काशी में ज्ञानवापी परिसर स्थित मस्जिद के सर्वे और अदालती कार्यवाही के बाद कई तरह के इतिहासकार सामने आने लगे हैं। वामपंथी रुझान और वामपंथी विचारधारा के पोषक कुछ साहित्यकार और लेखक भी इस विषय पर अपने अज्ञान का सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे हैं। कई तो मुगल बादशाह औरगंजेब के समर्थन में भी तर्क खोजकर ला रहे हैं। इंटरनेट मीडिया पर इस तरह के मनोरंजक टिप्पणियां देखी जा सकती हैं। एक लेखक महोदय तो किसी किताब से हवाले से ये तक लिख गए कि मंदिर के तहखाने में बलात्कार हुआ था और औरंगजेब को पता चला तो उसने उस जगह को अपवित्र मानकर मंदिर को ध्वस्त करवा दिया। इस मनोरंजक तर्क को लिखते समय लेखक महोदय ये भूल गए कि अगर कोई जगह अपवित्र हो गई तो वहां मंदिर गिराकर मस्जिद कैसी बनवाई जा सकती है। क्या मंदिर को ध्वस्त करके मस्जिद बनाकर किसी जगह को पवित्र किया जा सकता है? बलात्कार को लेकर अगर औरंगजेब इतना ही संवेदनशील था तो बीजापुर और गोलकुंडा आक्रमण के समय बलात्कर की असंख्य घटनाओं पर उसका दिल क्यों नहीं पसीजा था। दक्षिण भारत पर औरंगजेब के आक्रमण के समय जितनी बलात्कार की घटनाएं हुई उसकी तुलना सिर्फ 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) में पाकिस्तानी सैनिकों की क्रूरता से की जा सकती है। दरअसल वामपंथियों का और स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बतानेवाले लेखकों और इतिहासकारों का ये पुराना शौक रहा है। उनके लेखन में विदेशी आक्रांताओं को लेकर एक खास किस्म की उदारता दिखाई देती है। इसके पीछे की वजह क्या है ये पता नहीं लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इस प्रकार के स्वयंभू इतिहासकार समाज के लिए खतरनाक हैं। इनकी अज्ञानता की वजह से और गलत स्थापनाओं के कारण दो समुदायों के बीच नफरत पैदा होती है।
औरंगजेब को लेकर वामपंथी लेखकों को सर जदुनाथ सरकार की पुस्तक पढ़नी चाहिए जिससे इस क्रूर शासक के बारे में सबकुछ स्पषट हो जाएगा। पांच खंडों में प्रकाशित सरकार की पुस्तक ‘हिस्ट्री आफ औरंगजेब’ में जदुनाथ सरकार ने सप्रमाण बताया है कि किस फरमान के अंतर्गत काशी के मंदिर को तोड़ा गया था। उन्होंने फरमान का स्त्रोत भी बताया है, छद्म इतिहासकार की तरह सिर्फ मनगढ़ंत बातें नहीं की है । एजेंडा के तहत इतिहास लेखन या टिप्पणी करनेवालों ने सर जदुनाथ सरकार की पुस्तक या तो पढ़ी नहीं या पढ़कर भी अनभिज्ञ बने रहते हैं। हिंदुओं से घृणा करनेवाले शासक औरंगजेब के पक्ष में वामपंथी इतिहासकार पहले भी अनेक तरह के छद्म रचते रहे हैं। कुछ दशक पहले ये थ्योरी पेश करने की कोशिश की गई थी औरंगजेब हिंदुओं को लेकर उदार था। इसके लिए ये तर्क दिया जाता था कि उसने मनसबदारी प्रथा को बढ़ावा दिया। उसके कालखंड में अकबर के समय से अधिक हिंदू मनसबदार थे। यह सही है कि औरंगजेब के कालखंड में हिंदू मनसबदारों की संख्या अधिक थी लेकिन इसकी वजह उसका हिंदू प्रेम नहीं बल्कि मनसबदारी को बढ़ावा देना था। औरंगजेब के समय हिंदू मनसबदारों की संख्या जरूर अधिक दिखाई देती है लेकिन अगर इसको आनुपातिक तौर पर देखा जाए तो वो कम थी। अर्धसत्य बताना मार्क्सवादियों की पुरानी आदत रही है। तभी तो किसी ने व्यग्यात्मक लहजे में कहा था कि मार्क्सवादी इतिहासकारों के पास ईश्वर से भी अधिक ताकत होती है क्योंकि ईश्वर अतीत नहीं बदल सकता है लेकिन इस विचारधारा के इतिहास लेखकों के पास अतीत को बदलने की शक्ति होती है। हिंदुओं पर लगनेवाला कर जजिया को अकबर ने खत्म किया था लेकिन औरंगजेब ने उस कर को फिर से लागू कर दिया था। उसने हिंदुओं की तीर्थयात्रा पर भी कर लगा दिया था। जदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक में श्रमपूर्वक औरंगजेब के सारे कारनामों को कलमबद्ध किया है। इस वजह से मार्क्सवादी इतिहासकार सामूहिक रूप से एजेंडे के तहत जदुनाथ सरकार का नाम सुनते ही अलग रास्ते पर चले जाते हैं।
दरअल अगर हम उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों को समग्रता में देखते हैं तो ये पता चलता है कि विदेश से आए मुस्लिम शासकों ने हिंदुओं पर कितना और किस तरह से घृणित अत्याचार किए। 1953 में केंद्र सरकार की सहमति के बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग ने फारसी और अरबी में उपलब्ध ऐतिहासिक महत्व की सामग्री और स्त्रोत का हिंदी में अनुवाद और प्रकाशन आरंभ किया था। हिंदी में अनुवाद का कार्य सैयद अतहर अब्बास रिजवी ने किया था। इस योजना के अंतर्गत तुगलककालीन भारत के नाम से 1956 में पहली बार पुस्तक छपी। बाद में राजकमल प्रकाशन ने 2008 और 2016 में इन पुस्तकों का पुर्नप्रकाशन किया। 1320 से लेकर 1359 तक का तुगलक वंश का इतिहास तमाम तरह के अरबी फारसी के ऐतिहासिक पुस्तकों और यात्रियों के विवरणों के आधार पर प्रस्तुत किया गया है। तीन खंडों में प्रकाशित इस पुस्तक के पहले खंड में इब्ने बत्तूता का यात्रा विवरण भी है। इसमें बत्तूता ने मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में ईद के विशेष दरबार की चर्चा की है। वो कहते हैं, ‘ईद के दिन महल में फर्श बिछाए जाते हैं और उन्हें बड़े सुंदर ढंग से सजाया जाता है। दरबार के कक्ष के बाहर वारगाह खड़ी की जाती है । यह एक बहुत बड़े मंडप के समान होती है (पृ 188)।‘ इसमें आगे दरबार और अवसर विशेष पर लगनेवाले सिंहासन की भव्यता का वर्णन है। आगे वो लिखते हैं, ‘हाजिब तथा नकीब अपने स्थानों पर खड़े होते हैं। तत्पश्चात गायक तथा नर्तकियां प्रविष्ट होती हैं। सर्वप्रथम काफिर (हिंदू) राजाओं की पुत्रियां जो उस वर्ष युद्ध में बंदी बनाई जाती हैं, आकर गाती नाचती हैं। तत्पश्चात वो अमीरों और मुख्य परदेशियों को प्रदान कर दी जाती हैं। इसके उपरांत अन्य काफिरों की पुत्रियां आकर नाचती गाती हैं। जब वे नाच गा चुकती हैं तो सुल्तान उन्हें अपने भाइयों, संबंधियों और मलिकों के पुत्रों आदि को दे देता है। सुल्तान ये दरबार अस्त्र की नमाज के पश्चात करता है। दूसरे दिन पुन: इसी प्रकार अस्त्र के उपरांत दरबार होता है। इसमें गायकायें लाई जाती हैं। जब वे नाच जा चुकती हैं तो सुल्तान उन्हें ममलूक के अमीरों (मुख्य दासों) को दे देता है (पृ 189)।‘ आगे बत्तूता सातवें दिन तक का विवरण देता है। ईद के समय लगनेवालों इन दरबारों में हिंदू राजाओं की बेटियों के साथ तुगलक क्या सलूक करता है वो स्पष्ट है। इस पुस्तक में इस तरह की कई घटनाओं का वर्णन है। सुल्तान के कर्मचारियों के खाने के लिए चावल कूटने के लिए लाई जानेवाली स्त्रियों की मृत्य का प्रसंग भी ह्रदय विदारक है। वो लिखते हैं कि सुल्तान के महल में सैकड़ों स्त्रियां नित्य मृत्यु को प्राप्त होती थीं।... जब वो रुग्ण हो जाती थीं धूप में पड़ जाती थीं और मर जाती थीं। (पृ.297)। क्या कभी इसपर मार्क्सवादियों ने समग्रता में विचार किया। क्या स्त्री विमर्श के झंडाबरदारों ने इसपर ध्यान दिया।
दरअसल मुगलों समेत तमाम विदेशी आक्रांताओं ने हिन्दुस्तान की जनता पर भयानक अत्याचार किए। कईयों के शासन काल में सैकड़ों मंदिर तोड़े गए और इन सबके प्रमाण उपलब्ध हैं। जरूरत इस बात की है कि उन उपलब्ध प्रमाणों को जनता के सामने लाया जाय। सत्य और तथ्य के सामने आने से कई तरह की गलतफहमियां दूर होती हैं। जो लोग औरंगजेब से लेकर तुगलक और बाबर का गुणगान करके देश की जनता को बरगलाने का काम करते हैं वो एक्सपोज होंगे। जो भ्रमित होकर औरंगजेब को अपना पूर्वज मानते हैं उनके सामने भी अपने अतीत पर पुनर्विचार करने का अवसर पैदा होगा। आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में अगर इतिहास को तथ्यों के आधार पर लिखने और उसके प्रकाशन का कार्य आरंभ हो सके तो अच्छा रहेगा। इसको एक मिशन के तौर पर आरंभ करके पूरा करना चाहिए। ये कार्य देशहित में आवश्यक है।