संसद के बजट सत्र में लगातार हंगामा होता रहा है। फिर मानहानि केस में दो साल की सजा के बाद राहुल गांधी की सदस्यता समाप्त हो गई। संसद से लेकर सड़क तक हंगामा और बढ़ गया। आरोप प्रत्यारोप की राजनीति तेज हो गई है। बयानों के कोलाहल में संसद से जुड़ी कुछ समितियों की सिफारिशें और सरकार का उत्तर कहीं दब सा गया। एक वर्ष के बाद लोकसभा का चुनाव होना है। देश में राजनीति चरम पर है। पर संसदीय व्यवस्था का जो विमर्श लोगों तक पहुंचना चाहिए उसको बाधित करने का अधिकार राजनीति को नहीं है। संसदीय व्यवस्था के विमर्श को बाधित करने से जनता अंधेरे में रह जाती है और ये लोकतंत्र को कमजोर करता है। संसद के बजट सत्र में हुए हंगामे के कारण देश की संस्कृति से जुड़े एक बेहद महत्वपूर्ण विमर्श पर अपेक्षित चर्चा नहीं हो पाई। संस्कृति मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति ने संस्कृति मंत्रालय की बजट राशि में बढोतरी की बात की। समिति का कहना है कि इस वर्ष के बजट का सिर्फ 0.075 प्रतिशत ही संस्कृति मंत्रालय को आवंटित किया गया है। जबकि चीन, ग्रेट ब्रिटेन, अमेरिका और आस्ट्रेलिया अपने कुल बजट का दो से पांच प्रतिशत संस्कृति के विकास और संरक्षण पर आवंटित करता है। संसदीय समिति की इस टिप्पणी पर संस्कृति मंत्रालय ने अपनी स्थिति स्पष्ट की। मंत्रालय के मुताबिक भारत जैसे विकासशील देश में जहां ग्रामीण इलाके में आधारभूत ढांचा, शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन की स्थिति प्राथमिकता में है वहां जनता के अधिक धन को संस्कृति और कला के विकास पर खर्च करना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है। मंत्रालय की तरफ से ये भी कहा गया कि जिन देशों में कला और संस्कृति के विकास पर अधिक खर्च किया जा रहा है उनमें से अधिकांश राशि निजी क्षेत्रों के सहयोग से जुटाई जा रही है। संस्कृति मंत्रालय भी कला और संस्कृति के विकास के लिए देश की निजी कंपनियों को प्रोत्साहित कर रही है। अनेक ऐसी योजनाएं भी आरंभ की गई हैं जहां स्मारकों और पौराणिक इमारतों के रखरखाव का कार्य निजी कंपनियों को सौंपा गया है।
ये एक ऐसा विषय है जिसपर राष्ट्रव्यापी चर्चा होनी चाहिए। यह सही है कि विकासशील देश की अलग प्राथमिकताएं होती हैं और विकसित देश की अलग। भारत जैसे समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाले देश को ये भी सोचना होगा कि क्या संस्कृति इसकी प्राथमिकता में है या नहीं? यह ठीक है कि शिक्षा,स्वास्थ्य और ग्रामीण इलाकों में आधारभूत संरचनाएं हमारे देश की प्राथमिकता है लेकिन क्या हम इन चीजों के साथ संस्कृति को जोड़कर नहीं देख सकते हैं। परिवहन, पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय की स्थायी समिति की रिपोर्ट संख्या 315 में कहा गया था कि संस्कृति का विकास किसी भी देश के विकास का अभिन्न हिस्सा है। संस्कृति के विकास से आर्थिक विकास को भी गति मिलती है। इससे रोजगार सृजन होता है और दूसरे क्षेत्रों में भी आर्थिक गतिविधियों में तेजी आती है। संस्कृति के समग्र विकास से देश की एकता और अखंडता को भी शक्ति मिलती है। संस्कृति का संरक्षण और विकास हमारे देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संजोती है। संस्कृति को संजोने की बात तो प्रधानमंत्री भी कर चुके हैं।
स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अमृतकाल के पांच प्रण बताए थे। उसमें तीसरा प्रण देश की विरासत पर गर्व है। विरासत पर गर्व तो तभी कर सकेंगे जब आनेवाली पीढ़ी को अपनी समृद्ध विरासत के बारे में बता सकेंगे। आनेवाली पीढ़ी के लिए अपनी विरासत को संजो कर, उसको संरक्षित कर सकेंगे। किसी भी विरासत को संजोने और संरक्षित करने में धन की आवश्यकता होती है। संसदीय समिति के अवलोकन और संस्कृति मंत्रालय के उत्तर से ये स्पष्ट होता है कि सरकार अपनी विरासत को संजोने और उसको संरक्षित करने के लिए अब निजी क्षेत्र को भागीदार बनाना चाहती है। निजी क्षेत्र को भागीदार बनाया जाना चाहिए। बनाया जा भी रहा है। लेकिन यह भी देखना होगा कि जो कार्य सरनरेन्काद्रर मोदी या सरकारी विभाग कर सकते हैं उसको निजी क्षेत्र के लोग उसी जिम्मेदारी से निभा पा रहे हैं या नहीं। आज जब पूरा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है तो क्या ये माना जाए कि सरकार देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को निजी क्षेत्रों के भरोसे संरक्षित और उसके विकास के रास्ते पर चलने का मन बना चुकी है। कला संस्कृति के विकास में निजी क्षेत्र की भागीदारी लंबे समय से रही है। दिल्ली से लेकर मुंबई और कोलकाता से लकर बेंगलुरू और चेन्नई तक में निजी क्षेत्र की भागीदारी से कला संस्कृति को बल मिल रहा है। चाहे वो सांस्कृतिक केंद्र की स्थपना हो या कलाओं को सहेजने का उपक्रम। निजी क्षेत्र की भागीदारी है और बढ़ भी रही है।
संस्कृति को लेकर एक महत्वपूर्ण बात ये है कि अबतक केंद्रीय बजट में संस्कृति मंत्रालय को जितनी धनराशि का आवंटन किया जा रहा है उसका सही उपयोग हो पा रहा है नहीं। आजकल संस्कृति से जुड़ी सरकारी संस्थाओं में एक ऐसी प्रवृत्ति देखी जा रही है जिसको अविलंब तर्कसंगत बनाए जाने की आवश्यकता है। आज स्थिति ये है कि संस्कृति से जुड़ी संस्थाएं लगातार कार्यक्रमों के आयोजन करने में लग गई है। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर विशेष आयोजन होना उचित था। उसके बाद भी लगातार आयोजनों से क्या हासिल हो रहा है। इसका परीक्षण तो किसी न किसी स्तर पर किया ही जाना चाहिए। संस्कृति के विकास का दायित्व जिन संस्थाओं पर है वो कुछ ठोस करने की बजाए आयोजनों में जुटी हैं। जिन संस्थाओं पर संरक्षण की जिम्मेदारी है वो भी प्रदर्शनियों आयोजित कर रही हैं। अधिकारियों के लिए बहुत आसान होता है कि वो किसी मंत्री या नेता को बुलाकर आयोजन का शुभारंभ करवा कर अपने नंबर बढ़वा लें। जबकि कुछ ठोस करने के लिए श्रम करना होगा। संस्कृति से जुड़े ग्रंथों के पुनर्प्रकाशन या नए ग्रंथों के प्रकाशन के कार्य में सुपात्र के चयन से लेकर उसके प्रकाशन तक में मेहनत की आवश्यकता होगी। जिस मेहनत की आवश्यकता आयोजनों में नहीं होती। सांस्कृतिक संस्थाओं की देखा देखी अब विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में भी आयोजनों की भरमार हो गई है।
संस्कृति मंत्रालय से जुड़ी इन संस्थाओं के आयोजनों में जो खर्च होता है वो तो बजट में आवंटित राशि से ही होता है। इस धनराशि का उपयोग पौराणिक इमारतों और स्मारकों के संरक्षण पर किया जाना चाहिए। पूरे देश में आर्कियोलाजी सर्वे आफ इंडिया (एएसआई) के संरक्षित इमारतों में से ज्यादातर की हालत बहुत अच्छी नहीं है। इस स्तंभ में कई स्मारकों और उसके संरक्षण में लापरवाहियों का उल्लेख किया जा चुका है। ऐसी स्थिति में सरकार को सांस्कृतिक विकास के लिए एक संतुलन बनाकर चलना होगा। निजी क्षेत्र को सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित करने के लिए प्रेरित करना, उनको संरक्षण पर धन खर्च करने के लिए प्रोत्साहित करें ।साथ ही सरकारी विभागों को आवंटित धन राशि को लेकर एक ऐसी व्यवस्था बनाए जिसमें उसका सदुपयोग हो सके। संस्कृति मंत्रालय को ये भी देखना चाहिए कि जिन विभागों के पास सांस्कृतिक धरोहरों को बचाकर रखने की जिम्मेदारी है वहां पर्याप्त मानव संसाधन है कि नहीं। संस्कृति मंत्रालय की स्थायी समिति ने एएसआई में विशेषज्ञों और कर्मचारियों की कमी की ओर भी ध्यान आकर्षित करवाया था। मंत्रालय को उनकी नियुक्ति में तेजी लानी चाहिए। संस्कृति से जुड़ा एक काम नीति आयोग को भी करना चाहिए। उसको कई मंत्रालयों में संस्कृति से जुड़े कार्यों का आकलन करना चाहिए और फिर केंद्र सरकार को संस्कृति मंत्रालय के पुनर्गठन का सुझाव देना चाहिए। इससे संस्कृति से जुड़े सभी कार्य एक ही मंत्रालय से हो सकेंगे और धन भी बचेगा।