हिंदी के वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण सिनेमा प्रेमी थे। कविता के अलावा उनको जब भी अवसर मिलता था तो वो वैश्विक सिनेमा को लेकर टिप्पणी किया करते थे। 1992 में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था। उस लेख में उन्होंने लिखा था, कि सफल फीचर फिल्म के कथानक के साथ साथ वृत्तात्मक पक्ष सबल होना उसकी प्रामाणिकता को स्थापित करने में विशेष महत्व रखता है तथा कथानक को अतिरिक्त गहराई देने में सहायक होता है। भारतीय फिल्मों में स्थानीयता या वातावरण को बिल्कुल सजावटी ढंग से रख दिया जाता है, इस कारण उनका कोई चारित्रिक महत्व नहीं उभरता है। पिछले दिनों विवेक अभिनेत्री निर्देशित और नाना पाटेकर और पल्लवी जोशी अभिनीत फिल्म द वैक्सीन वार देखा। इस फिल्म को देखने के बाद सहसा कुंवर नारायण की उक्त पंक्तियों का स्मरण हो उठा। फिल्म द वैक्सीन वार में कथानक के साथ-साथ निर्देशक जिस प्रकार के वातावरण की निर्मिति करता है वो कथानक को अतिरिक्त गहराई देता है। फिल्म का पहला ही दृष्य इसका संकेत दे दाता है। कोविड महामारी के दौरान लाकडाउन में स्कूटर से एक विज्ञानी का पुलिस बैरीकेड को पार करने की कोशिश करना। बैरीकेड पर खड़े पुलिसवाले की सख्ती दिखाना और उसके बाद विज्ञानी को धक्का देना। इन दृष्यों से निर्देशक जिस वातावरण का निर्माण करता है वो ये बताने के लिए पर्याप्त है कि कैसे फिल्म का कथानक वातावरण से प्रामाणिकत हो जाता है। सिर्फ इतना ही नहीं कोविड के दौरान इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च के कार्यालय का वातावरण और वहां काम करनेवालों की कशमकश को दिखाकर निर्देशक ने एक वातावरण का निर्माण करने का सफल प्रयास किया है।
इटली के प्रसिद्ध फिल्मकार फ्रांचेस्को रोसी की एक फिल्म है क्रानिकल आफ ए डेथ फोरटोल्ड। ये फिल्म मशहूर कथाकार मार्खेज के उपन्यास पर आधारित है। कुंवर नारायण ने लिखा है कि फिल्म की असली ताकत को जहां दर्शक महसूस करते हैं वो है स्थान और वातावरण के साथ चरित्रों कि पक्की पहचान स्थापित कर सकने की वृत्तात्मक क्षमता। मार्खेज अपने उपन्यासों में जादुई यथार्थवाद का चित्रण करने के लिए जाने जाते हैं। इस उपन्यास में भी मार्खेज ने अपने स्टाइल में जो चित्र खींचा है उसको रोसी ने अपनी फिल्म में दृष्यों के माध्यम से संभव कर दिखाया है। विवेक अग्निहोत्री की फिल्म द वैक्सिन वार आईसीएमआर के पूर्व निदेशक डा बलराम भार्गव की पुस्तक गोइंग वायरल, मेकिंग आफ कोवैक्सीन पर आधारित है। इसमें और रोसी की फिल्म कला में एक और समानता है। रोसी ने अपनी फिल्म के अंत में स्त्री का अपने पति से प्रेम और सुलह को फिल्मी अंदाज में लाकर खड़ा कर दिया। मार्खेज का जो उपन्यास है वो प्रेम की भावना का अभिनय नहीं है, वो मनुष्य की उच्छृंखल कामुकता और उद्दात प्रेम के बीच अंतर करते हैं। फिल्म में हत्या को फिल्मी अंदाज में चित्रित किया है जबकि उपन्यास में मार्खेज अधिक संयत तरीके से जीवन मूल्यों को उभारते हैं। इसी तरह से विवेक अग्निहोत्री भी फिल्म के अंत में वैक्सीन को बनाने से रोकने के षडयंत्रों पर अधिक केंद्रित हो जाते हैं और कथानक उपन्यास से थोड़ा अलग दिखता है। महानगरों में बैठे कुछ फिल्म समीक्षकों को ये फिल्म का कमजोर पक्ष लग सकता है लेकिन इसके पीछे जो एक वैचरिक संघर्ष दिखता है, भारत और भारत के विज्ञानियों की मेहनत को कमतर करने की अंतराष्ट्रीय साजिश दिखाई गई है उसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है। रोहिणी सिंह धूलिया तो एक चरित्र मात्र है उसके माध्यम से फिल्मकार ने उस प्रवृत्ति पर चोट किया है जो निरंतर भारतीयों की उपलब्धियों को कम करके आंकते रहे हैं।
जब से विवेक अगिनहोत्री की फिल्म द कश्मीर फाइल्स सुपरहिट हुई तब से उसपर एजेंडा फिल्मकार का ठप्पा भी लगा दिया गया। ऐसा करनेवालों ने न द कश्मीर फाइल्स देखी थी और न ही द वैक्सीन वार। बगैर फिल्म देखे द वैक्सीन वार को भी एजेंडा फिल्म करार दे दिया गया है। यह सुखद संयोग है कि देश में नारी शक्ति वंदन अधिनियम को संसद के दोनों सदनों ने पास करके विधायिका में महिलाओं को आरक्षण का रास्ता साफ कर दिया। ऐसे उत्सवी माहौल में फिल्म द वैक्सीन वार देश की महिला विज्ञानियों की तपस्या को सामने लेकर आई। इस फिल्म में कोविड की पहली भारतीय वैक्सीन बनाने वाली महिला विज्ञानियों के संघर्षों भी दिखाया गया है। हमारे देश में महिला कितने भी बड़े पद पर या कितनी बड़ी जिम्मेदारी निभा रही हो उसको घर-परिवार के दायित्वों से मुक्ति नहीं मिलती है। इस फिल्म में एक महिला विज्ञानी घर पहुंचती है और उसका बच्चा एक कविता सुनाना चाहता है लेकिन कार्यालय से फोन आने पर वो अपने बच्चे को रोता बिलखता छोड़कर रात में निकल पड़ती है। ऐसे कई प्रसंग इस फिल्म में हैं। इस तरह के प्रसंगों को देखकर मुझे एक वाकया याद आ गया। कुछ वर्षों पहले एक महिला केंद्रीय मंत्री के साथ किसी बैठक में था। मंत्री जी के मोबाइल की घंटी बजी। उन्होंने फोन उठाकर चंद क्षणों बाद कहा कि दीदी से पूछ लो, जो खाना चाहे बना दो। बाद में उन्होंने बताया कि उनका घरेलू सहायक पूछ रहा था कि रात के खाने में सब्जी क्या बनेगी। खैर ये अवांतर प्रसंग है।
द वैक्सीन वार में नाना पाटेकर ने अपने शानदार अभिनय से डा बलराम भार्गव के किरदार को जीवंत बना दिया है। फिल्म के कथानक में इस चरित्र के साथ भी जिस तरह का वातावरण तैयार किया गया है वो भी रेखांकित किया जाना चाहिए। कोरोना महामारी के दौरान एक दिन डा बलराम भार्गव अपने कार्यालय पहुंचते हैं तो उनके कमरे के सामने बैठनेवाले चपरासी की कुर्सी खाली है। अचानक से प्रश्न ये कहां गया फिर वातावरण में की खामोशी से उस प्रश्न का उत्तर मिलता है। वातावरण की चुप्पी से भावनाओं का जो शोर उठता है उससे दर्शक स्वयं समझ जाते हैं कि चपरासी को कोरोना लील गया। डा भार्गव का रूखा व्यवहार कई बार उनके साथी विज्ञानियों को बुरा लगता है। नेशनल इंस्टीट्यूट आफ वीरोलाजी (एनआईवी) की निदेशक के साथ उनका इतना रूखा व्यवहार रहता है कि वो एक दिन रो पड़ती है। बलराम भार्गव का जो कैरेक्टर इस फिल्म में उभरता है उसके लिए अंग्रेजी में एक शब्द है टफ टास्कमास्टर। इस विशेषण को नाना पाटेकर ने अपने अबिनय से साकार कर दिया । कुछ लोग इस फिल्म की बहुत छोटी छोटी बातों को लेकर उलझे हुए हैं। कोई कह रहा है बंदर पकड़ने के लिए विज्ञानियों को भेज दिया कोई चूहे पर होने वाली जांच को लेकर मजाक उड़ा रहा है। कोई इस फिल्म की एक पात्र रोहिणी सिंह धूलिया के चरित्र चित्रण में उलझ कर रह गया है। कम ही लोग इस फिल्म में महिलाओं के सामर्थ्य चित्रण का उत्सव मना पा रहे हैं।
कुछ समीक्षक इस फिल्म की ओपनिंग कलेक्शन को लेकर इसका उपहास करने का प्रयास कर रहे हैं। उनको ये समझना होगा कि दस-बारह करोड़ रुपए की लागत से बनी फिल्म से 50 करोड़ रुपए की ओपनिंग की अपेक्षा तो निर्माता निर्देशक की भी नहीं रही होगी। फिल्म धीरे धीरे अच्छा करेगी। लोग इस फिल्म को लेकर आपस में चर्चा कर रहे हैं। एक दूसरे से इस फिल्म के बारे में जानकारी साझा कर रहे हैं। माउथ पब्लिसिटी के आधार पर ही ये फिल्म चलेगी और व्यापक दर्शक वर्ग तक पहुंचेगी। इस फिल्म को इस बात का श्रेय भी देना चाहिए कि इसने हिंदी फिल्मों के दर्शकों को वैज्ञानिक शोध प्रविधि के बारे में न केवल बताया बल्कि उसको होते हुए दिखाया भी है। संभव है कि इसके बाद विज्ञान पर आधारित कई और फिल्में बनें।