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Saturday, March 18, 2023

संघ पर आधारहीन आरोप


कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और सांसद राहुल गांधी को जब भी अवसर मिलता है वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर हमलावर रहते हैं। कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को लेकर, कभी हिंदुत्व को लेकर, कभी वीर सावरकर को लेकर तो कभी सांप्रदायिकता को लेकर। वो भारतीय जनता पार्टी की सरकार को भी जब घेरने का प्रयास करते हैं तो सायास उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर आ जाते हैं। अभी हाल में विदेश में भी उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर निशाना साधा। राहुल गांधी का मानना है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत में सभी संस्थाओं पर कबजा कर लिया है। इससे संवाद की प्रक्रिया बाधित हुई है बल्कि आयडिया आफ इंडिया को नुकसान पहुंचा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था तहस नहस हो गई है। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि भारत में वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा भी संकट में है। उनको लगता है कि एक संगठन इस मजबूत भारतीय मूल्य को हानि पहुंचाने में सक्षम है। राहुल गांधी राजनेता हैं। राजनीति ही उनका कर्म है। उनके इस बयान पर हलांकि संघ ने बेहद सधी हुई प्रतिक्रिया दी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि राहुल गांधी अपना राजनीतिक एजेंडा चलाते हैं और हमारी उनसे कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। लेकिन साथ ही उन्होंने राहुल गांधी से और जिम्मेदार होने की अपेक्षा भी जताई। राहुल गांधी के साथ-साथ कांग्रेस के नेता और पूर्व वामपंथी बुद्धिजीवी जो इन दिनों कांग्रेस में अपना भविष्य तलाश रहे हैं वो भी निरंतर संघ की आलोचना करते हैं। उनकी आलोचना का आधार होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश के सभी सांस्कृतिक संस्थाओं पर कब्जा कर लिया। इस कब्ज ने देश में संवाद को बाधित किया है और लोकतांत्रिक व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया। 

लगभग दो वर्ष पहले की बात है। दिल्ली में कुछ बुद्धिजीवियों के साथ संघ प्रमुख मोहन भागवत की बैठक थी। दिनभर चली इस बैठक में भोजनावकाश के समय औपचारिक बातें हो रही थी। मोहन भागवत जिस टेबल पर भोजन कर रहे थे वहां एक वरिष्ठ पत्रकार पहुंचे। उन्होंने उनसे किसी नियुक्ति को लेकर बात आरंभ कर दी। संघ प्रमुख भोजन करते रहे। जब वरिष्ठ पत्रकार महोदय लगातार उसी विषय़ पर बोलते रहे तो मोहन जी ने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कभी भी नियुक्तियों आदि में न तो हस्तक्षेप करता है और न ही सरकार को अपनी पसंद बताता है। संघ का काम है देश हित में जनमानस को तैयार करना। जब समाज का मानस तैयार हो जाता है तो सरकारें स्वत: उसका संज्ञान लेती हैं और उसके अनुकूल कार्य करती हैं। नियुक्ति आदि का काम सरकार का होता है वही इसको देखे तो व्यवस्था बनी रहती है। फिर कुछ हास-परिहास हुआ और बात खत्म हो गई। यहां हंसते हुए मोहन भागवत ने जो बात कही वो बेहद महत्वपूर्ण थी। उसको समझे जाने की जरूरत है। अब जरा वास्तविकता पर भी दृष्टि डाल लेते हैं कि देश में शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में काम करनेवाली संस्थाओं का हाल क्या है। अगर संघ ने सचमुच हर जगह कब्जा कर लिया है तो इन संस्थाओं के प्रमुखों के पद पर तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोग ही पदस्थापित होंगे। 

शिक्षा से आरंभ करते हैं। एक बेहद दिलचस्प उदाहरण है बिहार के मोतिहारी स्थित महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय की। दो फरवरी 2021 को मोतिहारी के केंद्रीय विश्वविद्याल के कुलपति का कार्यकाल समाप्त हो गया। दो साल से अधिक समय बीत चुका है। दो बार वहां के कुलपति की नियुक्ति लिए चयन प्रक्रिया हो चुकी है। बावजूद इसके अबतक वहां किसी कुलपति की नियुक्ति नहीं हो सकी है। विश्वविद्यालय कार्यवाहक कुलपति के भरोसे चल रहा है। अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शैक्षणिक संस्थाओं पर कब्जा जमाने में लगा होता तो अबतक तो यहां कुलपति की नियुक्ति करवा चुका होता। ये नया विश्वविद्यालय है और यहां अपने संगठन और विचार के लोगों को भरने की संभावनाएं भी हैं, दो साल से इस केंद्रीय विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति ना होना इस आरोप का निषेध करता है कि संघ योजनाबद्ध तरीके से संस्थाओं पर कब्जा कर रहा है। अब शिक्षकों की नियुक्ति की बात करते हैं। शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने बुधवार को संसद में जानकारी दी कि शैक्षणिक संस्थानों में 11050 शिक्षकों के पद खाली हैं। जिनमें से 6028 पद  केंद्रीय विश्वविद्यालयों में, 4526 पद भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थानों में और 496 पद भारतीय प्रबंध संस्थान में रिक्त हैं। अगर संस्थाओं पर कब्जा होता तो इतनी बड़ी संख्या में शिक्षकों के पद खाली क्यों होते। संघ प्रयासपूर्वक नियुक्तियां करवा रहा होता। शिक्षा मंत्रालय से ही जुड़ी दो और संस्था का उदाहरण सामने है। एक संस्था है केंद्रीय हिंदी निदेशालय जो पिछले कई वर्षों से निदेशक की बाट जोह रहा है। इसी तरह से केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा को भी पिछले ढाई साल से प्रभारी निदेशक चला रही हैं। शिमला के भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में भी नियमित निदेशक की प्रतीक्षा है।    

अब जरा कला और साहित्य से जुड़ी संस्थाओं को देख लेते हैं। दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में पिछले कई वर्षों से निदेशक का पद खाली है। वहां कई शिक्षकों के पद भी खाली हैं। यहां की स्थिति तो और भी दिलचस्प है। विद्यालय में दो कार्यवाहक निदेशक पद संभालकर सेवानिवृत्त हो चुके हैं। इन दिनों नई दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के प्रोफेसर रमेश गौड़ नाट्य विद्यालय के निदेशक का अतिरिक्त प्रभार संभाल रहे हैं। यहां भी निदेशक के पद के लिए दूसरी बार साक्षात्कार हो चुका है लेकिन अबतक नियुक्ति नहीं हो पाई है। अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संस्थाओं पर कब्जा करने में लगा होता तो इस प्रतिष्ठित नाट्य संस्था पर अपनी पसंद का निदेशक तो चयनित करवा चुका होता। निदेशक की नियुक्ति की बात छोड़ भी दें तो विद्यालय परिसर में करीब दो साल पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का उपहास करते हुए पोस्टर लगाया गया था। संस्थाओं पर अगर कब्जा होता तो क्या ये संभव था कि वहां प्रधानमंत्री का उपहास उड़ाया जाता। संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत ही ललित कला अकादमी है, जहां नियमित सचिव का पद खाली है। कला संस्कृति से जुड़े संस्थानों में खाली पदों की सूची लंबी है। ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष के सलाहकारों ने ठीक से होमवर्क करके उनको जानकारी नहीं दी । अगर वो होमवर्क करते तो उनको पता चलता कि शिक्षा-संस्कृति के संस्थानों की वास्तविक स्थिति क्या है।

2014 में केंद्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने और कांग्रेस के निरंतर कमजोर होते जाने से वामपंथियों को चुनौतियां मिलने लगीं। इन चुनौतियों से जब वो पार नहीं पा सकते हैं तो दुष्प्रचार आरंभ कर देते हैं। दरअसल जो पूर्व वामपंथी बुद्धिजीवी कांग्रेस में अपनी संभावनाएं तलाश रहे हैं वो ही इस तरह की बातें फैलाते रहते हैं। इंदिरा जी के प्रधानमंत्रित्व काल से ही कांग्रेस ने शिक्षा और संस्कृति का क्षेत्र वामपंथियों को आउटसोर्स कर दिया था। विश्वविद्यालयों से लेकर अकादमियों तक में वामपंथियों का बोलबाला था। कुलपति से लेकर अकादमी के चेयरमैन और संस्थानों के निदेशक सभी पदों पर वामपंथी अपने पसंद के लोगों को बिठाते थे। ज्योति बसु की जीवनीकार को कुलपति बना दिया गया था। कांग्रेस और वामदलों के राजनीतिक रूप से कमजोर होने के बाद इन परजीवी किस्म के कथित बुद्धिजीवियों को सत्ता की मलाई मिलने में मुश्किल हो रही है तो वो अनर्गल प्रलाप में जुटे रहते हैं। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के इर्द-गिर्द भी इस विचारधारा के लोगों ने अपना घेरा मजबूत कर लिया है और राहुल गांधी को आगे करके वो अपनी स्वार्थसिद्धि के उपक्रम में जुटे रहते हैं। वो ये नहीं समझा पा रहे कि आरोप अगर तथ्यहीन होते हैं तो प्रभाव नहीं छोड़ते।  

1 comment:

Anonymous said...

बहुत ही सार्थक बात की है आपने, राहुल जी के सलाहकारों को काम करना चाहिए ऐसे ही हवा में तीर नही चलाना चाहिए।
ऐसे उनको और कॉग्रेस को नुकसान ही होगा यह बात इन लोगो को सोचना चाहिए.