इन दिनों हिंदी साहित्य में एक अजीब किस्म का सन्नाटा दिखाई देता है। कुछ रचनाकार कई बार अपने लेखन से तो कई बार अपनी टिप्पणियों से इस सन्नाटे को तोड़ने की कोशिश करते हैं। वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा नियमित तौर पर फेसबुक पर कोई टिप्पणी लिखकर साहित्य के ठहरे पानी में कंकड़ फेंकती रहती हैं। कई बार उस पर विवाद भी होता है। बीच-बीच में लेखक संगठनों के नाम पर कुछ नए पुराने लेखक अपील आदि जारी करते रहते हैं लेकिन उसका भी कहीं कोई असर दिखाई नहीं देता है। ऐसी अधिकतर अपील किसी न किसी चुनाव के पहले ही जारी की जाती हैं। अब तो इसका असर इंटरनेट मीडिया पर भी नहीं होता। जमीनी स्तर पर तो शायद अपील पहुंचती भी नहीं है। कुछ ऐसे भी लेखक हैं जो साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में फासीवाद को लेकर चिंतित ही नहीं रहते हैं बल्कि उसके खतरों से लोगों को आगाह भी करते रहते हैं। उधर सरकार के विभिन्न मंत्रालय और विभाग साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में वैचारिक विरोधियों को लगातार स्थान देती रहती है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय की पत्रिका आजकल के आवरण पर धुर वामपंथी कवि की तस्वीर छपती है। इसके पहले भी वामपंथी विचारधारा के लेखकों के चित्र आजकल पत्रिका के आवरण पर नियमित तौर पर छपते रहे हैं। साहित्य अकादमी पुरस्कार मोदी सरकार के घोषित विरोधियों को दिया जाता है। फिल्म फेस्टिवल से लेकर युवा महोत्सव तक में सरकार विरोधियों की फिल्में और वक्ता के तौर पर उनको आमंत्रित करके सरकार लगातार अपने लोकतांत्रिक होने का प्रमाण देने में जुटी है। बावजूद इसके विचारधारा विशेष के लेखकों को 2014 के बाद से ही फासीवाद का डर सता रहा है।
अब वामपंथियों में एक नई प्रवृत्ति स्पष्ट दिखने लगी है। पहले वो अपनी विचारधारा से संबद्ध राजनीतिक दलों के लिए काम करते थे । पिछले तीन चार साल से हो रहे चुनावों में वामपंथी दलों की हालत बहुत खराब हो गई है। अब अधिकतर वामपंथी लेखकों को कांग्रेस में संभावना नजर आने लगी। वामपंथी लेखक अब खुलकर कांग्रेस पार्टी के लिए काम करते हुए नजर आने लगे हैं। इंटरनेट मीडिया पर उनके लिखे को देखने से ये स्पष्ट हो जाता है। उनको अब इंदिरा गांधी के फासीवाद की बिल्कुल याद नहीं आती। उनको आपातकाल के दौर की ज्यादातियों की भी याद नहीं आती। निर्मल वर्मा ने तमिल लेखक पी कृष्णन से एक बातचीत में स्पष्ट रूप से इंदिरा गांधी की फासीवादी नीतियों और हिंदी के लेखकों पर अपनी राय रखी थी। निर्मल वर्मा ने कहा था, सबसे अधिक चौंकानेवाली बात थी इंदिरा गांधी की अलोकतांत्रिक तथा अत्याचारी नीतियों का बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा जरा भी विरोध न किया जाना। वैसे तो इंदिरा गांधी की तानाशाही हल्की थी लेकिन इस हल्के संस्करण ने भी हमारे बुद्धिजीवी वर्ग को खासा भयभीत कर दिया था और उन्होंने घुटने टेक दिए थे। इस क्रम में निर्मल ने रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती तक का नाम लिया था। निर्मल ने बहुत कठोर शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा था कि उन्हें इस बात का अंदाज नहीं था कि हिंदी के बड़े साहित्यकार इतने भंगुर और सारहीन सिद्ध होंगे। अब जब वामपंथी लेखक भय से नहीं बल्कि राजनीतिक कारणों से इंदिरा गांधी की विरासत की प्रशंसा कर रहे हैं। संभव है इस वजह से प्रभाव नहीं पैदा कर पा रहे हैं।
साहित्य के राजनीतिक दांवपेंच से अलग हटकर अगर रचनात्मक स्तर पर भी देखें तो हिंदी साहित्य का वर्तमान परिदृश्य बहुत आशाजनक नहीं लगता है। अब भी वरिष्ठ और बुजुर्ग साहित्यकार ही अपनी सक्रियता से रचनात्मक संसार को जीवंत बनाने के प्रयास में लगे हुए हैं, लेकिन उनकी अपनी सीमाएं हैं। हिंदी के अधिकतर युवा लेखक आत्ममुग्धता के शिकार हो गए हैं। छोटे-मोटे उपन्यास लिखनेवाले भी खुद को प्रेमचंद से बड़ा कथाकार मानने लगा है। उसकी अपेक्षा भी होती है कि साहित्य समाज उनको प्रेमचंद से अधिक सम्मान भी दे। इसी अहंकार में वो आलोचना से लेकर समीक्षा विधा को खारिज करने लगते हैं। इंटरनेट माध्यम पर होनेवाली फूहड़ या प्रशंसात्मक चर्चा को सत्य मानकर वो अपनी कृति को महान समझ लेते हैं। कवियों के तो कहने ही क्या, वो तो खुद की रचनाओं पर मुग्ध रहते ही हैं। साहित्य के इस दौर को देखकर एक मित्र की टिप्पणी सटीक लगती है। उसने एक दिन कहा था कि हिंदी साहित्य में ये दयनीय महानता का दौर है। ,
आज अगर हिंदी साहित्य में किसी प्रकार का कोई विमर्श नहीं हो रहा है तो उसके पीछे के कारणों की पहचान करनी होगी। राजेन्द्र यादव से हमारा वैचारिक स्तर पर काफी विरोध रहता था लेकिन उनकी इस बात के लिए उनके विरोधी भी प्रशंसा करते थे कि वो साहित्य में अछूते प्रश्न उठाते थे। नामवर सिंह धुर वामपंथी थे, कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ चुके थे लेकिन जब वो लिखते थे तो उससे साहित्य जगत में हलचल होती थी, उनके लिखे के पक्ष विपक्ष में बातें होती थीं। अशोक वाजपेयी भी जबतक वामपंथ की राजनीति में नहीं उलझे थे तबतक उनके लेखन में एक वैचारिक उष्मा होती थी। इनके बाद की पीढ़ी में भी देखें तो ज्ञानरंजन से लेकर रवीन्द्र कालिया तक के लेखन में कुछ ऐसे तत्व अवश्य होते थे जो पाठकों के बीच चर्चा की वजह बनते थे। नरेन्द्र कोहली के लेखन में लगातार प्रयोग होते थे जो पाठकों को नई तरह से सोचने का आधार देते थे। कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद को समझने की नई दृष्टि हिंदी साहित्य जगत को दी। इन लोगों में अहंकार नहीं था और वो अपने पूर्वज लेखकों को कभी खारिज नहीं करते थे। उनको साहित्य की परंपरा का भी ज्ञान था और उसपर वो गुमान भी करते थे। कविता में भी देखें तो आधुनिक काल के कवियों ने काफी प्रयोग किए। स्वाधीनता के बाद भी कवियों ने अपनी लेखनी के माध्यम से भारतीय समाज की जड़ता पर प्रहार किया। आज ज्यादातर कविताएं गद्य में लिखी जा रही हैं। पहले कवियों पर संपादक नाम की संस्था का एक फिल्टर होता था लेकिन अब इंटरनेट मीडिया ने उस फिल्टर को समाप्त कर दिया। परिणाम यह हो रहा है कि कविता के नाम पर अंट शंट लिखा जा रहा है। लेकिन अहंकार इतना कि खुद को दिनकर और बच्चन से कम मानने को राजी नहीं।
एक जमाना होता था जब साहित्यकारों की निजी गोष्ठियां हुआ करती थीं। जिसमें साहित्य की प्रवृत्तियों से लेकर नए लिखे जा रहे पर चर्चा होती थी। लोग खुलकर नई रचनाओं पर अपनी बातें रखते थे। आलोचना या प्रशंसा दोनों होती थी। इसमें बैठनेवाले वरिष्ठ साहित्यकार नए लेखकों की टिप्पणियों को ध्यान से सुनते थे और अगर आवश्यकता होती थी तो उसमें सुधार भी करते थे। इसका फायदा ये होता था कि नए लेखकों की समझने की दृष्टि का विस्तार होता था। इंटरनेट मीडिया के विस्तार के बाद इस तरह की गोष्ठियां कम हो गईं। लोगों में पढ़ने की भी आदत कम होती जा रही हैं। रचनाओं पर टिप्पणी के स्थान पर लाइक के बटन अधिक दबने लगे हैं। दूसरी एक बात जो युवा लेखकों में देखने को मिल रही है कि वो अपनी लेखकीय परंपरा से अनजान हैं, उनको इस बात का भान ही नहीं है कि वो जिस भारतीय लेखन परंपरा में आना चाह रहे हैं वो कितना समृद्ध है। जब अपनी परंपरा के वैराट्य का अनुमान नहीं होता है तो व्यक्ति अहंकार का शिकार हो जाता है। उसको लगता है कि उसने जो लिख दिया है वही सबसे अच्छा है। युवा लेखकों को अपनी इस कमी को दूर करना होगा तभी जाकर हिंदी साहित्य जगत का वैचारिक सन्नाटा दूर होगा।
1 comment:
बढिया लेख। बिल्कुल सटीक।
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