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Saturday, September 10, 2022

भाषाई सांप्रदायिकता से हिंदी की हानि


दो दिन बाद हिंदी दिवस है। हिंदी भाषा के बारे में जमकर चर्चा होगी। हिंदी को बाजार और रोजगार से जोड़ने की कई तरह की बातें होगी। स्वाधीनता के बाद से लेकर अबतक हिंदी की व्याप्ति बढ़ने पर हिंदी समाज प्रसन्न भी होगा। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने को लेकर अधिक प्रयास करने पर बल देते लोग भी मिलेंगे। हिंदी को  संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए केंद्र सरकार से अपील भी होगी। हर वर्ष हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़े में इस तरह के वाक्य सुनाई पड़ते हैं। हिंदी के विकास और उसकी समृद्धि को लेकर कार्य भी हो रहे हैं। शब्दकोश से लेकर भारतीय भाषाओं के कोश तैयार किए जा रहे हैं। हिंदी को तकनीक से जोड़ने के लिए सांस्थानिक और व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास किया जा रहा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भले ही हिंदी शब्द का उल्लेख नहीं है लेकिन मातृभाषा और भारतीय भाषा को प्राथमिकता की बातें हैं। इंजीनियरिंग और अन्य तकनीकी शिक्षा के लिए हिंदी में पुस्तकें तैयार की जा रही हैं। पर स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के बाद अब अमृतकाल में हमें उन ऐतिहासिक कारणों को भी देखना चाहिए जिसकी वजह से हिंदी को पराधीन हिंदुस्तान में संघर्ष करना पड़ा और जिसका असर स्वाधीनता के बाद भी हिंदी पर दिखाई दे रहा है। 

पिछले दिनों उपरोक्त कारणों की पड़ताल कर रहा था तो गोरखपुर में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन के 19वें अधिवेशन में 2 मार्च 1930 को गणेश शंकर विद्यार्थी का अध्यक्षीय भाषण देखने को मिला। अपने भाषण में गणेश शंकर विद्यार्थी ने विस्तार से उन कारणों और परिस्थितियों की चर्चा की है जिसकी वजह से हिंदी को पराधीन भारत में परिधि पर डालने और उसको वहीं बनाए रखने का षडयंत्र किया गया। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने लंबे वक्तव्य के आरंभ में ही इस ओर ध्यान दिलाया था। उन्होंने तब कहा था कि ‘आज से उन्नीस वर्ष पहले जब इस सम्मेलन का जन्म नहीं हुआ था और उसके जन्म के पश्चात भी कई वर्षों तक अपनी मातृभाषा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए पग पग पर न केवल संस्कृत, प्राकृत, शौरसैनी, मागधी, सौराष्ट्री आदि की छानबीन करते हुए शब्द-विज्ञान और भाषा-विज्ञान के आधार पर यह सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ा करती थी कि हिंदी भाषा संस्कृत या प्राकृत की बड़ी कन्या है, किंतु बहुधा बात यहां तक पहुंच जाया करती थी और यह भी सिद्ध करना पड़ता था कि नानक और कबीर, सूर और तुलसी की भाषा का बादशाह शाहजहां के समय जन्म लेनेवाली उर्दू बोली के पहले, कोई अलग गद्य रूप भी था। जिस भाषा में पद्य की रचना इतने ऊंचे दर्जे तक पहुंच चुकी हो, उसके संबंध में इस बात की सफाई देनी पड़े कि उसका उस समय गद्य रूप भी था, इससे बढ़कर कोई हास्यास्पद बात हो नहीं सकती।‘  गणेश शंकर विद्यार्थी के मुताबिक उस समय ये संभव हो सकता है कि गद्य लिखने की परिपाटी न हो और बड़े बड़े ग्रंथ पद्य में लिखे जाते रहे हों। उन्होंने इस संबंध में ईरान, ग्रीस, रोम और चीन का उदाहरण देकर अपनी बातें स्पष्ट की थीं। हिंदी को लेकर इस तरह की बातें कहनेवालों पर उपहास की शैली में प्रहार भी किया था। अब अगर हम गणेश शंकर विद्यार्थी के उपरोक्त कथन को देखें तो वो हिंदी को भाषा कहते हैं और उर्दू को बोली। इससे भी साफ होता है कि उस समय हिंदी और उर्दू की क्या स्थिति रही होगी। 

गणेश शंकर विद्यार्थी के चिंतन के मूल में एक और बात थी जो उनके वक्तव्य में परिलक्षित होती है। उनके मुताबिक राजनीतिक पराधीनता पराधीन देश की भाषा पर अत्यंत विषम प्रहार करती है। राजनीतिक पराधीनता का भाषा पर किस प्रकार असर पड़ता है उसको भी विद्यार्थी जी स्पष्ट किया। उन्होंने तब कहा था कि ‘राजनीतिक पराधीनता ने भारतवर्ष में भी उसी प्रकार, जिस प्रकार उसने अन्य देशों में किया, भाषा विकास की राह में रोड़े अटकाने में कोई कमी नहीं की।...इस देश के मुसलमान शासकों के कारण भारतीय भाषाओं का सहज सवाभाविक विकास नहीं हो सका। सबसे अधिक हानि हिंदी की हुई। उनकी सत्ता देश के उत्तर, पश्चिम और मध्यवर्ती भाग में थी। यही प्रदेश शाही सत्ता के कारण अरबी अक्षरों और फारसी साहित्य से इतने प्रभावित हुए कि उनका रंग रूप ही बदल गया। एक भाषा दूसरी भाषा के संसर्ग में आकर शब्दों और वाक्यों का सदा दान-प्रतिदान किया करती है। यह हानिकारक या अपमानजनक बात नहीं है किन्तु जब ये दान-प्रतिदान प्रभुता या पराधीनता के भाव से होता है, एक भाषा को दूसरी भाषा के शब्दों  और वाक्यों को इसलिए लेना पड़ता है कि दूसरी भाषा के लोग बलवान हैं, उनकी प्रभुता है, उनको प्रसन्न करना है, उनके सामने झुकना है, तो इससे लेनेवाले की उन्नति नहीं होती, वो अपनी गांठ का बहुत कुछ खो देते हैं और पर-भाषा की सत्ता को स्वीकार करके अपनी परवशता और हीनता को पुष्ट करते हैं और अपने सर्वसाधारण जन से दूर जा पड़ते हैं। इस देश में विजेताओं के साथ फारसी के प्रवेश से ये बातें हुईं।‘  अब यहां से सूत्र पकड़ने की आवश्यकता थी जिसमें बाद के विद्वानों से चूक हुई या उनमें से कुछ अपनी विचारधारा की वजह से इन कारणों को जानबूझकर छोड़ दिया। परिणाम ये हुआ कि हिंदी भाषियों को यह सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ी कि फारसी के आगमन और उर्दू के जन्म के पहले भी हिंदी गद्य का स्वतंत्र अस्तित्व था।

इस प्रकार का वातावरण लंबे कालखंड तक चला और फिर मगुलों के बाद इस देश पर अंग्रेजों का शासन कायम हुआ। उस समय अदालतों की भाषा फारसी थी। अंग्रेजों ने फारसी के स्थान पर उर्दू को स्थापित कर दिया। जबकि उर्दू का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था। गणेश शंकर विद्यार्थी के मुताबिक उस समय मुसलमान जिस हिंदी को बोलते और लिखते थे और जिसमें वे फारसी के कुछ शब्दों का प्रयोग करते थे वही उर्दू थी। अंग्रेजों ने उत्तर भारत में उर्दू को ऐसा स्थान देकर जो उसे पहले से प्राप्त न था, हिंदी और उर्दू के विवाद का सूत्रपात किया। इस प्रकार बहुसंख्यक हिंदी भाषा-भाषी लोगों की सुविधा और विकास में बाधा उत्पन्न कर दी। अब अगर इन बिंदुओं पर विचार करें तो हिंदी के लंबे संघर्ष को समझा जा सकता है। स्वाधीनता संग्राम के दौरान हिंदी का उपयोग एक बार फिर से बढ़ा और उसको हिंदुस्तान के लोगों को जोड़ने वाली भाषा के तौर पर देखा जाने लगा। उस समय के कई नेताओं ने हिंदी को राष्ट्रभाषा की संज्ञा देते हुए ये अपेक्षा की थी कि स्वाधीनता के बाद हिंदी देश की राष्ट्रभाषा बनेगी। ये सबको स्वीकार भी था। अगर हम स्वाधीनता संग्राम के दौरान होनेवाले विरोध अभियानों का नाम देखें तो हिंदी की स्थिति स्पष्ट होती है। असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, जैसा सुंदर हिंदी शब्द हो, नमक सत्याग्रह या पूर्ण स्वराज या भारत छोड़ो आंदोलन। ये हिंदी शब्दों की स्वीकार्यता और संप्रेषणीयता थी जिसने पूरे हिन्दुस्तान को एक कर दिया। जब गांधी दक्षिण अफ्रका से भारत वापस लौटे थे तब वो भी हिंदी के पक्षधर थे। वो हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर देखते थे लेकिन कालांतर में वो हिन्दुस्तानी के पक्षधर होते चले गए। वो हिन्दुस्तानी जिसको लेकर स्वाधीनता के बाद संविधान सभा में बहस हुई, पहले आमचुनाव के बाद संसद में बहस हुई लेकिन आज वो अपनी पहचान और प्रासंगिकता दोनों खो चुका है। मुगलों के समय हिंदी आक्रांताओ की भाषाई सांप्रदायिकता का शिकार बनी, उसके बाद अंग्रेजों ने हिंदी को उर्दू से दबाने की कोशिश की। अंग्रेजी को प्राथमिकता देकर भारतीय भाषाओं का तिरस्कार किया। कुल मिलाकर अमृतकाल में हमें इन बातों पर विचार करते हुए हिंदी और भारतीय भाषाओं को मजबूत करने का प्रण लेना चाहिए। 

1 comment:

Anonymous said...

सुंदर आलेख