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Saturday, September 2, 2023

पुरस्कारों में ‘सिस्टम’ का दखल


दिल्ली में आयोजित एक साहित्यिक समारोह में काफी दिनों बाद जाना हुआ। आमतौर पर साहित्यिक समारोहों के पहले और बाद में कुछ मित्र एक जगह जमा होकर साहित्यिक विषयों पर चर्चा करते हैं। उस आयोजन में कई मित्र मिल गए। शाम हो गई थी और दो घंटे के आयोजन के बाद सबको चाय की तलब हो रही थी। तय हुआ कि कहीं बैठकर चाय पी जाए। हम पांच मित्र पास की एक चाय दुकान पहुंचे। चाय बनाने को कहा गया। चाय आते ही चर्चा आरंभ हो गई। विभिन्न विधाओं में हो रहे साहित्यिक लेखन से चर्चा आरंभ हुई और फिर कब वो पुरस्कारों पर चली गई पता ही नहीं चला। कुछ ही दिनों पहले वर्ष 2023 के लिए श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको सम्मान की घोषणा हुई थी। इस वर्ष का सम्मान हिंदी उपन्यासकार मधु कांकरिया को देने की घोषणा हुई थी। ये पुरस्कार उर्वरक क्षेत्र की सहकारी संस्था इंडियन फारमर्स फर्टिलाइजर कोआपरेटिव (इफको) लिमिटेड की ओर से दिया जाता है। सम्मानित होनेवाले साहित्यकार को ग्यारह लाख रुपए का चेक, एक प्रतीक चिन्ह और प्रश्स्ति पत्र दिया जाता है। मधु कांकरिया को पुरस्कार की घोषणा पर चर्चा होने लगी। उनका आरंभिक उपन्यास पत्ताखोर मैंने पढ़ा था। मुझे पसंद आया था इस कारण मैंने चयन की प्रशंसा कर दी। मेरी प्रशंसा सुनकर  एक मित्र ने कहा, काश! उपन्यासों की विषयवस्तु और लेखन शैली के आधार पर पुरस्कार दिए जाते। अगर ऐसा होता तो श्रीलाल जी की स्मृति में दिया जानेवाला ये पुरस्कार चित्रा मुद्गल या मैत्रेयी पुष्पा आदि को दिया जाना चाहिए था। उसके मुताबिक ये पुरस्कार एक विचारधारा विशेष से जुड़े लेखकों को दिया जाता है। उसका इशारा वामपंथी लेखकों की ओर था। हम पांच मित्रों में से दो तो घोर और घोषइत तौर पर वामपंथी लेखक थे। उनमें से एक ने फौरन इसका प्रतिवाद किया और कहा कि चित्रा जी और मैत्रेयी जी इस पुरस्कार या सम्मान के लिए उचित पात्रता नहीं रखती हैं। बेहतर होता कि पुरस्कार के निर्णय की आलोचना करने से पहले उसके नियमों को देखा जाता। इस पुरस्कार के नियमों के अनुसार न तो चित्रा जी की पात्रता है और न ही मैत्रेयी जी की। मेरे चेहरे पर सहमति का भाव उभरा था। मैंने तो उत्साह में कह भी दिया कि प्रत्येक पुरस्कार की पात्रता की नियमावली होती है। निर्णायक मंडल उसके आधार पर ही आपस में विचार विमर्श करता है और फिर किसी एक लेखक का चयन किया जाता है।

जिस मित्र ने चित्रा जी और मैत्रेयी जी का नाम लिया था वो अपने मोबाइल में कुछ ढूंढने में व्यस्त था। अचानक उसका चेहरा चमका और वो कुछ पढने लगा- मूर्धन्य कथाशिल्पी श्रीलाल शुक्ल की स्मृति में वर्ष 2011 में शुरु किया गया यह सम्मान प्रत्येक वर्ष हिंदी के ऐसे लेखक को दिया जाता है जिसकी रचनाओं में मुख्यत: ग्रामीण और कृषि जीवन तथा विस्थापन, हाशिए का समाज और भारत के बदलते यथार्थ का चित्रण किया गया हो। उसके इतना कहते ही एक वामपंथी मित्र ने कहा कि तुमलोग हर जगह व्हाट्सएप युनिवर्सिटी का ज्ञान देने लगते हो। ये साहित्य की दुनिया है यहां व्हाट्सएप फार्वर्ड से कुछ भी न तो साबित होगा न ही स्थापित। जब वो ये तंज कर रहा था तो नियम पढनेवाला मित्र मुस्करा रहा था। इस बीच दूसरे वामपंथी मित्र ने भी अपने कामरेड की बातों से सहमति जताते हुए प्रश्न उछाला, साहित्य में भी अब व्हाट्सएप ज्ञान चलाओगे क्या। मुस्कुरा रहे मित्र ने फिर से अपने मोबाइल को देखा और विनम्रता से कहा कि आप दोनों ठीक कह रहे हैं। मैंने व्हाट्यएप पर ही आए संदेश को पढ़ा। लेकिन ये फार्वर्ड संदेश बल्कि इफको की प्रेस रिलीज है। अगर प्रेस रिलीज में सही लिखा गया है तो समकालीन रचनाकारों में मैत्रेयी पुष्पा से अधिक किसने ग्रामीण जीवन औऐर हाशिए के समाज पर लिखा है। चाक से लेकर अलमा कबूतरी जैसे उनके उफन्यासों को याद करिए। चित्रा जी ने भी हाशिए के समाज पर भी लिखा है। बदलते भारत के यथार्थ का चित्रण भी उनकी रचनाओं में है। वो निरंतर बोले जा रहा था। दोनों कामरेड असहमत थे। लेकिन उनके पास तर्क नहीं थे तो उन्होंने निर्णायक मंडल के विवेक की आड़ ली। 

बात निर्णायक मंडल के विवेक पर आ गई थी। मैंने पिछली बार की तरह ही तर्क दिया कि पुरस्कार तो निर्णायक मंडल ही तय करेगा। उसको मधु कांकरिया की रचनाएं बेहतर दिखी होंगी। मैं ये कहकर चर्चा समाप्त करना चाहता था। परंतु जिस मित्र ने रचना के आधार पर पुरस्कार की बात आरंभ की थी वो तो डटा हुआ था। उसने कहा अच्छा चलो जरा निर्णायक मंडल के नाम देख लेते हैं। उसने फिर मोबाइल में व्हाट्सएप खोला और इफको की प्रेस रिलीज से पढ़कर बताया कि निर्णायक मंडल में असगर वजाहत, अनामिका, प्रियदर्शन, रवीन्द्र त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और उत्कर्ष शुक्ल थे। नाम सुनकर मेरे वामपंथी मित्र ने तर्क उछाला कि इतने वरिष्ठ लेखकों के निर्णायक मंडल के निर्णय पर प्रश्न कैसे खड़ा किया जा सकता है। इतना सुनते ही वो बोले कि कि जरा निर्णायक मंडल में शामिल लेखकों की विचारधारा और लेखक संगठनों से जुड़ाव देख लो। असगर वजाहत और मुरली मनोहर प्रसाद सिंह तो जनवादी लेखक संघ से सक्रिय रूप से संबद्ध हैं। अनामिका को छोड़कर जो दो लोग हैं उनका रुझान भी वामपंथ की ओर है जो साहित्य जगत में ज्ञात है। युवा लेखक की मैं नहीं जानता। इतना सुनते ही दोनों वामपंथी मित्र भड़क गए। कहने लगे कि लेखक संगठनों से जुड़े होने का क्या मतलब है। सरकारी पुरस्कारों पर टिप्पणी करने लगे कि सरकार भी तो अपने लोगों को पुरस्कृत करती है। अपनी विचारधारा के लोगों को सम्मानित करती है आदि आदि। 

हम चारों मित्र इस चर्चा में शामिल थे। हमारा पांचवां मित्र चुपचाप चाय पी रहा था और मुस्कुरा रहा था। जैसे बातचीत का आनंद ले रहा हो। अचानक वो पुरस्कारों पर सवाल उठानेवाले मित्र को देखकर बोला कि भाई, तुमको द कश्मीर फाइल्स फिल्म का वो संवाद याद करना चाहिए जिसमें कहा गया है कि सरकार भले बदल गई हो लेकिन सिस्टम तो हमारा ही चलता है। वही सिस्टम चल रहा है। सिस्टम के पसंदीदा लोग पुरस्कृत हो रहे हैं। देखा नहीं कुछ दिनों पहले भारत सरकार ने केंद्रीय हिंदी निदेशालय, दिल्ली और केंद्रीय हिंदी संस्थान के सभी पुरस्कार बंद कर दिए। उधर वित्त मंत्रालय के अधीन आनेवाले बैंक आफ बड़ौदा ने 61 लाख रुपए के पुरस्कार बांट दिए। उसकी निर्णायक समिति देख लो। अध्यक्षता बुकर पुरस्कार विजेता गीतांजलिश्री ने की और उसमें अरुण कमल, पुष्पेश पंत, अनामिका आदि थे। इनमें से अधिकांश की विचारधारा ज्ञात है। गीतांजलिश्री राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मुखर आलोचक हैं, सरकार की भी। अरुण कमल लंबे समय तक प्रगतिशील लेखक संघ में रहे। इन सबने 25 लाख के प्रथम पुरस्कार के लिए उर्दू उपन्यास अल्लाह मियां का कारखाना को चुना। अब दोनों वामपंथी मित्र ढीले पड़ने लगे थे। मैंने सोचा कि बात बदली जाए। मैंने फिल्म की चर्चा आरंभ करने का प्रयास किया। लेकिन पाचवें मित्र रुके नहीं। कहने लगे कि चुनाव वर्ष में सरकार ने अपने अधिकतर साहित्यिक और भाषाई पुरस्कार बंद कर दिए लेकिन सिस्टम वाले पुरस्कार दे रहे हैं। इफको का पुरस्कार भले ही सरकारी नहीं हो लेकिन बैंक आफ बड़ौदा का पुरस्कार तो पूरी तरह से सरकारी है। इफको भी भारत सरकार के सहकारिता मंत्रालय से किसी न किसी तरह से तो जुड़ा ही है। पता नहीं क्यों सरकार ‘सिस्टम’ को खुलकर खेलने का अवसर प्रदान कर रही है। बात राजनीति की ओर मुड़ते देख मैंने चाय पर चर्चा खत्म करवाई। घर लौटते समय पांचवें मित्र की बात दिमाग में कुलबुला रही थी। 


1 comment:

शिवम कुमार पाण्डेय said...

चुपचाप चाय पीते हुए लोगों को सुनकर मुस्कुराने वाले जब चाय खत्म करते है तो वास्तविकता का नग्न रूप सामने ला देते है... बेकार लगने लगता है सबको लेकिन जो है वो है.....