बिहार के स्कूल में पढ़ाई के दौरान की एक स्मृति अबतक मानस पटल पर है। कक्षा में छात्रों से बात करते हुए हमारे प्राथमिक विद्यालय के मास्टर साहब कौवा और कान का उदाहरण देकर छात्रों को समझाया करते थे । वो हमेशा कहते थे कि अगर कोई कहे कि कौवा कान लेकर भाग गया तो कौवा के पीछे मत भागो पहले अपने कान को देखो। बिहार में इसका प्रयोग कहावत की तरह भी होता है। अपने गृह राज्य बिहार में सम्राट अशोक पर उठे विवाद के बाद अपने प्राथमिक विद्यालय के इस प्रसंग की लगातार याद आ रही है। बुजुर्ग लेखक दया प्रकाश सिन्हा को उनके नाटक सम्राट अशोक के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया गया। उनपर आरोप है कि उन्होंने सम्राट अशोक की तुलना मुगल आततायी औरंगजेब से की। उनके खिलाफ भारतीय जनता पार्टी के बिहार के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल ने केस दर्ज करवाया। अपनी शिकायत में उन्होंने आरोप लगाया है कि पुस्तक में सम्राट अशोक की तुलना औरंगजेब से की गई है। यह आश्चर्य का विषय है कि दया प्रकाश सिन्हा ने अपनी पुस्तक सम्राट अशोक में कहीं भी औरंगजेब का नामोल्लेख तक नहीं किया है। अब कोई ये बताए कि बगैर नामोल्लेख के अशोक की तुलना औरंगजेब से कैसे की जा सकती है। सिर्फ भारतीय जनता पार्टी ही नहीं बल्कि जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के नेता उपेन्द्र कुशवाहा भी दया प्रकाश सिन्हा से पद्मश्री और साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस लेने की मांग कर रहे हैं। उपेन्द्र कुशवाहा इन दिनों जेडीयू में हैं इसके पहले वो इस पार्टी में आते जाते रहे हैं। उपेन्द्र कुशवाहा 2014 से लेकर करीब चार साल तक केंद्र में मानव संसाधन विकास मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) में राज्यमंत्री रह चुके हैं। उपेन्द्र कुशवाहा इस बात से खिन्न हैं कि दया प्रकाश सिन्हा ने सम्राट अशोक के बारे में आपत्तिजनक बातें लिखी हैं।
दया प्रकाश सिन्हा ने अपने नाटक जिन बातों का उल्लेख किया है उसके बारे में इतिहासकार लंबे समय से लिखते रहे हैं। ए एल बैशम, राम शरण शर्मा, रोमिला थापर, डी एन झा, के एम श्रीमाली से लेकर रमाशंकर त्रिपाठी तक ने अपनी पुस्तकों में इन बातों का उल्लेख किया है। करीब चार साल तक उपेन्द्र कुशवाहा केंद्र में शिक्षा राज्य मंत्री रहे ।उनके मातहत एक संस्था है राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद। यहां से राम शरण शर्मा लिखित ग्यारहवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक एनसिएंट इंडिया प्रकाशित है। इसकी पृष्ठ संख्या 100-01 पर इस बात का उल्लेख है कि बौद्ध परंपरा के अनुसार अशोक अपनी आरंभिक जिंदगी में बहुत निर्दयी था और उसने राजगद्दी पाने के लिए अपने 99 भाइयों की हत्या की थी। हलांकि लेखक ये भी कहते हैं कि ये गलत भी हो सकता है क्योंकि बौद्ध लेखकों ने उनकी जीवनी में कई काल्पनिक बातें डाली हैं। सवाल ये उठता है कि अगर ये तथ्य गलत थे तो इसका उल्लेख क्यों किया गया ? छात्रों को सालों से ये क्यों पढाया जा रहा है? शिक्षा राज्य मंत्री रहते हुए उपेन्द्र कुशवाहा ने इसको पाठ्य पुस्तक से हटवाने का उपक्रम क्यों नहीं किया?
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी माध्यम कार्यन्वयन निदेशालय की एक पुस्तक है प्राचीन भारत का इतिहास। इस पुस्तक के संपादक हैं इतिहासकार डी एन झा और के एम श्रीमाली। इस पुस्तक के एक लेख के अनुसार, अशोक के संबंध में जानकारी प्राप्त करने के प्रमुख साधन उसके शिलालेख तथा स्तंभों पर उत्कीर्ण अभिलेख हैं। किंतु ये अभिलेख अशोक के प्रारंभिक जीवन पर कोई प्रकाश नहीं डालते। इनके लिए हमें संस्कृत तथा पालि में लिखे हुए बौद्ध ग्रंथों पर निर्भर करना पड़ता है। परंपरानुसार अशोक ने अपने भाइयों का हनन करके सिंहासन प्राप्त किया था (पृ. संख्या 178)। ये पुस्तक पहली बार 1981 में प्रकाशित हुई थी। क्या शिक्षा राज्य मंत्री रहते हुए उपेन्द्र कुशवाहा ने दिल्ली विश्वविद्यालय को इस सबंध में कोई आपत्ति पत्र भेजा था। पहली बार 1942 में प्रकाशित अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ एनशिएंट इंडिया में रमा शंकर त्रिपाठी भी लिखते हैं कि सिंहली परंपराओं के अनुसार अशोक ने अपने 99 भाइयों की हत्या करने और खून की नदियां बहाकर गद्दी हासिल की थी। त्रिपाठी भी इस बात का उल्लेख करते हैं कि कुछ विद्वानों को इस पर संदेह है। अपनी पुस्तक ‘द वंडर दैड वाज इंडिया’ में इतिहासकार ए एल बैशम भी बौद्ध सूत्रों के आधार पर लिखते हैं कि अशोक ने विरोधियों की हत्या करके गद्दी हथियाई थी। एक तानाशाह के रूप में अपना शासन किया था (पृ संख्या 53)। बैशम भी यहां जोड़ते हैं कि अशोक के शिलालेखों में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता ।
रोमिला थापर ने 1963 में एक पुस्तक लिखी जिसका नाम है ‘अशोक एंड द डिक्लाइन आफ द मौर्याज’। ये आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित है। अपनी इस पुस्तक में रोमिला थापर ने अशोक के बारे में विस्तार से लिखा है। इस पुस्तक की पृष्ठ संख्या 20 से लेकर 30 तक में रोमिला थापर ने विभिन्न बौद्ध सूत्रों के आधार पर अशोक के बारे में विस्तार से लिखा है। रोमिला थापर लिखती हैं कि अशोक अपने आरंभिक दिनों में सुंदर नहीं दिखते और उनके पिता बिंदुसार उनको पसंद नहीं करते थे। बाद के पृष्ठों पर लिखा है कि दिव्यावदान के मुताबिक जब अशोक के पिता बिंदुसार की मृत्यु हो रही थी तो वो अपने पुत्र सुसीम को राजा बनाना चाहते थे लेकिन उनके मंत्रियों ने अशोक को गद्दी पर बिठा दिया। महावंस और दीपवंस के अनुसार अशोक ने बिंदुसार की अन्य पत्नियों से जन्मे अपने 99 भाइयों की हत्या करवाई। तारानाथ के अनुसार अशोक ने अपने जीवन के आरंभिक वर्ष आनंद और मनोरंजन में व्यतीत किए जिसकी वजह से उनको कामाशोक आदि कहा गया। अपनी इस पुस्तक में रोमिला थापर ने विस्तार से अशोक के स्वभाव, महिलाओं के प्रति उनके व्यवहार,परिवार के सदस्यों के आपसी संबंधों आदि को बौद्ध सूत्रों के आधार पर पाठकों के समक्ष रखा है। रोमिला थापर की इस पुस्तक के दस से अधिक रिप्रिंट हो चुके हैं। रोमिला थापर ने ये पुस्तक 1963 में लिख दी थी अन्यथा अब तो उनको भी केस मुकदमा झेलना पड़ता।
इस देश में तो भगवान राम के बारे में भी जाने लोग क्या क्या कहते रहे हैं। सीता निर्वासन के प्रसंग को लेकर फूहड़ बातें भी लिखी गईं। एम एफ हुसैन तो देवी देवताओं के नग्न चित्र तक बनाते रहे। महात्मा गांधी के बारे में कितनी तरह की बातें कही जाती रही हैं। करीब दस साल पहले तेलुगू के एक लेखक वाई लक्ष्मण प्रसाद को साहित्य अकादमी ने उनकी पुस्तक द्रौपदी पर पुरस्कृत किया था। उस पुस्तक में द्रौपदी को लेकर अमर्यादित टिप्पणी की गई थी। भाषा बेहद निम्न स्तर की थी। जब इन मसलों का विरोध होता था तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकारों के पेट में दर्द होने लगता था। चूंकि दया प्रकाश सिन्हा कभी भारतीय जनता पार्टी से जुड़े रहे हैं तो अभिव्यक्ति के सारे पहरेदार अचानक खामोश हो गए हैं। दया प्रकाश सिन्हा ने अपने नाटक में सम्राट अशोक के बारे में कोई नई बात नहीं बात लिखी है। इतिहासकार ये लिखते रहे हैं।उनके विरोध की वजह अकादमिक न होकर राजनीतिक प्रतीत होती है। क्या बिहार की राजनीति में कुछ नया घटित होनेवाला है जिसकी पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है या उपेन्द्र कुशवाहा अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करने के लिए इस मुद्दे को हवा दे रहे हैं। इतिहास अशोक को सम्राट अशोक मानता है और अंग्रेजी में उनको ‘अशोक द ग्रेट’ कहा जाता है। उनके बारे में तमाम तरह के तथ्य खुलेंगे लेकिन अशोक ने जिस तरह से ‘दिग्विजय’ के स्थान पर ‘धम्मविजय’ के सिद्धांतों को अपनाया वो अतुलनीय है।
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