कुछ समय पूर्व ओडिशा स्थित कोणार्क के सूर्य मंदिर जाने का अवसर प्राप्त हुआ। सूर्य मंदिर परिसर के प्रवेश द्वार से विशाल मंदिर बेहद भव्य लग रहा था। परिसर में अंदर जाते ही एक शिलालेख पर इस मंदिर के बारे में जानकारी दिखी। स्थापत्य कला की इस अनुपम कृति का निर्माण 1250 ईसवी में गंग राजा नरसिंहदेव प्रथम के राज्यकाल में सूर्य प्रतिमा की स्थपना के लिए किया गया था। इस संपूर्ण स्थापत्य को एक विशाल रथ के रूप में अनुकृत किया गया था। इस कृति में बारह जोड़ी अंलकृत पहिए लगे हुए हैं और उसे सात घोड़े खींच रहे हैं। शिलालेख के मुताबिक यह मंदिर ओडिशा के स्थापत्य कला के चरमोत्कर्ष का उत्कृष्ट उदाहरण है। इस मंदिर का गर्भगृह और नाट्य मंदिर भग्न रूप में हैं, जबकि जगमोहन सुरक्षित स्थिति में है। मंदिर की भित्तियों पर दैवीय मानव , पेड़, पौधों और जीव जंतुओं के साथ साथ ज्यामितीय अलंकरण बहुतायत में हैं। कन्याओं, नर्तकियों और वादकों की शारीरिक संरचना, अलंकरण एवं भाव भंगिमाएं विशेष दर्शनीय हैं।
शिलालेख को पढ़ने के बाद मंदिर को पास से देखने की उत्सुकता और बढ़ गई। शिलालेख के विवरण को पढ़कर जो छवि बनी थी उसके साक्षात अवलोकन के लिए मंदिर के पास पहुंचा। मुख्य मंदिर की तरफ जाने के लिए सामने की तरफ से सीढ़ियां बनी हुई हैं। उन सीढ़ियों के पहले भी एक प्रवेश द्वार है। वहां विशाल शिलाओं से बनी हाथी की आकृति है। अचानक मेरी नजर एक तरफ के हाथी की आकृति वाले शिला पर पड़ी तो तो उसके एक पांव पर सीमेंट और बालू का लेप लगा दिखा। पास जाने पर ऐसा प्रतीत हुआ कि मूर्ति में आई दरार को पाटने के लिए उसको सीमेंट और बालू से भर दिया गया था। ये भी लग रहा था कि इसके ऊपर सीमेंट का घोल डाल दिया गया है। हाथी पर घोले हुए सीमेंट के निशान स्पष्ट दिख रहे थे। ये निशान उस कलाकृति को भद्दा बना रहे थे। मंदिर के चारो तरफ घूमने और सूर्य मंदिर में पत्थर पर उकेरी गई कलाकृतियों को देखकर मंदिर की स्थापत्य कला से बेहद प्रभानित हुआ अपने देश की मंदिर निर्माण कला के बारे में जानना और उसको प्रत्यक्ष देखना अविस्मरणीय था।
कोणार्क का ये सूर्य मंदिर यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में शामिल है। इसकी देखरेख की जिम्मेदारी आर्कियोलाजी सर्वे आफ इंडिया (एएसआई) पर है। इस संगठन का काम ही सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण का है। यह संस्था भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत कार्य करती है। इतने उत्कृष्ट कला के संरक्षण में इतनी लापरवाही हो रही है कि किसी कलाकृति की दरार को बेहद भद्दे तरीके भर दिया जा रहा है। दरार को पाटने वाली सामग्री के घोल को उसपर उड़ेल देना जिससे उसकी खूबसूरती नष्ट हो जा रही हो। प्रश्न उठता है कि एएसआई कोणार्क के सूर्य मंदिर के संरक्षण को लेकर इतनी लापरवाह क्यों है। क्या इन संरक्षित धरोहरों का रखरखाव विशेषज्ञों की देख-रेख में नहीं होता है। क्या इन सांस्कृतिक धरोहरों के रखरखाव का कोई वार्षिक आडिट नहीं होता है। करीब डेढ़ वर्ष पहले कुछ ऐसा ही अनुभव त्रिपुरा के उनकोटि परिसर में जाकर भी हुआ था। अगरतला से करीब पौने दो सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित उनकोटि में पत्थर पर उकेरी गई बेहतरीन कलाकृतियां हैं। इस परिसर में करीब तीस फीट के ‘उनकोटेश्वर कालभैरव’ की पत्थर की मूर्ति है। इस मूर्ति का मुकुट करीब दस फीट के पत्थर पर बना है जिसपर अद्भुत कलाकारी है। उनके आसपास दो देवियों के चित्र पत्थर पर उकेरे हुए हैं। पास ही में नंदी की पत्थर की दो मूर्तियां हैं। काल भैरव की मूर्ति की दूसरी तरफ एक विशाल शिला पर गणेश जी की मूर्ति बनी हुई है जिसके दोनों तरफ हाथी की मुखाकृति वाले चित्र उकेरे हुए हैं। उनकोटि परिसर के देखभाल का दायित्व भी एएसआई पर है। वहां भी उन मूर्तियों के संरक्षण के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं दिखा था। कुछ मूर्तियां भले ही एक कमरे में बंद कर दी गई हैं लेकिन हजारों मूर्तियां ऐसे रखी हुई हैं और लोग उसपर चढ़कर आते जाते हैं। एक जगह तो एक मूर्ति पर कपड़े धोए जा रहे थे। इस स्तंभ में विस्तार से इसपर चर्चा हो चुकी है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वाधीनता के अमृत महोत्सव में लाल किले की प्राचीर से पांच प्रण की घोषणा करते हुए विरासत पर गर्व की बात करते हैं। अपने उसी गर्व को सहेजने के लिए प्रधानमंत्री की पहल पर काशी विश्वनाथ मंदिर का नव्य स्वरूप, उज्जैन का महाकाल लोक का भव्य परिसर का निर्माण हुआ। अयोध्या में भव्य राममंदिर का निर्माण हो रहा है। इसके पहले केदारनाथ धाम से लेकर गुजरात के मंदिरों की पौराणिकता को भव्यता के साथ सहेजा गया। इसको देश में सांस्कृतिक पुनरुत्थान के तौर पर देखा जा रहा है। विरासत पर गर्व करने के लिए यह बेहद आवश्यक है कि हम अपनी विरासत को संरक्षित करें। संस्कृति मंत्रालय के अधीन आनेवाली संस्था एएसआई की अपनी विरासत को सहेजने में लापरवाही और उदासीनता दिखाई देती है। संसद के पिछले सत्र में 13 दिसंबर 2022 को राज्यसभा में संस्कृति मंत्रालय की स्टैंडिंग कमेटी ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की। संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध संसद की इस समिति ने अपनी रिपोर्ट संख्या 330 में एएसआई के कामकाज को लेकर गंभीर प्रश्न उठाए हैं। रिपोर्ट में समिति ने मंत्रालय/एएसआई में धनराशि के उपयोग को लेकर बेहद कठोर टिप्पणी की है। समिति के मुताबिक मंत्रालय ने अपने उत्तर में इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि एएसआई को जो धनराशि आवंटित की गई थी उसका आगे आवंटन और उपयोग किस तरह से किया गया। इसके अलावा एएसआई में खाली पदों को भरने में हो रहे बिलंब पर भी समिति ने टिप्पणियां की है। संस्कृति मंत्रालय के विभिन्न संस्थानों में खाली पदों की स्थिति को रेखांकित करते हुए स्थिति को बेहद दयनीय बताया। समिति की रिपोर्ट में बताया गया है कि एएसआई के आर्कियोलाजी काडर में 420 पद स्वीकृत हैं जिसमें से 166 पद खाली हैं। संरक्षण काडर में कुल स्वीकृत पद 918 हैं दिनमें से 452 पद खाली हैं। समिति की इन टिप्पणियों पर संस्कृति मंत्रालय ने सफाई दी लेकिन समिति मंत्रालय के उत्तर से संतुष्ट नहीं हो सकी। उसने अपना असंतोष रिपोर्ट में दर्ज भी कर दिया। संस्कृति मंत्रालय के कामकाज को लेकर संसदीय समिति की इस रिपोर्ट में इस बात पर नाराजगी जताई गई है कि करीब पचास फीसद पद कैसे खाली हैं। क्या मंत्रालय या एएसआई इस बात का आकलन नहीं कर सकी कि भविष्य में कितने पद खाली होनेवाले हैं। समय रहते अगर ऐआसा हो जाता तो ये स्थिति नहीं बनती।
संस्कृति मंत्रालय में ऐसी स्थिति क्यों बनती हैं कि उससे संबद्ध कई संस्थाएं वर्षों से तदर्थ तरीके से चल रही हैं। भारतीय जनता पार्टी से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक देश की संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत को लेकर संवेदनशील हैं, बावजूद इसके संस्कृति अगर मंत्रालयों की प्राथमिकता में नहीं आ रही है तो इसके कारणों पर विचार करने की आवश्यकता है। क्या नौकरशाही संस्कृति को लेकर संवेदनशील नहीं है। संस्कृति और उसके संरक्षण के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों और अधिकारियों का विशेष तौर पर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। आवश्यक है कि संस्कृति मंत्रालय के मंत्रियों का कला, संस्कृति और संरक्षण में रुचि लेकर उसके प्रति संवदेशनशील होना। कलाकारों और उनके हुनर का सम्मान करना। इस स्तंभ में कई बार इस बात की चर्चा की गई है कि संस्कृति को सरकार की प्राथमिकता में लाने के लिए देश में एक समग्र सांस्कृतिक नीति की आवश्यकता है।एक ऐसी नीति जिसमें संस्कृति, सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और आयोजनों के बीच सामंजस्य हो।
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