कुछ दिनों पूर्व दो वेबसीरीज आई जिसको लेकर काफी चर्चा रही। एक है बंबई मेरी जान और दूसरी है मुंबई डायरीज सीजन टू। दोनों वेबसीरीज मुंबई शहर की पृष्ठभूमि पर आधारित है। बंबई मेरी जान में 1960 के दशक में उस शहर के अपराध की दुनिया को दिखाया गया है। उस दौर में हाजी मस्तान से लेकर दाऊद इब्राहम, हसीना पार्कर, वरदराजन मुदलियार, करीम लाला जैसे गैंगस्टरों की कारस्तानियों और बांबे (अब मुंबई) पर कब्जे की लड़ाई को चित्रित किया गया है। मुंबई डायरीज के दूसरे संस्करण में मायानगरी में आई 2006 में आई भयानक बाढ के दौरान अस्पताल में डाक्टरों की कठिन जिंदगी को दिखाया गया है। इस सीरीज में न्यूज चैनलों के कामकाज पर भी कटाक्ष किया गया है। इस आलेख का मंतव्य सीरीज की समीक्षा नहीं बल्कि इनके माध्यम से दिए जानेवाले परोक्ष संदेश को रेखांकित करना है। मनोरंजन के माध्यमों का उपयोग करके किसी व्यक्तित्व, घटना या विचारधारा को पुष्ट किया जाता है, वो यहां स्पष्ट दृष्टिगोटर होता है। पहले बात करते हैं बंबई मेरी जान की। इस वेब सीरीज को रीतेश सिधवानी और फरहान अख्तर ने प्रोड्यूस किया है। दस एपिसोड का ये सीरीज एस हुसैन जैदी की पुस्तक डोंगरी टू दुबई, सिक्स डीकेड्स आफ द मुंबई माफिया पर आधारित है। इस सीरीज में विस्तार से हाजी मस्तान के आपराधिक साम्राज्य, उसकी कार्यशैली और फिर दाऊद इब्राहिम के अपराध की दुनिया में आने और छा जाने की परिस्थितियों को दिखाया गया है।
बंबई मेरी जान में के के मेनन ने दाऊद इब्राहिम के पिता इब्राहिम कासकर की भूमिका निभाई है। इस्लाइल कादरी नाम का ये शख्स पुलिस में होता है और उसको हाजी मस्तान, करीम लाला और वरदराजन मुदलियार के आपराधिक सांठगांठ को तोड़ने का काम सौंपा गया है। उसको एक बेहद ईमानदार पुलिस अधिकारी के तौर पर दिखाया गया है जो विषम परिस्थितियों में भी टूटने को तैयार नहीं होता है। नौकरी चली जाती है, गरीबी में पूरा परिवार बिखरने लगता है, बच्चे की पढ़ाई छूट जाती है, त्योहार पर घर में खाने या पकवान के लिए पैसे नहीं होते हैं। ऐसे माहौल में उसका बेटा दारा, जिसका चरित्र दाऊद इब्राइम पर आधारित है, बकरीद के मौके पर पहला अपराध करता है और बकरा चोरी करता है। यहां विचार करने योग्य बात ये है कि इस चोरी में भी मजहब को डालना क्यों जरूरी था। बकरीद के मौके पर बेचारे बच्चे को कुर्बानी देनी है, मांस खाना है इसलिए वो चोरी करता है। ऐसी परिस्थिति बना दी गई है कि दर्शकों को उसके अपराध के पीछे उसकी बेचारगी नजर आती है। जैसे जैसे दारा का चरित्र आगे बढ़ता है उसके अपराध को अन्य परिस्थितियों से जोड़ दिया जाता है। जब भी उसका पिता उसको अपराध के बाद किसी प्रकार का नसीहत देना चाहता है तो वो अपने पिता को उसकी बेचारगी और परिवार की बदहाली का ताना देकर अपने कुकर्मों को जस्टिफाई करता है। हाजी मस्तान जब इस्माइल कादरी के घर आता है। बच्चों को तोहफा देकर जाने लगता है तो कादरी विरोध करता है लेकिन उसकी पत्नी बच्चों की भूख का हवाला देकर उसके विरोध को कुंद कर देती है।
पूरी कहानी इस तरह से बुनी गई है कि दाऊद जैसे अपराधी को लेकर दया का भाव उभरता है। उसको अच्छे बाप का बुरा बेटा दिखाया जाता है। चरित्र भले ही बुरा हो लेकिन बुराई में नायकत्व को उभारा गया है। वो हफ्ता भी वसूलता है तो मस्जिद के मरम्मत के नाम पर। एक बार फिर अपराध को जस्टिफाई करने के लिए मजहब की आड़ ली जाती है। कहीं भी कहानी में कहानीकार या सीरीज में निर्देशक ने उसके नायकत्व को गढ़ने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। ऐसा नायक जिसके परिवार के पीछे दूसरे गैंगस्टर पड़े हैं, उसके परिवार पर अस्पताल में हमला होता है। परिवार की जान बचाने के लिए एक भाई गोली खाकर जख्मी होता है तो बहन गोली चलाने को मजबूर हो जाती है। यहां ऐसा माहौल बनाया गया है जैसे आत्मरक्षा में हत्या की जा रही हो। अपराधी मनोरंजन की आड़ में छवि निर्माण की कोशिश या खूंखार छवि को अपेक्षाकृत माइल्ड करने का प्रयास दिखता है। इस स्तंभ में पहले भी इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि कैसे वेब सीरीज निर्माताओं, निर्देशकों और कहानीकारों के एजेंडा का संवाहक बनता जा रहा है। वेबसरीज को लेकर जिस भी प्रकार का स्वनियमन हो लेकिन उसका प्रभाव कहीं दिखता नहीं है। फिक्शन की आड़ में कई तरह के खेल होते नजर आते हैं।
बंबई मेरी जान की तुलना में मुंबई डायरीज का दूसरा सीजन बेहतर है। इसमें न्यूज चैनल की एक एंकर को अपने शो की रेटिंग बढ़ाने के लिए शहीद की पत्नी की भावनाओं से खेलते हुए दिखाया गया है। ये घटना काल्पनिक हो सकती है लेकिन पीड़ितों को स्टूडियो में बैठाकर उनके आरोपों को प्रसारित होते तो हमारे देश ने देखा है। जब दिल्ली में निर्भया कांड हुआ तो पीड़ित लड़की के साथ बस में उसका जो दोस्त था उसको टीवी स्टूडियो में बिठाने की होड़ लगी थी। न्यूज चैनलों में जिस प्रकार का मीडिया ट्रायल होता है उसका चित्रण मुंबई डायरीज में है। डाक्टर किन परिस्थितयों में काम कर रहे होते हैं उसको जाने बगैर उनपर आरोपों की बौछार करना। असाधारण परिस्थिति में उनसे सामान्य परिस्थितियों की तरह व्यवहार की अपेक्षा कर दोषी ठहरा देने की प्रवृत्ति पर भी प्रहार किया गया है। लेकिन इस वेब सीरीज में भी यथार्थ चित्रण के नाम पर जिस तरह के दृष्य दिखाए गए हैं वो इस सैक्टर में नियमन या प्रमाणन की आवश्यकता को पुष्ट करते हैं। बाढ में फंसी गर्भवती महिला की स्थिति जब बिगड़ती है तो उसकी शल्यक्रिया का पूरा दृष्य दिखाना जुगुप्साजनक है। कैमरे पर आपरेशन के दौरान पेट को चीरने का दृश्य, खून से लथपथ बच्चे को माता के उदर से बाहर निकालने आदि से बचा जा सकता था। कोई भी संवेदनशील दर्शक ऐसे दृश्यों को नहीं देखना चाहता है। इस तरह के दृश्यों को दिखाकर निर्माता निर्देशक पता नहीं क्या हासिल करना चाहते हैं।
ओवर द टाप (ओटीटी) पर एक फिल्म आई खुफिया उसमें एक संवाद है, जबतक दुनिया देश और धर्म में बंटी है तब तक खूनखराबा होता रहेगा।इस संवाद में भी एक एजेंडा है जहां परोक्ष रूप से राष्ट्र की अवधारणा का निषेध किया जा रहा है। एक विचारधारा विशेष में वर्षों से देशों की भौगोलिक सीमाओं को खत्म करने की पैरोकारी करता रहा है। उनका मानना है कि इससे युद्ध से लेकर समुदायों के बीच की घृणा समाप्त होगी। यहां तक तो ठीक है लेकिन जब उसको धर्म से जोड़ दिया जाता है तो मंशा स्पष्ट होने लगती है। प्रमाणन के बावजूद इस तरह के संवाद फिल्मों में दिख जाते हैं, पता नहीं क्यों और कैसे। फिल्म ब्रह्मास्त्र में मंदिरों के शहरों की बात होती है तो एक संवाद आता है, इस शहर में हर कोई कुछ न कुछ छुपाने आता है, कोई अपनी परछाईं छुपाता है तो कोई अपने पाप। आखिर धर्म से बड़ा मुखौटा और क्या हो सकता है। यहां जिस तरह से मंदिर, धर्म और मुखौटा का प्रयोग किया गया है उससे निर्माता निर्देशक की मंशा साफ हो जाती है। प्रमाणन वाली फिल्मों में इस तरह के संवाद अपेक्षाकृत कम होते है लेकिन ओटीटी पर प्रदर्शित होनेवाली फिल्मों में और वेब सीरीज में तो ये आम है। ओटीटी इंडस्ट्री के स्वनियमन का असर नहीं दिख रहा है, सरकार को इस दिशा में कदम उठाना चाहिए। ओटीटी प्लेटफार्म्स को काफी अवसर दिए गए लेकिन वहां की अराजकता जस की तस है।