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Saturday, September 30, 2023

नारी शक्ति का जयघोष करती फिल्म


हिंदी के वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण सिनेमा प्रेमी थे। कविता के अलावा उनको जब भी अवसर मिलता था तो वो वैश्विक सिनेमा को लेकर टिप्पणी किया करते थे। 1992 में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था। उस लेख में उन्होंने लिखा था, कि सफल फीचर फिल्म के कथानक के साथ साथ वृत्तात्मक पक्ष सबल होना उसकी प्रामाणिकता को स्थापित करने में विशेष महत्व रखता है तथा कथानक को अतिरिक्त गहराई देने में सहायक होता है। भारतीय फिल्मों में स्थानीयता या वातावरण को बिल्कुल सजावटी ढंग से रख दिया जाता है, इस कारण उनका कोई चारित्रिक महत्व नहीं उभरता है। पिछले दिनों विवेक अभिनेत्री निर्देशित और नाना पाटेकर और पल्लवी जोशी अभिनीत फिल्म द वैक्सीन वार देखा। इस फिल्म को देखने के बाद सहसा कुंवर नारायण की उक्त पंक्तियों का स्मरण हो उठा। फिल्म द वैक्सीन वार में कथानक के साथ-साथ निर्देशक जिस प्रकार के वातावरण की निर्मिति करता है वो कथानक को अतिरिक्त गहराई देता है। फिल्म का पहला ही दृष्य इसका संकेत दे दाता है। कोविड महामारी के दौरान लाकडाउन में स्कूटर से एक विज्ञानी का पुलिस बैरीकेड को पार करने की कोशिश करना। बैरीकेड पर खड़े पुलिसवाले की सख्ती दिखाना और उसके बाद विज्ञानी को धक्का देना। इन दृष्यों से निर्देशक जिस वातावरण का निर्माण करता है वो ये बताने के लिए पर्याप्त है कि कैसे फिल्म का कथानक वातावरण से प्रामाणिकत हो जाता है। सिर्फ इतना ही नहीं कोविड के दौरान इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च के कार्यालय का वातावरण और वहां काम करनेवालों की कशमकश को दिखाकर निर्देशक ने एक वातावरण का निर्माण करने का सफल प्रयास किया है। 

इटली के प्रसिद्ध फिल्मकार फ्रांचेस्को रोसी की एक फिल्म है क्रानिकल आफ ए डेथ फोरटोल्ड। ये फिल्म मशहूर कथाकार मार्खेज के उपन्यास पर आधारित है। कुंवर नारायण ने लिखा है कि फिल्म की असली ताकत को जहां दर्शक महसूस करते हैं वो है स्थान और वातावरण के साथ चरित्रों कि पक्की पहचान स्थापित कर सकने की वृत्तात्मक क्षमता। मार्खेज अपने उपन्यासों में जादुई यथार्थवाद का चित्रण करने के लिए जाने जाते हैं। इस उपन्यास में भी मार्खेज ने अपने स्टाइल में जो चित्र खींचा है उसको रोसी ने अपनी फिल्म में दृष्यों के माध्यम से संभव कर दिखाया है। विवेक अग्निहोत्री की फिल्म द वैक्सिन वार आईसीएमआर के पूर्व निदेशक डा बलराम भार्गव की पुस्तक गोइंग वायरल, मेकिंग आफ कोवैक्सीन पर आधारित है। इसमें और रोसी की फिल्म कला में एक और समानता है। रोसी ने अपनी फिल्म के अंत में स्त्री का अपने पति से प्रेम और सुलह को फिल्मी अंदाज में लाकर खड़ा कर दिया। मार्खेज का जो उपन्यास है वो प्रेम की भावना का अभिनय नहीं है, वो मनुष्य की उच्छृंखल कामुकता और उद्दात प्रेम के बीच अंतर करते हैं। फिल्म में हत्या को फिल्मी अंदाज में चित्रित किया है जबकि उपन्यास में मार्खेज अधिक संयत तरीके से जीवन मूल्यों को उभारते हैं। इसी तरह से विवेक अग्निहोत्री भी फिल्म के अंत में वैक्सीन को बनाने से रोकने के षडयंत्रों पर अधिक केंद्रित हो जाते हैं और कथानक उपन्यास से थोड़ा अलग दिखता है। महानगरों में बैठे कुछ फिल्म समीक्षकों को ये फिल्म का कमजोर पक्ष लग सकता है लेकिन इसके पीछे जो एक वैचरिक संघर्ष दिखता है, भारत और भारत के विज्ञानियों की मेहनत को कमतर करने की अंतराष्ट्रीय साजिश दिखाई गई है उसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है। रोहिणी सिंह धूलिया तो एक चरित्र मात्र है उसके माध्यम से फिल्मकार ने उस प्रवृत्ति पर चोट किया है जो निरंतर भारतीयों की उपलब्धियों को कम करके आंकते रहे हैं। 

जब से विवेक अगिनहोत्री की फिल्म द कश्मीर फाइल्स सुपरहिट हुई तब से उसपर एजेंडा फिल्मकार का ठप्पा भी लगा दिया गया। ऐसा करनेवालों ने न द कश्मीर फाइल्स देखी थी और न ही द वैक्सीन वार। बगैर फिल्म देखे द वैक्सीन वार को भी एजेंडा फिल्म करार दे दिया गया है। यह सुखद संयोग है कि देश में नारी शक्ति वंदन अधिनियम को संसद के दोनों सदनों ने पास करके विधायिका में महिलाओं को आरक्षण का रास्ता साफ कर दिया। ऐसे उत्सवी माहौल में फिल्म द वैक्सीन वार देश की महिला विज्ञानियों की तपस्या को सामने लेकर आई। इस फिल्म में कोविड की पहली भारतीय वैक्सीन बनाने वाली महिला विज्ञानियों के संघर्षों भी दिखाया गया है। हमारे देश में महिला कितने भी बड़े पद पर या कितनी बड़ी जिम्मेदारी निभा रही हो उसको घर-परिवार के दायित्वों से मुक्ति नहीं मिलती है। इस फिल्म में एक महिला विज्ञानी घर पहुंचती है और उसका बच्चा एक कविता सुनाना चाहता है लेकिन कार्यालय से फोन आने पर वो अपने बच्चे को रोता बिलखता छोड़कर रात में निकल पड़ती है। ऐसे कई प्रसंग इस फिल्म में हैं। इस तरह के प्रसंगों को देखकर मुझे एक वाकया याद आ गया। कुछ वर्षों पहले एक महिला केंद्रीय मंत्री के साथ किसी बैठक में था। मंत्री जी के मोबाइल की घंटी बजी। उन्होंने फोन उठाकर चंद क्षणों बाद कहा कि दीदी से पूछ लो, जो खाना चाहे बना दो। बाद में उन्होंने बताया कि उनका घरेलू सहायक पूछ रहा था कि रात के खाने में सब्जी क्या बनेगी। खैर ये अवांतर प्रसंग है। 

द वैक्सीन वार में नाना पाटेकर ने अपने शानदार अभिनय से डा बलराम भार्गव के किरदार को जीवंत बना दिया है। फिल्म के कथानक में इस चरित्र के साथ भी जिस तरह का वातावरण तैयार किया गया है वो भी रेखांकित किया जाना चाहिए। कोरोना महामारी के दौरान एक दिन डा बलराम भार्गव अपने कार्यालय पहुंचते हैं तो उनके कमरे के सामने बैठनेवाले चपरासी की कुर्सी खाली है। अचानक से प्रश्न ये कहां गया फिर वातावरण में की खामोशी से उस प्रश्न का उत्तर मिलता है। वातावरण की चुप्पी से भावनाओं का जो शोर उठता है उससे दर्शक स्वयं समझ जाते हैं कि चपरासी को कोरोना लील गया। डा भार्गव का रूखा व्यवहार कई बार उनके साथी विज्ञानियों को बुरा लगता है। नेशनल इंस्टीट्यूट आफ वीरोलाजी (एनआईवी) की निदेशक के साथ उनका इतना रूखा व्यवहार रहता है कि वो एक दिन रो पड़ती है। बलराम भार्गव का जो कैरेक्टर इस फिल्म में उभरता है उसके लिए अंग्रेजी में एक शब्द है टफ टास्कमास्टर। इस विशेषण को नाना पाटेकर ने अपने अबिनय से साकार कर दिया । कुछ लोग इस फिल्म की बहुत छोटी छोटी बातों को लेकर उलझे हुए हैं। कोई कह रहा है बंदर पकड़ने के लिए विज्ञानियों को भेज दिया कोई चूहे पर होने वाली जांच को लेकर मजाक उड़ा रहा है। कोई इस फिल्म की एक पात्र रोहिणी सिंह धूलिया के चरित्र चित्रण में उलझ कर रह गया है। कम ही लोग इस फिल्म में महिलाओं के सामर्थ्य चित्रण का उत्सव मना पा रहे हैं। 

कुछ समीक्षक इस फिल्म की ओपनिंग कलेक्शन को लेकर इसका उपहास करने का प्रयास कर रहे हैं। उनको ये समझना होगा कि दस-बारह करोड़ रुपए की लागत से बनी फिल्म से 50 करोड़ रुपए की ओपनिंग की अपेक्षा तो निर्माता निर्देशक की भी नहीं रही होगी। फिल्म धीरे धीरे अच्छा करेगी। लोग इस फिल्म को लेकर आपस में चर्चा कर रहे हैं। एक दूसरे से इस फिल्म के बारे में जानकारी साझा कर रहे हैं। माउथ पब्लिसिटी के आधार पर ही ये फिल्म चलेगी और व्यापक दर्शक वर्ग तक पहुंचेगी। इस फिल्म को इस बात का श्रेय भी देना चाहिए कि इसने हिंदी फिल्मों के दर्शकों को वैज्ञानिक शोध प्रविधि के बारे में न केवल बताया बल्कि उसको होते हुए दिखाया भी है। संभव है कि इसके बाद विज्ञान पर आधारित कई और फिल्में बनें। 


Tuesday, September 26, 2023

क्लासिक फिल्मों की जीवंत अभिनेत्री


कौन कल्पना कर सकता है कि जिस लड़की को कैमरा एंगल के बारे में, फ्रेमिंग के बारे में, क्लोजअप शाट में चेहरे के भावों को बदलने के बारे में, अन्य शाट्स में शरीर के मूवमेंट के बारे में जानकारी न हो उसको एक दिन भारतीय फिल्मों का सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के सम्मान से सम्मानित किया जाएगा। उस लड़की ने दशकों तक हिंदी फिल्मों के दर्शकों के बीच लोकप्रियता बटोरी। जिसने अपने अभिनय क्षमता से प्यासा जैसी फिल्म में गुलाबो के चरित्र को अमर कर दिया। जिसको शाट्स का नहीं पता था, जिसको मूवमेंट का नहीं पता था उसने जब पर्दे पर जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने कही गाया तो उसके सभी मूवमेंट और शाट्स परफेक्ट लगते हैं। सिर्फ इस गाने में ही नहीं बल्कि देवानंद के साथ फिल्म गाइड में कांटो से खींच के आंचल गाती हैं तो ट्रैक्टर से लेकर ऊंट तक में उनके चेहरे पर जो भाव आते हैं वो इस गीत की खूबसूरती में चार चांद लगा देते हैं। शोख, चुलबुली अदा के साथ जब भरटनाट्यम में पारंगत वहीदा रहमान नृत्य करती हैं तो चेहरे के भाव जीवंत हो उठते हैं। इसके पीछे की भी एक दिलचस्प कहानी है। एक ही स्टूडियो में सीआईडी और प्यासा की शूटिंग होती थी। गुरुद्दत सीआईडी के प्रोड्यूसर थे और प्यासा के निर्देशक। फिल्म सीआईडी के निर्देशक राज खोसला जब वहीदा रहमान के शाट्स के व्याकरण को नहीं समझ पाने को लेकर निराश हो जाते तो गुरुदत्त के पास पहुंच जाते। फिर गुरुद्दत सीआईडी के सेट पर आते और वहीदा को अभिनय करके बताते कि इस तरह से इस शाट्स में मूवमेंट करना है और चेहरे पर भाव लाने हैं। साथ ही गुरुद्दत वहीदा को नसीहत देते कि उनकी नकल न करे। वो कहते कि तुम अपनी तरह से करो क्योंकि अभिनेता और अभिनेत्री के भाव अलग होंगे। इसके बाद तो वहीदा रहमान ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 

वहीदा रहमान को इस बात के लिए भी याद किया जाता है कि उन्होंने अपने दौर में डायलाग डिलीवरी के अंदाज को बदल दिया। नाटकीय संवाद को उन्होंने स्वाभाविक अंदाज में कहना आरंभ किया था। याद कीजिए प्यासा का एक दृश्य। नायक विजय के पास पैसे नहीं होने की वजह से रेस्तरां का वेटर उसकी थाली खींचता है तो वहीं थोड़ी बैठी गुलाबो खान के पैसे देती है। गुलाबो उससे कहती है कि खाना खा लो, तुम्हें मेरी कसम। दुखी विजय कहता है आप अपनी कसम क्यों देती हैं, आप ठीक तरह से मुझे जानती भी नहीं। इसके बाद कुछ और संवाद और फिर गुलाबो का उत्तर, जब तुम्हारी नज्मों  और गजलों से, जब तुम्हारे ख्यालात और और जज्बात को जान लिया तो अब जानने को क्या बचा है। इस संवाद का दृश्यांकन भी बेहतरीन है और वहीदा की संवाद कला भी एकदम स्वाभाविक। यह अकारण नहीं है कि सीआईडी और प्यासा दोनों फिल्मों ने सिल्वर जुबली मनाई थी। ये बहुत कम अभिनेत्रियों के साथ होता है कि उनके जीवन काल में उनकी फिल्म क्लासिक का दर्जा पा ले। वहीदा की दो फिल्म प्यासा और गाइड अपने प्रदर्शन के साठ-सत्तर वर्ष बाद भी पसंद की जाती हैं। 


Sunday, September 24, 2023

गाता रहे मेरा दिल


देवानंद, भारतीय फिल्म जगत का एक ऐसा सितारा जिसने अपनी कला से, रूपहले पर्द पर अपनी उपस्थिति से और अपनी अदाओं से दशकों तक दर्शकों को अपना दीवाना बना कर रखा। देवानंद का नाम लेते ही जिस एक फिल्म का स्मरण होता है वो है गाइड। ये फिल्म क्लासिक और कल्ट फिल्म है। देवानंद का अभिनय, इसके गीत, इसका फिल्मांकन और कहानी में परोक्ष रूप से चलनेवाला दर्शन फिल्म को ऊंचाई पर स्थापित करता है। इस फिल्म को वैश्विक स्तर पर मान सम्मान मिला, लेकिन इसके बनने और प्रर्दर्शित होने तक संघर्ष की लंबी और दिलचस्प कहानी है। 1962 में बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में देवानंद की फिल्म हम दोनों का प्रदर्शन हुआ। वहीं एक पार्टी मं उनकी भेंट अमेरिकी फिल्म निर्देशक टैड डेनियलेव्स्की से हुई। डेनियलेव्स्की और नोबेल पुरस्कार विजेता लेखिका पर्ल एस बक देवानंद से मुंबई (तब बांबे) में मिल चुके थे। उस भेंट में डेनियलेव्स्की और पर्ल ने देवानंद को अपनी फिल्म में लेने का प्रस्ताव दिया था। तब देवानंद ने कहानी सुनकर मना कर दिया था। पर उनके मन के किसी कोने अंतरे में अमेरिकी निर्देशक के साथ काम करने की इच्छा शेष रह गई थी। बर्लिन की भेंट में फिर से बात उठी। देवानंद को आर के नारायण के उपन्यास गाइड के बारे पता चला। वो उसको लेकर अमेरिका पहुंचे। पर्ल एस बक से मिले। चर्चा हुई। इस उपन्यास पर फिल्म बनने का तय हुआ। टैड डेनियलेव्स्की और पर्ल की कंपनी और देवानंद की फिल्म कंपनी नवकेतन में हिंदी और अंग्रेजी में एक साथ फिल्म बनाने का करार हुआ। अंग्रेजी फिल्म को डेनियलेव्स्की निर्देशित कर रहे थे जिसकी स्क्रिप्ट पर्ल एस बक ने लिखी। देवानंद बेहद खुश थे।

फिल्म पर काम आरंभ हुआ। डेनियलेव्स्की अपनी टीम के साथ भारत आए । कास्टिंग और हिंदी फिल्म के निर्देशक को तय करना था। टैड ने नायिका के तौर पर लीला नायडू को पसंद किया क्योंकि वो अच्छी अंग्रेजी बोलती थी। देवानंद वैजयंतीमाला को चाहते थे क्योंकि फिल्म की नायिका डांसर थीं। टैड का तर्क था कि वैजयंतीमाला मोटी हैं और अमेरिकी दर्शक उसको पसंद नहीं करेंगे। वो इसके लिए भी तैयार थे कि फिल्म में कोई डांस ना हो और पेपर में छपी खबरों से नायिका को डांसर बता दिया जाए। देवानंद ने कहा कि अगर ऐसा हुआ तो फिल्म डूब जाएगी। टैड किसी तरह माने। देवानंद ने वहीदा रहमान का नाम सुझाया। वो टैड को पसंद नहीं थी। देवानंद के अनुरोध पर तैयार हुए। इस बीच किसान की भूमिका के लिए टैड ने के एन सिंह को चुन लिया। उसको लेकर भी विवाद हुआ। हिंदी के निर्देशक की खोज जारी थी। विजय आनंद उर्फ गोल्डी ने पर्ल एस बक की स्क्रिप्ट को खारिज कर दिया था और फिल्म करने से मना कर दिया। उसने साफ तौर पर कहा कि वो ऐसे निर्देशके साथ काम नहीं कर सकता जिसको के एन सिंह में भारतीय किसान दिखता है। दोनों भाइयों में बातचीत बंद हो गई। देवानंद ने चेतन आनंद को तैयार किया। कुछ ही समय में वो अपनी फिल्म हकीकत में व्यस्त हो गए और फिल्म छोड़ दी। राज खोसला को डेनियलेव्स्की के सहायक के तौर पर रखा गया तो वहीदा ने ये कहकर फिल्म करने से मना कर दिया कि राज खोसला ने पिछली फिल्म में उनका अपमान किया था। समझौते कि कोशिश बेकार गई। राज खोसला को फिल्म छोड़नी पड़ी। अब देवानंद के सामने कोई विकल्प नहीं बचा तो वो फिर गोल्डी के पास पहुंचे। गोल्डी अपनी शर्तों पर राजी हुए।

देवानंद के संघर्ष का दौर खत्म नहीं हुआ था। एस डी बर्मन को म्यूजिक देना था लेकिन काम आरंभ हो इसके पहले उनको ह्रदयाघात हो गया। जब वो ठीक हुए तो गीत के कुछ शब्दों को लेकर आपत्ति की तो हसरत भड़क गए और बोल गए कि दलाल करैक्टर के लिए कैसे शब्द लिखे जाएंगे। गोल्डी और सचिन बर्मन बहुत आहत हुए। देवानंद ने हसरत जयपुरी को 25 हजार रुपए देकर फिल्म से विदा कर दिया। फिर शैलेन्द्र आए और उन्होंने अमर गीत कांटो से खींच के ये आंचल लिखा। संकट जारी था। देवानंद को बदसूरत दिखाने के गोल्डी की मंशा पर देव साहब भड़क गए और गोल्डी पर करियर बर्बाद करने का आरोप जड़ गए। फिल्म के कैमरापर्सन ने गोल्डी को समझाने का प्रयास किया लेकिन अड़े रहे। आखिरकार देवानंद झुके। याद करिए गाइड फिल्म का आखिरी सीन जब राजू की बढ़ी हुई दाढ़ी और तपस्वी टाइप लुक। राम राम करके फिल्म पूरी हुई।

अब दूसरी आफत खड़ी थी। फिल्म इंडस्ट्री में देवानंद के विरोधियों ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय में सैकड़ों पत्र भिजवाए कि ये फिल्म समाज में अनैतिकता को बढ़ावा देनेवाली है। इसमें शादी शुदा स्त्री परपुरुष से प्रेम करती है आदि। सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट रुक गया। देवानंद निराश होकर तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी के पास पहुंचे। उन्होंने फिल्म देखी। उसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया। तब जाकर फिल्म को सर्चचिफिकेट मिल पाया और फिल्म रिलीज हुई। जबरदस्त सफल हुई। ये बात सही साबित हुई कि इतिहास बिना संघर्ष के नहीं बनता है।  

Saturday, September 23, 2023

हिंदी पखवाड़ा और भाषाई चुनौतियों


इस समय देश भर के सरकारी कार्यालयों, सरकारी उपक्रमों, कई महाविद्यालयों आदि में हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है। भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने पुणे में राजभाषा अधिकारियों और हिंदी प्रेमियों को आमंत्रित कर राजभाषा सम्मेलन का आयोजन किया। हिंदी पखवाड़ा मनाए जाने के बीच दो खबरों ने ध्यान आकृष्ट किया। पहली खबर कानपुर से दैनिक जागरण में विगत शुक्रवार को प्रकाशित हुई थी। ये समाचार अखिल भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी सोमेश तिवारी से जुड़ा है। तिवारी का दावा है कि अक्तूबर 2022 में उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारी को विभाग में अधिकतर कामकाज अंग्रेजी में होने के बाबत पत्र लिखा था। अनुरोध ये भी किया था कि अधिकतर कामकाज राजभाषा हिंदी में किया जाना चाहिए।  उन्होंने विभाग की हिंदी पत्रिका के लिए समुचित राशि के आवंटन की मांग भी की। उनका आरोप है कि उनके वरिष्ठ अधिकारी को ये नागवार गुजरा। उन्होंने न केवल विभागीय हिंदी पत्रिका बंद कर दी बल्कि सोमेश तिवारी का तबादला आंध्र प्रदेश के गुंटूर कर दिया। इसके पहले भी हिंदी में कार्यालय का कामकाज करने को लेकर उनका तबादला गुवाहाटी कर दिया गया था। मामला अदालत तक गया था और निर्णय तिवारी के पक्ष में आया था। इस बार भी उन्होंने प्रधनामंत्री और गृहमंत्री आदि को पत्र लिखकर अपनी व्यथा बताई है। 

दूसरी खबर जम्मू से आई। इसमे बताया गया है कि जम्मू कश्मीर पुलिस ने जम्मू संभाग में अपने कार्यलयों में हिंदी के उपयोग को बढ़ावा देने के बीस सदस्यीय समिति का गठन किया है। 5 अगस्त 2019 को संसद ने जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देनेवाले संविधान के अनुचछेद 370 को खत्म कर दिया था। इसके पहले जम्मू कश्मीर के सरकारी कार्यालयों में उर्दू और अंग्रेजी में कामकाज होता था क्योंकि वहां की राजभाषा हिंदी नहीं थी। सितंबर 2022 में लोकसभा ने जम्मू कश्मीर की आधिकारिक भाषा अधिनियम पास किया। इसके बाद कश्मीरी, डोगरी और हिंदी को जम्मू कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश में आधिकारिक भाषा का दर्जा मिला। इस अधिनियम के कानून बनने के बाद जम्मू संभाग के सरकारी कार्यालयों में राजभाषा हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देन के प्रयास आरंभ हुए। जम्मू कश्मीर पुलिस का हिंदी को बढ़ावा देने के लिए समिति निर्माण का निर्णय इसका ही अंग है। स्वाधीनता के बाद पूरे देश में हिंदी राजभाषा के रूप में प्रयोग में लाई जा रही थी लेकिन अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर को जो विशेष दर्जा प्राप्त होने के कारण वहां सरकारी कार्यालयों में राजभाषा हिंदी का प्रयोग नहीं हो रहा था। अब हिंदी के साथ साथ डोगरी और कश्मीरी को भी समान अधिकार मिला है। यह स्थानीय भाषाओं को महत्व देकर हिंदी को शक्ति प्रदान करने की कोशिशों का हिस्सा है। स्थानीय भाषाओं की समृद्धि के साथ हिंदी का भविष्य जुड़ा हुआ है। 

हिंदी पखवाड़े के दौरान केंद्रीय सेवा के एक अधिकारी के हिंदी प्रेम के चलते तबादले का समाचार आना, दूसरी तरफ स्वाधीनता के बाद हिंदी को मान देने के लिए प्रयास आरंभ होना, विरोधाभास जैसा प्रतीत होता है। दरअसल सरकारी कार्यालयों में हिंदी के प्रयोग में सबसे बड़ी बाधा अधिकारियों की वो मानसिकता है जिसमें उनको लगता है कि अंग्रेजी श्रेष्ठ है। अफसरों में अंग्रेजी को लेकर जो श्रेष्ठता बोध है वो अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के बीच गहरे तक धंसा हुआ है। आज हालात ये है कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अपने भाषणों में, अपने सरकारी कामकाज में हिंदी को प्राथमिकता देते हैं। जब अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से संवाद करते हैं तो वो हिंदी में होता है। इनको जो फाइलें भेजी जाती हैं,उनमें अधिकतर टिप्पणियां हिंदी में होती हैं। प्रधानमंत्री ने पिछले वर्ष लाल किले की प्राचीर से पांच प्रण की घोषणा की थी। उसमें एक प्रण पराधीनता की मानसिकता को खत्म करने का भी था। अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों में भाषा को लेकर गुलामी की मानसिकता सबसे अधिक है। इसी मानसिकता का परिणाम है कि हिंदी के प्रयोग करने का प्रयास करनेवाले अधिकारी को गैर हिंदी प्रदेश के ऐसे जिले में भेज दिया जाता है जहां हिंदी का उपयोग एक चुनौती है। अमृत काल में पराधीनता की इस मानसिकता से मुक्ति सबसे बड़ी चुनौती है। 

पुणे में भले ही राजभाषा सम्मेलन का आयोजन हो गया। फिल्मी सितारों और चमकते चेहरों से हिंदी में संवाद भी हुआ,शब्दकोश आदि की घोषणा की गई। उसके बाद देशभर में हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है। कई कार्यलयों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने के लिए शपथ आदि भी दिलवाया जा रहा है। लेकिन अंग्रेजी के श्रेष्ठता बोध को खत्म करने के लिए किसी प्रकार का कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है। नई शिक्षा नीति में मातृभाषा और भारतीय भाषाओं पर जोर दिया गया है लेकिन इसके क्रियान्वयन की गति थोड़ी धीमी है। गांधी जी को इस बात की आशंका थी और वो बार बार हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रयोग को लेकर आग्रह करते रहते थे। 1921 में ही उन्होंने कहा था कि अंग्रेजी से प्रेरणा लेने की गलत भावना से छुटकारा होना स्वराज्य के लिए अति आवश्यक है। फिर उन्होंने 1947 में हरिजन पत्रिका में एक लेख लिखकर कहा था कि जिस प्रकार भारत के लोगों ने सत्ता हड़पनेवाले अंग्रेजों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक उखाड़ फेंका उसी प्रकार सांस्कृतिक अधिग्रहण करनेवाली अंग्रेजी को भी हटा देना चाहिए। यह आवश्यक परिवर्तन करने में जितनी देरी होगी उतनी ही अधिक राष्ट्र की सांस्कृतिक हानि होती जाएगी। जब संविधान लागू हुआ तो तय ये हुआ कि अंग्रेजी चलती रहेगी। हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो मिला लेकिन अंग्रेजी के साथ साथ चलते रहने के निर्णय के कारण राजकाज की प्राथमिक भाषा अंग्रेजी बनी रही। स्वाधीनता के बाद सत्ता में आए नेता गांधी की बातों को राजनीतिक कारणों से नजरअंदाज करते रहे।

संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद हिंदी और अंग्रेजी के प्रयोग को लेकर पुनर्विचार आरंभ हुआ। उस वक्त के गृह मंत्री लालबहादुर शास्त्री ने संसद में कहा कि ‘हम अंग्रेजी को अनिश्चित काल के लिए जीवन-दान दे रहे हैं, अनंत काल के लिए नहीं।‘ तब कवि लेखक रामधारी सिंह दिनकर ने गृहमंत्री के उक्त वाक्य को उद्धृत करते हुए कहा था कि ‘जिस प्रकार सरकार भाषा को लेकर में कार्य करती है, उससे मुझे भय होता है कि वह ‘कल-कल’ की बात अनंत काल तक बढ़ जाएगी।‘ वही हुआ। 1963 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में एक ऐसा वाक्य कह दिया जिसकी वजह से अंग्रेजी आज भी सरकारी कामकाज में प्राथमिकता पर है। तब नेहरू ने कहा था कि ‘जबतक अहिंदी भाषी राज्य अंग्रेजी को चलाना चाहेंगे तब तक हिंदी के साथ-साथ केंद्र में अंग्रेजी भी चलती रहेगी।‘ यह ठीक बात है कि ये अंग्रेजी के श्रेष्ठता बोध की जो औपनिवेशिक मानसिकता है उसको खत्म करना या कम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है। यह चुनौती आज की है भी नहीं। नेहरू जी स्वयं हिंदी से अधिक अंग्रेजी में सहज थे इस कारण भी अधिकारी सरकारी कामकाज में अंग्रेजी को प्राथमिकता देते थे। अब आवश्यकता इस बात की है कि भाषा को लेकर देशव्यापी चर्चा हो। भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी के मुकाबले प्राथमिकता देने को लेकर राज्य सरकारों को विश्वास में लिया जाए। गैर हिंदी प्रदेशों में हिंदी को लेकर जो एक भय का छद्म वातावरण तैयार किया गया है उसका निषेध किया जाए। भाषा को राजनीति से दूर रखा जाए। अगर ऐसा हो पाता है तो हिंदी समेत तमाम भारतीय भारतीय भाषाओं को ताकत मिलेगी और किसी सोमेश तिवारी को हिंदी में कामकाज करने के लिए गुंटूर भेजने का साहस कोई अधिकारी नहीं कर पाएगा।   


Thursday, September 21, 2023

अध्यात्म और अतीत का गौरव गान


हिंदी जगत में रामधारी सिंह दिनकर की राष्ट्रकवि के रूप में समादृत हैं। द्वारिका राय सुबोध के साथ एक साक्षात्कार में दिनकर ने इस विशेषण को लेकर अपनी पीड़ा व्यक्त की थी। जब उनसे पूछा गया कि क्या आलोचकों ने उनके साथ न्याय किया तो उन्होंने साफ कहा कि राष्ट्रकवि के नाम ने मुझे बदनाम किया है। मेरे कवित्व की झांकी दिखलाने का कोई प्रयास नहीं करता। उन्होंने माना था कि कवि की निष्पक्ष आलोचना उसके जीवनकाल में नहीं हो सकती है क्योंकि जीवनकाल में उनके व्यवहार आदि से कोई रुष्ट रहता है और कोई अकारण ईर्ष्यालु हो उठता है। यह अकारण भी नहीं है कि दिनकर को राष्ट्रकवि कहा जाता है। उनकी कविताओं में राष्ट्रीय भावनाओं का प्राबल्य है। उनकी आरंभिक कविताओं से लेकर परशुराम की प्रतीक्षा तक में राष्ट्र को लेकर चिंता दिखाई देती है। स्वयं दिनकर ने भी लिखा है कि लिखना आरंभ करने के समय सारे देश का कर्त्तव्य स्वतंत्रता संग्राम को सबल बनाना था। अपनी कविताओं के माध्यम से वो भी कर्तव्यपालन में लग गए थे। दिनकर की कविताओं में अतीत का गौरव गान भी मुखरित होता है। जब देश स्वाधीन हुआ था तो दिनकर ने ‘अरुणोदय’ जैसी कविता लिखकर स्वतंत्रता का स्वागत किया था। एक वर्ष में ही दिनकर का मोहभंग हुआ और उन्होंने ‘पहली वर्षगांठ’ जैसी कविता लिखकर राजनीतिक दलों की सत्ता लिप्सा पर प्रहार किया। 

राष्ट्रकवि के विशेषण से दिनकर के दुखी होने का कारण था कि उनकी अन्य कविताओं और गद्यकृतियों को आलोचक ओझल कर रहे थे। दिनकर के सृजनकर्म में पांच महत्वपूर्ण पड़ाव है। इनको रेखांकित करने के पहले दिनकर के बाल्यकाल के बारे में जानना आवश्यक है। दिनकर ने दस वर्ष की उम्र से ही रामायण और श्रीरामचरितमानस का नियमित पारायण आरंभ कर दिया था। रामकथा और रामलीला में उनकी विशेष रुचि थी। उनपर श्रीराम के चरित्र का गहरा प्रभाव था। किशोरावस्था से ही वो वाल्मीकि और तुलसी की काव्यकला से संस्कारित हो रहे थे। कालांतर में पराधीनता ने उनके कवि मन को उद्वेलित किया। रेणुका और हुंकार जैसी कविताओं ने उनको राष्ट्रवादी कवि के रूप में पहचान दी। जब कुरुक्षेत्र और के बाद रश्मिरथी का प्रकाशन हुआ तो दिनकर को चिंतनशील और विचारवान कवि माना गया। कुछ समय बाद जब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ का प्रकाशन हुआ तो दिनकर को इतिहास में संस्कृति और दर्शन की खोज करनेवाला लेखक कहा गया। दिनकर की कलम निरंतर चल रही थी। उर्वशी के प्रकाशन पर तो साहित्य जगत में जमकर चर्चा हुई। दर्जनों लेख लिखे गए, वाद-विवाद हुए। चर्चा में दिनकर को प्रेम और अध्यात्म का कवि कहा गया। 1962 के चीन युद्ध के बाद जब ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ आई तो आलोचकों ने कविता में विद्रोह के तत्वों को रेखांकित करते हुए उनको विद्रोही कवि कह डाला। 

दिनकर चाहते थे कि उनकी कृतियों की समग्रता में चर्चा हो लेकिन जब सिर्फ उनकी राष्ट्र आधारित कविताओं की चर्चा होती तो वो झुब्ध हो जाते । दिनकर की कविताओं में वर्णित ओज के आधार पर कुछ आलोचक उनको गर्जन-तर्जन का कवि घोषित कर देते हैं। वो भूल जाते हैं कि ओज के पीछे गहरा चिंतन भी है। दिनकर की कविता की भाषा एकदम सरल है लेकिन बीच में जिस तरह से वो संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग करते हैं उससे उनकी कविता चमक उठती है। इस बात पर भी शोध किया जाना चाहिए कि जो दिनकर बाल्यकाल में रामायण और श्रीरामचरितमानस के प्रभाव में थे उन्होने बाद में अपने प्रबंध काव्यों में महाभारत को प्राथमिकता क्यों दी। प्रणभंग, कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी तो महाभारत आधारित है। अगर समग्रता में देखें तो दिनकर की कविताओं में समय, समाज, संस्कृति, प्रेम,प्रकृति, राजनीति और राष्ट्रीयता आदि की गाढ़ी उपस्थिति है। यही उनकी काव्य धरा भी है और क्षितिज भी।     


Saturday, September 16, 2023

एक राष्ट्र, एक पुस्तकालय की चुनौतियां


पिछले कुछ समय से भारत सरकार पुस्तकों को लेकर सक्रिय दिख रही है। अगस्त में संस्कृति मंत्रालय ने प्रगति मैदान में पुस्तकालय उत्सव का आयोजन किया। इसका शुभारंभ राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु ने किया। पुस्तकालय उत्सव स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के दूसरे चरण का हिस्सा है। इसका उद्देश्य देश में पुस्तकालय संस्कृति और डिजिटलीकरण को बढ़ावा देना और पढ़ने की संस्कृति का विकास करना भी है। संस्कृति राज्यमंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने उस दौरान बताया था कि पुस्तकालय इतिहास और असीमित भविष्य की खाई को पाटने का काम करता है। उन्होंने ये भी कहा था कि पुस्तकालयों का विकास सरकार की प्राथमिकता है और वन नेशन वन डिजीटल लाइब्रेरी पर भी कार्य होगा। उन्होंने भौतिक और डिजिटल पुस्तकालयों के संतुलन पर बल दिया था। इसके अलावा संस्कृति मंत्रालय के सचिव और संयुक्त सचिव ने भी पुस्तकालयों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कई नीतिगत बातें की थीं। पुस्तकालयों की रैंकिंग से लेकर जिला स्तर तक पुस्तकालयों को समृद्ध और साधन संपन्न करने की बात की गई थी। राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु ने भी पुस्तकालय उत्सव के शुभारंभ के अवसर पर पुस्तकालयों को समाज संस्कृति के विकास को जोड़कर देखा था। उन्होंने पुस्तकालयों को सभ्यताओं के बीच का सेतु भी बताया था। राष्ट्रपति महोदया ने पुस्तकालयों को सामाजिक संवाद, अध्ययन और चिंतन का केंद्र बनाने पर बल दिया था। उत्सव हुआ। वहां पुस्तकालयों कि स्थिति और संसाधनों को लेकर मंथन हुआ। ग्राम और सामुदायिक स्तर पर पुस्तकालयों की चर्चा हुई। कई तरह के सुझाव भी आए। क्रियान्वयन कैसे होगा ये देखना होगा।  

संस्कृति मंत्रालय के इस आयोजन के बाद शिक्षा मंत्रालय ने 11 सितंबर को एक आदेश जारी किया। उसमें बताया गया कि देश में पढ़ने की आदत का विकास, स्तरीय प्रकाशन को प्रोत्साहन, प्रकाशन व्यवसाय को दिशा और देश में खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में पुस्तकालय आंदोलन को पुनर्जीवित करने के लिए फरवरी 2010 में एक टास्क फोर्स का गठन किया गया था। इसको समग्रता में राष्ट्रीय पुस्तक प्रोन्नयन नीति तैयार करने का कार्य सौंपा गया था। टास्क फोर्स से इक्कसवीं सदी की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए नीति तैयार करने की अपेक्षा की गई थी। अब राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के चेयरमैन मिलिंद सुधाकर मराठे की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक 14 सदस्यीय समिति का गठन किया गया है जो राष्ट्रीय पुस्तक प्रोन्नयन नीति का फाइनल ड्राफ्ट तैयार करने में मदद करेगी। इस समिति से ये अपेक्षा की गई है कि वो राष्ट्रीय शिक्षा नीति को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय पुस्तक प्रोन्नयन नीति तैयार करे। इस समिति में चामू शास्त्री, प्रो कुमुद शर्मा, रमेश मित्तल, गरुड़ प्रकाशन के सक्रांत सानु, प्रभात प्रकाशन के प्रभात कुमार, प्रो गोविंद प्रसाद शर्मा के अलावा आईआईटी खड़गपुर के निदेशक, एनसीईआरटी के निदेशक के अलावा सरकारी अधिकारियों को शामिल किया गया है। राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के महानिदेशक भी इस समिति में रखे गए हैं। 

समिति से ये अपेक्षा भी की गई है कि वो एक महीने के अंदर राष्ट्रीय पुस्तक प्रोन्नयन नीति के ड्राफ्ट का अवलोकन करे और उसको राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप करते हुए संशोधित करे। उसमें स्तरीय अनुवाद पर बहुत जोर दिया गया है। पुस्तकों का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो और उनको स्कूलों और अन्य पुस्तकालयों तक पहुंचाने के बारे में सुझाव दिए जाएं। ग्रामीण क्षेत्रों में पुस्तकालयों की स्थापना और डिजीटल पुस्तकालय को कैसे गांवों से जोड़ा जाए या गांवों में डिजीटल पुस्तकालयों की स्थापना के तरीकों पर भी विचार हो और ठोस सुझाव आए। इस समिति को हर तरह की सहायता देने के लिए राष्ट्रीय पुस्तक न्यास को जिम्मेदारी दी गई है। यहां यह बताना आवश्यक है कि राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का उद्देश्य भी पुस्तकों की संस्कृति और पाठकों के बीच पढ़ने की आदत का विकास करना है। ये संस्था यह कार्य पिछले छह दशक से अधिक समय से कर भी रही है।   

संस्कृति और शिक्षा मंत्रालय की पुस्तकालयों को लेकर पहल अच्छी है। उद्देश्य भी। शिक्षा मंत्रालय ने तो समिति का गठन कर दिया है और एक महीने का समय दिया है ताकि राष्ट्रीय पुस्तक प्रोन्नयन नीति को समग्रता में तैयार किया जा सके। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के पेश होने के तीन वर्ष बाद इस ओर मंत्रालय का ध्यान गया है। संस्कृति मंत्रालय के अधीन तो एक संस्था पहले से बनी हुई है, राजा रामहोन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन। जिसका मुख्यालय कोलकाता में है। ये संस्था पुस्तकालयों के लिए पुस्तकों का खरीद करती है। राज्यों के पुस्तकालयों को पुस्तकों की खरीद के लिए अनुदान देती है। देश के अलग अलग इलाकों में पुस्तकालयों की स्थिति बेहतर करने के लिए अनुदान देती है। पुस्तकालयों के फर्नीचर से लेकर आधुनिकीकरण तक के लिए धन उपलब्ध करवाती है। जो पुस्तकें कापीराइट से मुक्त हो जाती हैं उनके डिजीटलीकरण के लिए भी संसाधन उपलब्ध करवाती है। पुस्तकालयों और पुस्तक व्यवसाय को केंद्र में रखकर अगर विचार किया जाए तो यह संस्था महत्वपूर्ण है। अब इस संस्था पर नजर डालते हैं। इस संस्था में पिछले दो वर्षों से अध्यक्ष नहीं है। कंचन गुप्ता को 2019 में अद्यक्ष बनाया गया था। दो वर्ष के बाद वो दूसरे दायित्व पर चले गए। उसके बाद से कोई अध्यक्ष नियुक्त नहीं हुआ। संस्कृति मंत्री जी किशन रेड्डी इस जिम्मेदारी को निभा रहे हैं। उनके पास पर्यटन और पूर्वोत्तर विकास मंत्रालय भी है। वो तेलंगाना बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष भी हैं। उनकी व्यस्तता समझी जा सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी प्राथमिकता में राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन काफी नीचे है। परिणाम ये है कि 2020-21 के बाद पुस्तकों की खरीद नहीं हुई। इसके पहले भी दो वर्ष पुस्तकों की खरीद नहीं हुई। 

राजा रामहोन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में पुस्तकों की खरीद में काफी भ्रष्टाचार होता रहा है। सरकारी खरीद के लिए पुस्तकों को मूल्य को काफी बढ़ाकर रखा जाता है। एक कविता पुस्तक जो बाजार में दो सौ रुपए में उपलब्ध है उसको हजार रुपए में सरकारी खरीद में बेच दिया जाता था। इसको रोकने के लिए पुस्तक खरीद बंद करना उचित नहीं है। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए ऐसे लोगों की समिति बनानी होगी जिनको पुस्तकों के बारे में पता हो, जो इस व्यवसाय को जानते हैं। ऐसे नियम बनाने होंगे जिसमे पारदर्शिता हो। संस्कृति मंत्री और मंत्रालय को समय निकालकर इसपर ध्यान देना होगा। उत्सव से माहौल बनेगा लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का पुस्तकालयों को लेकर जो विजन है उसको यथार्थ की भूमि पर उतारने के लिए गंभीरता से कार्य करना होगा। समय पर नियुक्तियां करनी होंगी। समय पर पुस्तकों की खरीद करनी होगी। प्रकाशकों को विश्वास में लेना होगा। पुस्तकालयों तक पुस्तक पहुंचे, इसकी व्यवस्था करनी होगी। राज्यों को जो अनुदान दिए जाते हैं उसमें स्तरीय पुस्तकों की खरीद हो इसके लिए नीति बनाकर क्रियान्वयित करनी होगी। तकनीक के बढ़ते प्रभाव को ध्यान में रखकर डिजीटल लाइब्रेरी बनानी होगी। अच्छी पुस्तकों के अधिकार खरीदकर उसको वहां उपलब्ध करवाना होगा। प्रकाशकों को इसके लिए प्रोत्साहन देना होगा। पुस्तक व्यवसाय से जुड़े कागज उद्योग, स्याही उद्योग, प्रकाशन संस्थानों के हितों का भी ध्यान रखना होगा। अगर देश में पढ़ने की आदत का विकास करना है तो स्कूली छात्रों की रुचियों तक पहुंचने का उपक्रम करना होगा। आज अगर देखा जाए तो पुस्तकालयों में जानेवालों की संख्या कम हो रही है उसको बढ़ाने के लिए रुचिकर कार्यक्रम करने होंगे। ई बुक्स और पुस्तक दोनों के बीच एक संतुलन स्थापित करना होगा ताकि हर व्यक्ति को अपनी सुविधानुससार पसंदीदा सामग्री पढ़ने को उपलब्ध हो सके। अगर ऐसा होता है तो पुस्तकालय महोत्सव और राष्ट्रीय पुस्तक प्रोन्नयन नीति आदि का लाभ हो सकेगा। अन्यथा ये रस्मी आयोजन बनकर रह जाएंगे। 

Monday, September 11, 2023

मोहब्बत की ‘चांदनी’


मैं तुमसे मोहब्बत करता हूं, मैं तुमसे मोहब्बत करता हूं, ये दो सादा से बोल जहां में पहली पहली बार न जाने किसने कहे और किससे कहे। जब जब ये बोल मोहब्बत की दुनिया में किसी ने दोहराए मासूम हंसी बेकल होकर दीवानावार चले आए। नेपथ्य से ये आवाज आती है और फिर चांदनी, चादनी, चांदनी की पुकार सुनकर सफेद कपड़ों में, सफेद दुपट्टा लहराती, सफेद धुंध के बीच श्रीदेवी जब परदे पर आती है तो सिनेमा हाल तालियों से गूंज उठता था। आप ठीक समझे हम बात कर रहे हैं आज से 39 वर्ष पहले आई फिल्म चांदनी की जिसने श्रीदेवी को लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया था। यश चोपड़ा की इस फिल्म में ऋषि कपूर, विनोद खन्ना और अनुपम खेर आदि भी थे लेकिन इसको श्रीदेवी की फिल्म के तौर पर याद किया जाता है। उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के मध्यमवर्गीय परिवार की एक चुलबुली लड़की की भूमिका में श्रीदेवी ने उत्कृष्ट अभिनय किया। ये फिल्म इतनी सफल हुई थी कि 14 सितंबर 1989 को फिल्म के रिलीज होने के बाद युवतियों के फैशन में सफेद सलवार कमीज और दुपट्टे का चलन बढ़ गया था। इस फिल्म के पहले शायद ही किसी अभिनेत्री ने सफेद बिंदी लगाई हो। श्रीदेवी ने सफेद सलवार कमीज के साथ सफेद बिंदी लगाई। घुटनों से लंबी चोटी, हाथों में कांच की चूड़ियां पहनकर ये चुलबुली लड़की दर्शकों को अपने मोहपाश में बांध लेती थी। इस फिल्म कि नायिका के चेहरे का लावण्य और शिफान साडियों के गेटअप में पर्द पर उसकी उपस्थिति ऐसा रोमांटिक माहौल बनाती थी जिसमें दर्शक खो जाते थे। श्रीदेवी की नकल में उन दिनों लड़कियों ने भर भरकर हाथों में चूड़ियां पहनी थीं। यही इस फिल्म  की सफलता का बड़ा कारण था। रेचल डायर ने अपनी पुस्तक में यश चोपड़ा को उद्धृत किया है। यह बताया गया कि पहले भानु अथैया ने इस फिल्म का ड्रेस डिजायन किया था लेकिन वो यश चोपड़ा को पसंद नहीं आया। वो लीना को लेकर आए और सफेद और चटख रंगों के कपड़े तैयार करवाए गए। मध्यवर्गीय लड़कियों की पसंद को ध्यान में रखा गया। घर में होते हुए वो कैसे कपड़े पहनती हैं और आफिस में कैसी साड़ियां या कपड़े पहनती हैं। ये सोच जब पर्दे पर उतरा तो सफल रहा।  

श्रीदेवी ने फिल्म चांदनी में अपने अभिनय से दर्शकों का तो दिल जीता ही निर्देशक यश चोपड़ा का भरोसा भी जीता। बहुत कम लोगों को ये मालूम है कि श्रीदेवी चांदनी फिल्म के लिए यश चोपड़ा की पहली पसंद नहीं थीं। यश चोपड़ा चाहते थे कि रेखा इस भूमिका को निभाए। पता नहीं ये संयोग हो सकता है लेकिन यश चोपड़ा की फिल्म सिलसिला में रेखा का नाम चांदनी ही था। रेखा को यश जी ने इस फिल्म की कहानी सुनाई लेकिन रेखा इस भूमिका के लिए तैयार नहीं हुईं। रेखा के इंकार करने के बाद यश चोपड़ा ने श्रीदेवी को अपनी फिल्म में लिया। फिल्म के प्रदर्शन के समय यश चोपड़ा ने इस बात को स्वीकार किया था कि रेखा अपने समय की सबसे प्रतिभाशाली अभिनेत्री है। जब मैंने चांदनी के लिए श्री को साइन किया था तब मुझे इस बात का यकीन नहीं था कि वो रेखा जितना अच्छा अभिनय कर पाएगी लेकिन शूटिंग के पहले शेड्यूल के समाप्त होते होते मुझे अपने चयन पर खुशी होने लगी थी। श्री ने कमाल कर दिया था और ऐसा लगने लगा था कि चांदनी तो वही है। इतना ही नहीं चांदनी फिल्म की मूल कहानी वो नहीं थी जो पर्दे पर आई। रेचल की पुस्तक में ही इस बात का भी जिक्र मिलता है कि मूल कहानी में ऋषि कपूर और श्रीदेवी की शादी हो जाती है और उनके एक बेटा भी होता है। इस कहानी के आधार पर दिल्ली में शूटिंग भी आरंभ हो गई थी। जब कुछ दिनों की शूटिंग हो गई तो यश चोपड़ा ने रील्स देखने शुरु किए। उनको मजा नहीं आया। अब वो कहानी बदलना चाहते थे। दिल्ली में शूटिंग के दौरान ही यश चोपड़ा ने पटकथा लेखक के साथ बैठकर मध्यांतर तक की कहानी बदल दी और उसको फिर से शूट किया। 

फिल्म चांदनी एक बेहरीन रोमांटिक फिल्म थी और ऐसा माना जाता है कि कयामत से कयामत तक, चांदनी और मैंने प्यार किया ने हिंदी फिल्मों में रोमांस की वापसी करवाई। 1988 में कयामत से कयामत तक आई फिर चांदनी और फिर मैंने प्यार किया। इसके पहले हिंदी फिल्मों में एक्शन का दौर था। यश चोपड़ा एक्शन फिल्मों से इतना ऊब चुके थे कि उन्होंने फिल्म चांदनी में विनोद खन्ना और श्रीदेवी का एक एक्शन सीक्वेंस हटा दिया। मूल कहानी में श्रीदेवी आग में फंसती है और विनोद खन्ना उनको बचाते हैं। यश जी को ये सीन रोमांटिक फिल्म में नहीं भा रहा था। जब उनके इस कदम के बारे में फिल्म के वितरकों को पता चला तो उन्होंने फिल्म से विनोद खन्ना के एक्शन दृश्य को हटाने का विरोध किया। उनका तर्क था कि विनोद खन्ना की फिल्म में एक्शन नहीं होगा तो फिल्म चलेगी नहीं। यश चोपड़ा उस सीन को हटाने पर अड़े थे और वितरक जुड़वाने पर। यश चोपड़ा ने एक तरकीब सोची, उन्होंने वितरकों को कम दर पर फिल्म देने का प्रस्ताव किया। वितरक तैयार हो गए। फिल्म चांदनी बिना विनोद खन्ना के एक्शनन दृश्य के सिनेमागृहों तक पहुंची। उसके बाद की कहानी तो इतिहास है लेकिन इस फिल्म की नायिका के गेटअप ने फैशन का जो ट्रेंड बदला वो हिंदी फिल्मों में सदैव याद रखा जाएगा।  

Saturday, September 9, 2023

भाषा में नहीं हो राजनीति का घालमेल


नई दिल्ली में आयोजित जी 20 शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब अपना वक्तव्य दे रहे थे तो उनकी सीट के सामने भारत लिखा था। इसके पहले राष्ट्रपति ने राष्ट्र प्रमुखों के लिए जो भोज का आयोजन किया है उसके निमंत्रण पत्र में भी प्रेसिडेंट आफ भारत लिखा गया था। जी 20 सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संबोधन हिंदी में हुआ। इसको कुछ लोग राजनीति के चश्मे से देख रहे हैं जबकि ये भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने का उपक्रम मात्र है। यह प्रधानमंत्री के स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में प्रधानमंत्री के पंच प्रण के अनुसार उठाया जा रहा कदम है। भारत शब्द में जो अपनत्व का बोध है या इस शब्द से लोगों का जो जुड़ाव है वो अपेक्षाकृत इंडिया से काफी अधिक है। नरेन्द्र मोदी संसद में भी और वैश्विक मंचों पर भी हिंदी में ही भाषण देते हैं। लोगों को वो क्षण भी याद है जब प्रधानमंत्री ने अपने पिछले अमेरिकी दौरे में व्हाइट हाउस में अपने स्वागत के समय हिंदी में वक्तव्य दिया और अमेरिका के राष्ट्रपति और उनकी पत्नी खड़े होकर मोदी के हिंदी में दिए गए वक्तव्य को  सुन रही थीं। संभव है उन्होंने इसको समझने के लिए अनुवाद यंत्र का उपयोग किया होगा। इस सरकार के मंत्री भी यथासंभव भारतीय भाषाओं में ही संवाद करते हैं। इससे भी भारतीय भाषाओं के बीच सामंजस्य बनता है।  

जी 20 सम्मेलन के पहले गृह मंत्री अमित शाह ने संसदीय राजभाषा समिति की बैठक की अध्यक्षता करते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में देश के सामने पांच प्रण रखे थे। जिनमें से दो प्रण हैं- विरासत का सम्मान और गुलामी के चिन्हों को मिटाना। अमित शाह ने उस बैठक में बताया था कि इन दोनों प्रण के शत-प्रतिशत क्रियान्वयन के लिए सभी भारतीय भाषाओं और राजभाषा को अपनी शक्ति दिखानी होगी। विरासत का सम्मान भाषा के सम्मान के बिना अधूरा है। राजभाषा की स्वीकृति तभी आएगी जब स्थानीय भाषाओं को सम्मान देंगे। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण बात कही थी कि हिन्दी की स्पर्धा स्थानीय भाषाओं से नहीं है। सभी भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहन देने से ही राष्ट्र सशक्त होगा। इसके पहले भी गृह मंत्री राजभाषा हिंदी को लेकर इस तरह की बातें करते रहे हैं। अगर मोदी सरकार के पिछले 9 वर्षों के कार्यकाल को देखें तो हिंदी को भारतीय भाषाओं के साथ लेकर चलने का जो प्रयास दिखाई देता है उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। बिना किसी पर हिंदी थोपे अपने व्यवहार से और भारतीय भाषाओं के उन्नयन की योजना के क्रियान्वयन से हिंदी को शक्ति देने का प्रयास हो रहा है। अमित शाह ने संसदीय समिति की बैठक में स्पष्ट भी किया था कि राजभाषा की स्वीकृति कानून या सर्कुलर से नहीं बल्कि सद्भावना, प्रेरणा और प्रयास से आती है।

जब इंजीनियरिंग और मेडिकल के पाठ्यक्रम और पुस्तकों को भारतीय भाषाओं में तैयार करने की बारी आई तो इसको 10 भारतीय भाषाओं में तैयार किया गया। इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई भी 10 भारतीय भाषाओं में आरंभ हुई। अगर सिर्फ हिंदी में शुरुआत की जाती तो अन्य भारतीय भाषाओं के लोगों को ये लग सकता था कि उनपर हिंदी थोपी जा रही है। हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं पर वरीयता दी जा रही है। सरकार की तरफ से ये कहा जा रहा है कि जब ये पाठ्यक्रम सभी भारतीय भाषाओं में आरंभ हो जाएंगे तो वो क्षण स्थानीय भाषा और राजभाषा के उदय का क्षण होगा। स्वाधीनता के अमृत काल में ये एक बेहद सुखद संकेत है कि वर्तमान सरकार ये मानती है कि विरासत का सम्मान भाषा के सम्मान के बिना अधूरा है और राजभाषा की स्वीकृति या व्याप्ति तभी बढ़ेगी जब सभी भारतीय भाषाओं को एक प्रकार का सम्मान दिया जाएगा। यह अकारण नहीं है कि भाषा को लेकर अगर इक्का दुक्का राजनीतिक दल या नेताओं को छोड़ दें तो कहीं से भी इसके विरोध के स्वर सुनने को नहीं मिलते हैं। अब उनसे क्या अपेक्षा की जाए जो अपनी राजनीति चमकाने के लिए सनातन की भी आलोचना करने से नहीं चूकते हैं। भाषा को लेकर राजनीति को जनता ना केवल समझ चुकी है बल्कि इससे ऊब भी चुकी है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी जिस तरह से भारतीय भाषाओं पर जोर है उसने भी हिंदी विरोध को कम किया है। इस नीति में सभी भारतीय भाषाओं को एक समान महत्व दिया गया है। सरकार इसको लेकर इतनी सतर्क है कि पूरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहीं भी हिंदी शब्द का उल्लेख नहीं है। 

दरअसल अगर हम भारतीय भाषाओं के बीच कटुता के कारणों की ओर नजर डालते हैं तो इसके बीज हमें औपनिवेशिक काल में दिखाई देते हैं। जब अंग्रेज भारत आए और मुगलों को परास्त करके सत्ता पर काबिज हुए तो उनके पास भाषा को लेकर कोई नीति नहीं थी। भारतीय भाषाओं को लेकर अंग्रेजों का दृष्टिकोण और नीति उनके हितों के आधार पर तय होती थी। उन्नीसवीं शताब्दी के समाप्त होते होते अंग्रेजों ने भाषा को लेकर ठोस नीति बनाने पर विमर्श आरंभ किया। भाषा के वर्गीकरण, उसकी भौगोलिक सीमा और भाषाई परिवार को तय करने का कार्य भी आरंभ किया। इसके पहले तो भाषा और उसके वर्गीकरण का काम ईसाई मिशनरियों के जिम्मे था। अंग्रेज अधिकारी भारतीय भाषा को सीखने में रुचि नहीं दिखाते थे वो तो बस इतना सीखना चाहते थे ताकि उनका राज काज चल सके। सबसे पहले उन्होंने फारसी सीखी ताकि मुगलों और उनके कारिदों के साथ संवाद हो सके। पलासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों को लगा कि भारत के बहुसंख्यक हिंदुओं के धर्म और उनकी भाषा को जाने बिना उनपर शासन करने में कठिनाई होगी। इसको ध्यान में रखते हुए उन्होंने भारतीय भाषाओं और धर्म के विभिन्न पहलुओं के बारे में जानने का प्रयास आरंभ किया। 1792 में वारेन हेस्टिंग्स की योजना में भी ये तय किया गया कि भारत पर लंबे समय तक शासन भारतीय संवेदनाओं को ध्यान में रखकर ही किया जा सकता है। बाद में भाषा को लेकर अंग्रेजों ने ग्रियर्सन की अगुवाई में लिंग्विस्टिक सर्वे करवाया। 

स्वाधीनता आंदोलन ने जब जोर पकड़ा तो भाषा को सामाजिक और राजनीतिक लामबंदी के लिए उपयोग किया गया। गांधी ने हिंदी की महत्ता को समझते हुए अपने आरंभिक दिनों में इसको वरीयता दी और राजनीतिक औजार के तौर पर उपयोग किया। गांधी के इस कदम के पहले भी और बाद में भी गैर हिंदी भाषी स्वाधीनता सेनानियों ने हिंदी को शक्ति प्रदान करने पर बल दिया था चाहे वो बंगाल के भूदेव मुखर्जी हों या महाराष्ट्र के वीर सावरकर। उस समय अंग्रेजों ने हिंदी के सामने उर्दू को खड़ा कर दिया और हिंदी उर्दू विवाद को हवा दी। अलीगढ़ के कुछ विद्वानों ने हिंदी उर्दू विवाद को हवा भी दी। यह अकारण नहीं है कि बाद के दिनों में जब स्वाधीनता संग्राम की चर्चा होती तो हिंदी उर्दू और हिंदी राष्ट्रवाद के आधार पर आकलन होता। उसमें अन्य भारतीय भाषाओं के योगदान की चर्चा लगभग गौण रह जाती। स्वाधीनता के बाद भी ये क्रम चलता रहा। परिणाम ये हुआ कि अन्य भारतीय भाषा के लोगों के बीच हिंदी को लेकर एक उपेक्षा या शत्रुता भाव दिखने लगा। कालांतर में जब भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ तो भारतीय भाषाओं के बीच वैमनस्यता और बढ़ी। इस पृष्ठभूमि में अगर विचार करें तो आज हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच जो समन्वय दिखता है वो शुभ संकेत है। आज देश की जनता भी समझ गई है कि राष्ट्र की संपर्क भाषा को न सिर्फ समझ रही है बल्कि स्वीकार भी कर रही है। समय आ गया है कि भाषा में बंटवारे के औपवनिवेशिक बीज को समाप्त किया जाए। 

Friday, September 8, 2023

जी 20 देश के दिग्गज और दिल्ली


जी 20 के राष्ट्राध्यक्षों का दिल्ली में सम्मेलन हो रहा है। दिल्ली इनके स्वागत के लिए पूरी तरह से तैयार है। प्रगति मैदान के भारत मंडपम में ये सम्मेलन हो रहा है। भारत की अध्यक्षता में दिल्ली में हो रहे इस सम्मेलन में कई महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा होगी। दिल्ली और जी 20 के कई देशों के साथ पहले से भी अच्छे संबंध रहे हैं। जी 20 देशों के प्रमुख शिक्षाविदों, लेखकों और राजनीतिज्ञों के नाम पर दिल्ली में इमारतें और सड़कों के नाम रखकर उनको सम्मानित किया गया है। इस कड़ी में सबसे पहले नाम याद आता है लेव तोलस्तोय का। तोलस्तोय रूस के विश्व प्रसिद्ध लेखक हैं जिन्होंने युद्ध और शांति जैसा कालजयी उपन्यास लिखा। लेव तोलस्तोय पहले रूसी सेना में थे लेकिन युद्ध की विभीषिका से क्षुब्ध थे। कुछ दिनों बाद उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी। बाद में वो रचनात्मक लेख में जुटे और एक के बाद एक कई प्रआसिद्ध कृतियों की रचना की। गांधी और तोलस्तोय के बीच भी पत्र व्यवहार था और गांधी ने जब दक्षिण अफ्रीका में अपना आश्रम बनाया तो सका नाम उन्होंने तोलस्तोय फार्म ही रखा था। गांधी उनकी कृति द किंगडम आफ गाड विदइन यू से प्रभावित थे। लेव तोलस्तोय की एक प्रतिमा जनपथ और लेव तोलस्तोय मार्ग के कोने पर लगी है। वहीं एक इमारत का नाम भी तोलस्तोय हाउस है। तोलस्तोय मार्ग जनपथ से कस्तूरबा गांधी मार्ग को जोड़ती है।

लेव तोलस्तोय मार्ग से कस्तूरबा गांधी मार्ग पहुंचने पर मैक्स मूलर भवन की याद आती है जो इसी मार्ग पर है। मैक्स मूलर जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान थे। मैक्स मूलर का जन्म जर्मनी में हुआ था लेकिन उनको प्रसिद्धि ब्रिटेन में मिली जब वो वहां के प्रसिद्ध आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में आधुनिक भाषा के शिक्षक बने। कुछ दिनों के बाद उनकी नियुक्ति तुलनात्मक भाषा विज्ञान के प्रोफेसर के पद पर हुई। वहां रहते हुए उन्होंने संस्कृत का विशद अध्ययन किया। ऋगवेद और बौद्ध ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद किया। मैक्स मूलर ने धर्म और विज्ञान के अंतर्संबंधों पर भी गहनता से विचार किया था। मैक्स मूलर के नाम से दिल्ली में सिर्फ एक भवन ही नहीं बल्कि एक सड़क भी है। खान मार्केट से जब इंडिया इंटरनेशनल सेंटर होते हुए जब लोदी रोड की तरफ जाते हैं तो वो मार्ग मैक्स मूलर के नाम पर है। दिल्ली में इस तरह अगर देखें तो जी 20 देशों से जुड़े कई अन्य लोगों के नाम पर भी सड़कें और भवनों के नाम रखकर उनको सम्मानित किया गया है। मैक्सिको के पूर्व राष्ट्रपति बेनितो जुआरेज के नाम पर भी दक्षिणी दिल्ली में एक सड़क है जो राव तुला राम मार्ग को धौला कुंआ से जोड़ता है। दो किलोमीटर लंबी इस सड़क पर दिल्ली विश्वविद्यालय का दक्षिणी परिसर है। इस सड़क पर ही कई महाविद्यालय भी हैं। इनके अलावा अमेरिका के आर्किटेक्ट जोसेफ स्टेन के नाम भी एक सड़क है। जोसेफ ने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर को डिजायन किया था। इसके अलावा तुर्किए के नेता मुस्तफा कमाल अतातुर्क के नाम पर भी एक सड़क है। जि 20 के देशों के इन महानुभावों का दिल्ली में वर्षों से सम्मान हो रहा है और अब उन देशों के राष्ट्राध्यक्ष यहां हैं तो उनको ये जानकर प्रसन्नता होगी।


 

Saturday, September 2, 2023

पुरस्कारों में ‘सिस्टम’ का दखल


दिल्ली में आयोजित एक साहित्यिक समारोह में काफी दिनों बाद जाना हुआ। आमतौर पर साहित्यिक समारोहों के पहले और बाद में कुछ मित्र एक जगह जमा होकर साहित्यिक विषयों पर चर्चा करते हैं। उस आयोजन में कई मित्र मिल गए। शाम हो गई थी और दो घंटे के आयोजन के बाद सबको चाय की तलब हो रही थी। तय हुआ कि कहीं बैठकर चाय पी जाए। हम पांच मित्र पास की एक चाय दुकान पहुंचे। चाय बनाने को कहा गया। चाय आते ही चर्चा आरंभ हो गई। विभिन्न विधाओं में हो रहे साहित्यिक लेखन से चर्चा आरंभ हुई और फिर कब वो पुरस्कारों पर चली गई पता ही नहीं चला। कुछ ही दिनों पहले वर्ष 2023 के लिए श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको सम्मान की घोषणा हुई थी। इस वर्ष का सम्मान हिंदी उपन्यासकार मधु कांकरिया को देने की घोषणा हुई थी। ये पुरस्कार उर्वरक क्षेत्र की सहकारी संस्था इंडियन फारमर्स फर्टिलाइजर कोआपरेटिव (इफको) लिमिटेड की ओर से दिया जाता है। सम्मानित होनेवाले साहित्यकार को ग्यारह लाख रुपए का चेक, एक प्रतीक चिन्ह और प्रश्स्ति पत्र दिया जाता है। मधु कांकरिया को पुरस्कार की घोषणा पर चर्चा होने लगी। उनका आरंभिक उपन्यास पत्ताखोर मैंने पढ़ा था। मुझे पसंद आया था इस कारण मैंने चयन की प्रशंसा कर दी। मेरी प्रशंसा सुनकर  एक मित्र ने कहा, काश! उपन्यासों की विषयवस्तु और लेखन शैली के आधार पर पुरस्कार दिए जाते। अगर ऐसा होता तो श्रीलाल जी की स्मृति में दिया जानेवाला ये पुरस्कार चित्रा मुद्गल या मैत्रेयी पुष्पा आदि को दिया जाना चाहिए था। उसके मुताबिक ये पुरस्कार एक विचारधारा विशेष से जुड़े लेखकों को दिया जाता है। उसका इशारा वामपंथी लेखकों की ओर था। हम पांच मित्रों में से दो तो घोर और घोषइत तौर पर वामपंथी लेखक थे। उनमें से एक ने फौरन इसका प्रतिवाद किया और कहा कि चित्रा जी और मैत्रेयी जी इस पुरस्कार या सम्मान के लिए उचित पात्रता नहीं रखती हैं। बेहतर होता कि पुरस्कार के निर्णय की आलोचना करने से पहले उसके नियमों को देखा जाता। इस पुरस्कार के नियमों के अनुसार न तो चित्रा जी की पात्रता है और न ही मैत्रेयी जी की। मेरे चेहरे पर सहमति का भाव उभरा था। मैंने तो उत्साह में कह भी दिया कि प्रत्येक पुरस्कार की पात्रता की नियमावली होती है। निर्णायक मंडल उसके आधार पर ही आपस में विचार विमर्श करता है और फिर किसी एक लेखक का चयन किया जाता है।

जिस मित्र ने चित्रा जी और मैत्रेयी जी का नाम लिया था वो अपने मोबाइल में कुछ ढूंढने में व्यस्त था। अचानक उसका चेहरा चमका और वो कुछ पढने लगा- मूर्धन्य कथाशिल्पी श्रीलाल शुक्ल की स्मृति में वर्ष 2011 में शुरु किया गया यह सम्मान प्रत्येक वर्ष हिंदी के ऐसे लेखक को दिया जाता है जिसकी रचनाओं में मुख्यत: ग्रामीण और कृषि जीवन तथा विस्थापन, हाशिए का समाज और भारत के बदलते यथार्थ का चित्रण किया गया हो। उसके इतना कहते ही एक वामपंथी मित्र ने कहा कि तुमलोग हर जगह व्हाट्सएप युनिवर्सिटी का ज्ञान देने लगते हो। ये साहित्य की दुनिया है यहां व्हाट्सएप फार्वर्ड से कुछ भी न तो साबित होगा न ही स्थापित। जब वो ये तंज कर रहा था तो नियम पढनेवाला मित्र मुस्करा रहा था। इस बीच दूसरे वामपंथी मित्र ने भी अपने कामरेड की बातों से सहमति जताते हुए प्रश्न उछाला, साहित्य में भी अब व्हाट्सएप ज्ञान चलाओगे क्या। मुस्कुरा रहे मित्र ने फिर से अपने मोबाइल को देखा और विनम्रता से कहा कि आप दोनों ठीक कह रहे हैं। मैंने व्हाट्यएप पर ही आए संदेश को पढ़ा। लेकिन ये फार्वर्ड संदेश बल्कि इफको की प्रेस रिलीज है। अगर प्रेस रिलीज में सही लिखा गया है तो समकालीन रचनाकारों में मैत्रेयी पुष्पा से अधिक किसने ग्रामीण जीवन औऐर हाशिए के समाज पर लिखा है। चाक से लेकर अलमा कबूतरी जैसे उनके उफन्यासों को याद करिए। चित्रा जी ने भी हाशिए के समाज पर भी लिखा है। बदलते भारत के यथार्थ का चित्रण भी उनकी रचनाओं में है। वो निरंतर बोले जा रहा था। दोनों कामरेड असहमत थे। लेकिन उनके पास तर्क नहीं थे तो उन्होंने निर्णायक मंडल के विवेक की आड़ ली। 

बात निर्णायक मंडल के विवेक पर आ गई थी। मैंने पिछली बार की तरह ही तर्क दिया कि पुरस्कार तो निर्णायक मंडल ही तय करेगा। उसको मधु कांकरिया की रचनाएं बेहतर दिखी होंगी। मैं ये कहकर चर्चा समाप्त करना चाहता था। परंतु जिस मित्र ने रचना के आधार पर पुरस्कार की बात आरंभ की थी वो तो डटा हुआ था। उसने कहा अच्छा चलो जरा निर्णायक मंडल के नाम देख लेते हैं। उसने फिर मोबाइल में व्हाट्सएप खोला और इफको की प्रेस रिलीज से पढ़कर बताया कि निर्णायक मंडल में असगर वजाहत, अनामिका, प्रियदर्शन, रवीन्द्र त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और उत्कर्ष शुक्ल थे। नाम सुनकर मेरे वामपंथी मित्र ने तर्क उछाला कि इतने वरिष्ठ लेखकों के निर्णायक मंडल के निर्णय पर प्रश्न कैसे खड़ा किया जा सकता है। इतना सुनते ही वो बोले कि कि जरा निर्णायक मंडल में शामिल लेखकों की विचारधारा और लेखक संगठनों से जुड़ाव देख लो। असगर वजाहत और मुरली मनोहर प्रसाद सिंह तो जनवादी लेखक संघ से सक्रिय रूप से संबद्ध हैं। अनामिका को छोड़कर जो दो लोग हैं उनका रुझान भी वामपंथ की ओर है जो साहित्य जगत में ज्ञात है। युवा लेखक की मैं नहीं जानता। इतना सुनते ही दोनों वामपंथी मित्र भड़क गए। कहने लगे कि लेखक संगठनों से जुड़े होने का क्या मतलब है। सरकारी पुरस्कारों पर टिप्पणी करने लगे कि सरकार भी तो अपने लोगों को पुरस्कृत करती है। अपनी विचारधारा के लोगों को सम्मानित करती है आदि आदि। 

हम चारों मित्र इस चर्चा में शामिल थे। हमारा पांचवां मित्र चुपचाप चाय पी रहा था और मुस्कुरा रहा था। जैसे बातचीत का आनंद ले रहा हो। अचानक वो पुरस्कारों पर सवाल उठानेवाले मित्र को देखकर बोला कि भाई, तुमको द कश्मीर फाइल्स फिल्म का वो संवाद याद करना चाहिए जिसमें कहा गया है कि सरकार भले बदल गई हो लेकिन सिस्टम तो हमारा ही चलता है। वही सिस्टम चल रहा है। सिस्टम के पसंदीदा लोग पुरस्कृत हो रहे हैं। देखा नहीं कुछ दिनों पहले भारत सरकार ने केंद्रीय हिंदी निदेशालय, दिल्ली और केंद्रीय हिंदी संस्थान के सभी पुरस्कार बंद कर दिए। उधर वित्त मंत्रालय के अधीन आनेवाले बैंक आफ बड़ौदा ने 61 लाख रुपए के पुरस्कार बांट दिए। उसकी निर्णायक समिति देख लो। अध्यक्षता बुकर पुरस्कार विजेता गीतांजलिश्री ने की और उसमें अरुण कमल, पुष्पेश पंत, अनामिका आदि थे। इनमें से अधिकांश की विचारधारा ज्ञात है। गीतांजलिश्री राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मुखर आलोचक हैं, सरकार की भी। अरुण कमल लंबे समय तक प्रगतिशील लेखक संघ में रहे। इन सबने 25 लाख के प्रथम पुरस्कार के लिए उर्दू उपन्यास अल्लाह मियां का कारखाना को चुना। अब दोनों वामपंथी मित्र ढीले पड़ने लगे थे। मैंने सोचा कि बात बदली जाए। मैंने फिल्म की चर्चा आरंभ करने का प्रयास किया। लेकिन पाचवें मित्र रुके नहीं। कहने लगे कि चुनाव वर्ष में सरकार ने अपने अधिकतर साहित्यिक और भाषाई पुरस्कार बंद कर दिए लेकिन सिस्टम वाले पुरस्कार दे रहे हैं। इफको का पुरस्कार भले ही सरकारी नहीं हो लेकिन बैंक आफ बड़ौदा का पुरस्कार तो पूरी तरह से सरकारी है। इफको भी भारत सरकार के सहकारिता मंत्रालय से किसी न किसी तरह से तो जुड़ा ही है। पता नहीं क्यों सरकार ‘सिस्टम’ को खुलकर खेलने का अवसर प्रदान कर रही है। बात राजनीति की ओर मुड़ते देख मैंने चाय पर चर्चा खत्म करवाई। घर लौटते समय पांचवें मित्र की बात दिमाग में कुलबुला रही थी।