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Saturday, June 4, 2022

सत्य होती सत्यजित राय की चिंताएं


प्रख्यात फिल्मकार सत्यजित राय के शताब्दी वर्ष में उनकी फिल्मों पर चर्चा हो रही है। फिल्म  निर्माण की उनकी कला के बारे में सेमिनार और गोष्ठियां आदि आयोजित हो रही हैं। फ्रांस में आयोजित होनेवाले कान फिल्म फेस्टिवल से लेकर देश के फिल्म उत्सवों में उनकी फिल्मों का प्रदर्शन किया जा रहा है। कुछ फिल्मकार उनके जीवन और उनकी कला पर डाक्यूमेंट्री भी बना रहे हैं। लेकिन सत्यजित राय के जन्म शताब्दी वर्ष में फिल्मों को लेकर उन्होंने जो चिंताएं व्यक्त की थीं उनपर भी बात होनी चाहिए। फिल्मों की कहानियों और फिल्म और साहित्य के रिश्ते पर उन्होंने जो चिंता व्यक्त की थीं, उसपर कम बात होती है। 1980 में सत्यजित राय ने एक सेमिनार में कहा था कि इन दिनों लेखन में एक खास तरह की गिरावट देखी जा सकती है। अब जिस तरह के उपन्यास प्रकाशित हो रहे हैं या कहानियां छप रही हैं वो फिल्मकारों को फिल्म बनाने के लिए उकसा नहीं पा रही हैं। लेखकों ने एक खास किस्म की लेखन प्रविधि अपना ली है । वो अपने लेखन में जोखिम नहीं उठा रहे हैं और किसी प्रकार का प्रयोग भी नहीं कर पा रहे हैं। नतीजा ये हुआ है कि उनके लेखन में एक ठहराव आ गया है। सत्यजित राय के समकालीन लेखन पर इस टिप्पणी का बंगाल के लेखकों ने प्रतिवाद किया था और फिर कहा था कि ये लेखकों का दायित्व नहीं है कि वो फिल्मकारों को ध्यान में रखकर कहानियां या उपन्यास लिखे। लेखकों और सत्यजित राय के बीच इस विषय पर लंबा संवाद हुआ था। करीब चालीस वर्ष बाद आज भी सत्यजित राय के प्रश्न चुनौती बनकर लेखकों के सामने खड़े हैं। इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना चाहिए कि समकालीन लेखन में ऐसे उपन्यास या कहानियां क्यों नहीं लिखी जा रही हैं जो फिल्मकारों को प्ररित कर सकें कि वो उसपर उत्साहित होकर फिल्म बनाने के लिए आगे आएं। 

इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने के लिए हमें अतीत में जाना होगा। हमें ये देखना होगा कि कैसे लेखकों ने एक विचारधारा का दामन थामा और वो फार्मूलाबद्ध लेखन के जाल में फंसते चले गए। 1967 में जब नक्सबाड़ी आंदोलन का आरंभ हुआ तो उससे बंगाल के अलावा हिंदी प्रदेश के लेखक भी प्रभावित हुए। नक्सलवाद के रोमांटिसिज्म में हिंदी लेखन भी फंसा और इसमें भी नक्सलवाद का या मार्क्सवाद का प्रभाव दिखने लगा। इस आंदोलन के प्रभाव में ही समांतर सिनेमा का आरंभ हुआ जिसको न्यू वेव सिनेमा भी कहा गया। हिंदी सिनेमा भी इससे अछूता नहीं रहा और यहां भी इस समानंतर सिनेमा की छतरी के नीचे फिल्मकारों ने फिल्में बनानी शुरू की। उस वक्त की सरकार की तरफ से भी इन फिल्मकारों को मदद मिली थी। फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन ने इस तरह की फिल्म बनाने वालों को आर्थिक मदद की । मुनाफा या फिल्म पर आनेवाले खर्चे की चिंता नहीं होने की वजह से समांतर सिनेमा से जुड़े फिल्मकारों ने कला को छोड़कर विचारधारा को दिखाना आरंभ कर दिया। सरकारी खर्चे से बबनेवाली फिल्मों की चर्चा तो बहुत हुई लेकिन दर्शकों का प्यार कम मिला। ये दौर बहुत लंबे समय तक चला। अपनी विचारधारा के फिल्मकारों को फिल्म समीक्षकों ने बढ़ाना और स्थापित करना आरंभ कर दिया। सत्यजित राय जब तक जीवित रहे वो इस इस तरह की फिल्मो के चक्कर में नहीं पड़े। उनपर हमले भी हुए, उनकी फिल्मों की आलोचना भी होने लगी। उनपर बंगाल की संस्कृति से दूर जाने के आरोप भी लगाए गए लेकिन वो हर तरह की फिल्म बनाते रहे और वैश्विक स्तर पर उनकी फिल्मों को सराहना मिली। आज भी कान फिल्म फेस्टिवल के दौरान सत्यजित राय की फिल्मों का न केवल प्रदर्शन होता है बल्कि उनकी फिल्म कला पर चर्चा होती है। जैसे जैसे विचारधारा का प्रभाव कम हुआ उसके आधार पर बनी फिल्में भी नेपथ्य में चली गईं। उपन्यास और कहानी के नाम पर वैचारिकी परोसनेवाले लेखक भी पिछड़ गए। 

वैचारिक लेखन के कई नुकसान सामने आए। विशेष रूप से अगर हम हिंदी में उपन्यास और कहानी लेखन को देखें तो वामपंथी विचारधारा के प्रभाव में जिस तरह से यथार्थ के नाम पर लेखन आरंभ हुआ वो एकांगी होता चला गया। कहानी में किस्सागोई का स्थान नारेबाजी ने ले लिया। गांव-देहात, किसान-मजदूर के नाम पर लिखी जानेवाली कहानियों में परोक्ष रूप से विचारधारा को मजबूत करनेवाली बातें कही जाने लगीं। विचारधाऱा के खूंटे से बंधे लेखकों की कृतियों में कथित यथार्थवाद जड़ हो गया। मजदूरों, गरीबों और किसानों की समस्याएं बदलीं, उनका संकट बदला लेकिन हिंदी के अधिकांश लेखक उन समस्याओं को या संकट को पकड़ने में नाकाम रहे। लगातार एक तरह के लेखन से पाठक भी दूर होते गए और साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनानेवालों के सामने भी संकट आ खड़ा हो गया। जिसको सत्यजित राय ने अस्सी के शुरुआती दशक में ही भांप कर प्रकट कर दिया था। सत्यजित राय ने जब कहानियों में विविधता और प्रयोगात्मकता की ओर संकेत किया था तो उसके करीब एक दशक बाद देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर आरंभ हुआ। वामपंथ के किले ढहने लगे थे, वामपंथी विचारधारा के सामने बड़ी चुनौती आकर खड़ी हो गई थी। रूस और चीन में भी खुलेपन की बयार बहने लगी। लेकिन विचारधारा वाले लेखक इस बदलाव को भांप नहीं पा रहे थे। भारतीय समाज भी पर आर्थिक उदारीकरण का गहरा प्रभाव पड़ा। भारत में एक नया मध्यवर्ग पैदा हो गया। भारत में गरीबों का किसानों का, मजदूरों का जीवन स्तर बेहतर होने लगा था। 

आर्थिक उदारीकरण के बाद नए मध्यवर्ग की आशा और आकांक्षाएं बदलने लगी थीं। मध्यवर्ग की बदलती आशा और आकांक्षाओं का प्रकटीकरण साहित्य में आनुपातिक रूप में कम हो रहा था। भारत के इस मध्यवर्ग की जीवनशैली को अंधाधुंघ शहरीकरण ने भी प्रभावित किया। युवाओं और महिलाओं की समस्याओं और सपने भी अलग हो गए। विचारधारा की गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हिंदी के लेखक यथार्थ के नाम पर जो परोस रहे थे वो इस बदले हुए यथार्थ से कोसों दूर था। परिणाम यह हुआ कि ऐसे लेखन के पाठक कम होते चले गए और तब हिंदी के लेखकों ने हिंदी में पाठकों की कमी का रोना आरंभ कर दिया। लेखकों के इस रुदन में कई प्रकाशक भी शामिल हो गए। उन्होंने भी पुस्तकों की कम होती बिक्री के बारे में कहना शुरु कर दिया। इस स्थिति पर अगर समग्रता से विचार किया जाए तो इस समस्या के मूल में हिंदी लेखकों का अपने पाठकों की रुचि को समझ पाने में नाकामी बड़ी वजह है। अब भी अगर स्वाधीनता क बाद के समय में किसानों और मजदूरों की समस्या का समकालीन बताकर पाठकों के सामने पेश किया जाएगा तो पाठक उसको स्वीकार करेंगे इसमें संदेह है। अब कुछ युवा लेखकों ने अपने समय को अपने उपन्यासों में या अपनी कहानियों में स्थान देना शुरू किया है तो उनको पाठक मिलने लगे हैं। हिंदी में पाठक नहीं है, यह अवधारणा गलत है। पाठक हैं और वो खरीदकर पढ़ना भी चाहते हैं लेकिन जरूरत इस बात की है कि उनकी रुचि की पुस्तकें लिखी जाएं और वो अपने पाठकों तक पहुंचने का उपक्रम करें। फिल्मकार भी साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनाना चाहते हैं। फिल्म एक ऐसा माध्यम है जो समय के साथ चलता है और अपने समय के यथार्थ को दर्शकों के सामने पेश करता है।  साहित्यिक कृतियों से कहानियां उठाकर निर्देशक उसको इस तरह से पेश करता है कि कई बार कहानी बदली हुई लगती है लेकिन वो माध्यम की मांग होती है। सत्यजित राय ने भी प्रेमचंद की कृति शतरंज के खिलाड़ी में कई बदलाव किए थे। आज अगर साहित्य को व्यापक दर्शक/पाठक वर्ग तक पहुंचना है तो उसको फिल्म के साथ साहचर्य स्थापित करने के बारे में सोचना चाहिए। 


1 comment:

rashmi bajaj said...

जब वैचारिक लेखन किसी विशेष विचारधारा तक ही सीमित होकर रह जाता है तो उसमें सभी साहित्यिक, सामाजिक सांस्कृतिक एवं मानवीय संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। दुर्भाग्यवश हिंदी लेखन एवं आलोचना के साथ पिछले कई दशकों से यह ट्रेजेडी हुई है। परिणाम हमारे समक्ष हैं -कोई नई दृष्टि या दर्शन हमारे समक्ष नहीं आ रहा। सारा लेखन बहुत ही स्टीरियोटाइप्ड, पुनरावृत्यात्मक है। अब इंस्टिट्यूट एप्स को तोड़कर आगे बढ़ना बहुत ज़रूरी हो गया है।