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Saturday, May 28, 2022

औरंगजेब पर अज्ञान का प्रदर्शन


काशी में ज्ञानवापी परिसर स्थित मस्जिद के सर्वे और अदालती कार्यवाही के बाद कई तरह के इतिहासकार सामने आने लगे हैं। वामपंथी रुझान और वामपंथी विचारधारा के पोषक कुछ साहित्यकार और लेखक भी इस विषय पर अपने अज्ञान का सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे हैं। कई तो मुगल बादशाह औरगंजेब के समर्थन में भी तर्क खोजकर ला रहे हैं। इंटरनेट मीडिया पर इस तरह के मनोरंजक टिप्पणियां देखी जा सकती हैं। एक लेखक महोदय तो किसी किताब से हवाले से ये तक लिख गए कि मंदिर के तहखाने में बलात्कार हुआ था और औरंगजेब को पता चला तो उसने उस जगह को अपवित्र मानकर मंदिर को ध्वस्त करवा दिया। इस मनोरंजक तर्क को लिखते समय लेखक महोदय ये भूल गए कि अगर कोई जगह अपवित्र हो गई तो वहां मंदिर गिराकर मस्जिद कैसी बनवाई जा सकती है। क्या मंदिर को ध्वस्त करके मस्जिद बनाकर किसी जगह को पवित्र किया जा सकता है? बलात्कार को लेकर अगर औरंगजेब इतना ही संवेदनशील था तो बीजापुर और गोलकुंडा आक्रमण के समय बलात्कर की असंख्य घटनाओं पर उसका दिल क्यों नहीं पसीजा था। दक्षिण भारत पर औरंगजेब के आक्रमण के समय जितनी बलात्कार की घटनाएं हुई उसकी तुलना सिर्फ 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) में पाकिस्तानी सैनिकों की क्रूरता से की जा सकती है। दरअसल वामपंथियों का और स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बतानेवाले लेखकों और इतिहासकारों का ये पुराना शौक रहा है। उनके लेखन में विदेशी आक्रांताओं को लेकर एक खास किस्म की उदारता दिखाई देती है। इसके पीछे की वजह क्या है ये पता नहीं लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इस प्रकार के स्वयंभू इतिहासकार समाज के लिए खतरनाक हैं। इनकी अज्ञानता की वजह से और गलत स्थापनाओं के कारण दो समुदायों के बीच नफरत पैदा होती है। 

औरंगजेब को लेकर वामपंथी लेखकों को सर जदुनाथ सरकार की पुस्तक पढ़नी चाहिए जिससे इस क्रूर शासक के बारे में सबकुछ स्पषट हो जाएगा। पांच खंडों में प्रकाशित सरकार की पुस्तक ‘हिस्ट्री आफ औरंगजेब’ में जदुनाथ सरकार ने सप्रमाण बताया है कि किस फरमान के अंतर्गत काशी के मंदिर को तोड़ा गया था। उन्होंने फरमान का स्त्रोत भी बताया है, छद्म इतिहासकार की तरह सिर्फ मनगढ़ंत बातें नहीं की है । एजेंडा के तहत इतिहास लेखन या टिप्पणी करनेवालों ने सर जदुनाथ सरकार की पुस्तक या तो पढ़ी नहीं या पढ़कर भी अनभिज्ञ बने रहते हैं। हिंदुओं से घृणा करनेवाले शासक औरंगजेब के पक्ष में वामपंथी इतिहासकार पहले भी अनेक तरह के छद्म रचते रहे हैं। कुछ दशक पहले ये थ्योरी पेश करने की कोशिश की गई थी औरंगजेब हिंदुओं को लेकर उदार था। इसके लिए ये तर्क दिया जाता था कि उसने मनसबदारी प्रथा को बढ़ावा दिया। उसके कालखंड में अकबर के समय से अधिक हिंदू मनसबदार थे। यह सही है कि औरंगजेब के कालखंड में हिंदू मनसबदारों की संख्या अधिक थी लेकिन इसकी वजह उसका हिंदू प्रेम नहीं बल्कि मनसबदारी को बढ़ावा देना था। औरंगजेब के समय हिंदू मनसबदारों की संख्या जरूर अधिक दिखाई देती है लेकिन अगर इसको आनुपातिक तौर पर देखा जाए तो वो कम थी। अर्धसत्य बताना मार्क्सवादियों की पुरानी आदत रही है। तभी तो किसी ने व्यग्यात्मक लहजे में कहा था कि मार्क्सवादी इतिहासकारों के पास ईश्वर से भी अधिक ताकत होती है क्योंकि ईश्वर अतीत नहीं बदल सकता है लेकिन इस विचारधारा के इतिहास लेखकों के पास अतीत को बदलने की शक्ति होती है। हिंदुओं पर लगनेवाला कर जजिया को अकबर ने खत्म किया था लेकिन औरंगजेब ने उस कर को फिर से लागू कर दिया था। उसने हिंदुओं की तीर्थयात्रा पर भी कर लगा दिया था। जदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक में श्रमपूर्वक औरंगजेब के सारे कारनामों को कलमबद्ध किया है। इस वजह से मार्क्सवादी इतिहासकार सामूहिक रूप से एजेंडे के तहत जदुनाथ सरकार का नाम सुनते ही अलग रास्ते पर चले जाते हैं। 

दरअल अगर हम उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों को समग्रता में देखते हैं तो ये पता चलता है कि विदेश से आए मुस्लिम शासकों ने हिंदुओं पर कितना और किस तरह से घृणित अत्याचार किए। 1953 में केंद्र सरकार की सहमति के बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग ने फारसी और अरबी में उपलब्ध ऐतिहासिक महत्व की सामग्री और स्त्रोत का हिंदी में अनुवाद और प्रकाशन आरंभ किया था। हिंदी में अनुवाद का कार्य सैयद अतहर अब्बास रिजवी ने किया था। इस योजना के अंतर्गत तुगलककालीन भारत के नाम से 1956 में पहली बार पुस्तक छपी। बाद में राजकमल प्रकाशन ने 2008 और 2016 में इन पुस्तकों का पुर्नप्रकाशन किया। 1320 से लेकर 1359 तक का तुगलक वंश का इतिहास तमाम तरह के अरबी फारसी के ऐतिहासिक पुस्तकों और यात्रियों के विवरणों के आधार पर प्रस्तुत किया गया है। तीन खंडों में प्रकाशित इस पुस्तक के पहले खंड में इब्ने बत्तूता का यात्रा विवरण भी है। इसमें बत्तूता ने मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में ईद के विशेष दरबार  की चर्चा की है। वो कहते हैं, ‘ईद के दिन महल में फर्श बिछाए जाते हैं और उन्हें बड़े सुंदर ढंग से सजाया जाता है। दरबार के कक्ष के बाहर वारगाह खड़ी की जाती है । यह एक बहुत बड़े मंडप के समान होती है (पृ 188)।‘ इसमें आगे दरबार और अवसर विशेष पर लगनेवाले सिंहासन की भव्यता का वर्णन है। आगे वो लिखते हैं, ‘हाजिब तथा नकीब अपने स्थानों पर खड़े होते हैं। तत्पश्चात गायक तथा नर्तकियां प्रविष्ट होती हैं। सर्वप्रथम काफिर (हिंदू) राजाओं की पुत्रियां जो उस वर्ष युद्ध में बंदी बनाई जाती हैं, आकर गाती नाचती हैं। तत्पश्चात वो अमीरों और मुख्य परदेशियों को प्रदान कर दी जाती हैं। इसके उपरांत अन्य काफिरों की पुत्रियां आकर नाचती गाती हैं। जब वे नाच गा चुकती हैं तो सुल्तान उन्हें अपने भाइयों, संबंधियों और मलिकों के पुत्रों आदि को दे देता है। सुल्तान ये दरबार अस्त्र की नमाज के पश्चात करता है। दूसरे दिन पुन: इसी प्रकार अस्त्र के उपरांत दरबार होता है। इसमें गायकायें लाई जाती हैं। जब वे नाच जा चुकती हैं तो सुल्तान उन्हें ममलूक के अमीरों (मुख्य दासों) को दे देता है (पृ 189)।‘ आगे बत्तूता सातवें दिन तक का विवरण देता है। ईद के समय लगनेवालों इन दरबारों में हिंदू राजाओं की बेटियों के साथ तुगलक क्या सलूक करता है वो स्पष्ट है। इस पुस्तक में इस तरह की कई घटनाओं का वर्णन है। सुल्तान के कर्मचारियों के खाने के लिए चावल कूटने के लिए लाई जानेवाली स्त्रियों की मृत्य का प्रसंग भी ह्रदय विदारक है। वो लिखते हैं कि सुल्तान के महल में सैकड़ों स्त्रियां नित्य मृत्यु को प्राप्त होती थीं।... जब वो रुग्ण हो जाती थीं धूप में पड़ जाती थीं और मर जाती थीं। (पृ.297)। क्या कभी इसपर मार्क्सवादियों ने समग्रता में विचार किया। क्या स्त्री विमर्श के झंडाबरदारों ने इसपर ध्यान दिया। 

दरअसल मुगलों समेत तमाम विदेशी आक्रांताओं ने हिन्दुस्तान की जनता पर भयानक अत्याचार किए। कईयों के शासन काल में सैकड़ों मंदिर तोड़े गए और इन सबके प्रमाण उपलब्ध हैं। जरूरत इस बात की है कि उन उपलब्ध प्रमाणों को जनता के सामने लाया जाय। सत्य और तथ्य के सामने आने से कई तरह की गलतफहमियां दूर होती हैं। जो लोग औरंगजेब से लेकर तुगलक और बाबर का गुणगान करके देश की जनता को बरगलाने का काम करते हैं वो एक्सपोज होंगे। जो भ्रमित होकर औरंगजेब को अपना पूर्वज मानते हैं उनके सामने भी अपने अतीत पर पुनर्विचार करने का अवसर पैदा होगा। आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में अगर इतिहास को तथ्यों के आधार पर लिखने और उसके प्रकाशन का कार्य आरंभ हो सके तो अच्छा रहेगा। इसको एक मिशन के तौर पर आरंभ करके पूरा करना चाहिए। ये कार्य देशहित में आवश्यक है। 

संघर्ष का नया आयाम


स्वाधीनता का आंदोलन जब अपने चरम की ओर बढ़ रहा था तब अंग्रेजों ने भारत में संवैधानिक सुधारों के लिए ब्रिटिश संसद के सदस्यों की एक कमेटी जान साइमन की अध्यक्षता में भेजी थी, जिसको साइमन कमीशन के नाम से जाना जाता है। ये वर्ष 1928 था। साइमन कमीशन का पूरे देश में काफी विरोध हुआ था। एक आठ साल की बच्ची, जिसके पिता ब्रिटिश राज में जज थे, भी साइमन कमीशन के विरोध में आंदोलन में कूद पड़ी थीं। उसके पिता बहुत नाराज हुए, कई तरह की पाबंदियां लगाने की कोशिश की लेकिन वो बच्ची नहीं मानी। जज साहब का नाम था हरिप्रसाद मेहता और उनकी बेटी का नाम था उषा मेहता। कौन जानता था कि जिस आठ साल की बच्ची ने साइमन कमीशन का विरोध किया था वो बड़ी होकर स्वाधीनता की लड़ाई में एक नया आयाम जोड़ देगी। गुजरात में अपनी आरंभिक पढ़ाई करने के बाद उषा मेहता मुंबई के विल्सन कालेज में आ गई थीं। उषा की आंखों में एक अलग ही सपना था। जब गांधी जी ने नौ अगस्त 1942 को  मुंबई में अंग्रेजों भारत छोड़ो का आरंभ किया उस वक्त उषा मेहता ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और आजादी के आंदोलन में सक्रिय हो गईं। भारत छोड़ो आंदोलन के आह्वान के बाद गांधी जी समेत कई कांग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिए गए। कुछ युवा नेता इस आंदोलन की अलख जगा रहे थे लेकिन उनकी आवाज जनता तक नहीं पहुंच पा रही थी और वो बापू के संदेश को पूरे देश में पहुंचाने के लिए प्रयत्न कर रहे थे 

संदेश पहुंचाने की इसी बेचैनी में बांबे (अब मुंबई) में कुछ युवाओं ने एक बैठक की जिसमें उषा मेहता, विट्ठलदास झवेरी के अलावा नरीमन अबराबाद प्रिंटर भी शामिल थे। इस मीटिंग में भारत छोड़ो का संदेश वृहत्तर जनसुमदाय तक पहुंचाने के लक्ष्य पर चर्चा हो रही थी। आरंभ में वो लोग समाचार पत्र निकालने पर चर्चा कर रहे थे और लगभग तय हो गया था कि एक अखबार निकाला जाए। पुस्तकों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि उषा मेहता ने बैठक में अखबारों को लेकर अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों की चर्चा की। फिर विकल्प पर विचार आरंभ हुआ। उषा मेहता ने रेडियो की चर्चा की तो सबका ध्यान नरीमन प्रिंटर की ओर गया। कुछ ही समय पहले नरीमन ब्रिटेन से रेडियो की तकनीक सीखकर भारत लौटा था। थोड़ी देर बाद तय हुआ कि स्वाधीनता के विचार को जनता तक पहुंचाने के लिए गुप्त रेडियो आरंभ किया जाए। उषा मेहता को समाचार पढ़ने की जिम्मेदारी दी गई। नरीमन और उषा नेहता ने साथ मिलकर पुराने ट्रांसमीटरों को जोड़कर गुप्त रेडियो सेवा आरंभ किया। कहा जाता है कि पुराने ट्रांसमीटर आदि जुटाने में शिकागो रेडियो के उस समय के मालिक ननका मोटवाणी ने इन युवाओं की मदद की थी। हौसले को पंख लगते देर नहीं लगी और 14 अगस्त 1942 को किसी अज्ञात स्थान पर इस गुप्त रेडियो की स्थापना की गई। 27 अगस्त को इसका पहला प्रसारण हुआ। उषा मेहता की आवाज गूंजी, ये कांग्रेस की रेडियो सेवा है जो भारत के किसी हिस्से से प्रसारित की जा रही है। इस पहले प्रसारण में उषा मेहता ने रेडियो की फ्रीक्वेंसी भी बताई थी।  

इस गुप्त रेडियो के प्रसारण से अंग्रेजों के कान खड़े हो गए। उन्होंने इसके बारे में पता लगाना आरंभ कर दिया। गुप्त रेडियो के प्रसारणकर्ता एक प्रसारण के बाद जगह बदल देते थे। इसपर गांधी के विचारों का प्रसारण भी होने लगा। अंग्रेजो की परेशानी बढ़ने लगी और उन्होंने खोजबीन तेज कर दी। आखिरकार तीन महीने से कुछ अधिक समय बाद अंग्रेजों ने नवंबर 1942 में प्रसारण स्थान का पता लगा लिया और उषा मेहता को साथियों समेत गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदतमा चला और उनको चार साल की जेल की सजा हुई। इस गुप्त रेडियो का प्रसारण तीन महीने ही हुआ लेकिन इन तीन महीनों में उषा मेहता ने अपने प्रसारण से जनता को जागरूक करने का कार्य किया। .वाओं में ये विश्वास भी भर दिया कि आजादी के आंदोलन में तकनीक का सहारा लिया जा सकता है। 1946 में जेल से उनकी रिहाई हुई। उषा मेहता का योगदान इस मायने में विशिष्ट है कि उन्होंने उस समय तकनीक का सहारा लिया जब इसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। स्वाधीनता के बाद उषा मेहता ने मुंबई विशश्वविद्यालय से जुड़कर शिक्षा के क्षेत्र में कार्य किया। 25 मार्च 1920 को सूरत के पास एक गांव में जन्मी उषा मेहता का निधन अस्सी वर्ष की उम्र में 2000 में हुआ। 

Saturday, May 21, 2022

भारत के भविष्य का उत्सव


फ्रांस में आयोजित विश्व प्रसिद्ध कान फिल्म फेस्टिवल में हिंदी के कालजयी कवि जयशंकर प्रसाद की कविता।  यह सोचना या कल्पना करना थोड़ा कठिन था लेकिन फेस्टिवल के इस संस्करण में ये हुआ। इंडिया फोरम के एक कार्यक्रम में अभिनेत्री वाणी त्रिपाठी टिक्कू ने जयशंकर प्रसाद की कविता की पंक्तियों से एक चर्चा सत्र का समापन किया। जब वाणी ने जयशंकर प्रसाद की कविता की पंक्तियां, हिमाद्री तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयं प्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती, अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो, प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो-बढे चलो, सुनाई तो हाल तालियों से गूंज उठा। वाणी ने ‘बढ़े चलो’ से भारतीय दर्शन को जोड़कर आगे बढ़ने की बात कही। कान फिल्म फेस्टिवल के दौरान हिंदी के कई वाक्य और मुहावरे गूंजे। सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने इंडिया फोरम के मुख्य मंच से अपनी बात ही हिंदी गीत ‘है प्रीत जहां की रीत सदा, मैं गीत वहां के गाता हूं, भारत का रहनेवाला हूं, भारत की बात सुनाता हूं’ से आरंभ की। गीतकार और लेखक प्रसून जोशी ने भी भारत की रचनात्मकता को ‘बेचैन सपने’ जैसे पद से जोड़ा और कुछ कर गुजरने की बात की। लगभग इसी समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वडोदरा के युवा शिविर को संबोदित कर रहे थे। उन्होंने भी कुछ इसी तरह की बात की। उन्होंने भारत को दुनिया की नई उम्मीद बताते हुए कहा था कि कोरोनाकाल में संकट के बीच दुनिया को वैक्सीन और दवाईयां पहुंचाने से लेकर बिखरी हुई सप्लाई चेन के बीच आत्मनिर्भर भारत की उम्मीद तक, वैश्विक अशांति और संघर्षों के बीच शांति के लिए एक सामर्थ्यवान राष्ट्र की भूमिका तक, भारत आज दुनिया की नई उम्मीद है। ऐसे वक्त में जब देश में कुछ राजनीतिज्ञ हिंदी और भाषा को लेकर राजनीति कर रहे हों तो वैश्विक मंच पर भारत के गौरव को, भारतीय दर्शन को, भारत के युवाओं के सपनों को हिंदी में अभिव्यक्त करना न सिर्फ हिंदी बल्कि भारतीय भाषाओं का भी सम्मान है। वोट की राजनीति के लिए भाषा को हथियार बनाकर समाज को बांटने की जुगत में लगे नेताओं को ये बात समझनी होगी कि भारत की आकांक्षाओं को  वैश्विक स्तर पर ले जाने के लिए वैश्विक मंचों पर भारतीय भाषा में बात करनी होगी। हिंदी के लोगों को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि हिंदी की उन्नति का रास्ता भी भारतीय भाषाओं के आंगन से होकर जाता है। इस बार कान फिल्म महोत्सव में भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने इस सोच को पूरी दुनिया के सामने रखा। यह अनायास नहीं था कि मंत्री अनुराग ठाकुर जब भारतीय प्रतिनिधिमंडल के साथ रेड कार्पेट पर चल रहे थे तो उनकी शेरवानी के बटन पर हिंदी, मराठी, गुजराती समेत अन्य भारतीय भाषाओं में भारत लिखा था। 

भारतीय फिल्मों को वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान को गाढ़ा करना है तो उसको भारत की कहानियों पर ध्यान देना होगा। अभिनेता माधवन ने ठीक कहा कि उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश तक में भारतीय समाज के नायकों की, उनकी सफलताओं की कहानियां बिखरी हैं। उन कहानियों पर फिल्में बनाई जाएं तो भारतीय फिल्मों की व्याप्ति पूरी दुनिया में होगी। आर्यभट्ट से लेकर सुंदर पिचाई तक भारतीयों की सफलता की कहानी पूरी दुनिया को बताने की जरूरत है। माधवन ने इसरो के वैज्ञानिक नंबी नारायणन की जिंदगी पर आधारित फिल्म राकेट्री, द नंबी इफेक्ट बनाई है जिसका प्रदर्शन कान में हुआ। ये फिल्म हिंदी, तमिल, तेलुगू समेत कई भारतीय भाषाओं में बनाई गई है। वैज्ञानिकों और तकनीक के महारथियों के जीवन पर बनी फिल्मों में अलग-अलग देशों के दर्शकों की रुचि इस वजह से संभव है कि उनके कार्य को कई देश के लोग जानते हैं। आज अगर गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई और माइक्रोसाफ्ट के सत्य नडेला की सफलता की कहानी को फिल्मों में चित्रित किया जाता है तो वो न केवल दुनिया के युवाओं को आकर्षित करेगी बल्कि भारत के गौरव को भी दुनिया में स्थापित कर सकेगी। आज अगर कोई फिल्मकार कोरोनाकाल में भारत की महामारी से लड़ने की जिजीविषा को केंद्र में रखकर फिल्म बनाता है तो पूरी दुनिया उसको ध्यान से देखेगी। कोरोनाकाल में जिस तरह से भय का वातावरण बना था और उस वातावरण में भारत ने वैक्सीन बनाया। भयंकर भय के उस माहौल में इस विशाल देश में वैक्सीन को अलग अलग राज्यों तक पहुंचाना और करोड़ों लोगों का टीकाकरण कराना किसी थ्रिलर से कम नहीं है। 

यह भी एक सुखद संयोग है कि कान फिल्म महोत्सव अपनी स्थापना के पचहत्तरवें साल में है, भारत अपनी स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है और भारत और फ्रांस के राजनयिक संबंध के भी 75 साल हो रहे हैं। इस संयोग को कान फिल्म फिल्म फेस्टिवल ने उत्साह के साथ समरोहपूर्वक मनाने का निर्णय लिया। भारत को फेस्टिवल के दौरान सम्मानित देश (कंट्री आफ आनर) का दर्जा दिया गया। ये पहली बार हो रहा है कि फिल्म फेस्टिवल के दौरान किसी भी देश को सम्मानित देश के तौर पर आमंत्रित किया गया है। कान फिल्म फेस्टिवल में चेतन आनंद की 1946 की फिल्म ‘नीचा नगर’ को सम्मानित किया जा चुका है, सत्यजित राय की फिल्म पाथेर पंचाली को भी । 2013 में अमिताभ बच्चन और लियेनार्दो द कैप्रियो ने संयुक्त रूप से कान फिल्म फेस्टिवल के औपचारिक शुरुआत की घोषणा की थी। भारत के फिल्मकार समय समय पर कान फिल्म फोस्टिवल की जूरी में नामित होते रहे हैं। अब कान फिल्म फेस्टिवल ने भारत की फिल्मों को,यहां की कहानियों को लेकर विशेष रुचि दिखाई है। कान फिल्म फेस्टिवल में भारतीय फिल्मों और फिल्मकारों को इतना महत्व मिलना ये साबित करता है कि पूरी दुनिया भारतीय मनोरंजन जगत को बहुत संजीदगी से देख रही है। मशहूर फिल्मकार और भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान, पुणे के चेयरमैन शेखर कपूर ने कान फिल्म फेस्टिवल के मंच से कहा कि ये भविष्य का उत्सव है। 

अब जब पूरी दुनिया भारतीय फिल्मों की ओर एक उम्मीद भरी नजरों से देख रही है तो भारतीय फिल्मकारों खासतौर पर हिंदी के फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों के सामने उन उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती है। ऊलजलूल कहानियों से आगे जाकर, बेवजह की मारधाड़ और यौनिकता से आगे जाकर भारत के गौरव को स्थापित करनेवाली कहानियों को लेकर फिल्में बनानी होंगी। फिल्मकारों के लिए मुनाफा पहली प्राथमिकता है, होनी भी चाहिए लेकिन सिर्फ मुनाफे के लिए फिल्म बनाकर इस कला को समृद्ध नहीं किया जा सकता है। कला की उत्कृष्टता को बरकरार रखकर भी मुनाफा कमाया जा सकता है। पूर्व में कई फिल्मकारों ने ऐसा किया भी है। फिल्म ‘रंग दे बसंती’ और ‘तारे जमीं पर’ आदि का उदाहरण दिया जा सकता है। राजमौली ने अपनी फिल्मों में साबित किया है कि कला की भव्यता से भी जमकर पैसा कमाया जा सकता है। इस काम में राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम की महती भूमिका हो सकती है। भारत सरकार की इस संस्था को आगे आकर उन फिल्मकारों की पहचान करनी होगी जो भारतीय भूभाग पर बिखरी कहानियों की खोज करें। साथ ही उन फिल्मकारों को चिन्हित करें जो इन कहानियों पर उत्कृष्ट फिल्में बनाकर दर्शकों के सामने पेश कर सकें। इसके लिए आवश्यक है कि भारतीय फिल्म विकास निगम के पुनर्गठन के कार्य में तेजी लाई जाए। इसको अफसरशाही और लालफीताशाही की जकड़न से मुक्त किया जाए। फिल्म की समझ रखनेवाले, भारतीय कहानियों को, भारतीय भाषाओं में समझने और उसको भारतीय भाषाओं में ही अभिव्यक्त करनेवालों की भूमिका बढ़ाई जाए। अगर ऐसा हो पाता है तो न केवल भारतीय फिल्मों का भला होगा बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुनिया जिस ‘नई उम्मीद’ की बात कर रहे हैं वो भारतीय फिल्म जगत में भी साकार हो सकेगा। 


Tuesday, May 17, 2022

दृढ इच्छाशक्ति से सिक्किम का विलय


स्वाधीनता के बाद जब रजवाड़ों के भारत में विलय के समय का इतिहास देखा जाए तो जवाहरलाल नेहरू अपने मित्रों को लेकर उदार दिखते हैं। कश्मीर में वो शेख अब्दुल्ला को लेकर साथ चलने पर लगातार बल देते थे। कश्मीर को लेकर उनके बयानों से उलझन भी पैदा होती थी। सरदार कई बार नेहरू के कदमों से खिन्न भी हो जाते थे। जून 1946 में नेहरू शेख अब्दुल्ला के समर्थन में कश्मीर जाना चाहते थे। सरदार पटेल ने उसका विरोध किया था। 11 जुलाई 1946 को डी पी मिश्रा को पटेल ने लिखा, ‘उन्होंने (नेहरू ने) हाल में बहुत सी ऐसी बातें कही हैं, जिनसे जटिल उलझनें पैदा हुई हैं। कश्मीर के संदर्भ में उनकी गतिविधियां, संविधान सभा में सिख चुनाव में हस्तक्षेप, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन के तुरंत बाद प्रेस कांफ्रेंस बुलाना, ये सभी कार्य भावनात्मक पागलपन के थे और इनसे हम सभी को इन मामलों को हल करने में बहुत ही तनावपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ा था। किंतु इन सभी निष्कलंक एवं अविवेकपूर्ण बातों को उनके स्वतंत्रता प्राप्ति के आवेश का असमान्य उत्साह माना जा सकता है।‘ महाराजा हरि सिंह से नेहरू के अच्छे संबंध नहीं थे इस वजह से उनको कश्मीर के भारतीय गणतंत्र में विलय के लिए सरदार पटेल पर निर्भर रहना पड़ रहा था। लेकिन ऐसी कोई मजबूरी सिक्किम को लेकर नहीं थी। आजादी के समय सिक्किम का राजा थोंडुप नामग्याल, नेहरू के मित्र थे। 1947 मे जब भारत को आजादी मिली तो सरदार पटेल और संविधान सभा के सलाहकार बी एन राव इस मत के थे कि सिक्किम का भारत में विलय किया जाना चाहिए लेकिन नेहरू ने इसका विरोध किया था। 

सिक्किम के भारत में विलय पर प्रामाणिक पुस्तक लिखने वाले जी बी एस सिद्धू ने अपनी पुस्तक, सिक्किम, डान आफ डेमोक्रेसी में उपरोक्त प्रंसग का भी उल्लेख किया है। प्रामाणिक इस वजह से कि वो इस अभियान का हिस्सा थे। उनके मुताबिक जवाहरलाल नेहरू अपने आदर्शवाद, एशिया को लेकर अपनी दृष्टि और चीन की स्थिति को ध्यान में रखकर इस विलय का विरोध कर रहे थे। नेहरू चाहते थे कि सिक्किम को विशेष दर्जा मिले। ये सब तब हो रहा था जब सिक्किम स्वाधीनता के पहले चैंबर आफ प्रिसेंस और संविधान सभा का सदस्य भी था। बावजूद इसके थोंडुप नामग्याल सिक्किम को स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर कायम रखना चाहता था। उसने तो आजादी के करीब एक पखवाड़े पहले दार्जिलिंग को सिक्किम में मिलाने की चाल भी चली थी जो नाकाम हो गई थी। इस मामले में नेहरू की चली और सिक्किम को विशेष दर्जा दिया गया। फरवरी 1948 में सिक्किम के साथ भारत सरकार ने एक समझौता किया जिसमें 11 मामलों को छोड़कर सभी अधिकार सिक्किम के राजा को दिए गए। इसमें विदेश और रक्षा मामले भारत सरकार के पास रहे। 1950 में सिक्किम के राजा और भारत सरकार के बीच एक और समझौता हुआ। सिक्किम की जनता इससे खुश नहीं थी और वहां लगातार लोकतंत्र के पक्ष में आंदोलन चल रहा था। तत्कालीन भारत सरकार इसको दबाने में नामग्याल का सहयोग कर रही थी। राजा ने एक अमेरिकी महिला से शादी कर ली थी जिसके बारे में ये धारणा थी वो सीआईए की एजेंट है। 

कालांतर में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं नामग्याल दिल्ली आए। उनसे मिले और भारत के साथ सिक्किम की जारी संधि से मुक्त होकर स्वतंत्र राष्ट्र की अपेक्षा जाहिर की। यही वो निर्णायक मोड़ था जब इंदिरा गांधी ने फैसला किया कि सिक्किम का पूर्ण रूप से भारत में विलय होना चाहिए। इस बीच बंग्लादेश की समस्या सामने आई लेकिन साथ ही साथ सिक्किम को लेकर कूटनीतिक और रणनीतिक स्तर पर तैयारी आरंभ हो चुकी थी। टी एन कौल उस समय विदेश सचिव थे। वो सिक्किम के भारत में पूर्ण विलय की बजाए चाहते थे कि पूर्व में हुए समझौते के आधार पर एक स्थायी संधि की जाए। इस स्थायी संधि के लिए कौल ने एक ड्राफ्ट तैयार किया और उसपर मंत्रियों के समूह में चर्चा हुई। इस चर्चा में तत्ताकलीन सेनाध्यक्ष जनरल मानिक शा को भी बुलाया गया था। सिद्धू की पुस्तक के मुताबिक किसी मंत्री ने इसपर कुछ नहीं बोला लेकिन जनरल मानिक शा ने कहा कि आपलोग चाहे जो भी निर्णय लें लेकिन मुझे तो सैनिकों की तैनाती और आपरेशन की स्वतंत्रता है।  जनरल शा के इस वाक्य से संदेश स्पष्ट था। इंदिरा गांधी ने अपने पिता नेहरू की सोच के उलट सिक्किम को पूरी तरह से भारतीय गणराज्य का हिस्सा बनाने का जिम्मा रिसर्च एंड एनलैसिस विंग( आरएडब्लू) के चीफ आर एन काव को सौंपा। ये वो दौर था जब पाकिस्तान के दो टुकड़े हो चुके थे और बंग्लादेश अस्तित्व में आ चुका था। काव ने रा के ही एक अधिकारी जी बी एस सिद्धू को इसका जिम्मा सौंपा। 

सिक्किम का ये आपरेशन आम खुफिया आपरेशन की तरह नहीं था। इसमें राजनीतिक तंत्र का उपयोग करके लक्ष्य हासिल करना था। सिद्धू ने सिक्किम में लोकतंत्र के समर्थक नेताओं के साथ संपर्क बढ़ाना आरंभ किया। उन्होने सिक्किम नेशनल कांग्रेस के दोरजी काजी और जनता कांग्रेस के महासचिव एस के राय को विश्वास में लिया और उनको हर तरह की मदद देने लगे। उद्देश्य था कि नामग्याल को अलग थलग करना, लोकतांत्रिक ताकतों को मजबूत करना और चुनाव करवाकर विलय को अंजाम देना। सिद्धू को काव का स्पष्ट निर्देश था कि वो अपनी गतिविधियों की जानकारी किसी भारतीय अधिकारी के साथ भी साझा न करें। इस मिशन की जानकारी सिर्फ तीन लोगों को थी, सिद्धू, कोलकाता में रा के अफसर पी एन बनर्जी और काव। इंदिर जी को को तो थी ही।  सिद्धू उस वक्त के सिक्किम कांग्रेस के नेता दोरजी काजी को मजबूत कर रहे थे। वो भारत के साथ विलय के लिए जनमत तैयार कर रहे थे। अप्रैल 1973 में राजा के विरोध की आग इतनी तेज हो गई कि उसको भारत सरकार के साथ एक समझैता करना पड़ा। तय हुआ कि भारत के निर्वाचन आयोग की देखरेख में राज्य में विधानसभा के चुनाव होंगे। अप्रैल 1974 में सिक्किम में चुनाव करवाए गए जिसमें सिक्किम कांग्रेस को 32 में 31 सीटें मिली। 

अब इस आपरेशन का दूसरा चरण आरंभ हुआ। रा के सामने ये चुनौती थी कि सिक्किम के सभी नवनिर्वाचित सदस्य काजी के पक्ष में एकजुट रहें और भारत के साथ विलय का प्रस्ताव पारित हो। नई दिल्ली से कोई निर्देश आने तक राजा की साजिशों पर ध्यान रखा जाए। सिक्किम के अन्य नेता के सी प्रधान और बी बी गुरुंग पर भी नजर रखी जा रही थी। नई दिल्ली से हरी झंडी मिलते ही विधानसभा से एक प्रस्ताव पारित हुआ कि भारत के साथ सक्रिय संबंध बनाए जाएं और संवैधानिक संस्थाओं के साथ मिलकर काम किया जाए। नामग्याल ने इसका कड़ा विरोध किया। लेकिन तबतक तय हो चुका था कि सिक्किम में  जनमत संग्रह करवाया जाए। नामग्याल जनमत संग्रह के लिए राजी नहीं हो रहा था। वो इसको किसी तरह फेल करना चाहता था। उसकी संदिग्ध गतिविधियां तेज हो गई थीं। तब भारतीय सेना को उसके महल में हल्की सैन्य कार्रवाई करनी पड़ी थी। उसके कुछ दिनों जनमत संग्रह हुआ और 97 फीसदी ने सिक्किम के भारत में विलय को मंजूरी दी। इसके बाद पहले लोकसभा और फिर राज्यसभा में विलय को मंजूरी दी और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के साथ ही सिक्किम भारत का अंग बन गया। नेहरू ने ‘स्वतंत्रता प्राप्ति के आवेश के असमान्य उत्साह’ में जो गलती की थी उसको उनकी बेटी की दृढ़ इच्छाशक्ति ने सुधारा। 

Saturday, May 14, 2022

फिल्मों के स्वावलंबन का सफर


आज पूरा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। अमृत महोत्सव के अवसर पर हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि भारतीय फिल्मों ने स्वाधीनता के बाद जो स्वावलंबन की राह पकड़ी वो कैसी थी, उनमें किस तरह की बाधाएं आ रही थीं। स्वाधीनता के बाद के भारतीय फिल्म के परिदृश्य पर विचार करने से पहले फिल्मों को लेकर दो बयान पर नजर डाले लेते हैं। पहला बयान रूस के कम्युनिस्ट नेता लेनिन का और दूसरा है महात्मा गांधी का। रूस की क्रांति के बाद लेनिन ने कहा था कि ‘हमारे लिए सिनेमा सभी कलाओं से अधिक महत्वपूर्ण है। सिनेमा केवल लोगों के मन बहलाव का नहीं बल्कि सामाजिक शिक्षा, संवाद स्थापित करने तथा हमारी विशाल जनसंख्या को एकसूत्र में बांधने का सशक्त साधन भी है।‘ रूसी क्रांति के दो साल बाद वहां के फिल्म उद्योग का राष्ट्रीयकरण करके उसको एक मंत्रालय के अधीन कर दिया गया था। इसके ठीक दस साल बाद भारत में स्वाधीनता संग्राम तेज हुआ। गांधी इसके सर्वमान्य नेता के तौर पर स्थापित हुए। उस वक्त तक गांधी फिल्म की शक्ति को पहचान नहीं पाए। पहचान तो वो बाद में नहीं पाए। गांधी फिल्मों को एक बुराई की तरह देखते थे। 1929 में वो बर्मा (अब म्यांमार) गए थे। वहां उनको एक नाटक देखना पड़ा। देखना पड़ा इस वजह से क्योंकि वो सोच कर गए थे कि मजदूरों की किसी सभा में जाना पड़ा रहा है। लेकिन जब वहां पहुंचे तो  नाटक का मंचन हो रहा था। गांधी ने वहां एक भाषण दिया जो गांधी वांग्मय में संकलित है। गांधी ने कहा, ‘सार्वजनिक नाटकघरों में जाने के अन्य जो भी परिणाम हो यह तो निश्चित ही है कि नाटकों ने अनेकानेक युवकों का आचरण और चरित्र भ्रष्ट कर दिया है। आप पक्की उम्र के लोग चाहे अपने को नाटकों के दुष्प्रभाव से बिल्कुल बरी मान लें, लेकिन आपको अपने छोटे-छोटे बच्चों का भी खयाल करना चाहिये जिनको आपत्तिजनक नाटकों में ले जाकर आप उनके निर्दोष, निष्पाप मन के साथ कितना बड़ा अनाचार कर रहे हैं।  आप चारों ओर नजर तो डालिये वर्तमान व्यवस्था के कुप्रभाव में पनपने वाले सिनेमा, नाटक, घुड़दौड़, शराबखाने और अफीमघर इत्यादि के रूप में समाज के ये सभी शत्रु चारों और से मुंह बाए हमारी घात में खड़े हैं।‘  सिनेमा को गांधी समाज का शत्रु मानते थे लेकिन लेनिन उसको सामाजिक शिक्षा का माध्यम मानते थे।  एक तरफ सिनेमा को लेकर लेनिन के विचार तो दूसरी तरफ गांधी के। 

स्वतंत्रता के बाद भारतीय फिल्मों की चुनौतियों पर बात करने के पहले गांधी के विचारों का ध्यान ऱखना होगा। 1947 में जब देश स्वाधीन हुआ तो फिल्म उद्योग के लोगों ने महात्मा गांधी को एक कार्यक्रम में आमंत्रित करना चाहा। उस समय गांधी के सचिव ने आयोजकों को उत्तर दिया था कि फिल्म से संबंधित किसी भी कार्यक्रम में गांधी जी को बुलाने के बारे में सोचिए भी नहीं क्योंकि फिल्मों को लेकर बापू की राय अच्छी नहीं है। कई जगह इस बात का उल्लेख मिलता है कि चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भी फिल्मों को पाप फैलाने का माध्यम मानते थे और कहा करते थे कि फिल्में पश्चिम के घटिया मूल्यों को भारतीय समाज पर थोपतीं है। ये ठीक है कि दूसरे विश्वयुद्ध के पहले और बाद में भी विदेशी फिल्में बड़ी संख्या में भारत में आ रही थीं। उनका प्रदर्शन भी सफलतापूर्वक होता था। उनमें से कई फिल्मों में नग्नता होती थी। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि दर्जनों भारतीय निर्माता निर्देशक अपने पौराणिक चरित्रों और संत महात्माओं को केंद्र में रखकर फिल्में बना रहे थे। जो काफी सफल भी हो रही थी। 1917 में दादा साहब फाल्के ने ‘लंका दहन’ के नाम से एक फिल्म बनाई थी। 1918 में श्रीनाथ पाटणकर ने ‘राम वनवास’ के नाम से एक ऐतिहासिक फिल्म बनाई। पाटणकर ने इसके बाद ‘सीता स्वंयवर’, ‘सती अंजनि’ और ‘वैदेही जनक’ नाम से फिल्में बनाईं थीं। मूक फिल्मों के दौर में तकरीबन हर वर्ष राम कथा पर केंद्रित फिल्में बनती थीं, इनमें से अहिल्या उद्धार, श्रीराम जन्म, लव कुश, राम रावण युद्ध, सीता विवाह, सीता स्वयंवर और सीता हरण आदि प्रमुख फिल्में हैं। बोलती फिल्मों के दौर में भी रामकथा को आधार बनाकर कई फिल्में बनीं। प्रकाश पिक्चर्स ने वाल्मीकि रामयाण पर आधारित चार फिल्में बनाईं, ‘भरत मिलाप’, ‘रामराज्य’, ‘राम वाण’ और ‘सीता स्वयंवर’। इन फिल्मों में राम का किरदार प्रेम अदीब और सीता की भूमिका शोभना समर्थ ने निभाई थी। बावजूद फिल्मों को लेकर गांधी के विचार नहीं बद सके थे। उसका असर प्रत्यक्ष और परोक्ष असर भारत के फिल्म उद्योग पर पड़ा। फिल्मों को लेकर सरदार पटेल और नेहरू के विचार गांधी से अलग थे। गांधी के जीवनकाल में ही पटेल ने मुंबई (तब बांबे) में फिल्म उद्योग के लोगों की एक सभा में उनको भरपूर सहयोग का वादा किया था। गांधी के निधन के बाद नेहरू ने भी फिल्मों को लेकर सकारात्मक रुख दिखाया था। 

इस पृष्ठभूमि के बावजूद भारतीय फिल्म उद्योग लगातार बढ़ता रहा तो इसके पीछे की वजह फिल्मों को लेकर इससे जुड़े लोगों का इस विधा में विश्वास था। स्वाधीनता के बाद 1948 में एक फिल्म रिलीज हुई थी, जिसका नाम था चंद्रलेखा। इस फिल्म का निर्माण मद्रास की जैमिनी स्टूडियो ने किया था और इसके निर्देशक एस एस वासन थे। ये भव्य फिल्म तीस लाख रुपए की लागत से तैयार हुई थी। सालभर में करीब दो करोड़ रुपए का कारोबार इस फिल्म ने किया था। यहीं से हिंदी फिल्मों को सफलता का एक सूत्र मिला जिसको कई फिल्म निर्माताओं ने अपनाया। ये सूत्र था एक नायिका और उसको चाहनेवाले दो अभिनेता। ये फार्मूला कई सालों तक चलता रहा। अब भी गाहे बगाहे किसी न किसी फिल्म में ये कथानक देखने को मिल जाता है। 1950 के आसपास कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जिसने भारतीय फिल्मों के स्वरूप को बहुत हद तक प्रभावित किया। भारत सरकार ने 1949 में एस के पाटिल की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई जिसको फिल्म उद्योग की स्थिति के बारे में आकलन करने और उसमें बेहतकी के लिए सुझाव का जिम्मा सौंपा गया। 1951 में राजकपूर की फिल्म अवारा रिलीज हुई। इस फिल्म को देश के अलावा विदेश खासतौर पर रूस में अपार लोकप्रियता मिली। इसके सालभर बाद 1952 में देश के चार महानगरों में फिल्म फेस्टिवल का आरंभ हुआ। बांबे ( तब मुंबई ), दिल्ली, चेन्नई (तब मद्रास) और कोलकाता (तब कलकत्ता) में भारतीय के साथ साथ विदेशी फिल्मों का प्रदर्शन हुआ। इसने भारतीय फिल्म उद्योग को विदेश की कलात्मक फिल्मों से परिचय करवाया। जापान, रूस और इंगलैंड से फिल्में आईं। इस आयोजन से हमारे देश में फिल्म संस्कृति के विकास की नींव पड़ी। 

स्वाधीनता के पहले जिस स्टूडियो व्यवस्था की नींव पड़ी थी वो आज बहुत सफल है। आज फिल्मों के निर्माण की दर्जन भर से अधिक कंपनियां करोड़ों और कुछ तो अरबों रुपए का कारोबार कर रही हैं। अगर हम स्टूडियो के व्यावसायीकरण की बात करें तो इसका आरंभ स्वाधीनता के पहले ही हो गया था। फरवरी 1934 में हिमांशु राय ने बम्बई टाकीज के लिए पच्चीस लाख रुपए जुटाने के लिए सौ रुपए के पच्चीस हजार शेयर जारी किए थे। देविका रानी ने लिखा था कि ‘1935 में जब हमने बम्बई के मलाड में बम्बई टाकीज स्थापित किया तो तो उसे एक व्यापार की तरह चलाया। हमारी कंपनी के पास श्रेष्ठ उपकरण थे- बेल एंड हावेल कंपनी के कैमरे थे और आरसीए ध्वनि पद्धति थी।‘ इसके पहले भी फिल्म कंपनियां फिल्मों का निर्माण कर रही थीं लेकिन हिमांशु राय ने उसको एक अलग आयाम दिया। आज भारतीय फिल्म उद्योग जगत दुनिया के सबसे बड़े फिल्म उद्योगों में शामिल हो चुका है और निरंतर मजबूत हो रहा है। 


Saturday, May 7, 2022

विदेशी सिद्धांत से उथला विमर्श


हिंदी साहित्य में कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनपर नियमित अंतराल के बाद विमर्श होते रहते हैं। ऐसा ही एक मुद्दा है स्त्री विमर्श का। स्त्री विमर्श के मुद्दे पर हिंदी के छोटे-मंझोले से लेकर बड़े लेखक तक टिप्पणियां करके सुर्खियां बटोरते रहते हैं। जब इंटरनेट मीडिया के प्लेटफार्म्स नहीं थे तो राजेन्द्र यादव अपनी पत्रिका हंस के माध्यम से इस मुद्दे को हवा देते रहते थे। हंस में होनेवाली चर्चा की देखा-देखी अन्य साहित्यिक पत्रिकाएँ भी स्त्रियों के मुद्दे पर बहस करवाते थे। अब हिंदी साहित्य की चर्चा का मंच फेसबुक हो गया है। राजेन्द्र यादव ने जिस स्त्री विमर्श को हिंदी साहित्य में चर्चित किया था अब वो विमर्श उससे आगे निकल गया है। राजेन्द्र यादव ने जिस स्त्री गाथा को आरंभ किया था अब उसकी उत्तर गाथा या उत्तर आअधुनिक गाथा लिखी जा रही है। फ्रांसीसी लेखिका सीमोन द बोउवा की 1949 में प्रकाशित पुस्तक ‘द सेकेंड सेक्स’ से यादव बहुत प्रभावित थे। उसके आधार पर ही उन्होंने हिंदी में विमर्श चलाया। इसकी नकल पर बाद में हिंदी के कई लेखक स्त्री विमर्श का झंडा उठाकर चलने लगे। सीमोन विवाह संस्था का विरोध करती थीं। अल्जीरिया के मुक्ति संग्राम के समय कनाडा की सरकार ने उनके एक साक्षात्कार पर इस वजह से प्रतिबंध लगा दिया था कि वो विवाह संस्था का विरोध करती थीं। राजेन्द्र यादव ने सीमोन के लेख से स्त्री विमर्श के सूत्र निकाले और हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श को परोक्ष रूप से देह विमर्श में तब्दील कर दिया। वही देह विमर्श अब विद्रूप रूप में सर्वजनिक बहस का हिस्सा बनने लगा है। पश्चिमी समाज और सिद्धांत के अंधानुकरण से हिंदी में  स्त्री विमर्श भारतीय संदर्भों से कटता चला गया। 

भारतीय संस्कृति में स्त्री हमेशा से सबल रही हैं। उनको तमाम तरह के अधिकार प्राप्त रहे हैं। यहां की स्त्रियों की आदर्श तो सावित्री रही हैं। वो सावित्री जिनको मालूम होता है कि सत्यवान की आयु एक वर्ष ही बची है, बावजूद इसके उसने सत्यवान से ही विवाह किया। पति से उनके प्रेम के आगे यमराज को भी झुकना पड़ा था। हमारे यहां तो कुंती और द्रोपदी जैसी स्त्रियां हैं जिनके आचार और व्यवहार के आधार पर स्त्री विमर्श की बात की जानी चाहिए। प्राचीन काल से ये परंपरा रही है कि स्त्रियां अपना वर खुद चुनेंगी। स्वयंवरों की परंपरा लंबे समय तक चलती रही है। तमाम तरह की बाधाओं को झेलते हुए भी पिता और भाई भी अपने परिवार की स्त्री की इच्छा का मान रखते थे। हमारे प्राचीन ग्रंथों में इस तरह की अनेक कहानियां मिलती हैं। जब हम भारतीय समाज और भारतीय स्त्रियों के व्यवहार को विदेशी समाज और विदेशी मान्यताओं और सिद्धांतों के आधार पर आकलन करने लगते हैं तो विमर्श का भटकना स्वाभाविक है। ये मानसिकता की बात है। इस संदर्भ में एक आधुनिक उदाहरण देना चाहूंगा। फिल्म मदर इंडिया का नामांकन आस्कर पुरस्कार हेतु हुआ था। ये फिल्म जूरी के सामने पहुंची और जूरी ने इसको देखकर इस फिल्म को पुरस्कार योग्य नहीं माना। उनका तर्क था कि कहानी बहुत हल्की और हास्यास्पद है। नायिका राधा, जिसकी भूमिका नर्गिस ने निभाई थी, अपने बेटों को खाना नहीं खिला पाने की वजह से परेशान थी। वो मदद के लिए सुखीलाला, जिसको कन्हैया लाल ने अभिनीत किया, के पास जाती है। सुखीलाला उसपर आसक्त है और उसके साथ जबरदस्ती करने की कोशिश करता है, नर्गिस उसकी पिटाई करके वहां से निकल जाती है। इस दृश्य को देखकर उस समय जूरी के सदस्य ने कहा था कि जब नायिका इतनी परेशान थी तो उसको लाला की सेक्सुअल फेवर की मांग मानने में दिक्कत क्या थी। जूरी के एक और सदस्य ने नर्गिस के अपने बेटे को गोली मार देने के दृश्य का उपहास उड़ाया था। उसने कहा था कि अगर किसी के बेटे ने किसी लड़की को छेड़ दिया तो उसको जान से मारने की क्या जरूरत थी, ये दृश्य हास्यास्पद हैं। जूरी के सदस्य नर्गिस के उस संवाद की गहराई या भारतीय समाज की मानसिकता को समझ ही नहीं पाए जहां वो कहती है कि बेटा दे सकती हूं, लाज नहीं। ये भारतीय समाज है, ये भारत की स्त्री है, ये भारतीय स्त्री का मन है, जिसको विदेशी कभी नहीं समझ पाएंगे। मदर इंडिया को आस्कर नहीं मिला।  

हिंदी साहित्य में फेसबुक जैसे माध्यमों पर स्त्री विमर्श करने वाले अपने पौराणिक ग्रंथों को संदर्भ से काटकर उद्धृत करते रहे हैं। पिछले दिनों ये पढ़ने को मिला कि मनुस्मृति में ये उल्लिखित है कि वर पक्ष से धन देकर कन्या का विवाह किया जाता था। बलात्कारियों से शादी का प्रविधान भी मनुस्मृति में मिलता है, आदि आदि। अब ये बातें बिल्कुल संदर्भ से काटकर और अज्ञानतावश की जाती हैं। मनुस्मृति में आठ तरह के विवाह का उल्लेख मिलता है। ब्राह्मविवाह, दैव विवाह, आर्ष विवाह, प्रजापत्य विवाह, गांधर्व विवाह, असुर विवाह, राक्षस विवाह और पैशाच विवाह। फेसबुक पर जिन दो विवाहों की चर्चा की गई उसका नाम है असुर विवाह और पैशाच विवाह। वर पक्ष से धन लेकर कन्या को विवाह के लिए सौंपने को मनु संहिता में असुर विवाह कहा गया है। इसी तरह बलात्कारियों के साथ कन्या का विवाह का प्रस्ताव या विवाह करने को पैशाच विवाह कहा गया है। विवाह के लिए हत्या करने और उसके बाद होनेवाली शादी को राक्षस विवाह कहा गया है। बाकी पांचों प्रकार के विवाह में स्त्री का सम्मान होता है। कन्या का विवाह सुयोग्य वर से, माता पिता की इच्छा से, कन्यादान से और स्त्री पुरुष के व्यक्तिगत फैसले को समाजिक वैधता देना आदि रहा है। शकुंतला दुश्यंत, नल-दमयंती आदि की कहानियां हमारे सामने हैं। अज्ञानियों को तो बस नकारात्मक चीजें ही दिखती हैं। फेसबुक के स्त्री विमर्शकारों को भारतीय समाज और इसकी परंपराओं को पढ़ने और समझने की आवश्यकता है।

हमारे देश में वामपंथियों ने भी स्त्री विमर्श के नाम पर खूब नारेबाजी की लेकिन उनकी कथनी और करनी में अंतर रहा है। कम्यून में स्त्रियों पर किस तरह के अत्याचार होते रहे हैं इसको कैफी आजमी की पत्नी शौकत कैफी ने अपने संस्मरणों में स्पष्ट किया है। यहां तक कि सीमोन ने भी माना था कि स्त्रियों की समस्याएं साम्यवाद से नहीं सुलझ सकती हैं। भारत में स्त्रियों को लेकर हमेशा से एक आदर और समानता का भाव रहा है लेकिन जब हम परतंत्र हुए और विदेशी आक्रांताओं ने अपनी संस्कृति को हमारे देश पर थोपी तब यहां की महिलाओं की स्थिति बदतर हुई। हमारे पौराणिक ग्रंथों के आधार पर ये कहा जा सकता है कि महिलाओं के लिए समाज में खुलापन था। भारतीय राजाओं के दरबार में रानियों के अलग से बैठने की व्यवस्था होती थी और वो दरबार के दैनंदिन क्रियाकलापों में अपनी राय रख सकती थीं, अपनी असहमतियां प्रकट कर सकती थीं। मुगल सम्राज्य की स्थापना के बाद ये खुलापन खत्म हो गया। विदेशियों के राज में ये संभव नहीं रहा। स्त्री विमर्शकारों के साथ भी वही दिक्कत है जो हिंदी के कुछ फिल्मकारों के साथ है। वो जेम्स हेडली चेज या मिल्स एंड बून के उपन्यास पढ़कर रोमांस गढ़ते हैं। उनको कालिदास के ग्रंथों में वर्णित रोमांस का पता ही नहीं है। उनको विद्यापति की नायिकाओं के प्रणय प्रसंगों का उसके प्रभावों के बारे में जानकारी ही नहीं है। विदेशी उपन्यासों के आधार पर गढ़े गए रोमांटिक दृश्य जिस तरह से फूहड़ और अश्लील हो जाते हैं उसी तरह पश्चिमी स्त्री विमर्श की नकल के आधार पर भारतीय स्त्रियों को लेकर किया जाना वाला विमर्श भी फूहड़ और उथला होता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय स्त्री की समस्याओं को भारतीय संदर्भों में समझने की कोशिश की जाए।