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Saturday, June 26, 2021

कहानियों के बदलते तेवर और कलेवर


एक कार्यक्रम के दौरान अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने हिंदी फिल्मों और वेब सीरीज को लेकर बेहद महत्वपूर्ण बात कही जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए। उनका मानना है कि ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म्स की वजह से फिल्मों का लोकतांत्रीकरण हुआ है। प्रियंका चोपड़ा के अलावा अमेजन प्राइम से जुड़ीं अपर्णा पुरोहित ने भी ओटीटी को लेकर एक अहम बात कही। उनके अनुसार ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए कहानियों के चयन में उसकी प्रमाणिकता के साथ-साथ कहानी में स्थानीयता पर भी जोर रहता है। गाहे बगाहे ओटीटी पर रिलीज होनेवाली फिल्मों और वेब सीरीज की कहानियों और उसके स्वरूप पर बात होती रही है। पिछले दिनों इस चर्चा ने जोर पकड़ लिया है। प्रियंका चोपड़ा जब फिल्मों के लोकतांत्रिकरण की बात करती हैं तो उसके कई आयाम सामने आ जाते हैं। कहांनी के स्तर पर अगर हम देखें तो बॉलीवुड में उस तरह की कहानियों को निर्माता मिलने लगे हैं जिनको पहले कोई हाथ भी नहीं लगाता था। पहले फिल्मों में एक नायक होता था, एक नायिका होती थी, चार पांच बेहद दिलकश गाने होते थे, कुछ फाइट सीन होते थे और फिर फिल्म का सुखांत हो जाता था। उसके भी पीछे जाएं तो हिंदी फिल्मों में धार्मिक कहानियों को प्राथमिकता मिलती थी और उन कहानियों को दर्शक भी खूब मिलते थे। बाद में पश्चिमी देशों में बनने वाली फिल्मों के प्रभाव में हिंदी फिल्मों में हिंसा और मारपीट का जोर बढ़ा। एक्शन मूवी का विशेषण ही आरंभ हो गया था। इसी दौर में हिंदी फिल्मों ने स्टारडम भी देखा, सुपरस्टार से लेकर मेगास्टार तक हुए, जिनकी उपस्थिति फिल्म के हिट होने की गारंटी मानी जाती थी। निर्माता उनको मुंहमांगी रकम देने को तौयार रहते थे। बीच में कुछ निर्माताओं ने यथार्थवादी फिल्में भी बनाई और उसको एक विचारधारा विशेष से जोड़कर समांतर सिनेमा से लेकर कला फिल्मों तक का नाम दिया। उनमें यथार्थ तो होता था पर फिल्में लोकप्रिय नहीं होती थी। इन कथित यथार्थवादी फिल्मों के बनाने वाले अपनी फिल्मों की लोकप्रियता को लेकर अधिक चिंता भी नहीं करते थे वो तो विचार को आगे बढ़ाने की फिराक में रहते थे। ये अलग से शोध का विषय है कि कला फिल्मों के निर्माता नुकसान कैसे झेलते थे, क्या उस समय सरकार फिल्म बनाने के लिए पैसे देती थी, जिसके बल पर उनको दर्शकों की फिक्र नहीं होती थी। खैर ये अवांतर प्रसंग है जिसपर कभी और चर्चा होगी। 

प्रियंका चोपड़ा जब फिल्मों के लोकतांत्रीकरण की बात करती हैं तो मुझे लगता है कि वो बहुत हद तक सही कह रही हैं और फिल्मी दुनिया के ट्रेंड की ओर इशारा कर रही हैं। ओटीटी पर जो सीरीज आ रहे हैं उनमें कहानी प्रमुख हो गई है। ये आवश्यक नहीं है कि सीरीज को हिट कराने के लिए बड़े स्टार की मौजूदगी आवश्यक हो। अभी पिछले दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म ऑल्ट बालाजी पर एक वेबसीरीज आई थी जिसका नाम था ‘बिच्छू का खेल’। बिच्छू का खेल अमित खान के उपन्यास पर आधारित है जिसकी कहानी बनारस की है। इस वेब सीरीज के डॉयलॉग लिखे हैं युवा लेखक क्षितिज राय ने। क्षितिज राय के संवादों ने सीरीज में बनारस और बनारसीपने को जीवंत कर दिया है। ‘वक्त अच्छा हो तो कुत्ता भी कोक पीता है’ जैसे कई संवाद इसमें हैं। बनारस की बोली से लिए गए शब्दों का भी क्षितिज ने संवाद में ठीक-ठाक उपयोग कर लिया है। इस सीरीज के हीरो हैं दिव्येन्दु शर्मा। ना कोई बड़ा नाम, न कोई सुपर स्टार का तमगा लेकिन अपनी अदायगी के बल पर पूरी वेब सीरीज में दर्शकों को बांधने में कामयाब रहते हैं। एक और वेब सीरीज आई ‘काठमांडू कनेक्शन’। कहानी और उसके किरदार लखनऊ, मुंबई, दिल्ली से लेकर काठमांडू तक में घूमते हैं। न्यूज चैनल भी इसमें आता है, इस वेब सीरीज के लेखक सिद्धार्थ मिश्रा न्यूज चैनलों से जुड़ी कई घटनाओं को भी बेहद खूबसूरती के साथ कहानी में पिरो देते हैं। ये छोटी घटनाएँ होती हैं लेकिन होती दिलचस्प है। कहानी 1993 के मुंबई धमाकों की जांच से आरंभ होती है लेकिन फिर परत दर परत खुलती है और उसके कई आयाम दर्शकों के सामने आते हैं। इसमें अमित सियाल, गोपाल दत्त जैसे कलाकार हैं पर इसको देखते हुए कभी भी ये नहीं लगता है कि आप अमित सियाल को देख रहे हैं या गोपाल दत्त को देख रहे हैं। कहानी के पात्रों की रचना इतनी मजबूती से की जाती है कि दर्शक नायक को भूलकर पात्र के नाम के साथ जुड़ जाता है। इसमें डीसीपी समर्थ कौशिक या सनी को ही लोग याद रखते हैं। इस लिहाज से देखें तो प्रियंका चोपड़ा ठीक कह रही है कि फिल्मों का लोकतांत्रिकरण हुआ है। बल्कि यहां तक कहा जा सकता है कि फिल्मों में जो वर्ण व्यवस्था थी उसको ओटीटी प्लेटफॉर्म ने तोड़ा है। वर्ण व्यवस्था यानि ये ए लिस्टर हैं, ये बी लिस्टर हैं आदि आदि। यहां अब कोई सुपर स्टार नहीं है, कहानी ही स्टार है। यहां कोई ऐसा स्टार नहीं है कि उसकी उपस्थिति मात्र सफलता की गारंटी है। यहां तो कहानियों के किरदार हैं जिसको दर्शक पसंद करते हैं या नापसंद करते हैं । सैफ अली खान ने भी कुछ वेब सीरीज में काम किया लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि उसको देखने के लिए ओटीटी प्लेटफॉर्म पर दर्शकों की बड़ी संख्या पहुंची और ‘बिच्छू का खेल’ या ‘काठमांडू कनेक्शन’ को देखने के लिए कम। थोडा बहुत का अंतर हो सकता है। लेकिन जितना ‘घोउल’ को देखा होगा उससे कम लोगों ने ‘बिच्छू का खेल’ नहीं देखा होगा, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। इस मसले पर प्रियंका चोपड़ा का ही उदाहरण दिया जा सकता है। प्रियंका चोपड़ा बेहद सफल अभिनेत्री हैं। हिंदी फिल्मों की सबसे महंगी नायिका के तौर पर उनका नाम लिया जाता था, वॉलीवुड में भी काम रही हैं। पिछले दिनों उनकी फिल्म ‘व्हाइट टाइगर’ ओटीटी पर रिलीज हुई । ये फिल्म अरविंद अडिगा के अंग्रेजी उपन्यास पर आधारित थी। लेकिन इसको अपेक्षित सफलता नहीं मिली। 

दरअसल अब अगर हम विचार करें तो ये पाते हैं कि मनोरंजन की दुनिया पूरी तरह से बदलती जा रही है। उसकी कहानियां बदल गई हैं। उसको कहने का अंदाज भी बदल गया है। अब ज्यादा यथार्थवादी कहानियों पर फिल्म या वेब सीरीज बन रही हैं। इस तरह की कहानियों से दर्शक खुद का जुड़ाव महसूस करते हैं, उनको लगता है कि वो इन कहानियों से किसी न किसी तरह से जुड़े हुए हैं। जब यथार्थ के नाम पर जब कहानी को अनावश्यक विस्तार दिया जाता है तो दर्शक फौरन उससे दूर चले जाते हैं। कुछ दिनों पहले एक वेब सीरीज आई थी ‘स्कैम 1992’। ये शेयर दलाल हर्षद मेहता और उसके मार्फत 1992 के शेयर बाजार घोटाले की कहानी कहती है। वेब सीरीज देवाशीष बसु और सुचेता दलाल की अंग्रेजी में लिखी पुस्तक ‘द स्कैम, हू वन, हू लास्ट, हू गाट अवे’ पर आधारित है। इसके संवाद कई लोगों ने मिलकर लिखे हैं लेकिन दस एपिसोड में कहानी कहने के चक्कर में सीरीज बोझिल और उबाऊ हो गया है। कहना न होगा कि यथार्थवादी कहानियों या सत्य घटनाओं पर वेब सीरीज या फिल्म बनाते वक्त फिल्म निर्माण की बुनियादी बातों का तो ध्यान रखना ही होगा। ओटीटी ने न सिर्फ फिल्मों या वेब सीरीज का लोकतांत्रिकरण किया है बल्कि उसने दर्शकों को भी पहले से ज्यादा मुखर बना दिया है। अब वो अपनी पसंद और नापसंद खुलकर व्यक्त करने लगे हैं। उनके पास इंटरनेट मीडिया जैसे प्लेटफॉर्म भी हैं जो उनको ज्यादा लोकतांत्रिक तरीके से मुखरित होने का मंच और अवसर दोनों देते हैं। सिनेमा का ये बदलता स्वरूप दर्शकों को भा भी रहा है।

Saturday, June 19, 2021

भारतीय विचार और दृष्टिकोण की जरूरत


दिनांक 15 जून 2021, समय शाम छह बजकर 12 मिनट। केंद्रीय संस्कृति मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल ने एक ट्वीट किया, ‘आज साहित्य अकादमी के कामकाज की विस्तृत समीक्षा की। हाई पावर कमेटी की सिफारिशों को लागू करने पर जानकारी देने का निर्देश दिया।‘ संस्कृति मंत्री ने अपने इस ट्वीट को प्रधानमंत्री कार्यालय, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जे पी नड्डा, संस्कृति मंत्रालय, भारतीय जनता पार्टी और मध्य प्रदेश बीजेपी के अलावा कुछ अन्य ट्वीटर हैंडल को भी टैग किया। अपने इस ट्वीट के साथ मंत्री ने चार फोटो भी पोस्ट किए। इस ट्वीट से पता चला कि संस्कृति मंत्री दिल्ली के रवीन्द्र भवन स्थित साहित्य अकादमी के मुख्यालय पहुंचे थे। वहां उन्होंने साहित्य अकादमी के कामकाज की समीक्षा की। इस ट्वीट में उन्होंने हाई पावर कमेटी की बात करके पुरानी याद ताजा कर दी। हाई पावर कमेटी का गठन संस्कृति मंत्रालय ने अपने कार्यालय पत्रांक संख्या 8/69/2013/अकादमी दिनांक 15 जनवरी 2014 को किया था। इस कमेटी का गठन संसद की संस्कृति मंत्रालय की स्थायी समिति के प्रतिवेदन संख्या 201 के आधार पर करने की बात की गई थी। इसके चेयरमैन पूर्व संस्कृति सचिव अभिजीत सेनगुप्ता थे। उनके अलावा इसमें सात अन्य सदस्य थे, रतन थिएम, नामवर सिंह, ओ पी जैन, सुषमा यादव, संजीव भार्गव और संस्कृति मंत्रालय के तत्कालीन अतिरिक्त सचिव के के मित्तल। इस कमेटी का मुख्य काम संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, सांस्कृतिक स्त्रोत और प्रशिक्षण केंद्र की कार्यप्रणाली की समीक्षा और उसको बेहतर करने के लिए अपने सुझाव प्रस्तुत करना था। इस कमेटी ने एक सौ तीस पन्नों की एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।

अब मंत्री जी ने ‘हाई पावर कमेटी की सिफारिशों को लागू करने पर जानकारी देने का निर्देश’ दिया है। यह अच्छी बात है, पर हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि इस कमेटी के सदस्यों में से कितने लोग वामपंथ की विचारधारा की जकड़न में थे और सांस्कृतिक संस्थाओं को देखने का उनका दृष्टिकोण क्या था? नामवर सिंह और रतन थिएम की विचारधारा के बारे में तो सबको ज्ञात है ही। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में ही स्वीकार किया है कि सरकार ने उसको तीन महीने में अपने सुझाव देने को कहा था लेकिन तीन सप्ताह के कार्य विस्तार के साथ ये रिपोर्ट पांच मई 2014 को तैयार कर दी गई। पांच मई 2014 को ही इस कमेटी के चेयरमैन का हस्ताक्षर इस रिपोर्ट पर है। इस वजह से माना जा सकता है कि इसके एक-दो दिन बाद ये रिपोर्ट सरकार को सौंप दी गई होगी। पांच मई 2014 वो तिथि है जब देश में लोकसभा चुनाव चल रहे थे और पांच चरणों का मतदान संपन्न हो चुका था। चुनाव के बीच और नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के पहले संस्कृति मंत्रालय को ये रिपोर्ट सौंप दी गई। प्रश्न ये उठता है कि इतने महत्वपूर्ण रिपोर्ट को तैयार करने और सौंपने में इतनी हड़बड़ी क्यों दिखाई गई। जिस दिन ये रिपोर्ट फाइनल हुई उस दिन इसके एक सदस्य रतन थिएम अनुपस्थित थे और उन्होंने इंफाल से पत्र लिखकर इसकी संस्तुतियों पर अपनी सहमति जताई। इतनी जल्दबाजी क्यों? 

इस रिपोर्ट को लेकर प्रश्न यह भी उठता है कि क्या सिर्फ तीन या चार महीने में इतने महत्वपूर्ण संस्थाओं के क्रियाकलापों का आकलन और सुझाव देना संभव है? कमेटी खुद ये बात स्वीकार करती है कि संस्कृति मंत्रालय को बगैर प्रशासनिक दायित्वों को और कमेटी के तौर तरीकों को तय किए हाई पावर कमेटी नहीं बनानी चाहिए थी। इस हाई पावर कमेटी के पहले 1988 में हक्सर कमेटी बनी थी जिसने 1990 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। हक्सर कमेटी ने पूरे देशभर का दौरा किया था और संबंधित लोगों से बातचीत करके दो साल में अपनी रिपोर्ट तैयार की थी। उसके पहले भी संस्कृति मंत्रालय ने अकादमियों के कामकाज के आकलन के लिए खोसला कमेटी बनाई थी। इस कमेटी का गठन भी 19 फरवरी 1970 को हुआ था और उसने अपनी रिपोर्ट 31 जुलाई 1972 को सौंपी थी। संस्थाओं का आकलन करना, उसके संविधान का अध्ययन करना, उसकी परंपराओं को देखना समझना और फिर सुझाव देना बेहद श्रमसाध्य कार्य है, जिसके लिए समय तो चाहिए था। एक और बात को रेखांकित करना आवश्यक है जो कि इस कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में ही कही है। वो ये कि ये ‘हाई पावर कमेटी संस्कृति मंत्रालय के आदेश से बना दी गई इसके लिए सरकार की तरफ से कोई प्रस्ताव पास नहीं किया गया था, जैसे कि पूर्व में परंपरा रही थी। ऐसा प्रतीत होता है कि संस्कृति मंत्रालय को अपने कार्यालय आदेश पर बनाई गई हाई पावर कमेटी और सरकार के प्रस्ताव पर बनी कमेटी का अंतर मालूम नहीं था।‘

इस हाई पावर कमेटी को सुझावों को सात साल बीत चुके हैं। नरेन्द्र मोदी को दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री का पद संभाले दो साल बीत चुके हैं। संस्कृति मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल भी दो साल से संस्कृति मंत्री का दायित्व संभाल रहे हैं। 15 जून को संस्कृति मंत्री जिस रवीन्द्र भवन स्थित साहित्य अकादमी गए थे और वहां के काम काज का जायजा लिया था। अच्छा होता कि मंत्री जी उसी भवन में स्थित संगीत नाटक अकादमी और ललित कला अकादमी भी गए होते तो उनको इस बात का एहसास होता कि उनके मंत्रालय से संबद्ध संस्थाएं कैसे काम कर रही हैं। संगीत नाटक अकादमी और ललित कला अकादमी में चेयरमैन नहीं है। ललित कला अकादमी को लेकर तो कई मुकदमे भी अदालत में चल रहे हैं। बेहतर तो ये भी होता कि मंत्री जी सड़क पार करके राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय भी हो आते जहां इन दिनों करीब तीन साल बाद निदेशक की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर सरगर्मी है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक के चयन के लिए इस महीने की 24 और 25 तारीख को साक्षात्कार तय किए गए हैं। निदेशक के चयन के लिए बनाई गई समिति को लेकर भी विवाद शुरू हो गया है, क्योंकि इसमें तीन सदस्य महाराष्ट्र से जुड़े हैं। सतीश आलेकर और विजय केंकड़े के अलावा दर्शन जरीवाला का कार्यक्षेत्र भी महाराष्ट्र ही है। आरोप स्वाभाविक हैं कि किसी अखिल भारतीय संस्था के निदेशक की खोज करने के लिए सिर्फ एक प्रदेश से जुड़े लोगों का पैनल क्यों बनाया गया है। विविधता की अपेक्षा रखना गलत नहीं है और ऐसा होता तो आरोप भी नहीं लगते। 

मंत्री जी जिस हाई पावर कमेटी की बात कर रहे हैं उसने संस्कृति मंत्रालय को लेकर भी कुछ सुझाव दिए हैं। इसमें से दो सुझाव बेहद अहम हैं जिसपर तत्काल अमल करने से बेहतर परिणाम मिल सकते हैं। पहला सुझाव है कि संस्कृति मंत्रालय के सभी कर्मचारियों को सांस्कृतिक स्त्रोत और प्रशिक्षण केंद्र, दिल्ली में एक सप्ताह का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए जिससे कि वो देश के सांस्कृतिक परिवेश को समझ सकें। इस प्रशिक्षण कार्यक्रम में सांस्कृतिक प्रशासन की बुनियादी ट्रेनिंग भी हो। दूसरा सुझाव है कि संस्कृति मंत्रालय में एक आनेवाले नए अधिकारियों और कर्मचारियों को मंत्रालय से संबंधित एक नोट दिया जाना चाहिए जिसमें भारतीय सांस्कृतिक सिद्धातों और कला संबंधित जानकारी हो। ये सुझाव महत्वपूर्ण इसलिए है कि संस्कृति मंत्रालय में कभी रेलवे सेवा के तो कभी डाक सेवा के तो कभी राजस्व सेवा के अफसरों की नियुक्ति हो जाती है। ये गलत नहीं है लेकिन उन अफसरों को संस्कृति से जुड़ी बारीकियों से परिचित कराने का उपक्रम तो होना ही चाहिए। अगर अफसर सांस्कृतिक प्रशासन की बारीकियों को या कला की महत्ता से परिचित नहीं होंगे तो इसको भी अन्य प्रशासनिक मसलों की तरह देखेंगे जिससे अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाएंगे। सात साल पुरानी हाई पावर कमेटी की जगह बेहतर हो कि एक नई कमेटी बने जो बहुत सोच समझकर, बगैर किसी हड़बड़ी के, समग्रता में अपनी रिपोर्ट दे और फिर उसकी प्रगति रिपोर्ट के बारे में बात हो और उसकी दृष्टि और दृष्टिकोण दोनों भारतीय हो। 

Saturday, June 12, 2021

बचकानी गलतियों से बचें फिल्मकार


हाल में राजनीति की पृष्ठभूमि पर बनी दो वेबसीरीज, ‘महारानी’ और ‘द फैमिली मैन’ आई। ‘महारानी’ बिहार की राजनीति को केंद्र में रखती है। ये कहानी लालू यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी की कहानी से प्रेरित है। इसमें ये लिखा भी गया है कि कैसे एक अनपढ़ स्त्री एक राज्य को मुख्यमंत्री के तौर पर संभालती है। कहती भी है कि जो औरत घर संभाल सकती है कि वो राज्य भी और देश भी संभाल सकती हैं। इसमें चारा घोटाला से लेकर बिहार की राजनीति के खूनी दौर को भी रेखांकित किया गया है। रणवीर सेना और नक्सलियों के बीच खूनी खेल की कहानी भी साथ-साथ चलती है। इसके कुछ दिन पहले एक वेब सीरीज और आई थी जिसका नाम था ‘तांडव’। इस वेब सीरीज की कहानी भी राजनीति को केंद्र में रखती है। इसके कुछ दृश्यों को लेकर भारी विवाद हुआ था और मामला कोर्ट में भी पहुंचा था। इसी दौरान एक दलित महिला के जीवन के संघर्षों पर आधारित एक फिल्म आई थी ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ । इसकी कहानी एक दलित महिला के इर्द गिर्द घूमती है जो एक दिन उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनती हैं। उपरोक्त तीनों वेब सीरीज का अगर हम विश्लेषण करें तो एक बात स्पष्ट रूप से समझ में आती है कि राजनीतिक घटना को या राजनीतिक चरित्रों को केंद्र में रखकर फिल्म बनाना बेहद मुश्किल काम है। इसकी कहानी और संवाद लिखने से लेकर पात्रो के चयन और फिल्मांकन में बहुत सतर्कता की जरूरत होती है। लेखक और निर्देशक के लिए यह बहुत आवश्यक होता है कि उसको राजनीति की बारीकियों की समझ हो, संसदीय परंपरा का सामान्य ज्ञान हो, दलीय परंपरा और अफसरशाही की कार्यशैली के बारे में जानकारी हो। 

‘महारानी’ वेबसीरीज को देखें तो लेखक और निर्देशक दोनों एक पर एक बचकानी गलतियां करते चलते हैं। इस सीरीज में रानी भारती सरकार के खिलाफ चार-पांच महीने के अंदर ही दूसरा अविश्वास प्रस्ताव आ जाता है। ये छोटी सी बात लग सकती है लेकिन जो इस सीरीज को देख रहे होंगे उनके दिमाग में यह बात जरूर उठेगी कि हमारे देश की संसदीय व्यवस्था में किसी भी सरकार के खिलाफ दो अविश्वास प्रस्ताव के बीच का अंतराल छह महीने से कम नहीं हो सकता है। इसमें ही निर्देशक ये दिखाता है कि राज्य का वित्त सचिव अकेले ही छानबीन करने पहुंच जाता है। जिलाधिकारी जब दस्तावेज देने में बहानेबाजी करते हैं तो वो रात में अपने एक सहयोगी के साथ उनके आफिस पहुंच जाते हैं और चौकीदार को चकमा देकर कार्यालय का ताला तोड़कर उसमें घुसते हैं। वहां उनपर गोली चलती है, वित्त सचिव बच जाते हैं, लेकिन किसी को कानोंकान खबर नहीं होती। ये सारी घटनाएं इतनी बचकानी हैं कि इसको काल्पनिक कारर देकर भी जायज नहीं ठहराया जा सकता है। ये तो लेखक की कमियों को, उसके अज्ञान को उजागर करनेवाले प्रसंग या दृश्य हैं। महारानी में ऐसे कई प्रसंग हैं। 

इसी तरह से ‘तांडव’ वेब सीरीज में एक प्रसंग है जहां एक ब्लैकमेलर बड़े आराम से नार्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक के इलाके में आता है और कूड़ेदान में कोई सामान रखकर चला जाता है। नार्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक दिल्ली का वो इलाका है जहां प्रधानमंत्री कार्यालय है, वित्त मंत्रालय, रक्षा और गृह मंत्री का दफ्तर है। ये इलाका बेहद सुरक्षित है जो चौबीस घंटे सुरक्षा बलों की निगरानी में रहता है और वहां आसानी से कोई सामान रखकर चला जाए ये आसान नहीं। इस तरह के कई प्रसंग ‘तांडव’ में हैं जो ये संकेत देते हैं कि लेखक को इन विषयों की बारीकियों की जानकारी नहीं है या उसने लापरवाही में वो सब प्रसंग लिखे या पर्याप्त शोध नहीं किया। अपेक्षाकृत ‘द फैमिली मैन’ की घटनाएं और प्रसंग यथार्थ के ज्यादा करीब प्रतीत होती हैं। इसमें लेखक ने दृश्यों को लिखने के पहले उस विषय के बारे में सूक्ष्मता से अध्ययन किया और फिर लिखा है। चाहे वो प्रधानमंत्री के साथ खुफिया एजेंसियों के प्रमुखों की बैठक का संवाद हो या फिर सुरक्षा संबंधी तैयारियों का विवरण हो। 

दरअसल जब फिल्मों या वेब सीरीज का लेखन होता है तो इसके ज्यादातर लेखकों से एक चूक होती है कि वो पहले क्लाइमैक्स सीन सोच लेते हैं और फिर वहां तक पहुंचने का रास्ता तलाशते हैं। जैसे ‘तांडव’ में ये सोच लिया गया कि हमारी व्यवस्था एकदम खराब है, राजनीति में सबकुछ साजिशों पर ही चलता है, राजनीति में आनेवाली स्त्रियां हर तरह के समझौते करती हैं आदि आदि। अब इन सबको सही ठहराने के लिए कहानी में इससे जुड़े प्रसंग ठूंसे जाते हैं। ‘महारानी’ में भी ये दिखता है कि लेखक ने पहले ही तय कर लिया कि भीमा भारती को चारा घोटाले के लिए परिस्थिति और राज्यपाल ने मजबूर किया था। फिर उसके हिसाब से कहानी गढ़ी गई जो अविश्वसनीय हो गई। दरअसल कहानी लेखन की यह प्रविधि ही दोषपूर्ण है। कहानी का प्रवाह सहज होना चाहिए या किसी राजनीतिक घटना पर फिल्म या वेबसीरीज बना रहे हैं तो उस दौर में घटी घटनाओं के क्रम को ध्यान में रखकर कहानी का विकास करना चाहिए, दृश्यों की संरचना करनी चाहिए। इन राजनीतिक वेब सीरीज या हाल की फिल्मों को देखकर ये लगता है कि हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था पूरी तरह भ्रष्ट है, लोकतांत्रिक व्यवस्था में समाज के सभी वर्गों को न्याय मिल पाए ये संभव ही नहीं है। ज्यादातर अज्ञानतावश और कुछ एजेंडा के तहत देश की व्यवस्था और संसदीय प्रणाली को भी नकार दिया जाता है। इसके पहले भी इस स्तंभ में इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि कैसे समाज के एक वर्ग के मन में देश और पुलिस व्यवस्था के खिलाफ जहर भरने का काम इन वेब सीरीज के माध्यम से किया जाता रहा है। 

दरअसल राजनीति पर फिल्म बनाना बेहद श्रमसाध्य कार्य है। रोमांटिक फिल्में बनाना, घटना प्रधान फिल्में बनाना, धार्मिक फिल्में बनाना अपेक्षाकृत आसान हैं। जब आप राजनीति पर फिल्म बनाते हैं तो आपकी कल्पनाशक्ति और यथार्थ को कहने की संवेदना की परीक्षा होती है। आपको दोनों के बीच संतुलन कायम रखना पड़ता है। इस संदर्भ में मुझे याद पड़ता है गुलजार की फिल्म ‘आंधी’ । आंधी की नायिका में इंदिरा गांधी की छवि देखी गई थी। उनकी वेशभूषा से फिल्मकार ने भी यही छवि गढ़ने की कोशिश भी की थी। इस फिल्म की नायिका मालती देवी का जो महात्वाकांक्षी चरित्र गुलजार ने गढ़ा वो यथार्थ के बहुत करीब दिखता है। वो चरित्र स्वार्थी और महात्वाकांक्षी तो है लेकिन अपने परिवार के साथ जब होती है तो उसकी संवेदना को भी फिल्मकार उभारते हैं। यह कौशल ही फिल्मकार को भीड़ से अलग करता है। इसी तरह फिल्म ‘आंधी’ में हमें संसदीय व्यवस्था के बारे में कोई गलती, बचकानी गलती नजर नहीं आती है। मालती देवी जब विपक्ष के नेता चंद्रसेन से या अपने चुनावी सलाहकार लल्लू बाबू से संवाद करती हैं तो उसमें कोई झोल नहीं है। बेहद सधा हुआ और तथ्यों से तालमेल के साथ संवाद और कहानी दोनों आगे बढ़ती है। ‘आंधी’ के अलावा पिछले दिनों प्रकाश झा ने कुछ अच्छी राजनीतिक फिल्में बनाई हैं। प्रकाश झा की फिल्मों में राजनीति या संसदीय व्यवस्थाओं की बारीकियों को लेकर कोई झोल नहीं होता है। प्रकाश झा व्यवस्था की खामियों पर चोट करते हैं लेकिन संसदीय व्यवस्था को नकारते नहीं हैं। फिल्मकारों और वेब सीरीज निर्माताओं को राजनीति या राजनीतिक घटनाओं पर फिल्म बनाते समय इसकी बारीकियों और घटनाओं का ध्यान रखना आवश्यक होता है अन्यथा उनका स्थायी महत्व नहीं बन पाता। वो बस आई गई फिल्म या वेब सीरीज की श्रेणी में बद्ध होकर रह जाते हैं।

Saturday, June 5, 2021

कलाकार को ठोस मदद की दरकार


कोरोना संक्रमण के दौरान पूरे देश में कलाकारों के सामने बड़ा संकट उत्पन्न हो गया है। ये संकट आर्थिक है लेकिन इसका असर उनके मानस पर भी पड़ने लगा है। जाहिर सी बात है कि अगर कलाकारों का मन और मानस शांत नहीं होगा तो कला का विकास अवरुद्ध हो जाएगा। कोरोना की पहली लहर के दौरान भी कलाकारों के सामने आयोजन बंद होने से जीविकोपार्जन का संकट आ गया था। उस समय भी इस बात पर चिंता प्रकट की गई थी और संबधित व्यक्तियों ने इस संकट को दूर करने के लिए विमर्श भी किया था। तब संस्कृति मंत्रालय की तरफ से ये आश्वासन दिया गया था कि क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों के माध्यम से कलाकारों की एक सूची तैयार की जाएगी और उस सूची के आधार पर उनकी मदद की जाएगी। क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों के माध्यम से किन कलाकारों की मदद की गई या कितने कलाकारों को आर्थिक मदद दी गई ये ज्ञात नहीं हो पाया है। इन केंद्रों के माध्यम से मदद हुई भी या नहीं ये भी सवालों के घेरे में है। अगर सरकार ने इन केंद्रों के माध्यम से कलाकारों की मदद की तो उस योजना का प्रचार कला जगत के लोगों के बीच इस तरह से किया जाना चाहिए कि ज्यादातर लोग उसका फायदा उठा सकें। ये इस वजह से क्योंकि सबसे अधिक परेशानी में वो कलाकार हैं जो बड़े कलाकारों के साथ संगत करते हैं और आयोजन नहीं होने से उनकी आय का स्त्रोत सूख गया है। बड़े गायकों के साथ तबले से लेकर अन्य वाद्य यंत्रों पर परफॉर्म करनेवाले कलाकारों के सामने आर्थिक समस्या विकराल है क्योंकि उनकी नियमित आय बंद हो गई है। नाटक में भी यही स्थिति है। बड़ा कालाकर तो अपनी आय से जीवन चला रहा है लेकिन जो तकनीशियन हैं, जो लाइटमैन हैं, जो साउंड के कर्मचारी हैं या इसी तरह से नेपथ्य में रहकर काम कर रहे हैं वो परेशान हैं। अनुमान ये है कि नाटक से जुड़े वैसे कलाकार जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं उनकी संख्या दो फीसदी है जबकि बाकी अट्ठानवे फीसदी लोग नाटकों के मंचन से होनेवाली नियमित आय पर निर्भर रहते हैं। सरकार प्रोडक्शन और रिपर्टरी ग्रांट तो दे रही है लेकिन नेशनल प्रजेंस वाली संस्थाएं अभी तक मदद की आस में हैं।

अभी कुछ दिनों पहले संस्कार भारती ने कलाकारों की मदद के उपायों पर विचार के एक गोष्ठी का आयोजन किया था, जिसमें देशभर के कला और संस्कृति से जुड़े लोगों ने भाग लिया था। उस बैठक का स्वर भी यही था कि कलाकारों को अपेक्षित मदद नहीं मिल पा रही है, लिहाजा संस्कार भारती को पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी आगे आना चाहिए। इसी तरह से अन्य संस्थाएं भी कलाकारों की मदद कर रही हैं पर ये नाकाफी है। संस्कृति मंत्रालय को संकट के समय कलाकारों की मदद के लिए हाथ बढ़ाना चाहिए। संकट के समय संकट से निबटनेवाली योजनाएं बनाई जानी चाहिए और जरूरत पड़ने पर नीतिगत बदलाव भी किए जाने चाहिए ताकि कोई नियम मदद में बाधा न बन सके। कोरोना की पहली लहर के आने से लेकर अबतक कलाकारों को केंद्र में रखकर कोई ठोस योजना नहीं बन सकी है। 

संस्कृति मंत्रालय के 2001-22 के बजट को देखें तो उसमें चार सौ पचपन करोड़ रुपए कला संस्कृति विकास योजना, संग्रहालय के विकास, जन्म शताब्दियों के आयोजन आदि के लिए आवंटित किए गए हैं। इसके अलावा पूर्वोत्तर में संस्कृति से जुड़ी विभिन्न योजनाओं के लिए एक सौ दो करोड़ आवंटित किए गए हैं। इन दोनों राशियों को मिलाकर देखें तो करीब साढे पांच सौ करोड़ से अधिक की राशि संस्कृति मंत्रालय के पास है जिसको प्रशासनिक फैसलों से कलाकारों की मदद की तरफ मोड़ा जा सकता है। इस आवंटन के तहत मंत्रालय को कोई ऐसी योजना बनानी चाहिए जिससे कि देशभर के विभिन्न हिस्सों में फैले रूपकंर कला के कलाकारों को मदद मिल सके। संस्कृति मंत्राल के अधीन राष्ट्रीय स्तर पर काम करनेवाली जो अकादमियां हैं उनको भी आगे आकर मदद की पहल करनी चाहिए। संगीत नाटक अकादमी, ललित कला अकादमी, साहित्य अकादमी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय आदि जैसी संस्थाओं को एक साथ आकर समन्वय बनाकर कलाकारों और लेखकों की मदद करने के लिए कार्ययोजना बनाकर काम करना चाहिए। इन अकादमियों ने पूर्व में भी आकस्मिक परिस्थितियों में कलाकारों की आर्थिक मदद की है। जैसे जब चेन्नई में बाढ़ आई थी और कई कलाकारों के वाद्य यंत्र आदि पानी से नष्ट हो गए थे, तब संगीत नाटक अकादमी के चेयरमैन शेखर सेन ने अपनी पहल पर उनकी मदद की थी। इस वक्त कोरोना काल में इन अकादमियों की गतिविधियां भी लगभग ठप हैं। उनका व्यय भी न्यूनतम हो रहा है। बचे हुए धन को कलाकारों की मदद में उपयोग में लाया जा सकता है। जरूरत सिर्फ इस बात की है कि इस दिशा में सोचा जाए और उसको क्रियान्वयित किया जाए। 

इस काम में एक ही बाधा आ सकती है कि वो ये कि इन अकादमियों में से ज्यादातर में शीर्ष पद खाली हैं। संगीत नाटक अकादमी के चेयरमैन शेखर सेन का कार्यकाल 27 जनवरी 2020 को समाप्त हो गया लेकिन अबतक उस पद पर नियुक्ति नहीं हो सकी है। इसका असर काम काज पर पड़ता ही है। संगीत नाटक अकादमी के प्रतिष्ठित पुरस्कार 2018 के बाद घोषित नहीं हो सके हैं। 2018 का पुरस्कार 2019 में घोषित हुआ था जो अबतक कलाकारों को प्रदान नहीं किए जा सके हैं। ललित कला अकादमी के चेयरमैन उत्तम पचारणे का कार्यकाल पिछले महीने की 21 तारीख को समाप्त हो गया। तीन साल का उनका कार्यकाल काफी विवादित रहा। उनके कार्यकाल के समाप्त होने के पहले नियुक्ति की प्रक्रिया आरंभ हो जानी चाहिए थी जो हो नहीं सकी। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की वेब साइट के मुताबिक इसके निदेशक वामन केंद्रे का कार्यकाल सितंबर 2018 में समाप्त हो गया और उसके बाद कार्यकारी निदेशक सुरेश शर्मा संस्थान चला रहे हैं। यहां पिछले साल चेयरमैन के पद पर परेश रावल की नियुक्ति हुई लेकिन निदेशक का पद विज्ञापित होने के बाद भी अबतक भरा नहीं जा सका। कला संस्कृति और साहित्य से जुड़ी कई ऐसी संस्थाएं हैं जहां शीर्ष पद खाली है। इन पदों के खाली रहने का बड़ा नुकसान ये है कि बड़े फैसले नहीं हो पाते हैं क्योंकि उसके लिए शीर्ष स्तर की मंजूरी आवश्यक होती है।

कोरोना संक्रमण के इस दौर में देश के सांस्कृतिक परिदृश्य पर जो संकट दिखता है उसको दूर करने के लिए दूरगामी योजनाएँ बनानी होंगी। यह ठीक बात है कि इस वक्त देश की प्राथमिकता अपने नागरिकों की जान की रक्षा करना, वायरस को फैलने से रोकने के उपाय करना और आसन्न खतरे से निबटने की योजना बना है। अब संक्रमण की दर कम होने लगी है, टीकाकरण की रफ्तार तेज हो रही है और स्थितियां सामान्य होती दिख रही हैं तो केंद्र सरकार को ज्यादातर कलाकारों की चरमरा गई आर्थिक स्थिति की ओर ध्यान देने की नीति पर काम करना चाहिए। स्थितियां इस कदर बिगड़ चुकी हैं कि इसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दखल देकर एक ऐसी नीति निर्माण की दिशा में पहल करनी होगी जिससे कोरोना जैसे संकट में कलाकारों के सामने जीवन जीने का संकट पैदा नहीं हो सके। कला और संस्कृति किसी भी देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है। अगर हम विश्व के इतिहास पर नजर डालें या फिर अपने ही देश के पौराणिक काल में सांस्कृतिक गतिविधियों पर विचार करें तो यह पाते हैं कि किसी भी राष्ट्र की प्रतिष्ठा वहां के कलाकारों के माध्यम से संस्कृति के आंगन में खिलखिलाती हैं। सरकार इस दिशा में ठोस कदम उठाए, नीतिया बनाएं और नियुक्तियां करें ताकि समेकित योजना बनाकर उसका क्रियान्वयन हो सके। 


सच्ची कहानी उस प्यार की


शाम ढल चुकी थी, समंदर की लहरें हिलोरें ले रही थीं, हवा में थोड़ी ठंडक थी, मुंबई(तब बांबे) की सड़क पर एक फिएट कार धीमी गति से चली जा रही थी। नई चमचमाती उस कार को अभिनेता सुनील दत्त चला रहे थे और उनकी बगल वाली सीट पर उस वक्त फिल्मों की सफल अभिनेत्री नर्गिस बैठी हुई थीं। शूटिंग खत्म होने के बाद सुनील दत्त, नर्गिस को छोड़ने उनके घर जा रहे थे। कार की खिड़की का शीशा थोड़ा खुला था और ठंडी हवा सुनील दत्त के गालों को छूकर निकल रही थी। पर सुनील दत्त के माथे पर पसीने की बूंदें थीं, वो बार-बार नर्गिस से कह रहे थे, ‘मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं’ जब नर्गिस ने बोला कहिए तो वो चुप हो गए। फिर सुनील दत्त ने कहा कि ‘मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूं’। नर्गिस ने फिर कहा फर्माएं। लेकिन वो फिर खामोश। इसी तरह से बातचीत चल रही थी और कार भी अपने रफ्तार से अपनी मंजिल की ओर बढ़ रही थी। सुनील दत्त के दिल की बात जुबां पर आ नहीं पा रही थी। उनको लग रहा था कि अगर नर्गिस ने मना कर दिया तो उनका क्या होगा? इतने में नर्गिस का घर आ गया। सुनील दत्त ने गाड़ी रोकी तो नर्गिस ने उनकी तरफ इस तरह से देखा जैसे आंखें कोई पर्सनल सा सवाल करना चाह रही हों। लेकिन वो भी कुछ कह नहीं पाईं और कार का दरवाजा खोलकर उतरने लगीं। तब सुनील दत्त ने लंबी सांस लेकर कहा ‘मैं तुमको पसंद करता हूं और तुमसे शादी करना चाहता हूं’ । नर्गिस ने सुनील दत्त की बातें सुनीं और कार का दरवाजा बंद करके बगैर कोई उत्तर दिए अपने घर की ओर चल पड़ीं। अब सुनील दत्त परेशान। अपनी पसंदीदा फिएट कार लेकर वो वापस घर की ओर लौटे। किसी तरह बेचैनी में रात कटी। उन्होंने मन ही मन तय कर लिया था कि अगर नर्गिस ने उनके प्रणय निवेदन को स्वीकार नहीं किया तो वो हरियाणा में अपनी मां के गांव लौट जाएंगे।

किसी तरह रात कटी, सुनील दत्त अगले दिन तैयार होकर शूटिंग पर चले गए। दिनभर बेचैन रहे। नर्गिस का कोई उत्तर या उनकी तरफ से कोई संकेत उनतक नहीं पहुंचा। शाम को काम खत्म करके वो अपनी फिएट से वापस घर लौट आए। बुझे बुझे से जब सुनील दत्त अपने घर में दाखिल हुए तो उऩकी बहन रानी खुशी से चहक रही थीं। उन्होंने सुनील दत्त का हाथ पकड़कर कहा ‘भाई मुबारक हो’। बेमन से सुनील दत्त ने पूछा ‘किस बात की बधाई’। तो उनकी बहन ने कहा कि ‘उन्होंने हां कर दी है’। सुनील दत्त कुछ देर के लिए समझ ही नहीं पाए कि किन्होंने हां कर दी है। वो कुछ पूछते तबतक रानी ने ही राड खोला, ‘नर्गिस जी आई थीं और उन्होंने रजामंदी दे दी है’। सुनील दत्त की खुशी का पारावार नहीं रहा। वो मुस्कुराते हुए अपने कमरे में चले गए। ये किस्सा सुनील और नर्गिस की बेटी नम्रता दत्त ने अपनी किताब में विस्तार से लिखी है। लोकचर्चा इस बात की होती है कि ‘मदर इंडिया’ फिल्म में आग से बचाने की वजह से नर्गिस ने सुनील दत्त को प्रपोज किया था लेकिन सचाई ये है कि सुनील दत्त ने उनको अपनी फिएट कार में प्रपोज किया था। यही वजह है कि सुनील दत्त ने बहुत पुरानी हो जाने के बाद भी अपनी उस 1933 नंबर की फिएट कार को अपने पास रखे रखा था। ‘मदर इंडिया’ में आग की घटना के बाद दोनों के बीच प्यार और गहरा जरूर हुआ था।

अब नर्गिस ने हां तो कर दी थी लेकिन दोनों अपने प्यार की और शादी की बात सार्वजनिक नहीं कर पा रहे थे। फिल्म ‘मदर इंडिया’ के निर्माता निर्देशक महबूब खान नहीं चाहते थे कि उनकी फिल्म रिलीज के पहले इस प्यार की खबर बाहर निकले। उनका मानना था कि अगर नर्गिस और सुनील दत्त के प्यार और रोमांस की खबरें छपीं तो उनकी फिल्म फ्लॉप हो जाएगी। उनकी सोच थी कि भारतीय दर्शक इस बात को स्वीकार नहीं कर पाएंगे कि फिल्मी पर्दे पर मां बेटा की भूमिका निभाने वाले कलाकार असल जीवन में शादी करने जा रहे हैं और रोमांस कर रहे हैं। उन्होंने दोनों पर दबाव बनाया कि वो अपने प्यार को छिपा कर रखें। दूसरी दिक्कत ये थी नर्गिस के बड़े भाई अख्तर इस विवाह के खिलाफ थे। खैर 11 मार्च 1958 को दोनों की शादी हो गई। तबतक मदर इंडिया रिलीज होकर हिट हो चुकी थी।