्वतंत्र पुस्तकें लिखी। इस तरह की लगभग सारी पुस्तकें पौने दो सौ से लेकर तीन सौ पृष्ठों की होती है। पौराणिक चरित्रों को लेकर जितना भी लेखन हो रहा है उनमें से ज्यादातर के मूल में हमारे दो पौराणिक ग्रंथ हैं- रामायण और महाभारत। रामायण में तो पात्रों की संख्या अपेक्षाकृत कम हैं, लेकिन महाभारत में ढेर सारे पात्र हैं जिनपर अलग पुस्तक लिखी जा रही है। शिखंडी, शकुनि, अश्वत्थामा से लेकर द्रौपदी और दुर्योधन तक पर औपन्यासिक कृति सामने आ रही है। आशुतोष नाड़कर ने ‘शकुनि’ पर किताब लिखी। इस किताब में उन्होंने शकुनि के चरित्रों के विभिन्न आयामों पर लिखा है। प्रेरणा लिमड़ी ने अश्वत्थामा पर एक मुक्कमल किताब लिख दी ‘श्रापित यात्री की अंतहीन यात्रा अश्वत्थामा’। ये पुस्तक पहले गुजराती में प्रकाशित होकर चर्चित हो चुकी थी। बाद में इसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ। अश्वत्थामा के चरित्र के साथ कई किवदंतियां भी जुड़ी हैं। इस किताब में उसको भी लेखिका ने छुआ है। कुछ ऐसी पुस्तकें भी आ रही हैं जो ये दावा करती हैं कि वो काल्पनिक हैं लेकिन अपने शीर्षक और अपनी कथावस्तु,कथाभाषा और कालखंड से पाठकों को ये एहसास दिलाती है कि वो कोई पौराणिक कथा है। जैसे विवेक कुमार ने पिछले दिनों एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था ‘अर्थला’। इसको संग्राम सिंधु गाथा के तौर पर पाठकों के सामने पेश किया। लेखक ने लिखा कि ‘यह कथा किसी पुराण में नहीं मिलेगी। यह मेरी कथा है। मैं आपको कोई लोकप्रचलित इतिहास नहीं बताने जा रहा । मैं आपको अपनी कल्पना के धरातल पर खड़ा करना चाहता हूं। वह कल्पना जो मुझे प्रेरित करती है, उत्तेजित करती है, नई सुगंध देती है और इस संसार को देखने का एक विस्तृत, सुंदर और निष्पक्ष दृष्टिकोण सौंपती है।‘ लेखक भले ही कहानी के काल्पनिक होने का दावा करे लेकिन इसको जम्बूद्वीप की सबसे बड़ी रणगाथा बताया गया। देवासुर संग्राम भी कहा गया। कहना ना होगा कि बाजार पौराणिक कथाओं में रुचि ले रहा है लिहाजा लेखक भी उसकी ओर उन्मुख हो रहे हैं। और अब तो वेदों और पुराणों तक में वर्णित पात्रों को लेकर लिखने की भी शुरुआत हो चुकी है। वेद में वर्णित स्त्री पात्रों मैत्रेयी, गार्गी और अपाला पर स्वतंत्र पुस्तकों के आने की चर्चा है। ना सिर्फ वीर और दैवीय चरित्रों पर पुस्तकें आ रही हैं बल्कि असुरों पर भी किताबें लिखी जा रही हॆं। आनंद नीलकंठन ने तो अपने लेखन से एक नया जॉनर ही विकसित कर लिया। वो तो असुर श्रृंखला के अंतर्गत पुस्तकें लिख रहे हैं जिसको आलोचक एक वैकल्पिक साहित्यिक विमर्श के तौर पर भी देख रहे हैं। 

सवाल यह उठता है कि हाल के दिनों में वो क्या वजहें रहीं जिससे इस तरह के लेखन को बढ़ावा भी मिला और पसंद भी किया जाने लगा। अगर हम इसपर गंभीरता से विचार करें तो देश का जो माहौल होता है और जिसकी व्यापक चर्चा होती है लोग उसके बारे में जानना चाहते हैं। उनके अंदर उन बातों को जानने की उत्सुकता पैदा होती है। एक दौर वो भी था जब देश में वामपंथी-समाजवादी सोच का डंका बजा करता था। उस सोच के अंतर्गत इस तरह की चर्चा होती थी जिसमे देसी से अधिक विदेशी लेखकों विद्वानों विचारकों और स्थितियों रिस्थितियों के बारे में विमर्श होता था। विदेशी ज्ञान परंपरा पर अधिक बातें होती थीं।  तब लोग वैश्विक चरित्रों के बारे में ज्यादा जानना चाहते थे इस वजह से उन दिनों उस तरह का लेखन होता था। फिर देश ने सोवियत रूस की सस्ती और अनुदित किताबों को पढ़ना शुरू किया। ये पुस्तकें एक खास मकसद से खास विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए बेहद सस्ते दामों पर उपलब्ध करवाई जा रही थी। यह अकारण नहीं है कि भारतीय विश्वविद्यालयों में जब प्रेमचंद पढ़ाया जाता है तो मैक्सिम गोर्की भी साथ याद किए जाते हैं खास तौर पर अपनी पुस्तक मां को लेकर। इस दौर में भारतीय पौराणिक पात्रों और चरित्रों को मिथक कहकर इस अवधारणा को स्थापित करने की कोशिशें भी हुईं। 

समय बदला देश की राजनीति ने करवट ली । पिछले दो दशक से भारतीय ज्ञान परंपरा के बारे में बातें शुरू हो गईं। अपने पौराणिक ग्रंथों के बारे में विचार और शोध होने लगे। भारतीय प्राच्य विद्या को लेकर एक उत्सुकता का माहौल बना। भारतीय राजनीति में जब वामपंथी विचार को वैकल्पिक विचार से चुनौती मिली तो कई राजनेताओं की तुलना पौराणिक चरित्रों से होने लगीं। इन सबका सामूहिक असर ये हुआ कि लोगों के मन में इन सबके बारे में जानने की इच्छा उत्पन्न हुई। लोग खोजने लगे कि अमुक चरित्र कौन था और उसका नाम अमुक नेता से क्यों जोड़ा जा रहा है। जानने की इस कोशिश का एहसास जब भारतीय लेखकों को और प्रकाशकों को हुआ तो पुस्तकों का प्रकाशन शुरू हो गया। आज ना केवल इन चरित्रों को लेकर काल्पनिक कथाएं सामने आ रही हैं बल्कि इनमे से कई चरित्रों को लेकर शोध भी किए जाने लगे हैं। विश्वविद्यालयों में जहां एक दौर में रामायण और महाभारत के चरित्रों को मिथक करार देकर उनको हाशिए पर डाला गया था उन्हीं विश्वविद्यालयों में अब इन चरित्रों को लेकर गोष्ठियां और सेमिनार हो रहे हैं। यह हिंदी साहित्य जगत के लिए या यों कहें कि भारतीय सृजनात्मकता के लिए बेहतर स्थिति है। लेकिन जरूरत इस बात की भी है कि पौराणिक चरित्रों के बारे में गंभीरता से शोध हो, हमारे प्राचीन ग्रंथों को पाठ्यक्रमों में शामिल करके आनेवाली पीढ़ी को अपनी समृद्ध विरासत से परिचित करवाया जाए। 

2 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01-04-2021 को चर्चा – 4,023 में दिया गया है।
आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क

रेणु said...

अनंत जी, बहुत अच्छा लगा लेख पढ़कर। यूँ तो घोर यथार्थवादी लोग पौराणिकता को प्रमाणिक ही नहीं मानते और जब तब तलवार भांजे बैठे रहते हैं। अच्छा काम लगा लिखने वाले भी हैं और आप जैसे सुधी जन भी हैं जो उत्तम पाठक भी हैं और समीक्षक भी। बहुत बहुत आभार सार्थक आलेख के लिए🙏🙏