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Saturday, October 25, 2025

बौद्धिकता की आड़ में राजनीति का खेल


हिंदी के कथाकार हैं शिवमूर्ति। कई अच्छी कहानियां लिखी हैं। कुछ दिनों पहले उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट लिखी, सुबह देखा, रात 12 बजे फ्रांसेस्का जी का व्हाट्सएप-शिवमूर्ति जी, देखिए क्या गजब हो गया। दुम दबाकर लंदन जा रही हूं। पता नहीं अब कब आना हो पाएगा। फ्रांसेस्का की इस टिप्पणी के बाद शिवमूर्ति ने लिखा क्या कहूं? न कुछ कर सकता हूं न कुछ कह सकता हूं सिवा इसके कि बहुत शर्म आ रही है। शिवमूर्ति को जिसपर शर्म आ रही थी उसके कारणों की पड़ताल तो करनी चाहिए थी। एक लेखक होने के नाते ये अपेक्षा तो की जानी चाहिए कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले उसकी वजह तो जान लेते, शायद शर्म ना आती। या शर्म बाद में शर्मिंदगी का सबब नहीं बनती। फ्रांसेस्का जो हिंदी विद्वान बताई जा रही हैं उन्होंने दुम दबाकर लंदन जाने की बात क्यों लिखी। दुम दबाना शब्द युग्म का प्रयोग तो भय या डर के संदर्भ में किया जाता है। शिवमूर्ति के लिखने के साथ साथ कई पत्रकारों ने भी एक्स पर पोस्ट किया। फ्रांसेस्का ओरसिनी को एयरपोर्ट से वापस लौटाने को लेकर भारत सरकार की आलोचना आरंभ कर दी। एक पूरा इकोसिस्टम सक्रिय हो गया। तरह तरह की बातें सामने आने लगीं। लोग कहने लगे कि इतनी बड़ी हिंदी की विदुषी को वीजा होते हुए एयरपोर्ट से लौटाकर भारत सरकार ने बहुत गलत किया। कुछ ने इसको सीएए से जोड़ा तो किसी ने गाजा पर इजरायल के हमलों पर फ्रांसेस्का के स्टैंड से। आगे बढ़ने से पहले फ्रांसेस्का ओरसिनी के बारे में जान लेते हैं। फ्रांसेस्का लंदन विश्वविद्यालय की स्कूल आफ ओरिएंटल और अफ्रीकन स्टडीज में प्रोफेसर हैं। हिंदी पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। भारत आती जाती रहती हैं। सेमिनारों में उनके व्याख्यान आदि होते रहते हैं। मैंने भी दिल्ली में एक बार उनको सुना है। हिंदी को लेकर उनका अपना एक अलग सोच है। वो हिंदी-उर्दू को मिलाकर देखने और साझी संस्कृति की बात करते हुए हिंदी का पब्लिक स्पीयर देखती हैं। उनकी पुस्तक है द हिंदी पब्लिक स्पीयर 1920-1940। इसके बाद भी हिंदी को लेकर उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। ईस्ट आफ डेल्ही, मल्टीलिंगुअल लिटररी कल्चर एंड वर्ल्ड लिटरेचर उनकी अन्य पुस्तक है।

फिलहाल प्रश्न उनके लेखन को लेकर नहीं उठ रहा है। सवाल इस बात पर उठाया जा रहा है कि फ्रांसेस्का को दिल्ली एयरपोर्ट से वापस क्यों लौटाया गया। सरकार की तरफ से ये जानकारी आई कि फ्रांसेस्का पहले पर्यटक वीजा पर कई बार भारत आ चुकी हैं। उस दौरान उन्होंने वीजा की शर्तों का उल्लंघन किया। सेमिनारों में व्याख्यान दिए और विश्वविद्यालयों में शोध कार्य किया। उनके उल्लंघनों को देखते हुए भारत सरकार ने उनको ब्लैकलिस्टेड कर दिया। पिछले दिनों जब वो चीन से एक सेमिनार में भाग लेकर भारत आना चाह रही थीं तो उनको एयरपोर्ट पर रोक दिया गया। इस बात को नजरअंदाज करते हुए फ्रांसेस्का को भारत नहीं आने देने पर हो हल्ला मचाया जा रहा है। लंदन विश्वविद्लाय की प्रोफेसर होने से क्या किसी संप्रभु राष्ट्र के नियम और कानून में छूट मिलनी चाहिए। इस प्रश्न से कोई नहीं टकराना चाहता है। इससे ही मिलता जुलता एक मामला लंदन में भी चल रहा है। आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में भारतीय इतिहासकार मणिकर्णिका दत्त के ब्रिटेन में रहने पर खतरा मंडरा रहा है। मणिकर्णिका दत्त इंडेफनिटिव लीव (वीजा का एक प्रकार) पर लंदन में रह रही थीं। ब्रिटेन का नियम है कि इस वीजा के अंतर्गत वहां रहनेवाले वीजा अवधि में अपने शोध आदि के सिलसिले में 548 दिन ब्रिटेन से बाहर रह सकते हैं। मणिकर्णिका भारतीय इतिहास पर शोध कर रही हैं और इस क्रम में वो 691 दिन ब्रिटेन से बाहर रहीं। नियम का हवाला देते हुए ब्रिटेन सरकार ने उनके इंडेफनिटिव लीव को रद्द कर दिया। जबकि वो वहां ना सिर्फ नौकरी करती हैं बल्कि उनके पति भी वहां नौकरी में हैं। उनके अपील को भी खारिज कर दिया गया। मणिकर्णिका दत्त वाली घटना पर हमारे देश के वो बुद्धिजीवी खामोश हैं जो फ्रांसेस्का को भारत नहीं आने देने पर छाती पीट रहे हैं।

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने फ्रांसेस्का के मसले पर एक्स पर पोस्ट किया कि प्रोफेसर फ्रांसेस्का ओरसिनी भारतीय साहित्य की विद्वान हैं जिनके कार्य ने हमें अपनी संस्कृतिक विरासत को समझने में मदद की। इसके बाद उन्होंने एक साक्षात्कार में मोदी सरकार को एंटी इंटलैक्चुअल घोषित कर दिया। ये जो शब्द एंटी इंटलैक्चुअल गढ़ा गया है उसका उपयोग कई अन्य एक्स हैंडल पर देखने को मिल रहा है। वैसे एक्स हैंडल जो एक विशेष इकोसिस्टम के सदस्यों के हैं। रामचंद्र गुहा को ये भी बताना चाहिए कि कैसे फ्रांसेस्का के कार्यों ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को समझने में उनकी मदद की। फ्रांचेस्का अपनी पुस्तक में लिखती हैं कि 1920-40 का कालखंड हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल है। इस कालखंड में कविता और गल्प के क्षेत्र में असाधारण रचनात्मकता देखने को मिलती है। वो इसी तरह की बात करते हुए इस कालखंड को हिंदी के विकास और खड़ी बोली के स्थापित होने का कालखंड मानती हैं। अगर इस कालखंड में गल्प और कविता में असाधारण कार्य हुआ तो फिर द्विवेदी युग में क्या हुआ? बाबू श्यामसुंदर दास ने क्या किया? प्रताप नारायण मिश्र जैसे कवियों ने जो लिखा वो सामान्य था? और तो और वो हिंदी की बात करते हुए तुलसी और अन्य मध्यकालीन कवियों को अपेक्षित महत्व नहीं देती हैं। अपनी पुस्तक द हिंदी पब्लिक स्पीयर 1920-1940, में जर्मन स्कालर हेबरमास की पब्लिक स्पीयर के सिद्धांतो को स्थापित करती हैं। पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में वो कितना सटीक है इसपर चर्चा होनी चाहिए।

हिंदी और उर्दू को एक पायदान पर रखने के कारण फ्रांचेस्का एक इकोसिस्टम की चहेती हैं जो गंगा-जमुनी संस्कृति की वकालत करती है। उनको प्रोफेसर मौलवी वहीउद्दीन की पुस्तक वजै-इस्तलाहात (परिभाषा निर्माण) को देखना चाहिए जहां लेखक कहता है उर्दू जिस जमीन पर खड़ी है, वह जमीन हिंदी की है। हिंदी को हम अपनी जबान के लिए उम्मुलिसान (भाषा की जननी) और हमूलाए-अव्वल (मूल तत्व) कह सकते हैं। इसके बगैर हमारे जबान की कोई हस्ती नहीं है। इसकी मदद के बगैर हम एक जुमला भी नहीं बोल सकते। जो लोग हिंदी से मुहब्बत नहीं रखते वे उर्दू जबान के हामी नहीं हैं। फारसी, अरबी या किसी दूसरी जबान के हामी हों तो हों। इन बातों को ध्यान में रखते हुए फ्रांचेस्का के निष्कर्षों पर लंबी डिबेट हो सकती है लेकिन वो हमारी संस्कृति को समझने में मदद करती हो इसमें संदेह है।

विद्वता चाहे किसी भी स्तर की हो लेकिन वीजा के नियमों में छूट तो नहीं ही दी जा सकती है। ना ही इस एक घटना से मोदी सरकार एंटी इंटलैक्चुअल हो सकती है। मोदी सरकार पर असहिष्णु होने का आरोप 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भी लगा था। पुरस्कार वापसी का संगठित अभियान योजनाबद्ध तरीके से चला था। बाद में सचाई सामने आ गई थी। बिहार विधानसभा चुनाव चल रहा है और असहिष्णुता को एंटी इंटलैक्चुअल ने रिप्लेस कर दिया है। पर कहते हैं ना कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। इति !

 

Saturday, October 18, 2025

पीआर से चक्रव्यूह में हिंदी फिल्म


कुछ दिनों पहले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा के साथ अभिनेत्री दीपिका पादुकोण की एक तस्वीर सार्वजनिक हुई। अवसर था दीपिका पादुकोण को केंद्र सरकार के मेंटल हेल्थ एंबेसडर नियुक्त करने का। इस तस्वीर को देखते हुए दीपिका की ही एक और तस्वीर याद आई। वो तस्वीर आज से करीब पांच वर्ष पूर्व की थी। उसमें दीपिका पादुकोण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों के मध्य उनको समर्थन देने पहुंची थी। वो आंदोलन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्लाय में लेफ्ट समर्थित छात्र संगठनों का था। आंदोलनकारी मोदी सरकार के विरोध में थे। इस तस्वीर की याद आते ही मन में प्रश्न उठा कि सिर्फ पांच वर्षों में ये बदलाव कैसे। जो दीपिका पादुकोण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों का समर्थन करने पहुंची थी उसको भारत सरकार ने मेंटल हेल्थ का अंबेसडर क्यों बना दिया। फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े अपने साथियों से बात कर ये जानने का प्रयास किया कि क्या दीपिका पादुकोण के विचार बदल गए हैं, क्योंकि कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने एक साक्षात्कार में राहुल गांधी की भी प्रशंसा की थी। क्या केंद्र सरकार अधिक समावेशी हो गई है। हिंदी फिल्मों से जुड़े लोगों से बात करने पर पता चला कि ये सब पब्लिक रिलेशन यानि पीआर का खेल है। 

आज हिंदी फिल्मों के छोटे-बड़े सितारे सभी पीआर कंपनियों के भरोसे चल रहे हैं। उन्हें कहां जाना है, कितना बोलना है से लेकर सार्वजनिक जगहों पर कैसे कपड़े पहनने हैं आदि सभी कुछ पीआर कंपनियां या उनके नुमांइदें ही तय करते हैं। यह अनायास नहीं है कि सभी अभिनेता-अभिनेत्रियों के एयरपोर्ट के वीडियो इंटरनेट मीडिया पर आ जाते हैं। बताया गया कि कोई भी अभिनेता या अभिनेत्री कहीं आते जाते हैं तो उसकी पूर्व सूचना पैपराजियों को या इंटरनेट मीडिया पर सक्रिय पीआर हैंडल्स को दे दी जाती है। सितारों के गाड़ी से उतरने से लेकर एयरपोर्ट के अंदर जाने तक का वीडियो चंद मिनटों में वायरल करवाने का प्रयास किया जाता है। इसके पीछे एक पूरा तंत्र काम करता है। इसकी एक आर्थिकी भी है। अब तो हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि सितारों को कितना बोलना है ये भी पीआर कंपनी के लोग ही बताते हैं। आज से कुछ वर्षों पहले अभिनेता-अभिनेत्री अपनी मन की बात मीडिया से साझा करते थे। इससे उनकी एक छवि बनती थी। अब तो सबकुछ पहले से तय होने लगा है। किसी सितारे के इंटरव्यू को लेकर जिस तरह की खबरें आती हैं वो भी चिंताजनक हैं। भगवान जाने इसमें कितनी सचाई है लेकिन बताया जाता है कि पीआर कंपनी वाले मीडिया के लोगों को पहले से बताते हैं कि क्या प्रश्न करना है और कितने प्रश्न पूछने हैं। जब इंटरव्यू हो रहा होता है तो पीआर कंपनी वाले वहां मौजूद रहते हैं। अगर साक्षात्कारकर्ता तय प्रश्नों से अलग जाने का प्रयास करता है तो पीआर वाले रोकने की कोशिश करते हैं। ऐश्वर्य़ राय की एक फिल्म आई थी ऐ दिल है मुश्किल। उस समय इस तरह की चर्चा हुई थी कि जब साक्षात्कारकर्ताओं ने ऐश्वर्य से उनके और रणबीर की आनस्क्रीन केमेस्ट्री के बारे में प्रश्न किया था तो पीआरवालों ने रोक दिया था। कुछ लोग तो बिना इंटरव्यू किए निकल भी गए थे। पहले अभिनेता-अभिनेत्री अपने दिमाग से प्रश्नों के उत्तर देते हैं अब वो बताई गई बातें ही बोलते हैं। याद करिए शाह रुख खान के कितने स्मार्ट इंटरव्यूज हुआ करते थे। अब वो बहुत नाप-तौल कर बोलते हैं। सिर्फ शाह रुख ही क्यों रणवीर सिंह के पुराने साक्षात्कार देखिए और अभी के देखिए। आपको जमीन आसमान का अंतर नजर आएगा।

सितारों के छवि निर्माण की कला होती है। उसका प्रबंधन भी किया जाता रहा है लेकिन हिंदी फिल्मों के सितारों को जिस तरह से पीआर कंपनियों ने घेर लिया है उससे उनकी मौलिकता बाधित हो रही है। सितारों की सार्वजनिक छवि बनाने के काम में अधिकतर 25 से 30 वर्ष के युवक युवतियां लगे हुए हैं। विशेषकर अगर बड़े सितारों के इर्द-गिर्द नजर डालेंगे तो ये सब आपको स्पष्ट दिखाई देगा। अब चालीस पचास वर्ष के अभिनेताओं को ये लड़के-लड़ियां बताती हैं कि क्या बोलना है। इनमें से ज्यादातर लोग वैसे हैं जिनकी दुनिया ही इंटरनेट मीडिया है। वो रील्स, लाइक और रीपोस्ट के आधार पर सबकुछ तय करते हैं। कुछ दिनों पूर्व हिंदी फिल्मों के सुपरस्टार्स के ताम-झाम पर आने वाले खर्चे को लेकर निर्माता-निर्देशक करण जौहर ने सवाल उठाए थे। उनका कहना था कि अभिनेता-अभिनेत्रियों के साथ चलनेवाले लोगों और शूटिंग के दौरान उनकी सुविधाओं पर निर्माताओं को बड़ी राशि खर्च करनी पड़ती है। इससे फिल्म की लागत कई गुणा बढ़ जाती है। कई निर्माताओं ने करण की इस बात का समर्थन किया। अब जरा देख लेते हैं कि ताम-झाम क्या होता है। सुपरस्टार्स के साथ गाड़ियों का काफिला होगा। वैनिटी वैन होगी। स्टार की गाड़ी अलग होगी, उनके साथ आवश्यक व्यक्तियों के साथ पीआर की लंबी चौड़ी टीम होगी। वो जहां भी जाएंगें या जाएंगी पीआर के लोग उनके साथ इस कारण रहते हैं कि उनको आवश्कता से अधिक सुविधाएं, बहुधा निरर्थक, की मांग रखी जा सके। 

ओमएमजी- 2 के निर्देशक अमित राय ने एक बार बातचीत के दौरान बताया था कि चाय से अधिक गरम केतली होती है। तात्पर्य ये था कि हीरो या हिरोइन से अधिक उनकी पीआर टीम उनको लेकर, उनके एपियरेंस को लेकर, अगर वो कहीं बाहर हैं तो वो किस होटल में रहेंगे, किस तरह का कमरा होगा, उनके सहयोगी कैसे कमरे में रहेंगे, कैसी गाड़ी होगी, कितने लोग होंगे सबकी सूची बनाते रहते हैं। उन्होंने बताया कि एक दिन रविवार को अक्षय कुमार के साथ किसी रेलवे स्टेशन पर शूट करना था लेकिन उनकी टीम ने अमित को बताया कि सर (अक्षय) रविवार को शूट नहीं करते हैं। सारी तैयारी हो चुकी थी। रेलवे से अनुमति मिल गई थी। ऐसे में अमित राय ने सीधे अक्षय को फोन किया। वो शूटिंग के लिए तैयार हो गए। मतलब चाय का तापमान ठीक था लेकिन केतली गर्म थी। इसी तरह वाराणसी में जागरण फिल्म फेस्टिवल के दौरान बातचीत में अभिनेता सिद्धांत चतुर्वेदी ने भी हिंदी फिल्मों की दुनिया में पीआर कल्चर पर टिप्पणी की थी। जब बड़े सितारे ऐसा करते हैं तो अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय सितारे भी ये समझने लगे हैं कि इसी तरह से स्टारडम हासिल किया जा सकता है। आपकी स्टार वैल्यू तभी बढ़ेगी जब विलासितापूर्ण जीवन जीते दिखेंगे। आज अगर दर्शक फिल्मों से दूर हो रहे हैं तो उसके अन्यान्य कारणों में से एक कारण पीआर कल्चर भी है। ये संस्कृति परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से छवि निर्माण के नाम पर सितारों को उनके प्रशंसकों से दूर कर रहे हैं। उनके सोच को जनता तक नहीं आने दे रहे हैं। फिल्म दर्शकों से मीडिया के माध्यम से उनका जो एक संवाद बनता था वो सही तरीके बन नहीं पा रहा है। रील्स या इंस्टा पर विलासिता का भोंडा प्रदर्शन दर्शकों को पसंद नहीं आता है। अभिनेता के काम से दर्शक उनको पसंद करते हैं पीआर के चक्रव्यूह से नहीं। हिंदी फिल्म जगत को इस बारे में सोचना होगा। 

Thursday, October 16, 2025

मासूम आंखों से टपकती मोहब्बत


देश को स्वाधीन हुए एक वर्ष होने को था। स्वाधीनता पूर्व हिमांशु राय और देविका रानी ने जिस बांबे टाकीज की स्थापना की थी उसको चलाने का दायित्व अशोक कुमार ने संभाल लिया था। अशोक कुमार के सामने बांबे टाकीज को फिर से सफल बनाने की चुनौती थी। अशोक कुमार को भूतों के किस्से में काफी रुचि थी। उनके नजदीकी बहुधा अपने साक्षात्कारों में इस बात का उल्लेख करते हैं कि अशोक कुमार को भूतों और पुनर्जन्म में विश्वास था। वो काफी समय से भूत को केंद्रीय थीम लेकर एक फिल्म बनाना चाहते थे। 1948 के मध्य की बात होगी। एक दिन बांबे टाकीज के कुछ कर्मचारी अशोक कुमार के पास पहुंचे और बताया कि परिसर में उन्होंने हिमांशु राय के भूत को देखा है। इसको सुनकर अशोक कुमार की भूत केंद्रित फिल्म बनाने की इच्छा और बलवती हो गई। उसी वर्ष उनके साथ एक और घटना घटी। वे बांबे (अब मुंबई) के निकट एक भूत बंगले के नाम से मशहूर घर में कुछ समय बिताने गए। एक दिन रात में जब वो सोने जा रहे थे तो दरवाजे पर एक महिला ने दस्तक दी। उसने अपनी गाड़ी खराब होने की बात कहकर मदद मांगी। गाड़ी ठीक नहीं की जा सकी। वो गाड़ी वहीं छोड़कर चली गई। देर रात शोर शराबे से अशोक कुमार की नींद खुली। उन्होंने देखा कि वही गाड़ी उनके घर के बाहर खड़ी है। उसमें एक व्यक्ति की लाश पड़ी है। सुबह अशोक कुमार ने अपने नौकर से रात की घटना के बारे में पूछा। नौकर ने उनको बताया कि रात में तो ऐसा कुछ घटा ही नहीं, आप तो आराम से सो रहे थे। वो सपना होगा। घर के बाहर कोई गाड़ी नहीं थी। परेशान अशोक कुमार स्थानीय थाने पहुंचे थे। पुलिसवाले ने पूरी बात सुनने के बाद बताया कि 14 साल पहले इस तरह की एक वारदात वहां हुई थी। एक महिला हत्या करने के बाद लाश गाड़ी में छोड़कर भाग गई थी। भागने के क्रम में दुर्घटना हुई और उसकी मौत हो गई।

अशोक कुमार ने बांबे लौटकर ये पूरा किस्सा कमाल अमरोही को बताया। कमाल अमरोही ने इसके आधार पर एक फिल्मी प्रेम कहानी गढ़ी। इस तरह से आरंभ होती है फिल्म महल। कहानी तैयार होने के बाद बांबे टाकीज के कर्ताधर्ता चाहते थे कि इस फिल्म के लीड रोल में अशोक कुमार के साथ अभिनेत्री सुरैया को लिया जाए। कमाल अमरोही मधुबाला के नाम पर अड़े रहे। अंत में उनकी ही चली क्योंकि वो महल के निर्देशक बनाए जा चुके थे। फिल्म की शूटिंग आरंभ हुई। अक्तूबर 1949 में फिल्म रिलीज की गई। दर्शकों ने इस फिल्म को खूब पसंद किया। इस फिल्म से दो सितारे हिंदी फिल्माकाश पर चमके। मधुबाला और लता मंगेशकर। फिल्म की सफलता ने मधुबाला को शीर्ष अभिनेत्री की पंक्ति में खड़ा कर दिया। लता मंगेशकर का गाया गीत, आएगा आने वाला बेहद लोकप्रिय हुआ। फिल्म में कई बार इस गीत के हिस्से का निर्देशक ने उपयोग किया है। फिल्म की थीम के हिसाब से खेमचंद प्रकाश ने संगीत बनाया। आज भी अगर कोई सस्पेंस सीन दिखाना होता है तो महल का बैकग्राउंड म्यूजिक या उसकी तर्ज पर बनाए गए म्यूजिक का ही उपयोग होता है। खेमचंद प्रकाश जब आएगा, आएगा आनेवाला गीत रिकार्ड कर रहे थे तो लता की आवाज के बावजूद उनके मन-मुताबिक प्रभाव पैदा नहीं हो पा रहा था। लता बार-बार माइक पर गातीं। खेमचंद संतुष्ट नहीं हो रहे थे। वो गीत के आरंभिक को दूर से आई आवाज जैसा रिकार्ड करना चाह रहे थे। अचानक उनके दिमाग में एक आयडिया आया। उन्होंने लता को माइक से दूर जाने को कहा और गाते हुए माइक तक आने को कहा। वो चाहते थे कि गीत की पंक्ति, खामोश है जमाना, चुपचाप हैं नजारे दूर से आती हुई लगे और जैसे ही गायिका आएगा आएगा आनेवाला तक पहुंचे तो वो माइक की समान्य आवाज लगे। लता को माइक से दूर जाकर गाते हुए इस तरह माइक तक आना पड़ता था कि आएगा आएगा माइक पर गा सके। लता मंगेशकर ने अपने एक इंटरव्यू में इस प्रसंग की चर्चा की थी। उन्होंने कहा कि तब तकनीक इतना उन्नत नहीं था और म्यूजिक डायरेक्टर अपने हुनरे से गानों को सजाते थे। कई बार के रिहर्सल के बाद खेमचंद प्रकाश संतुष्ट हुए। आज 75 वर्षों बाद भी ये गाना लोगों की जुबां पर है।

फिल्म में मधुबाला का चरित्र ऐसा गढ़ा गया जिसकी मासूम आंखों से मुहब्बत टपकती थी। चेहरे पर एक भोलापन और प्यार की चमक लिए अभिनेत्री जब पर्दे पर आती तो नायक के साथ दर्शक उसके आकर्षण में बंध जाता। मधुबाला की उम्र भले ही उस समय 16 वर्ष के आसपास थी लेकिन वो एक दर्जन से अधिक फिल्मों में काम कर चुकी थी। अभिनय की बारीकियां उसको पता थीं। इस फिल्म में उसके संवाद अपेक्षाकृत कम हैं। उनकी उपस्थिति और आंखों से बहुत कुछ कह जाना प3भाव छोड़ता है। कमाल अमरोही ने भले ही किस्से का दुखांत रचा, लेकिन जिस तरह के संवाद फिल्म के आखिरी सीन में अशोक कुमार और उनके दोस्त के बीच है वो प्यार की उष्मा से भरपूर है। बिमल राय की एडिटिंग को भी रेखांकित किया जाना चाहिए। कानपुर और इलाहाबाद ( अब प्रयागराज) के बीच चलनेवाली इस हारर मूवी में एक भी हत्या नहीं होती है लेकिन रहस्य और रोमांच भरपूर रूप से बरकरार रहता है।

Monday, October 13, 2025

आत्मविश्वास से खींची बड़ी रेखा


तेलुगू फिल्मों से बाल कलाकार के तौर पर अपने करियर का आरंभ करने वाली रेखा के पिता जेमिनी गणेशन और मां पुष्पावल्ली भी बेहतरीन कलाकार थे। रेखा जब हिंदी फिल्मों में आई थीं तो उनकी काया व सांवले रंग को लेकर नकारात्मक टिप्पणियां की गई थीं। उनके ड्रेसिंग सेंस और मेकअप का भी मजाक उड़ाया जाता था। यही नहीं उनकी अभिनय क्षमता पर भी प्रश्न चिन्ह लगाए जाते थे। यहां तक कहा गया कि वो एक ऐसी हीरोइन हैं जिनको फिल्मों में गुड़िया की तरह रखा जाता है, जिससे अभिनय की अपेक्षा नहीं की जाती है। ये बातें प्रोड्यूसर्स, निर्देशक और उस समय के फिल्म पत्रकारों ने इतनी बार कहीं कि रेखा का स्वयं पर से विश्वास डिग गया। वो बार-बार ये सोचतीं कि हिंदी फिल्मों की दुनिया में उनका गुजारा नहीं, क्योंकि उनकी तुलना उस दौर की सुंदर अभिनेत्रियों से की जाती थी। बहुधा हेमा मालिनी से। उनकी एक और छवि गढ़ी गई थी कि वो बहुत बिंदास हैं और सेट पर बोलती ही रहती हैं। उस दौर में एक फिल्म पत्रिका ने तो यहां तक लिख दिया था कि रेखा चूंकि गंभीर नहीं हैं इस कारण उनको कोई गंभीरता से नहीं लेता।

ऐसे माहौल में रेखा ने स्वयं को बदलने का तय किया। वो योग की शरण में गईं और उन्होंने वजन काफी कम कर लिया। अपनी साज-सज्जा पर ध्यान दिया। ये 1977 के आसपास की बात थी। अब वो फिल्मों के चयन में भी सावधान हो गईं। वैसी ही फिल्मों का चयन करने लगीं जिनमें उनको अभिनय प्रतिभा दिखाने का अवसर मिले। 1978 में उनकी फिल्म आई घर। इसमें रेखा ने रेप विक्टिम का रोल किया था। इसमें जिस प्रकार से पीड़िता का अभिनय किया उसने आलोचकों का मुंह बंद कर दिया। फिर आई मुकद्दर का सिकंदर। इसके बाद तो रेखा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस फिल्म में रेखा ने तवायफ के रोल में अभिनय की जो छाप छोड़ी वो दर्शकों के मानस में बैठ गई। फिर आई मि. नटवरलाल और सुहाग। अमिताभ बच्चन के साथ रेखा की जोड़ी सफलता की गारंटी बन गई। यही वो दौर था रेखा और अमिताभ बच्चन के कथित प्रेम की कहानी भी सुनाई दे रही थी। इन दोनों के आन स्क्रीन और आफ स्क्रीन केमिस्ट्री की बातें होती थीं। 1980 में हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म आई खूबसूरत। ये एक कामेडी फिल्म थी जिसमें पूरी फिल्म रेखा के कंधों पर चलती है। इसमें जिस तरह से रेखा ने चुलबुली लड़की का अभिनय किया वो यादगार बन गया। इस फिल्म के बाद ये मान लिया गया कि रेखा अपने दम पर भी फिल्म को सफल बना सकती हैं।
फिर तो एक से एक फिल्मों में रेखा ने अभिनय का लोहा मनवाया। चाहे वो उमराव जान हो या फिर उत्सव। श्याम बेनेगल की फिल्म कलयुग में द्रौपदी के रोल में रेखा ने जबरदस्त अभिनय किया। एक ऐसी लड़की जो दक्षिण भारत से आई थी, अपने उच्चारण से लेकर पहनावे तक का उपहास जिसने झेला था, आज भी उनके स्टाइल की बात होती है।
(10 अक्तूबर को प्रकाशित)

Saturday, October 11, 2025

अब न रहे वो पीने वाले...


जागरण फिल्म फेस्टिवल के दौरान दिल्ली के सीरी फोर्ट आडिटोरियम में अमिताभ बच्चन-धर्मेन्द्र अभिनीत फिल्म शोले का रिस्टोर्ड वर्जन प्रदर्शित किया गया था। इस फिल्म को बड़े पर्दे पर बेहतर आवाज के साथ देखना एक अलग ही अनुभव था। करीब बीस वर्षों का बाद शोले फिर से देख रहा था। बड़े पर्दे पर फिल्म देखना रोमांचकारी था। फिल्म के आखिरी सीन में अमिताभ बच्चन अभिनीत पात्र जय को जब गोली लगती है तो उसके चेहरे के भाव और पीड़ा बड़े पर्दे पर इतने प्रभावी लगते हैं कि दर्शक उस पीड़ा के साथ एकाकार हो जाता है। जब जय, बसंती की मौसी के पास वीरू के रिश्ते की बात करने पहुंचता है तो उनके चेहरे की शरारत बड़े पर्दे पर इतना जीवंत दिखती है कि दर्शकों को खूब मजा आता है। सिर्फ अमिताभ ही नहीं बल्कि ठाकुर के रूप में संजीव कुमार, बसंती के रूप में हेमा मालिनी और बीरू के रूप में धर्मेंद्र की आदाकारी की प्रशंसा इस कारण मिल पाई की दर्शक बड़े पर्दे पर अभिनय की बारीकियों को महसूस कर सके थे। आज जब मोबाइल पर फिल्में देखी जाने लगी हैं तो चेहरे के उन भावों को दर्शक महसूस नहीं कर पा रहे हैं। यही कारण है कि आज अभिनय की बारीकियों पर बात नहीं होती है बल्कि कपड़ों के डिजायन से लेकर हिंसा के तरीकों पर बात होती है। हाल फिल्हाल में किसी फिल्म का कोई ऐसा सीन याद नहीं पड़ता जिसको लेकर चर्चा होती हो। उसके छायांकन को लेकर उसको फिल्माने को लेकर चर्चा बहुत ही कम होती है। एक जमाना था जब अमिताभ बच्चन की फिल्मों के दृष्यों और संवादों की चर्चा होती थी। ये चर्चा फिल्म से अलग होती थी। संवादों के आडियो कैसेट अलग से बिका करते थे। अब फिल्मों को लेकर अधिक चर्चा इसकी होती है कि कितने दिनों में 100 करोड़ का बिजनेस कर लिया। फिल्म कितने दिन में 500 करोड़ के क्लब में शामिल हो गई।

अमिताभ बच्चन ने रविवार को 83 वर्ष की आयु पूरी की। वो अब भी खूब सक्रिय हें। लोकप्रिय भी। इतनी लंबी आयु के बावजूद उनकी लोकप्रियकता क्यों कायम है, इसपर विचार किया जाना चाहिए। धर्मेन्द्र भी 90 वर्ष की आयु को छूने वाले हैं। वो भी इंटरनेट् मीडिया पर सक्रिय रहते हैं। अपने फार्म हाउस से वीडियो पोस्ट करते रहते हैं। उनके वीडियो भी लोग खूब पसंद करते हैं। कभी शायरी सुनाते हैं, कभी अपनी तन्हाई को लेकर कमेंट करते नजर आते हैं। कई बार खेतों में घूमते उनके वीडियो भी दिख जाते हैं। इन दो अभिनेताओं के अलावा रेखा जब भी किसी अवार्ड शो में आती हैं या परफार्म करती हैं तो उसका वीडियो खूब प्रचलित होता है। लोग वीडियो को पोस्ट और रीपोस्ट करते हैं, अपनी टिप्पणियों के साथ। अमिताभ बच्चन, धर्मन्द्र, रेखा, हेमा मालिनी और बहुत हद तक देखें तो माधुरी दीक्षित की लोकप्रियता में बड़े पर्द का बड़ा योगदान है। शोले के अलावा भी याद करिए दीवार और जंजीर में अमिताभ बच्चन की अदायगी। फिल्म दीवार में अमिताभ बच्चन और शशि कपूर के बीच का चर्चित संवाद, मेरे पास गाड़ी है बंगला है... और जब शशि कपूर इसके उत्तर में कहते हैं मेरे पास मां है तो पूरा हाल तालियों से गूंज उठता है। आज भी इस संवाद की चर्चा होती है। गाहे बगाहे सुनने को मिल जाता है। इसका कारण ये है कि लोगों ने बड़े पर्दे पर इस संवाद को घटित होते देखा है। दोनों अभिनेताओं के चेहरे के भाव को पढ़ा है। उसको महसूस किया है। अभिनय की गहराई ने लोगों को प्रभावित किया। इस कारण यह संवाद लगभग कालजयी हो गया। फिल्म से जुड़े शोधार्थियों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि डायलाग डिलीवरी और अभिनय के अलावा इसका बड़े पर्द पर आना भी एक कारण रहा है।

इस पीढ़ी के बाद भी अगर विचार किया जाए तो जितने भी अभिनेता और अभिनेत्री लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं वो कहीं न कहीं बड़े पर्द पर यादगार भूमिका कर चुके हैं। श्रीदेवी की फिल्में तोहफा, मवाली, जस्टिस चौधरी क्या ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज होकर इतनी सफल हो पाती। क्या तेजाब फिल्म में माधुरी दीक्षित के नृत्य का आनंद छोटी स्क्रीन पर लिया जा सकता है?  आज छोटी स्क्रीन के जमाने में जब लोग मोबाइल या पैड पर फिल्में देख रहे हैं तो दर्शक अभिनय की बारीकियों को पकड़ नहीं पाता है। वो कहानी  की रफ्तार के साथ तेज गति से चलने में ही रोमांचित महसूस करता है। इसलिए फिल्मों की स्पीड पर चर्चा होती है उसके ठहराव पर नहीं। कुछ फिल्म समीक्षक तो अपनी फिल्म समीक्षा में फिल्मों के स्लो होने की बात करते हैं, यहां तक लिख देते हैं कि कहानी धीमी गति से चलती है। कहानी कही कैसे गई है इसपर बहुत कम चर्चा होती है। शाह रुख खान, आमिर खान भी अगर सुपर स्टार बने तो बड़े पर्दे पर उनकी फिल्मों की लोकप्रियता के कारण। आज भी जिन फिल्मों को दर्शक बड़े पर्दे पर पसंद करते है उनके ही अभिनय की प्रशंसा होती है, लोकप्रियता भी उनको ही मिलती है। कुछ वेब सीरीज के अभिनेता या कलाकार इसके अपवाद हो सकते हैं लेकिन उनका संवाद या उनका अभिनय कालजयी साबित होगा इसका आकलन होना अभी शेष है। इतने वेब सीरीज आते हैं, बताया जाता है कि युवा पीढ़ी के बीच लोकप्रिय भी हैं लेकिन कुछ ही समय बाद दर्शकों के मानस से ओझल भी हो जाते हैं।

आज आवश्यकता इस बात की है कि सिनेमा को सिनेमा हाल तक वापस लेकर चला जाए। आज महानगरों में सिनेमा हाल हैं, लेकिन टिकट इतने महंगे हैं कि वहां तक जाने के लिए आम लोगों को सोचना पड़ता है। छोटे शहरों में सिंगल स्क्रीन सिन्मा हाल बंद हो गए हैं। लोगों के पास सिनेमा हाल का विकल्प ही नहीं है। लोगों को छोटे स्क्रीन पर फिल्म देखने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। मुझे याद है कि जब हम कालेज में थे भागलपुर में छह या सात सिनेमा हाल हुआ करते थे लेकिन अब वहां एक मल्टीप्लैक्स है। सारे सिंगल स्क्रीन सिनेमा हाल बंद हो गए। किसी में शापिंग कांपलैक्स खुल गया। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार सिंगल स्कीन सिनेमाघर को लेकर कोई नीति बनाए। इसमें कर में कुछ वर्षों की छूट हो सकती है। सस्ते दर पर सिनेमा हाल बनाने के लिए ऋण की व्यवस्था हो सकती है। साथ ही इस प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिए कि टिकट दर दर्शकों की पहुंच में रहे। ये बार बार साबित भी हो चुका है कि जब जब निर्माताओं और सिनेमा हाल मालिकों ने टिकट की दरों में कटौती की है दर्शक सिनेमा हाल तक लौटे हैं। अगर दर्शक सिनेमा हाल तक लौटते हैं तो अभिव्यक्ति के इस सबसे सशक्त माध्यम को बल मिलेगा और फिर कोई सदी का महानायक बनने की राह पर चल निकलेगा। अभी तो फिल्मों के हाल पर हरिवंश राय बच्चन जी की एक पंक्ति याद आती है- अब न रहे वो पीनेवाले अब न रही वो मधुशाला ।  

Saturday, October 4, 2025

सबरीमाला मंदिर की आस्था पर चोट


केरल में अगले वर्ष विधानसभा के चुनाव होनेवाले हैं। सभी राजनीतिक दल चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं। पिछले दो विधानसभा चुनाव में कम्युनिस्टों के गठबंधन ने केरल में सरकार बनाई। पी विजयन मुख्यमंत्री बने। उनके नेतृत्व में कम्युनिस्ट गठबंधन तीसरी बार राज्य में सरकार बनाने के लिए प्रयत्नशील है। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस भी वामपंथी गठबंधन को चुनावी मात देकर दस साल बाद सत्ता में वापसी के मंसूबे पाले बैठी है। भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से केरल की राजनीति में अपनी उपस्थिति को मजबूत करने में लगी है। चुनाव की आहट के साथ त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड ने पिछले महीने वैश्विक अयप्पा संगमम का आयोजन किया। घोषित तौर पर इस संगमम का उद्देश्य सबरीमाला मंदिर की महिमा का वैश्विक स्तर पर विस्तार करना था। केरल के राजनीतिक दलों ने कम्युनिस्ट सरकार पर आरोप लगाया कि हिंदू वोटरों को रिझाने के लिए संगमम का आयोजन किया गया। संगमम की चर्चा के बीच सबरीमाला मंदिर प्रशासन एक अन्य कारण से विवाद में घिर गया। सबरीमाला मंदिर से करीब पांच किलो सोना चोरी होने की आशंका है। इस समाचार के बाहर आते ही कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी केरल की कम्युनिस्ट सरकार पर हमलावर है। सरकार ही त्रावणकोर देवोस्थानम बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति करती है। बोर्ड की स्थापना तीर्थयात्रियों की सुविधाओं के अलावा मंदिरों की संपत्ति की सुरक्षा के लिए की गई थी। 

सबरीमाला मंदिर से पांच किलो सोना गायब होने का मामला केरल और दक्षिण भारत में इन दिनों खूब चर्चा में है। मंदिर प्रशासन पर आरोप लग रहे हैं मंदिर के गर्भगृह और उसके बाहर लगे द्वारपाल की मूर्ति और अन्य जगहों पर मढ़े गए सोने का वजन उसकी सफाई या बदलाव के दौरान पांच किलो कम हो गया। पूरा मामला इस तरह से है। 1998-99 में कारोबारी विजय माल्या, जो इन दिनों आर्थिक अपराध के आरोप में देश से फरार हैं, ने सबरीमाला मंदिर में 30 किलो सोने का चढ़ावा दिया था। उस समय ये बात सामने आई थी कि मंदिर प्रशासन ने उस सोना का उपयोग गर्भगृह और उसके बाहर लगे द्वारपाल की प्रतिमा को स्वर्णसज्जित करने में किया था। करीब बीस वर्षों के बाद जब त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड ने मंदिर के रखरखाव के लिए स्वर्ण परतों को हटाया तो पता चला कि वो सोने का नहीं था। अब इस बात की जांच की जा रही है कि सोना लगाते समय ही उसकी जगह किसी अन्य धातु का उपयोग किया गया था या बाद में उसको बदला गया। इस तरह की बात भी आ रही है कि गर्भगृह की दीवारों पर लगी स्वर्ण परतों को साफ सफाई के लिए चेन्नई भेजा गया था। जब वहां से प्लेट्स वापस आईं तो उसका वजन करीब पांच किलो कम था। त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड की विजिलेंस टीम ने कार्यालय से दस्तावेज जब्त किए हैं। अब इन दस्तावेजों और उनकी प्रामाणिकता पर भी संदेह व्यक्त किया जा रहा है। संपत्तियों की रजिस्टर में एंट्री पर भी प्रश्न उठने लगे हैं। केरल हाईकोर्ट ने पूर्व हाईकोर्ट जज की देखरेख में मंदिर की संपत्ति का ब्योरा जुटाने का आदेश दिया है। केरल हाईकोर्ट ने त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड को सही तरीके से रिकार्ड नहीं रख पाने के लिए लताड़ लगाई है। बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने केरल हाईकोर्ट की निगरानी में सीबीआई जांच की मांग की है। 

जिस तरह के समाचार केरल से आ रहे हैं उससे तो ये प्रतीत होता है कि सबरीमाला मंदिर के गर्भगृह में और उसके बाहर लगी मूर्तियों की स्वर्णसज्जा के साथ छेड़छाड़ की गई है। आरोप ये भी लग रहे हैं कि सोने को निकालकर उसकी जगह पीतल से सज्जा कर दी गई। ये खबरें सिर्फ एक सामान्य चोरी की खबर नहीं है बल्कि भगवान अयप्पा के भक्तों की श्रद्धा पर डाका जैसा है। केरल की कम्युनिस्ट सरकार की जिम्मेदारी है कि वो दोषियों को जल्द से जल्द पकड़कर मंदिर के सोने की बरामदगी करवाए। मंदिर की फिर से स्वर्णसज्जा हो। भगवान अयप्पा के भक्त सिर्फ केरल में ही नहीं बल्कि पूरे भारत और विश्व के अन्य देशों में भी हैं। सबकी आस्था और श्रद्धा इस मंदिर से जुड़ी हुई है। जैसे जैसे इस चोरी की परतें खुल रही हैं हिंदू श्रद्धालुओं के अंदर क्षोभ बढ़ता जा रहा है। निश्चित है कि भगवान अयप्पा मंदिर से सोना चोरी चुनावी मुद्दा भी बनेगा। आपको याद होगा कि ओडीशा विधानसभा चुनाव के दौरान भगवान जगन्नाथ मंदिर के रत्न भंडार की चाबी को लेकर विवाद हुआ था। कोर्ट के आदेश के बाद भगवान जगन्नाथ मंदिर की संपत्तियों की जांच और उसकी सूची को लेकर रत्न भंडार खोला गया था। जब इस कार्य को कर रहे लोग रत्न भंडार तक पहुंचे तो वहां ताला बंद था। उस ताले की चाबी की तलाश की गई। चाबी नहीं मिली। जब 1978 में भगवान जगन्नाथ मंदिर के रत्न भंडार का सर्वे हुआ तो वहां 149 किलो स्वर्ण आभूषण और 258 किलो के चांदी के बर्तनों की सूची बनी थी। उसके बाद 2018 में फिर से सर्वे का प्रयास हुआ तो चाबी ही नहीं मिल पाई। विधानसभा चुनाव के दौरान रत्न भंडार की चाबी गायब होने का मुद्दा बड़ा हो गया था। नवीन पटनायक के नेतृत्व वाली राज्य सरकार कठघरे में आ गई थी। भगवान जगन्नाथ और भगवान अयप्पा में हिंदुओं की आस्था इतनी गहरी है कि उसको जब भी ठेस लगती है तो जनता अपनी प्रतिक्रिया देती है। ओडिशा में नवीन पटनायक की हार का एक बड़ा कारण रत्न भंडार की चाबी का ना मिलना भी बना। 

इन दो उदाहरणों से मंदिरों की संपत्ति की सुरक्षा को लेकर गंभीर प्रश्न खड़े हो गए हैं। भक्त अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने आराध्य को भेंट अर्पित करते हैं। जिनपर भक्तों की भेंट को सुरक्षित रखने का दायित्व है वो उसका निर्वहन ठीक तरीके से नहीं कर पा रहे हैं तो उसको लेकर सरकार को गंभीरता से विचार करना होगा। विचार तो इसपर भी करना चाहिए कि मंदिरों की संपत्ति का कस्टोडियन सरकार हो या हिंदू समाज। इससे संबंधित एक एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना होगा जिससे प्रभु की संपत्ति में सेंध ना लग सके। क्या अब समय आ गया है कि मंदिरों का प्रबंधन सरकार को हिंदू समाज को सौंप देना चाहिए। कोई ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जिसमें सरकार और हिंदू समाज साथ मिलकर मंदिरों की संपत्ति की रक्षा कर सकें। आप इस बात की कल्पना करिए कि अगर भगवान अयप्पा के गर्भगृह की स्वर्ण सज्जा को हटाकर उसको पीतल से आच्छादित कर दिया गया तो इसके पीछे कितनी गहरी साजिश रही होगी। कितने लोगों की मिलीभगत रही होगी तब जाकर इस पाप को किया जा सका होगा। अगर ये साबित हो जाता है कि सोना चोरी करके वहां पीतल लगा दिया गया तो भक्तों की आस्था को कितनी ठेस पहुंचेगी। हिंदू समाज को अपनी आस्था के इन केंद्रों की सुरक्षा को लेकर संगठित होकर एक कार्ययोजना पेश करना होगा, ताकि सरकार उसपर विचार कर सके। दोनों की सहमति से कोई ठोस निर्णय लिया जा सके। समाज जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह मंदिर प्रबंधन को लेकर राष्ट्रव्यापी नीति बनाने की आवश्यकता है।   


Saturday, September 27, 2025

कांग्रेस को परेशान करनेवाले प्रश्न


दीवाली के पहले घरों में साफ-सफाई की जाती है। इस परंपरा का पालन हर घर में होता है। हमारे घर भी हुआ। घर के पुस्तकालय की सफाई के दौरान चालीस पेज की एक पुस्तिका मिली जिसने ध्यान खींचा। पुस्तिका का नाम है ‘घोटाले में घोटाला’। इस पुस्तिका का लेखन, संपादन और सज्जा अभय कुमार दुबे का है। अभय कुमार दुबे पत्रकार और शिक्षक रहे हैं। कुछ दिनों के लिए इन्होंने सेंटर फार द स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) में भी कार्य किया है। इन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं। समाचार चैनलों पर विशेषज्ञ के रूप में भी दिखते हैं। ‘घोटाले में घोटाला’ पुस्तिका का प्रकाशन जनहित के लिए किया गया था। ऐसा इसमें उल्लेख है। दिल्ली के इंद्रप्रस्थ एक्सटेंशन के पते पर स्थापित पब्लिक इंटरेस्ट रिसर्च ग्रुप ने इसका प्रकाशन किया है। इसमें एक और दिलचस्प वाक्य है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए। ये वाक्य है- इस पुस्तिका की सामग्री पर किसी का कापीराइट नहीं है, जनहित में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इसका प्रकाशन वर्ष अक्तूबर 1992 है। उस समय देश में कांग्रेस पार्टी का शासन था और पी वी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री और मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे। इसमें दो दर्जन लेख हैं जो उस शासनकाल के घोटालों पर लिखे गए हैं।

इस पुस्तिका में एक लेख का शीर्षक है, ओलंपिक वर्ष के विश्व रिकार्ड इसका आरंभ इस प्रकार से होता है, दौड़-कूद का ओलंपिक तो बार्सिलोना में हुआ जिसमें भारत कोई पदक नहीं जीत पाया। अगर घोटालों, जालसाजी, भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, जनता के पैसे का बेजा इस्तेमाल और चोरी के बावजूद सीनाजोरी का ओलंपिक होता तो कई भारतवासियों का स्वर्ण पदक मिल सकता था। व्यंग्य की शैली में लिखे गए इस लेख में एम जे फेरवानी, आर गणेश, बैंक आफ करड, वी कृष्णमूर्ति, पी चिदंबरम, हर्षद मेहता और मनमोहन सिंह के नाम हैं। मनमोहन सिंह के बारे में अभय कुमार दुबे लिखते हैं, ‘मासूमियत का अथवा जान कर अनजान बने रहने का स्वर्ण पदक। वित्तमंत्री कहते हैं कि उन्हें जनवरी तक तो कुछ पता ही नहीं था कि शेयर मार्केट में पैसा कहां से आ रहा है। और अगर हर्षद उनसे मिलना चाहता तो भारत के एक नागरिक से मिलने से वो कैसे इंकार कर देते। मनमोहन सिंह को अपनी सुविधानुसार विचार बदल लेने का स्वर्ण पदक भी मिल सकता है। पहले वो विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के भारी आलोचक हुआ करते थे। पिछले 20 साल से वे भारत की आर्थिक नीति निर्माता मंडली के सदस्य रहे और वे नीतियां भी उन्हीं ने बनाई थीं जिनकी वे आज आलोचना कर रहे हैं।‘ आज मनमोहन सिंह को लेकर कांग्रेस और उनके ईकोसिस्टम से जुड़े लोग बहुत बड़ी बड़ी बातें करते हैं। लेकिन समग्रता में अगर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का आकलन किया जाएगा तो इन बिंदुओं पर भी चर्चा होनी चाहिए। यह भी कहा जाता है कि मनमोहन सिंह की नीतियों के कारण 2008 के वैश्विक मंदी के समय देश पर उसका असर न्यूनतम हुआ। इसपर भी अर्थशास्त्रियों के अलग अलग मत हैं। प्रश्न ये उठता है कि मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते हुए शेयर मार्केट में जो घोटाला हुआ था क्या उसको भी उनके पोर्टफोलियो में रखा जाना चाहिए या सारी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव पर डाल देनी चाहिए। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी इस समय की सरकार को अदाणी-अंबानी से जोड़ते ही रहते हैं। 1991 में जब कांग्रेस की सरकार बनी थी तब के हालात कैसे थे?  2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तब कांग्रेस पर किसी उद्योगपति को लाभ पहुंचाने के आरोप लगे थे या नहीं?  इन दिनों राहुल गांधी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के बंद होते जाने पर भी कई बार सवाल खड़े करते हैं और मोदी सरकार पर बेरोजगारी बढ़ाने का आरोप लगाते हैं। उनकी पार्टी के शासनकाल के दौरान विनिवेश को लेकर जो आरोप सरकार पर लगे थे उसपर भी उनको विचार करना चाहिए। सत्ता में रहते अलग सुर और विपक्ष में अलग सुर ये कैसे संभव हो सकता है।

इन दिनों राहुल गांधी और कांग्रेस का पूरा ईकोसिस्टम ईडी-ईडी का भी शोर मचाते घूमते हैं। घोटाले में घोटाला पुस्तिका में उल्लेख है, ‘सीबीआई को जांच में इसलिए लगाया गया था ताकि घोटाले में राजनीतिक हाथ का पता लगाकर कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में हिसाब साफ कर लिया जाए। इसका दूसरा मकसद यह भी था कि सीबीआई कुछ गिरफ्तारियां करके और कुछ मुकदमे चलाकर जनता के सामने यह दिखा सकती थी कि सरकार घोटाले के अपराधियों को पकड़ने के लिए कितनी गंभीर है। चूंकि केवल दिखावा करना था इसलिए सीबीआई की एक जांच टीम को ही पूरी जांच नहीं दी गई वरन उसे बांट दिया गया।‘ आगे लिखा है कि सीबीआई ने अनुमान से अधिक मात्रा में राजनीतिक हाथ खोज निकाला जिससे सरकार के लिए थोड़ी समस्या हो गई क्योंकि किसी नेता का भांडाफोड़ उसे इंका (इंदिरा कांग्रेस) की अंदरूनी राजनीति में फायदेमंद लगता था और किसी का नुकसानदेह। इसलिए माधवन को चलता कर सीबीआई के पर कतर दिए गए।‘ एजेंसियों के दुरुपयोग की कांग्रेस राज में बहुत लंबी सूची बनाई जा सकती है। इस कारण जब राहुल गांधी ईडी को लेकर सरकार पर आरोप लगाते हैं तो जनता पर उसका प्रभाव दिखता नहीं है। उनके पार्टी पर इस तरह के आरोपों का इतना अधिक बोझ है जिससे वो मुक्त हो ही नहीं सकते। 

इस पुस्तिका में एक और विस्फोटक बात लिखी गई है, ‘कृष्णमूर्ति के घर पर छापे में सीबीआई ने सोनिया गांधी के दस्तखत वाला एक धन्यवाद पत्र बरामद किया जिसमें राजीव गांधी फाउंडेशन के लिए कोष जमा करने के लिए फाउंडेशन के चेयरमैन के रूप में उन्हें धन्यवाद दिया गया था। हर्षद मेहता और एक उद्गोयपति ने भी तो फाउंडेशन को 25-25 लाख रुपए के चेक दिए थे। दुबे यहां प्रश्न पूछते हैं कि ये धन कौन सा था? वही जो दलाल बैंकों से लेकर सट्टा बाजार में लगाते थे। इस धन से कमाई दलालों की संपत्ति तो जब्त कर ली गई पर यही पैसा तो राजीव गांधी फाउंडेशन में पड़ा है। क्या इसे जब्त करना और इसकी परतें खोलना सीबीआई का फर्ज नहीं था। राजीव गांधी फाउंडेशन की निर्लज्जता देखिए, उसने कृष्णमूर्ति के जेल जाने के बावजूद उन्हें अपनी सदस्यता से न हटाने का फैसला किया। हां, हर्षद वगैरह के जरिए मिले चंदे को मुंह दिखाई के लिए कस्टोडियन के चार्ज में जरूर दे दिया।‘ राजीव गांधी फाउंडेशन पर कोष जमा करने के कई तरह के आरोप लगते रहे हैं। आज की पीढ़ी को को ये जानने का अधिकार तो है ही कि नब्बे के दश्क में कांग्रेस के शासनकाल में किस तरह से कार्य होता था और किस तरह के आरोप लगते थे। क्या राजीव गांधी फाउंडेशन के कोष जमा करने के तरीकों के खुलासे के बाद ही तो गांधी परिवार और नरसिम्हा राव के रिश्तों में खटास आई। क्या इन सब का ही परिणाम था कि नरसिम्हा राव के निधन के बाद उनके पार्थिव शरीर को कांग्रेस के कार्यालय में अंतिम दर्शन के लिए नहीं रखा गया। ये सभी ऐसे प्रश्न हैं जो कांग्रेस और राहुल गांधी को परेशान करते रहेंगे।         


Monday, September 22, 2025

सितंबर के सितारे


हमारे यहां विभिन्न कलाओं का कैनवस इतना बड़ा है कि वर्ष के हर महीने में इन कलाओं से जुड़े कलाकारों की जन्मतिथि या जयंती उनके स्मरण का अवसर देती हैं। भारतीय फिल्मों का इतिहास सौ वर्षों से अधिक का हो गया है। कई कलाकारों ने भारतीय फिल्मों में अपने हुनर से उसको समृद्ध किया। हर महीने इन कलाकारों में से कइयों से जुड़ी घटनाएं, फिल्में, फिल्मों में उनके गाए गानों आदि की चर्चा होती है पर सितंबर एक ऐसा महीना है जिसमें कई दिग्गज कलाकारों की जन्म तिथि पड़ती है। भारत रत्न लता मंगेशकर से लेकर रणबीर कपूर तक कई कलाकारों का जन्म सितंबर में हुआ। लता मंगेशकर का जन्म 28 सितंबर को हुआ। लता मंगेशकर बनने के लिए उन्होंने कई सालों की तपस्या की। मुंबई (तब बांबे) के नाना चौक इलाके के दो कमरे के छोटे से फ्लैट में मां और भाई बहनों के साथ रहते हुए लता मंगेशकर ने न दिन देखा और न रात, बस एक ही सपना देखा कि कैसे अपनी गायकी को बेहतर करना है। लता मंगेशकर कोई भी गाना गातीं तो अपने पिता मास्टर दीनानाथ मंगेशकर की दी सीख याद रखतीं। पिता ने कहा था ‘गाते समय हमेशा ये सोचना कि तुमको अपने पिता या गुरु से बेहतर गाना है।‘ लता ने इसको अपने जीवन में उतार लिया। अपनी गायिकी से वो उस ऊंचाई पर पहुंच गई जहां पहुंच पाना किसी के लिए आसान नहीं। लता मंगेशकर की छोटी बहन आशा भोंसले का जन्म आठ सितंबर को हुआ था। लता मंगेशकर की लोकप्रियता के बीच हिंदी फिल्मों की दुनिया में एक ऐसी आवाज आई जिसे संगीतकार राहुल देब बर्मन के हुनर ने वो ऊंचाई दे दी जो लंबे समय तक बनी रही। फिल्म तीसरी मंजिल में आशा भोंसले और मोहम्मद रफी के गाए युगल गीत अमर हो गए। ओ मेरे सोना रे सोना हो या ऐ हसीना जुल्फों वाली हो या आ जा आ जा मैं हूं प्यार तेरा को याद करिए, आज भी वेलेंटाइन डे पर तीसरी मंजिल फिल्म के ये गीत अवश्य बजते हैं।

गीतों से अगर अभिनय की ओर बढ़ें तो सदाबहार अभिनेता देवानंद का जन्म 26 सितंबर को हुआ। देवानंद का सपना था कि वो प्रसिद्ध हों, इसलिए उन्होंने फिल्मों का रास्ता चुना। बांबे आए, लेकिन फिल्मों में काम नहीं मिल पा रहा था। मिलिट्री सेंसर आफिस में नौकरी की। फिर प्रभात स्टूडियो की एक फिल्म हम एक हैं में काम मिला। फिल्म चली नहीं तो संघर्ष और बढ़ गया। इस फिल्म के दौरान उनकी दोस्ती कोरियोग्राफर गुरु दत्त से हो गई थी। एक दिन अचानक ट्रेन में उनकी मुलाकात अशोक कुमार से हुई। देवानंद ने उनसे फिल्मों में काम मांगा। अशोक कुमार ने देवानंद को बांबे टाकीज बुलाया। वहां निर्देशक शाहिद लतीफ ने देवानंद को ये खारिज कर दिया, कहा कि वो चाकलेटी दिखते हैं। अशोक कुमार अड़े रहे। देवानंद को फिल्म जिद्दी फिल्म में काम मिला। उसके बाद की कहानी इतिहास में दर्ज है। एक समय राज कपूर, देवानंद और दिलीप कुमार हिंदी फिल्मों पर राज करते थे। इसी दौर में देवानंद की दोस्ती किशोर कुमार हुई जो आजीवन चलती रही। हाल में हिंदी फिल्मों में पचास वर्ष पूर्ण करनेवाली शबाना आजमी भी सितंबर में ही पैदा हुईं। कपूर खानदान के दो सितारों, रणबीर और करीना कपूर का जन्म भी सितंबर में हुआ। रणबीर कम फिल्में करते हैं लेकिन दर्शकों को अपने अभिनय का कायल बना लेते हैं। करीना भी एक समय हिंदी फिल्मों में टाप की अभिनेत्री बन गई थीं। इन दिनों वो अलग तरह के रोल में नजर आ रही हैं। अभिनेता अक्षय कुमार भी सितंबर में ही जन्मे। दिल्ली से मुंबई जाकर अक्षय ने फिल्मी दुनिया में अपना एक अलग स्थान बनाया। जब हिंदी फिल्मों में तीन खान अभिनेतों का डंका बज रहा था तो उसके बीच अक्षय कुमार की फिल्मों की सफलता ने उनको सुपरस्टार बना दिया। अक्षय ने एक्शन से लेकर कामेडी फिल्मों में काम किया जो दर्शकों को खूब भाया।

अभिनेताओं के बाद अगर हम बात करें दो फिल्म निर्देशकों हर्षिकेश मुखर्जी और यश चोपड़ा भी सितंबर में ही जन्मे थे। आज दोनों हमारे बीच नहीं हैं लेकिन इन दोनों ने हिंदी फिल्मों के इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी। बिमल राय जब कलकत्ता (अब कोलकाता) से बांबे आए तो उनके साथ चार अन्य युवा भी मुंबई पहुंचे उनमें से ह्रषिकेश मुखर्जी एक थे। बिमल राय के सहायक के तौर पर हिंदी फिल्मों में आए ह्रषिकेश मुखर्जी ने एक से एक श्रेष्ठ और लोकप्रिय फिल्में बनाईं। उनकी निर्देशित फिल्म आनंद ने अमिताभ बच्चन के अभिनय के नए आयाम से दर्शकों का परिचय करवाया। गोलमाल और मिली जैसी फिल्में मुखर्जी की फिल्म कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। लतो मंगेशकर ने कहा भी था कि वी शांताराम, गुरुदत्त और बिमल राय की परंपरा को ह्रषिकेश मुखर्जी ने आगे बढ़ाया। सितंबर के एक और सितारे हैं यश चोपड़ा। यश चोपड़ा ने अमिताभ बच्चन की फिल्म दीवार का निर्देशन किया जहां से एंग्री यंग मैन का युग आरंभ होता है। लेकिन यश चोपड़ा एक प्रयोगधर्मी निर्देशक थे। एंग्री यंग मैन को गढ़ने के बाद उन्होंने जब सिलसिला या चांदनी बनाई तो उसमें प्यार का एक अलग ही रूप दर्शकों को देखने को मिला। यश चोपड़ा ने एक्शन फिल्में की तो उसमें भी अपनी छाप छोड़ी और जब रोमांस और लवस्टोरी को विय बनाया तो दर्शकों को भी उनकी फिल्म से प्यार हो गया। सितंबर के इन सितारों में कुछ तो है जो इनको विशेष बनाती है। 

Saturday, September 20, 2025

पर्वों की सनातनता से जुड़ते युवा


पिछले दिनों दैनिक जागरण ज्ञानवृत्ति की तैयारी के सिलसिले में कुछ शोध संस्थानों में जाकर उनकी कार्यविधि को समझने का प्रयास किया। इसी क्रम में दिल्ली के पब्लिक पालिसी थिंक टैंक, सेंटर आफ पालिसी रिसर्च एंड गवर्नेंस (सीपीआरजी) में कुछ समय बिताया। संस्था से संबद्ध लोगों से लंबी बातचीत की। बातचीत के क्रम में सीपीआरजी के निदेशक रामानंद जी से बहुत लंबी चर्चा हुई। इस क्रम में उन्होंने कई रोचक प्रोजेक्ट की चर्चा की। एक प्रोजेक्ट जिसने मेरा ध्यान खींचा वो था कुछ विशेष तिथियों पर नदी किनारे होनेवाले जमावड़ों और उसके सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव की। इसी क्रम में पता चला कि सीपीआरजी एक शोध वाराणसी और अयोध्या में  होनेवाले श्रावण स्नान मेला में गंगा और सरयू के किनारे जुटनेवाले श्रद्धालुओं के मन को टटोलने का प्रयास कर रहा है। वो किस कारण से वहां आते हैं और उनपर इस जुटान का क्या असर पड़ता है, इसको जानने के लिए अध्ययन किया जा रहा है। कहा जा सकता है कि ये स्नान भक्ति का एक रूप है लेकिन इसमें सामाजिकता और परंपरा के निर्वाह का उमंग भी दिखता है। इस शोध में ये पता करने का प्रयास किया जा रहा है कि इस स्नान का पर्यावरण से कितना संबंध है या कितना प्रभाव पड़ता है। क्या इस स्नान से भारत की संस्कृति और उसके अंतर्गत मनाए जानेवाले विविधता के उत्सव की झलक देखने को मिलती है। इस दौरान प्रशासन किस तरह से कार्य करता है। बातचीत जब आगे बढ़ी को पता चला कि अभी इस अध्ययन का अंतिम परिणाम सामने नहीं आया है। जो आरंभिक बातें सामने आ रही हैं उसके बारे में जानना भी दिलचस्प है।

नदियों के किनारे स्नान के दौरान होनेवाले जुटान को लेकर अधिकतर लोग इसको भक्ति से जोड़कर देखते हैं। वहीं कुछ इसको सामाजिकता के प्रगाढ़ होते जाने के उत्सव के तौर पर इसमें हिस्सा लेते हैं। कई लोग पारिवारिक परंपरा के निर्वाह के लिए नदी तट पर जुटते हैं और सामूहिक स्नान करते हैं। ऐसे लोग अपने बच्चों को भी स्नान के लिए साथ लेकर आते हैं। उनको अपनी इस परंपरा की ऐतिहासिकता के बारे में बताते भी हैं। मौखिक रूप से अपनी परंपरा को बताने में कथावाचन के तत्व रहते हैं। मोटे तौर ये वर्गीकरण दिखता है। जब सूक्षम्ता से विश्लेषण किया गया तो पता चला कि जो युवा इस स्नान में शामिल होते हैं वो इसमें आध्यात्मिकता, सामाजिकता और अपनी जड़ों से जुड़ने के लिए नदियों के किनारे जुटते हैं। युवाओं के मुताबिक वो स्नान के अपने इन अनुभवों को अपने मोबाइल के कैमरे में समेट भी लेते हैं। इंटरनेट मीडिया के विभिन्न मंचों पर उसको साझा भी करते हैं। ये भी एक कारण है कि अन्य युवा भी इस स्सान के लिए प्रेरित होते हैं। वहीं जो अपेक्षाकृत अधिक उम्र के लोग हैं वो भक्तिभाव से अपनी परंपरा और पौऱाणिक स्मृतियों से स्वयं को जोड़ते हैं। इस कारण वो सरयू और गंगा में डुबकी लगाने के लिए श्रावण स्नान के समय जुटते हैं। इस स्टडी के आरंभिक नतीजों के बारे में जानकर ये लगता है कि कैसे भारतीय परंपरा में एक पर्व की कई परतें होती हैं जो भारतीय समाज को आपस में जोड़ती हैं। इस अध्ययन का जब परिणाम सामने आएगा तो पता चलेगा कि कैसे पुजारी, समाज के वरिष्ठ जन, परिवार, स्थानीय समितियां और युवा इन पर्वों के माध्यम से ना सिर्फ एक दूसरे से जुड़ते हैं बल्कि अपनी परंपरा को भी गाढ़ा करते हैं। इस तरह के कई शोध और अध्ययन हो रहे होंगे। दैनिक जागरण ज्ञानवृत्ति भी इस तरह के शोध को बढ़ावा देने का एक उपक्रम है। जिसमें अभ्यार्थियों से ये अपेक्षा की जाती है कि वो नौ महीने तक किसी विशेष भारतीय घटना या परंपरा का अध्ययन करें और उसके आधार पर पुस्तक लिखें। इसके लिए जागरण आर्थिक मदद भी करता है।

इस बीच एक और खबर आई कि भारत सरकार सूर्य उपासना के पर्व छठ पूजा को यूनेस्को की सांस्कृतिक विरासत की सूची में शामिल करवाना चाहती है। इसके लिए प्रयास आरंभ हो गए हैं। छठ पूजा भारत के प्राचीनतम पर्वों में से एक है। ये सूर्य की उपासना से तो जुड़ा ही है इसमें नदियों और घाटों की महत्ता भी है। स्वच्छता पर भी विशेष जोर दिया जाता है। संस्कृति मंत्रालय ने इसके लिए कई देशों के राजदूतों के साथ बैठक की है और छठ पूजा को वैश्विक सांस्कृतिक धरोहर की सूची में शामिल करवाने में उनका सहयोग मांगा है। दरअसल बिहार, उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से और बंगाल में छठ पूजा की प्राचीन परंपरा रही है। बिहार से जो श्रमिक काम करने के लिए मारीशस, सूरीनाम, फिजी आदि देशों में गए वो अपने साथ छठ पूजा को लेकर गए। वहां भी प्राचीन काल से छठ पूजा हो रही है। संस्कृति मंत्रालय ये चाहता है कि छठ पूजा की प्राचीनता को लेकर अन्य देश भी भारत के दावे को पुष्ट करें। छठ पूजा पर भी अगर गंभीरता से कोई अध्ययन किया जाए तो उसके भी रोचक परिणाम सामने आ सकते हैं। इस पर्व में पर्यावरण जुड़ता है। इसमें सामाजिकता है। मुझे याद पड़ता है कि हमारे गांव में जब महिलाएं छठ करती थीं तो अर्घ्य देने के लिए पूरे गांव के लोग जमा होते थे। तालाब के घाटों की सफाई की जाती थी। अगर संभव होता था तो तालाब पानी को भी साफ किया जाता था। गांव से तालाब तक जाने वाले रास्तों की  सफाई की जाती थी ताकि पर्व करनेवाली महिलाओं, जिनको बिहार की स्थानीय भाषा में परवैतिन कहा जाता है, को किसी प्रकार की तकलीफ ना हो। इसमें ये आवश्यक नहीं होता है कि जिनके घर की महिलाएं पर्व कर रही हों वही साफ सफाई के कार्य मे जुटते हैं। ये सामुदायिक सेवा होती है।  इस तरह से ये भारतीय पर्व स्वच्छता से भी जुड़ता है। छठ के अवसर पर सामाजिक जुटान भी होता है। हर समाज के लोग एक ही घाट पर पूजा करते हैं। वहां जात-पात का भेद नहीं होता है। लोग एक साथ पूजा के बाद प्रसाद ग्रहण करते हैं। ये सामाजिक समरसता को भी मजबूत करनेवाला पर्व है।

भारत के जो पर्व त्योहार हैं उनके पीछे कहीं ना कहीं किसी तरह से पर्यावरण से जुड़ने की बात देखने को मिलती है। पर्व-त्योहार को जो लोग रूढ़िवादिता से जोड़कर देखते हैं वो दरअसल किसी न किसी दृष्टिदोष के शिकार होते हैं। आज जिस तरह से भारतीय युवा अपने धर्म को लेकर, उसकी आध्यात्मिकता को लेकर उत्सुक है वो एक शुभ संकेत है। वो धर्म के नाम पर चलनेवाली कुरीतियों से, जड़ता से, नहीं जुड़ता है बल्कि उसकी प्रगतिशीलता से, उसकी वैज्ञानिकता से और उससे मिलने वाले आत्मिक संतोष से जुड़ता है। आज अगर बड़ी संख्या में भारतीय युवाओं के बीच अपने धर्म से जुड़ने की ललक दिखती है तो वो धार्मिकता और वैज्ञानिकता के संगम के कारण। युवा मन हर चीज में लाजिक खोजता है। जबर वो संतुष्ट होता है तभी वो किसी पर्व के साथ जुड़ता है। यह भारतीय परंपराओं की सनातनता है जो भारतीयों को जोड़ती है।  

Saturday, September 13, 2025

हिंदी तन-मन, हिंदी जीवन


हिंदी दिवस के पूर्व दिल्ली के प्रतिष्ठित मिरांडा हाउस महाविद्यालय में जागरण संवादी का आयोजन हुआ। दैनिक जागरण के अपनी भाषा हिंदी को समृद्ध करने के उपक्रम ‘हिंदी हैं हम’ के अंतर्गत कई शहरों में संवादी का आयोजन होता है। इस आयोजन में हिंदी भाषा को लेकर भी विचार विनिमय होता है। दिल्ली संवादी में भी भाषा को लेकर सत्रों में चर्चा हुई। आज हिंदी दिवस के अवसर उन चर्चाओं को याद कर रहा था तो अपनी भाषा हिंदी की व्याप्ति को लेकर गर्व का अनुभव हो रहा है। हिंदी हर तरफ बढ़ रही है। देश के प्रधानमंत्री विभिन्न अंतराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में बोलते हैं। गृह मंत्री अमित शाह हिंदी को लेकर उत्साहित रहते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों के उपर हिंदी में नाम लिखा जाने लगा है। इनके बारे में विचार करते समय एक बात ध्यान में आई कि हिंदी आज पूरे राष्ट्र में समादृत और स्वीकृत हो रही है तो इसका आaधार कहां से तैयार हुआ। हिंदी के किन पुरोधाओं ने इस भाषा को स्वरूप दिया और उसके लिए किस प्रकार का श्रम किया या उनका क्या योगदान था। सबसे पहले नाम याद आता है है भारतेन्दु का। भारतेन्दु ने हिंदी के विकास में बहुत महत्वपूर्ण योगदान किया। उनके अलावा भी कई लोग थे जिन्होंने हिंदी के लिए अपनी जिंदगी खपा दी। आज अगर हिंदी की धमक वैश्विक स्तर पर महसूस की जा रही है तो उनको याद करना आवश्यक है। कुछ दिनों पहले मैंने किसी पुस्तक में बाबू श्यामसुंदर दास की आत्मकथा की चर्चा पढ़ी थी। जिज्ञासा हुई इस पुस्तक के बारे में जानने की। दैनिक जागरण के प्रयागराज के संपादकीय प्रभारी राकेश पांडे से मैंने इस पुस्तक की चर्चा की। उनसे आग्रह किया कि 1941 में इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग से प्रकाशित श्यामसुदंर दास की आत्मकथा उपलब्द करवाएं। ये पुस्तक तो उपलब्ध नहीं थी लेकिन प्रयासपूर्वक उनहोंने उसकी फोटो प्रति उपलब्ध करवा दी। उस पुस्तक को पढ़ते ये महसू, हुआ कि व्यक्तियों के अलावा हिंदी को वैज्ञानिक स्वरूप देने के लिए कई संस्थाओं ने भी उल्लेखनीय कार्य किया। इन संस्थाओं में से एक काशी की नागरी प्रचारिणी सभा भी है। 

बाबू श्यामसुंदर दास की पुस्तक में इस बात का उल्लेख मिलता है कि 1893 में काशी में स्कूलों में डिबेटिंग क्लब होते थे। बाद में कुछ बच्चों ने अपनी डिबेटिंग सोसाइटी बनाई। गर्मी की छुट्टियों में सोसाइटी का काम बंद हो गया था। 9 जुलाई 1893 को इस सोसाइटी का एक अधिवेशन बाबू हरिदास बुआसाव के अस्तबल के ऊपरी कमरे में हुआ। इसमें आर्यसमाज के उपदेशक शंकर लाल जी आए थे।उनका बेहद जोशीला भाषण हुआ। उसके बाद ये निर्णय हुआ कि अगले सप्ताह 16 जुलाई को फिर सभा हो। इसी दिन ये तय किया गया कि नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की जाए। बाबू श्यामसुंदर दास सभा के मंत्री चुने गए। उनके साथ पंडित रामनारायण मिश्र, ठाकुर शिवकुमार सिंह थे। ये वो समय था जब भारतेन्दु का निधन हो चुका था। हिंदी का नाम लेना भी उस समय पाप समझा जाता था। कचहरियों में इसकी बिल्कुल पूछ नहीं थी। पढ़ाई में केवल मिडिल क्लास तक इसको स्थान मिला था। अधिक संख्या में विद्यार्थी उर्दू लेते थे। वो कहते हैं कि इस अपमान के वातावरण में लड़कों के खिलवाड़ की तरह नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। वो इसको ईश्वर कृपा मानते हैं। जब सभा की स्थापना हुई तो भारतजीवन पत्र के संपादक बाबू कार्तिकप्रसाद ने इसको आश्रय दिया। धीरे धीरे सभा ने हिंदी के लिए ठोस कार्य करने की पहल की। अर्थ का संकट आया। दरभंगा के महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह से सभा ने हिंदी का शब्दकोश तैयार करने के लिए आर्थिक सहायता मांगी। उन्होने तत्काल 125 रु की सहायता भेजी। साथ में लिखा कि सभा कार्य आरंभ करे भविष्य में और सहायता पर विचार करेंगे। कांकरौली के महाराज ने भी 100 रु की मदद की। इससे ही नागरी प्रचारिणी सभा ने कार्य आरंभ किया। हिंदी के प्राचीन ग्रंथों की खोज आरंभ हुई। लोग सभा से जुड़ते गए और हिंदी की समृद्धि का कार्य चलता रहा। 

इनके अलावा हिंदी को विस्तार देने में सरस्वती पत्रिका और उसके संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। 1903-04 में द्विवेदी जी ने सरस्वती पत्रिका का संपादन झांसी से किया। द्विवेदी जी बहुत तीखा लिखा करते थे इस कारण जब वो सरस्वती के संपादक हुए तो वरिष्ठ लेखकों ने उनसे असहयोग शुरू कर दिया। कई बार तो उनको सरस्वती के लिए कई लेख स्वयं लिखने पड़ते थे। 1905 में द्विवेदी जी ने झांसी छोड़ दिया और कानपुर के पास जुहीकलां गांव में रहकर सरस्वती का संपादन करने लगे। अब जुही कानपुर शहर का हिस्सा है। जुही में उनके मित्र बाबू सीताराम ने उनकी खूब मदद की। उन्होंने अपने मित्र गिरधर शर्मा नवरत्न को लिखा कि ‘ऊपर भी हमारे सीताराम हैं और नीचे भी सीताराम’। सरस्वती के माध्यम से हिंदी सेवा में द्विवेदी जी इतने तल्लीन हो गए कि वो गंभीर रूप से बीमार हो गए। वर्ष 1910 में सरस्वती के अंकों के संपादन उनके मित्र पं देवीप्रसाद शुक्ल ने किया। जब सालभऱ बाद काम पर लौटे तो दिन रात हिंदी को आकार देने के कार्य में जुटे रहे। कुछ सालों बाद फिर उनका स्वास्थ्य बिगड़ा और 1918 में सरस्वती के संपादन कार्य से दो वर्ष का अवकाश लेना पड़ा। इस बार भी संपादन का दायित्व शुक्ल जी के पास आया। फिर वो वापस लौटे लेकिन ज्यादा दिनों तक कार्य नहीं कर सके। 1921 में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सरस्वती के संपादक बने। द्विवेदी जी अपने गांव दौलतपुर जाकर रहने लगे। 1938 में बीमारियों ने उको जकड़ लिया और दिसंबर में देह त्याग दिया। तब तक द्विवेदी जी हिंदी को ऐसा स्वरूप प्रदान कर चुके थे कि वो युग निर्माता कहलाए। 

द्विवेदी जी की सरस्वती में ही सहायक संपादक और फिर संपादक हुए देवीदत्त शुक्ल। सरस्वती के संपादन कार्य के दौरान उन्होंने भाषा और वर्तनी को सुधारने में बहुत श्रम किया। इस दौरान उनकी आंख में भयंकर तकलीफ हुई और उनके आंखों की रोशनी समाप्त हो गई। देवीदत्त शुक्ल ने हिंदी भाषा को और समावेशी बनाया। सरस्वती में साहित्येत्तर विषयों को प्रकाशित किया। यहां सरस्वती पत्रिका के मालिक चिंतामणि घोष को भी याद करना चाहिए। उन्होंने द्विवेदी जी से लेकर सभी संपादकों को खुली छूट दी, सम्मान भी। मदन मोहन मालवीय ने हिंदी को राष्ट्र निर्माण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जोड़कर कार्य किया। हिंदी के इन महापुरुषों के अलावा भी अन्य कई विद्वानों ने, राजाओं ने और कुछ अफसरों ने भी हिंदी को विकसित करने में अपनी भूमिका दर्ज करवाई। सूची बहुत लंबी हो सकती है लेकिन महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसा समपर्ण और हिंदी को स्वरूप देने की जिद कम ही लोगों में दिखती है। आज हिंदी दिवस के अवसर पर द्विवेदी जी जैसे लोगों को याद करना बहुत आवश्यक है। स्मरण तो हिंदी की उस परंपरा को भी करना होगा जिसने भाषा को समृद्ध करने के लिए हस्तलिखित ग्रंथों की खोज की, शब्दकोश तैयार करवाए। पत्रिकाएं निकालीं और हिंदी को फलने फूलने का अवसर उपलब्ध करवाया। 


Saturday, September 6, 2025

घोड़े के पीठ पर लदे मेढक जैसी विचारधारा


पिछले महीने स्वाधीनता दिवस के आसपास झारखंड से कवि चेतन कश्यप ने अमृलाल नागर का एक आलोचक को लिखे पत्र, जो पुस्तकाकार भी प्रकाशित है, का स्क्रीनन शाट भेजा। पुस्तक का नाम है मैं पढ़ा जा चुका पत्र। अमृतलाल नागर उस पत्र में लिखते हैं, तुम सौ फीसदी मार्क्सिस्टों को राम-राम कहने से मुझे बहुत आनंद लाभ होता है। प्रियवर रामविलास जी से तो जै बजरंगबली तक हो जाती है इसलिए तुम सबको सस्नेह राम-राम। तब इस पत्र पर चेतन से चर्चा हुई और कुछ अन्य साहित्यिक विषयों पर भी। बात आई गई हो गई। अभी अचानक एक मित्र ने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘सर्जक मन का पाठ’ के कुछ अंश भेजे। ये पुस्तक वरिष्ठ साहित्यकार गोविन्द मिश्र को साहित्यकारों ने के लिखे पत्रों का संकलन है। इसका जो अंश मुझे मिला वो अमृतलाल नागर के पत्र की तरह ही दिलचस्प है। शैलेश मटियानी ने गोविन्द मिश्र को लिखा, आपने साहित्य द्वारा आत्मिक से साक्षात्कार का प्रश्न भी कुछ विस्तार से लिया है, क्योंकि यही साहित्य का कर्म रहा है। जैसे भौतिक विज्ञान वाह्य जगत, वैसे ही अन्त:विज्ञान भीतरी संसार को प्रतिस्थापित करता है। हम सब जानते हैं कि मनुष्य के भीतर का विस्तार बाह्य जगत के विस्तार से तिल भर भी कम नहीं है। क्योंकि शून्य मनुष्य का भी उतना ही अपरिचित है जितना कि पृथ्वी का। यहीं प्रश्न वह उठाया है कि चूंकि विचारधाराएं सिर्फ राज्य का माडल बनाती हैं लेकिन साहित्य समाज का माडल, इसलिए ही दृष्टि का अंतर पड़ जाता है।‘ अपनी इस टिप्पणी में शैलेश मटियानी ने विचारधारा की सीमाओं को स्पष्ट किया है। 

शैलेश मटियानी की आगे की टिप्पणी से स्पष्ट होता है कि वो मार्क्सवाद से झुब्ध थे। आलोचकों और लेखक संगठनों द्वारा मार्क्सवाद को हिंदी साहित्य पर लादे जाने को लेकर भी कठोर टिप्पणी करते हैं। वो लिखते हैं कि मार्क्सवाद को जिस तरह से हिंदी साहित्य पर लादा जा रहा है, इससे ही कोफ्त हुई और थोड़ी सी छेड़खानी इसी निमित्त की है, क्योंकि मार्क्सवाद को साहित्य पर लादना घोड़े की पीठ पर मेढ़क को लादना है। मैं साहित्य के सामने मार्क्सवाद की कोई हैसियत नहीं समझता। मनुष्य के लिए जितनी जगह और जितना विस्तार साहित्य में है, अन्यत्र कहीं नहीं है। आपसे बहुत ईमानदारी से कहना चाहता हूं कि लेखक होने का अहसास ध्वस्त हो चुका है और इसलिए अब लात-जूता खाने का डर नहीं रहा। खोपड़ी-भंजन अब इसलिए भी सुहाने लगा है कि शायद इसके बाद कुछ लेखक हो सकने की गुंजाइश निकल आए, क्योंकि वो जड़ता को कुछ तोड़ने की कोशिश में ही है। खुद पर हंसना आना चाहिए, इस कथन का मर्म आज समझ में आ रहा है और खुद की लकड़बुद्धि पर कई बार मुझे ठहाका लगाने का मन होता है।‘ उन्होंने जिस तरह से लेखकों पर मार्क्सवाद लादने की तुलना घोड़े पर मेढ़क लादने की कोशिश से की है उससे ये स्पष्ट होता है कि वो मानते हैं कि लेखकों पर मार्क्सवाद थोपना कितना कठिन कार्य था। बावजूद इसके मार्कसवादी आलोचकों और लेखक संगठनों ने ये प्रयास तो किया ही। लेखकों पर भले ही मार्क्सवाद नही लाद पाए हों पर हिंदी साहित्य और अकादमिक जगत में उनको सफलता मिली। मार्क्सवाद रूपी मेढ़क को अकादमिक जगत रूपी घोड़े पर लादने में कम्युनिस्ट सफल रहे। उन्होंने वैचारिक रूप से कुछ ऐसे मेढ़क तैयार कर दिए जो घोडे की पीठ पर बैठकर भी यात्रा कर पा रहा है। ये कोई हुनर नहीं है बल्कि मेढ़क को निष्क्रिय करके घोड़े की पीठ पर लाद दिया गया। उसको उसी अवस्था में सबकुछ मिलता रहा और वो सर्वाइव करता रहा। 

अब एक तीसरा उदाहरण आपसे समक्ष रखता हूं। ये उदाहरण भी एक पुस्तक से है जिसको राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित लेखक विनोद अनुपम ने  फेसबुक पर पोस्ट किया है। ये पुस्तक है देसी पल्प फिक्शन पर केंद्रित बेगमपुल से दरियागंज। उसके उस अंश को देख लेते हैं जो अनुपम जी ने साझा किया, कांबोज के दोस्त सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों का सिलसिला तबतक चल निकला था। पाठक जी याद करते हैं, 1970 तक शर्मा जी के प्रकाशन ‘जनप्रिय’ के यहां से लोकप्रिय सीरीज ते तहत उनके उपन्यासों का स्कोर ग्यारह तक पहुंच गया था जिनमें से तीन- अरब में हंगामा, आपरेशन जारहाजा पोर्ट और आपरेशन पीकिंग- जेम्स बांड सीरीज के थे जो कि शर्मा जी के बेटे महेन्द्र के अनुरोध पर लिखे गए थे। आरती पाकेट बुकस के लेटरहेड पर उसी साल अगस्त में उन्हें शर्मा जी के तीसरे पुत्र सुरेन्द्र के दस्तखत से एक चिट्ठी मिली, पिताजी के आदेशानुसार हम निकट भविष्य में आपके उन उपन्यासों को प्रकाशित करने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं जो रूस विरोध एवं कम्युनिस्ट विरोधी हों। यानि के चार जेम्स बांड उपन्यास के बाद वहां चेतना जागृत हुई कि ये उपन्यास रूस विरोधी होते हैं। शायद रूस और कम्युनिज्म से प्रेम का ट्रेड यूनियन काल वहां दस्तक दे रहा था।‘ इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि किस तरह से कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखक और प्रकाशक रूस और कम्युनिस्ट विरोध के नाम पर रचनात्मकता को बाधित करते थे, करते रहे और अब भी कर रहे हैं। अब भी प्रकाशन जगत में खुलापन नहीं आया। एक बडा प्रकाशक अब भी कम्युनिस्टों को प्रश्रय देता है। कमीशन करके कम्युनिस्टों से पुस्तकें लिखवाता है। ये सब वही लोग हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर दिन रात छाती कूटते रहते हैं। लेकिन जब अवसर मिलता है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करते हैं। 

उपरोक्त तीन उदाहरणों से स्पष्ट है कि मार्क्सवाद और कम्युनिज्म को लेकर बहुत संगठित और योजनाबद्ध तरीके से साहित्य जगत में कार्य हुआ। लेखन हो, आलोचना हो, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हो, पुस्तकों का प्रकाशन हो, पुस्तकों की सरकारी खरीद हो, अकादमिक जगत हो, अकादमियां हों हर जगह अपनी विचारधारा के लोग फिट किए गए। नामवर जी जब राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में थे तो उनपर एक प्रकाशक विशेष को लाभ पहुंचाने के आरोप लगे थे। संसद में भी सवाल उठे थे। एक तरफ तो ये हो रहा था और दूसरी तरफ इन जगहों पर जिन्होंने उस विचारधारा को स्वीकार नहीं किया उनको हाशिए पर डालने में पूरी शक्ति लगा दी गई थी। विश्वविद्यालयों में नौकरी नहीं मिल जाए इसपर नजर रखने के लिए एक टीम रहती थी। जो उम्मीदावारों की वैचारिक पृष्ठभूमि जांचती थी।संस्कृति को भी प्रभावित करने या एक नई संस्कृति बनाने का प्रयास हुआ। सनातन संस्कृति को गंगा-जमुनी तहजीब जैसे भ्रामक पर रोमांटिक शब्दावली से विस्थापित करने का प्रयास हुआ जो आंशिक सफल भी रहा। मार्सवादी विचार और विचारधारा की इस जकड़न में लंबे समय तक रहने से हिंदी साहित्य एकांगी सा होने लगा था। परिणाम ये हुआ कि पाठक साहित्य से दूर होने लगे। अब पाठकों को विचारधारा मुक्त साहित्य का विकल्प मिलने लगा है तो वो फिर से पुस्तकों की ओर लौट रहा है। दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला से लेकर पटना पुस्तक मेला और रांची पुतक मेला में पाठकों की भीड़ हिंदी प्रकाशकों के स्टाल पर आने लगी है। यह आश्वस्ति प्रदान करने वाला है।   


Saturday, August 30, 2025

ध्वस्त होता झूठा नैरेटिव

समाचार चैनलों पर चलवनेवाली डिबेट में कई लोग डंके की चोट पर ये पूछते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वाधीनता आंदोलन से क्या संबंध था। फिर स्वयं ही निर्णयात्मक उत्तर देते हैं कि संघ का स्वाधीनता आंदोलन में ना तो कोई योगदान था ना ही संबंध। ये नैरेटिव वर्षों से चलाया जा रहा है। हर कालखंड में कई लोग इसको गाढ़ा करने के उपक्रम में जुटे रहते हैं। अब भी हैं। लेख आदि में भी इस बात का उल्लेख प्रमुखता से किया जाता है कि संघ का देश के स्वतंत्रता आंदोलन में कोई योगदान रहा ही नहीं है। ऐसा करके वो जनमानस में भ्रामक अवधारणा का रोपण करते चलते हैं। जब तटस्थ विश्लेषक तथ्य रखने लगते हैं तो उनको दबाने का प्रयास किया जाता है। अर्धसत्य को सामने रखकर उनको चुप कराने का प्रयास किया जाता है। कहा भी गया है कि अगर एक झूठ को बार-बार कहेंगे तो उसको सच नहीं तो सच के करीब तो मान ही लिया जाएगा। तब ऐसा और भी संभव हो जाता है जब कहे हुए को पुस्तकों के माध्यम से पुष्ट किया जाता रहा हो। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वाधीनता आंदोलन के संबंध में ऐसा ही होता आ रहा है। ऐसा कहनेवाले कुछ तथ्यों को दबा देते हैं। वो ये नहीं बताते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई थी और देश 1947 में आजाद हो गया। उस समय संघ की ताकत कितनी रही होगी, एक संगठन के तौर पर संघ का कितना विस्तार रहा होगा, संघ से कितने कार्यकर्ता जुड़े होंगे, इसको बगैर बताए निर्णय हो जाता है। जैसे-जैसे संघ का विस्तार होता गया ये नैरेटिव जोर-शोर से चलाया जाने लगा। संघ शताब्दी वर्ष में इस विमर्श को और गाढ़ा करने का उपक्रम हो रहा है बल्कि कह सकते हैं कि संगठित होकर किया जा रहा है।

हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा मोहन भागवत को दो अवसरों पर सुना। एक पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम था। दूसरा संघ शताब्दी वर्ष पर दिल्ली में तीन दिनों का व्याख्यानमाला। सरसंघचालक ने पहले कार्यक्रम में बताया कि अंग्रेज अफसर नागपुर और उसके आसपास चलनेवाली शाखाओं की ना सिर्फ निगरानी करते थे बल्कि हर शाखा से संबंधित जानकारी को जमा कर उसका विश्लेषण भी करते थे। वो आशंकित रहते थे कि अगर शाखाओं का विस्तार हो गया तो अंग्रेजों के लिए दिक्कत खड़ी हो सकती है। व्याख्यानमाला में डा भागवत ने बताया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम सरसंघचालक डा हेडगेवार स्वाधीनता आंदोलन में बाल्यकाल से सक्रिय थे। नागपुर के स्कूलों में 1905-06 में वंदेमातरम आंदोलन हुआ था। इसमें शामिल छात्र हेडगेवार ने अंग्रेजों से माफी मांगने से इंकार कर दिया था। उनको स्कूल से निष्कासित कर दिया गया था। बाद में हेडगेवार डाक्टरी की पढ़ाई करने कलकत्ता (अब कोलकाता) गए। पढ़ाई पूरी करने के बाद तीन हजार रु मासिक वेतन वाली नौकरी को ठुकराकर डा हेडगेवार ने देशसेवा की ठानी। वो अनुशीलन समिति में भी शामिल हुए थे। 1920 में उनपर देशद्रोह का मुकदमा चला। कोर्ट में अपने बचाव में उन्होंने स्वयं दलील पेश की थी। उद्देश्य था कि पत्रकार आदि केस सुनने आएंगे तो उनके विचार जनता तक पहुंच पाएंगे। न्यायालय का जब निर्णय आया तो जज ने लिखा, जिन भाषणों के कारण इन पर यह आरोप लगा है, इनका बचाव का भाषण उन भाषणों से अधिक ‘सेडिशियस’ है। उनको एक वर्ष सश्रम कारावास की सजा हुई। जेल से बाहर निकलने के बाद डा हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। 1930 में जंगल सत्याग्रह आरंभ हुआ तो उन्होने सरसंघचालक का दायित्व छोड़ दिया। आंदोलन में शामिल हुए। उनको फिर से एक वर्ष सश्रम कारावास की सजा हुई। सजा काटकर वापस आने पर सरसंघचालक का कार्यभार संभाला। इस दौरान वो सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह के संपर्क में भी आए। राजगुरु को तो उन्होंने महाराष्ट्र में अंडरग्राउंड रखने में मदद की।  नागपुर में भी रखा। बाद में उनको अकोला भेजने की भी व्यवस्था की। इलके अलावा भी संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं की एक लंबी सूची है जो स्वाधीनता आंदोलन में जेल गए थे। पर विचारधारा विशेष के लोगों ने इन तथ्यों को आम जनता से दूर रखा। भ्रामक बातें करते रहे।  

नैरेटिव के खेल को इस तरह से समझा जा सकता है। कम्युनिस्टों ने स्वाधीनता आंदोलन का विरोध किया, अंग्रेजों का साथ दिया, सुभाष बाबू को जापान और जर्मनी के हाथों की कठपुतली बताते हुए धोखेबाज तक कहा। इसकी चर्चा नहीं होती है। बल्कि इस तथ्य को दबा दिया जाता है। इस खेल में ट्विस्ट तब आया जब हिटलर ने सोवियत रूस पर आक्रमण कर दिया। कम्युनिस्ट पहले जिस युद्ध को साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध कहते थे उसको ही हिटलर के रूस पर हमले के बाद जनयुद्ध कहने लगे। इसके बाद वो अंग्रेजों के साथ हो गए और उनके हाथ मजबूत करने लगे। जब गांधी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन आरंभ किया तो कम्युनिस्टों ने इस आंदोलन को दबाने में अंग्रेजों का साथ दिया। फिल्म इतिहासकार मिहिर बोस ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि सुभाष बाबू के विश्वस्त कम्युनिस्ट साथी भगत राम तलवार ने अंग्रेजों के लिए जासूसी की थी। विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद कम्युनिस्टों ने मुस्लिम लीग की तरह पाकिस्तान बनाने का समर्थन किया था। 1946 में तेलांगना में सशस्त्र विद्रोह आरंभ किया। पहले ये निजाम के खिलाफ था लेकिन स्वाधीनता के बाद ये भारत सरकार के खिलाफ हो गया क्योंकि वो स्वाधीनता के बाद बनी सरकार को राष्ट्रीय धोखा कहते थे। वो तो भला हो स्टालिन का कि 1950 में उन्होंने भारत के कम्युनिस्ट नेताओं को मास्को बुलाकर बात की। उस बातचीत के बाद भारत के कम्युनिस्टों ने सशस्त्र विद्रोह खत्म किया। देश के विरुद्ध सशस्त्र आंदोलन के बावजूद भी नेहरू ने कम्युनिस्टों पर पाबंदी नहीं लगाई। स्टालिन के साथ मीटिंग के बाद कम्युनिस्टों ने 1952 के पहले आमचुनाव में हिस्सा भी लिया था। दरअसल कम्युनिस्टों की आस्था राष्ट्र से अधिक विचार और विचारधारा में रही है। उनके लिए विचारधारा सर्वप्रथम है जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए राष्ट्र सर्वप्रथम है। यही बुनियादी अंतर है।

कालांतर में कम्युनिस्टों और कांग्रेस के बीच एक अंडरस्टैंडिंग बनी। जब स्वाधीन भारत में स्वाधीनता का इतिहास लेखन आरंभ हुआ तो उपरोक्त तथ्यों को नजरअंदाज कर दिया गया। स्कूल में पढ़ाई जानेवाली पुस्तकों में भी इन बातों को छोड़ दिया गया। परिणाम ये हुआ कि कम्युनिस्टों पर स्वाधीनता आंदोलन में उनकी भागीदारी को लेकर प्रश्न नहीं उठे। एक ऐसा नैरेटिव खड़ा किया जिसमें संघ तो निशाने पर रहा लेकिन कम्युनिस्टों के कारगुजारियों पर चर्चा नहीं हुई। 1925 में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई थी और 1925 में ही कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ था। दोनों संगठनों की स्थापना के सौ वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। एक विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बनकर निरंतर मजबूत हो रहा है और कम्युनिस्ट पार्टी अपने अतित्व के लिए संघर्ष कर रही है। कहा जा सकता है कि भारत का जनमानस जैसे जैसे परिपक्व हो रहा है वैसे वैसे जनता राष्ट्रहित सोचनेवालों के साथ होती जा रही है।

फिर भी रहेंगी निशानियां


आज से करीब 70 वर्ष पूर्व राज कपूर की फिल्म श्री 420 आई थी। इस फिल्म ने राज कपूर के सोच और उनकी स्टोरीटेलिंग स्टाइल को बदल दिया। ये एक ऐसी फिल्म थी जिसने उनकी व्यक्तिगत जिंदगी में भी बदलाव देखा। श्री 420 के पहले राज कपूर की फिल्म आवारा आई थी। फिल्म आवारा जब रिलीज हुई थी तो फिल्म समीक्षकों ने उसमें एक मार्क्सवादी अंडरटोन होने की चर्चा की थी। संभव है ऐसा हो। हलांकि राज कपूर अपने साक्षात्कारों में हमेशा इस बात का निषेध करते थे कि वो किसी विचार या विचारधारा से प्रेरित होकर फिल्म बनाते हैं। फिल्म आवारा ख्वाजा अहमद अब्बास ने लिखी थी। अब्बास गहरे तक मार्क्सवादी विचारधारा में डूबे हुए थे। कहा जाता है कि जब इस फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखा गया थी तो ख्वाजा अहमद अब्बास और वी पी साठे ने बेहद चतुराई के साथ कई दृष्यों और संवादों में परोक्ष रूप से कम्युनिस्ट विचार और उन विचारों का पोषण करनेवाली स्थितियां लिख दी थीं। एक समीक्षक ने तब लिखा भी था कि ख्वाजा अहमद अब्बास एक वैचारिक गाइड थे। राज कपूर जब इस फिल्म को लेकर अमेरिका गए थे तो वहां इसके प्रदर्शन के दौरान उत्साह नहीं दिखा था। कुछ महीनों बाद जब वो आवारा के प्रदर्शन के लिए सोवियत संघ गए तो वहां जबरदस्त सफलता मिली। आवारा के प्रदर्शन के लिए सोवियत संघ जाने के पहले से ही श्री 420 फिल्म आकार लेने लगी थी। इस फिल्म का नाम भी दिलचस्प है। 420 भारतीय दंड संहिता की एक धारा थी जो धोखेबाजी के केस में लगाई जाती थी। उसके ही आधार पर इस फिल्म का नाम श्री 420 रखा गया था। 420 के आगे श्री जानबूझकर लगाया गया था ताकि विवाद ना हो।  

फिल्म आवारा की तरह इसके नायक का भी नाम राजू था। ये भी लगभग आवारा ही था लेकिन पढ़ा लिखा था। देश को स्वतंत्र हुए सात-आठ साल हुए थे। नौजवानों के अपने सपने थे। उन्हीं सपनों को केंद्र में रखते हुए राज कपूर ने इस फिल्म के नायक के चरित्र को गढ़ा था। आवारा में जिस तरह से मार्क्सवादी अंडरटोन की बात होती थी वैसे ही इस फिल्म में राष्ट्रवादी अंडरटोन देखा जा सकता है। इस फिल्म का गीत मेरा जूता है जापानी, सर पे लाल टोपी रूसी.. खूब लोकप्रिय हुआ था। हिन्दुस्तानी दिल को ढंग से इस गाने में रेखांकित किया गया था। इस फिल्म में राज कपूर और नर्गिस पर फिल्माया गया अमर गीत, प्यार हुआ इकरार हुआ है जिसमें एक पंक्ति है, हम न रहेंगे तुम न रहोगे फिर भी रहेंगी निशानियां। इस गाने के एक सीन में राज कपूर के तीन बच्चे रणधीर, रितु और ऋषि कपूर भी थे। बारिश में फिल्माए इस गीत के दौरान बच्चे रेन कोट पहनकर राज और नर्गिस के सामने से निकल जाते हैं। रितू कपर ने जब राज कपूर पर पुस्तक लिखी थी तो एक चर्चा में उन्होंने मुझे बताया था कि किस तरह से वो इस सीन के बाद अपने पिता का ख्याल रखने लगी थी। उनकी मां बताती थीं कि उनको अगर पिता से कुछ कहना होता था तो वो एक कागज पर लिख कर उनके तकिए पर रख देती थीं। रितू ने बताया था कि चूंकि उनके पिता को मोगरे की खुशबू पसंद थी इसलिए वो अपने संदेश के साथ उनके तकिए पर मोगरे के फूल भी रख देती थी। 

इस फिल्म का एक और गाना मुड़ मुड़ के ना देख, नादिरा पर फिल्माया गया था। ये गाना भी हिट रहा था। इसके पहले भी नादिरा ने कई कामेडी फिल्मों में काम किया था लेकिन इस गाने ने उनको लोकप्रियता की नई ऊंचाई दी। इस फिल्म के पहले राज कपूर और नर्गिस के बीच का प्रेम बहुत गाढ़ा हो चुका था । नर्गिस के भाई जब उनसे कहते कि राज कपूर उसकी स्टारडम का उपयोग अपनी फिल्मों को सफल बनाने में कर रहे हैं तो वो इसे नकार देती थी। उनके भाई जब उनसे कहते कि राज कपूर अपनी फिल्मों में नर्गिस की शोहरत के हिसाब से स्क्रीन टाइम नहीं देते हैं तो वो इस पर ध्यान नहीं देती थी क्योंकि तब वो राज के प्रेम में दीवानी थी। जब श्री 420 रिलीज हुई तो नर्गिस को लगा कि राज कपूर ने इस फिल्म में उनके साथ न्याय नहीं किया है। तबतक दोनों के प्रेम में उसके अंजाम तक पहुंचने को लेकर बहसें भी होने लगी थीं। श्री 420 के बाद नर्गिस, राज कपूर से दूर जाने लगी थी। श्री 420 के साथ राज कपूर के कई किस्से जुड़े हुए हैं लेकिन अगर फिल्म के लिहाज से देखें, उसके क्राफ्ट को देखें तो ये एक मास्टरपीस थी। ये अनायास नहीं है कि सत्यजीत राय श्री 420 को राज कपूर की सबसे अच्छी फिल्म मानते थे. कहते भी थे। 


Sunday, August 24, 2025

...वो साल 75 था


स्वाधीन भारत के इतिहास में वर्ष 1975 एक ऐसा वर्ष है जिस साल कई क्षेत्रों में अनेक तरह के बदलाव देखने को मिले। इंदिरा गांधी ने 1975 में देश की राजनीति और संविधान की आत्मा को बदलने का काम किया था। देश पर आपातकाल थोपा गया था। नागरिक अधिकारों पर पहरा लगा दिया था। राजनीति में ऐसा बदलाव देखने को मिला जो इसके पहले स्वाधीन भारत के इतिहास में लगभग नहीं के बराबर दिखता है। कई नेता जो आपातकाल के दौरान राज्य के मुख्यमंत्री थे, इंदिरा जी के साथ थे, समय भांपकर कांग्रेस को छोड़ दिया। जनता पार्टी के नेता हो गए। इंदिरा के साथ रहकर आपातकाल के भागी बने, फिर पाला बदलकर जयप्रकाश जी के साथ हो गए। 1977 में जब जनता सरकार बनी तो उसमें केंद्रीय मंत्री बन गए। आपातकाल नें राजनीति को इस कदर बदल दिया कि राजनीति सत्ता में बने रहने का खेल हो गया। स्वाधीनता के पूर्व जिस प्रकार की राजनीति होती थी और उसके कुछ अंश स्वाधीनता के बाद भी दिखते थे वो एक झटके में 1975 में समाप्त हो गए। स्वाधीनता के बाद पहली बार 1975 में देश ने अधिनायकवाद की आहट सुनी। संजय गांधी के रूप में सत्ता का एक ऐसा केंद्र बना जो बगैर किसी शक्ति के बेहद ताकतवर था।  वो जो चाहता था देश में वही होता था। संजय गांधी के साथ कई युवा नेता जुड़े जिन्होंने बाद में देश की राजनीति को अलग अलग तरह से प्रभावित किया। अधिनायकवाद के साथ साथ देश का व्यापक रूप से अवसरवादी राजनीति से भी परिचय हुआ। सत्ता के लालची नेताओं को भी देश ने देखा। प्रतिरोध की राजनीति ने दिरा जैसी ताकतवर नेता को हरा दिया लेकिन स्वार्थ और लालच के कारण ये प्रतिरोध ढह गया।  आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के दामन पर एक ऐसा स्थायी दाग है जो किसी भी तरह से धोया नहीं जा सकता है। 

राजनीति के अलावा कला के क्षेत्र में भी 1975 को याद किया जाएगा। 1975 में एक ऐसी फिल्म आई जिसने हिंदी सिनेमा के लैंडस्केप को बदलकर रख दिया। 1975 के पहले हिंदी फिल्मों में पारिवारिक संबंधों पर आधारित कहानियों की धूम रहती थी। समांतर रूप से रोमांटिक कहानियों पर बनी फिल्में जनता को पसंद आती थीं। 1973 में राज कपूर की फिल्म बाबी ने बाक्स आफिस के तमाम रिकार्ड ध्वस्त कर दिए थे। युवा प्रेम का रंग ऐसा बिखरा था कि बाबी में नायक और नायिकाओं के कपड़े पहनने का स्टाइल युवाओं के बीच बेहद लोकप्रिय हुआ था। एक खास तरह के डिजायन का नाम ही बाबी प्रिंट पड़ गया था। 1973 में ही अमिताभ बच्चन की फिल्म जंजीर आई थी। इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा के दर्शकों के सामने एक नए प्रकार के नायक की छवि प्रस्तुत की थी। जिसको बाद में एंग्री यंगमैन कहा गया। फिल्म जंजीर की सफलता की पृष्ठभूमि में दो वर्ष बाद शोले फिल्म रिलीज होती है। इसकी सफलता की कहानी तो बहुतों को मालूम है लेकिन इस फिल्म के साथ फिल्म समीक्षा या समीक्षकों के असफलता की कहानी की चर्चा कम होती है। इस स्तंभ में पहले भी इस बात की चर्चा हो चुकी है कि बिहार से प्रकाशित होनेवाले एक समाचारपत्र में शोले की समीक्षा प्रकाशित हुई थी, जिसका शीर्षक था- शोले जो भड़क ना सका। इसी तर्ज पर एक अन्य लोकप्रिय हिंदी पत्रिका ने फिल्म शोले को एक स्टार दिया था। समीक्षा भी बेहद मनोरंजक लिखी गई थी, कुछ पंक्तियां देखिए- इंटरवल तक फिल्म ठीकठाक है, कुछ हद तक मजेदार भी। फिर इस खिचड़ी फिल्म के निर्देशक और लेखकद्वय सलीम जावेद को लगता है मारपीट और खून खराबे का दौरा पड़ जाता है। लेकिन सचाई यह है कि मार-पीट वाले दृष्यों में न तो कोई जान है और न ही उनमें से किसी तरह की उत्तेजना हो पाती है। समीक्षक महोदय इसके बाद अभिनेताओं की खबर लेते हैं। वो अमिताभ बच्चन,धर्मेंद्र और संजीव कुमार के अभिनय पर लिखते हैं- धर्मेंद्र या अमिताभ न तो गुंडे लगते हैं, न ही भाड़े के टट्टू। धर्मेंद्र की नंगी छाती या उसके बाजुओं को देख कर फूल और पत्थर वाला वह किरदार याद नहीं आता। अब तो वह ‘फूलफूल’ होता हुआ सा हिंदी फिल्मों का एक्टर भर लगता है। संजीव तो कांफी रेंज का अभिनेता है लेकिन शोले में वह उमर शरीफ बनने की कशिश में बिल्कुल पिछड़ गया लगता है। उसके गले से आवाज इस तरह से निकलती है जैसे भूत बंगले वाली फिल्मों के चरित्र बोलते हैं। 

इमरजेंसी ने जिस तरह से राजनीति की दिशा बदली उसी तरह से शोले ने फिल्म और फिल्म निर्माण की दिशा भी बदल दी। मल्टीस्टारर फिल्मों अपेक्षाकृत अधिक संख्या में बनने लगीं। हिंदी सिनेमा के जो दर्शक प्रेम के मोहपाश में थे, जो राजेश खन्ना की अदायगी के दीवाने थे, जिनको प्यार भरे संवाद अच्छे लगते थे उनकी पसंद बदल गई। अब उनका नायक जमाने से टकरा सकता था। वो प्रेम भी करता था लेकिन विद्रोही नायक की उसकी छवि उसके प्रेमी रूप पर भारी पड़ती थी। राजनीति में भी 1975 के बाद नेताओं की छवि बदलने लगी। उनको देश की जनता अवसरवादी जमात के तौर पर देखने लगी। वादे करके मुकर जानेवाली प्रजाति के रूप में देखने लगी। नेताओं की आयडियोलाजी ते प्रति लगवा उसी तरह से घटने लगा जैसे हिंदी सिनेमा के दर्शकों का प्रेम कहानियों के प्रति लगाव कम होने लगा था। ये समाजशास्त्रीय शोध और अनुसंधान का विषय हो सकता है कि क्या आपातकाल में जिस तरह से सिस्टम या संविधान से ऊपर व्यक्ति की आकांक्षा को तरजीह दी गई उसका परिणाम ये हुआ कि जनता एक विद्रोही नायक को ढूंढने लगी। वो विद्रोही नायक जो सड़ते जा रहे सिस्टम से टक्कर ले सके, उसको ठीक कर सके। देश के राजनीतिक सिस्टम के प्रति जनता के मन में जो गुस्सा उमड़ रहा था वो गुस्सा तब ढंडा होता था जब वो पर्दे पर नायक को सिस्टम तोड़ता देखता था। इसी संतुष्टि के लिए दर्शक बार-बार सिनेमा हाल जाते थे। आम जनता के सिस्टम के विरुद्ध उठ खड़े होने जैसी कई फिल्में 1975 के बाद बनीं। उनमें से कई बेहद सफल रहीं। 1975 में ही अमिताभ बच्चन की एक और फिल्म रिलीज हुई थी दीवार। इसमें भी नायक सिस्टम में रहकर सिस्टम को चुनौती देता है। जब  फिल्म रिलीज हुई थी तब कुछ उत्साही समीक्षकों ने इसके नायक की तुलना इंदिरा गांधी के 1969 के फैसलों से की थी। तब कहा गया था कि इंदिरा गांधी ने 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। वो सिस्टम में रहते हुए सिस्टम को ठीक करने का प्रयत्न कर रही थीं। वही काम दीवार के नायक ने भी किया। ये पैरलल कुछ लोगों के गले नहीं उतर सकती है।

वैश्विक स्तर पर भी 1975 में कई घटनाएं हुईं। वियतनाम युद्ध समाप्त हुआ। कुछ देशों को स्वाधीनता मिली और वहां लोकतंत्र स्थापित हुआ। कह सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर भी 1975 में जो घटनाएं हुईं उसने भी भारत को प्रभावित किया। इस लिहाज से 1975 का स्वाधीन भारत में एक महत्वपूर्ण स्थान है। 


Saturday, August 16, 2025

सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न संबोधन


स्वाधीनता दिवस के अवसर पर लाल किला की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो भाषण दिया उसमें देशवासियों की भावनाओं का प्रकटीकरण और उनका अपना सोच था। अपनी समृद्ध संस्कृति और वौचारिकी का समावेश तो था ही। हम उन विचारों पर नजर डालेंगे लेकिन पहले प्रधानमंत्री के संबोधन के कुछ अंश देखते हैं। अपने भाषण का आरंभ प्रधानमंत्री ने संविधान निर्माताओं के स्मरण से किया। इसके बाद उन्होंने डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी को याद किया।  

अंश- हम आज डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी की 125वीं जयंती भी मना रहे हैं। डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत के संविधान के लिए बलिदान देनेवाले देश के पहले महापुरुष थे। संविधान के लिए बलिदान। अनुच्छेद 370 की दीवार को गिराकर एक देश एक संविधान के मंत्र को जब हमने साकार किया तो हमने डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सच्ची श्रद्धांजलि दी।

अंश- आज मैं बहुत गर्व के साथ एक बात का जिक्र करना चाहता हूं। आज से 100 साल पहले एक संगठन का जन्म हुआ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। सौ साल की राष्ट्र की सेवा एक ही बहुत ही गौरवपूर्ण स्वर्णिम पृष्ठ है। व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण के इस संकल्प को लेकर के सौ साल तक मां भारती के कल्याण का लक्ष्य लेकर लाखों स्वंसेवकों ने मातृभूमि के कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित किया । सेवा, समर्पण, संगठन और अप्रतिम अनुशासन जिसकी पहचान रही है, ऐसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ है एक प्रकार से। सौ साल का उसका समर्पण का इतिहास है। आज लालकिले की प्राचीर से सौ साल की इस राष्ट्रसेवा की यात्रा में योगदान करनेवाले सभी स्वयंसेवकों का आदरपूर्वक स्मरण करता हूं। देश गर्व करता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इस सौ साल की भव्य समर्पित यात्रा को जो हमें प्रेरणा देता रहेगा।

अंश- जब युद्ध के मैदान में तकनीक का विस्तार हो रहा है, तकनीक हावी हो रही है, तब राष्ट्र की रक्षा के लिए, देश के नागरिकों की सुरक्षा के लिए हमने जो महारथ पाई है उसको और विस्तार करने की जरूरत है।... मैंने एक संकल्प लिया है, उसके लिए आपका आशीर्वाद चाहिए। समृद्धि कितनी भी हो अगर सुरक्षा के प्रति उदासीनता बरतते हैं तो समृद्धि भी किसी काम की नहीं रहती। मैं लाल किले की प्राचीर से कह रहा हूं कि आनेवाले 10 साल में 2035 तक राष्ट्र के सभी महत्वपूर्ण स्थलों, जिनमें सामरिक के साथ साथ सिविलियन क्षेत्र भी शामिल है, अस्पताल हो, रेलवे हो,आस्था के केंद्र हो, को तकनीक के नए प्लेटफार्म द्वारा पूरी तरह सुरक्षा का कवच दिया जाएगा। इस सुरक्षा कवच का लगातार विस्तार होता जाए, देश का हर नागरिक सुरक्षित महसूस करे। किसी भी तरह का टेक्नोलाजी हम पर वार करने आ जाए हमारी तकनीक उससे बेहतर सिद्ध हो। इसलिए आनेवाले दस साल 2035 तक मैं राष्ट्रीय सुरक्षा कवच का विस्तार करना चाहता हूं।... भगवान श्रीकृष्ण से प्रेरणा पाकर हमने श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र की राह को चुना है। आपमें से बहुत लोगों को याद होगा कि जब महाभारत की लड़ाई चल रही थी तो श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से सूर्य के प्रकाश को रोक दिया था। दिन में ही अंधेरा कर दिया था। सूर्य प्रकाश को जब रोक दिया था तब अर्जुन ने जयद्रथ का वध की प्रतिज्ञा पूरी की थी। ये सुदर्शन चक्र की रणनीति का परिणाम था। अब देश सुदर्शन चक्र मिशन लांच करेगा। ये सुदर्शन चक्र मिशन मिशन दुश्मनों के हमले को न्यीट्रलाइज तो करेगा ही पर कई गुणा अधिक शक्ति से दुश्मन को हिट भी करेगा। 

अगर हम उपरोक्त तीन अंशों को देखें तो प्रधानमंत्री के भाषण में वैचारिकी का एक साझा सूत्र दिखाई देता है। जिस विचार को लेकर वो चल रहे हैं या जिस विचार में वो दीक्षित हुए हैं उसपर ही कायम हैं। सबसे पहले उन्होंने अपने संगठन के वैचारिक योद्धा डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान को याद किया। उनके कश्मीर के भारत के साथ पूर्ण एकीकरण के स्वप्न को पूरा करने की बात की। प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से देश का बताया कि किस तरह से श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संविधान को भारत भूमि पर पूरी तरह से लागू करवाने में सर्वोच्च बलिदान दिया। इसके बाद वो अन्य बातों पर गए लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चर्चा करके एक बार फिर से उन्होंने अपनी वैचारिकी को देश के सामने रखा। पूरी दुनिया को पता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रचारक रहे हैं। संघ के वैचारिक पथ पर चलते हुए ही वो राजनीति में आए और राष्ट्र सर्वप्रथम के सिद्धांत को अपनाया। यह अनायस नहीं था कि लाल किले पर जो सज्जा की गई थी उसमें एक फ्लावर वाल पर लिखा था – राष्ट्र प्रथम। पिछले दिनों संघ और प्रधानमंत्री के संबंधों को लेकर दिल्ली में खूब चर्चा रही। लोग तरह तरह के कयास लगाने में जुटे हुए हैं कि संघ और प्रधानमंत्री मोदी के रिश्ते समान्य नहीं हैं। ऐसा करनेवाले ना तो संघ को जानते हैं और ना ही संघ के स्वयंसेवकों को। राष्ट्रीय स्वययंसेवक संघ और उनसे जुड़े व्यक्ति का आकलन उस प्रविधि से नहीं किया जा सकता है जिससे कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दलों के नेता और उनके कार्यकर्ताओं के संबंधों का आकलन किया जाता रहा है। 

तीसरे अंश में प्रधानमंत्री ने सुरक्षा को लेकर जिस तरह से महाभारत, श्रीकृष्ण और उनके सुदर्शन चक्र को देश के सामने रखा उससे एक बार फिर सिद्ध होता है कि प्रधानमंत्री की भारत की समृद्ध संस्कृति में कितना गहरा विश्वास है। पहलगाम के आतंकियों को मार गिराने के लिए सुरक्षा बलों ने आपरेशन महादेव चलाया था। इस नाम को लेकर भी विपक्षी दलों के कुछ नेताओं ने नाक-भौं सिकोड़ी थी। उसको भी धर्म से जोड़कर देखा गया था। एक बार फिर प्रधानमंत्री ने पूरे देश को बताया कि सुरक्षा कवच देने के मिशन का नाम भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र के नाम पर होगा। भारतीय संस्कृति से जुड़े इस नाम को लेकर विपक्षी दलों की क्या प्रतिक्रिया होगी ये देखना होगा।सुरक्षा कवच में आस्था के केंद्रों को शामिल करके प्रधानमंत्री ने भारतीयों के मन को छूने का प्रयास किया है। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री ने घुसपैठियों और डेमोग्राफी बदलने की समस्या पर जो बातें रखी उससे ये संकेत निकलता है कि ये सिर्फ अवैध तरीके से देश में घुसने का मसला नहीं है बल्कि ये सांस्कृतिक हमला है। डेमोग्राफी बदलने से भारतीय संस्कृति प्रभावित हो रही है। जिसपर देशवासियों को विचार करना चाहिए। इस सांस्कृतिक हमले या संकट को सिर्फ भारत ही नहीं झेल रहा है बल्कि फ्रांस, इंगलैंड, जर्मनी जैसे कई देश डेमोग्राफी के बदलने से अपनी संस्कृति के बदल जाने का खतरा महसूस कर रहे हैं। इन देशों में भी घुसपैठ की समस्या को लेकर सरकार और वहां के मूल निवासी अपनी चिंता प्रकट करते रहते हैं। प्रकटीकरण का तरीका अलग अलग हो सकता है। हम प्रधानमंत्री के भाषण का विश्लेषण करें तो लगता है कि ये एक ऐसे स्टेट्समैन का भाषण है जो विचार समृद्ध तो है ही अपनी संस्कृति के प्रति समर्पित भी है। 

Saturday, August 9, 2025

सनातन मूल्यों में प्रेमचंद की आस्था


परिचित ने यूट्यूब का वीडियो लिंक भेजा। वीडियो के आरंभ में एक पोस्टर लगा था। उसपर लिखा था क्या कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद हिंदुत्ववादी थे? कौन उनकी विरासत को हड़पना चाहता है? यूं तो यूट्यूब के वीडियोज को गंभीरता से नहीं लेता लेकिन पोस्टर के प्रश्नों को देखकर जिज्ञासा हुई। देखा तो एक स्वनामधन्य आलोचक से बातचीत थी। सुनने के बाद स्पष्ट हुआ कि एक विशेष उद्देश्य से वीडियो बनाया गया है। इस बातचीत में कई तथ्यात्मक गलतियां और झूठ पकड़ में आईं। स्वयंभू आलोचक ने कई बार प्रेमचंद के एक लेख क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं? को उद्धृत करते हुए राष्ट्रवादियों को कठघरे में खड़ा करने का यत्न किया। इस लेख के आधार पर ये साबित करने का प्रयास किया कि प्रेमचंद ने राष्ट्रवादियों को भला बुरा कहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार प्रेमचंद ने ये लेख 1934 के आरंभ में लिखा था। उनका ये लेख स्वतंत्र रूप से नहीं लिखा गया था बल्कि भारत पत्रिका में ज्योति प्रसाद निर्मल के लिखे गए लेख की प्रतिक्रिया में था। यह ठीक है कि उस लेख में प्रेमचंद ने जाति व्यवस्था की आलोचना की है और एक जातिमुक्त समाज की बात की है। प्रेमचंद ने उस लेख में ज्योति प्रसाद निर्मल को केंद्र में रखकर उनको ब्राह्मणवादी बताया। ये भी माना कि उनकी कहानियों को कई ब्राह्मण संपादकों ने प्रकाशित किया, जिनमें वर्तमान के संपादक रमाशंकर अवस्थी, सरस्वती के संपादक देवीदत्त शुक्ल, माधुरी के संपादक रूपनारायण पांडे , विशाल भारत के संपादक बनारसीदास चतुर्वेदी आदि प्रमुख हैं। प्रेमचंद अपने इसी लेख में हिंदू समाज को पाखंड और अंधविश्वास से मुक्त करने की बात प्रमुखता से करते हैं लेकिन कहीं भी राष्ट्रवादियों की आलोचना नहीं करते। वो उन राष्ट्रवादियों की आलोचना करते हैं जो पाखंड और कर्मकांड को प्रश्रय देते हैं। पर इसी लेख में वो कहते हैं कि मुरौवत में भी पड़कर आदमी अपने धार्मिक विश्वास को नहीं छोड़ सकता। कुल मिलाकर जिस लेख को आलोचक माने जानेवाले व्यक्ति अपने तर्कों का आधार बना रहे हैं उसका संदर्भ ही अलग है। खैर... वामपंथी आलोचकों की यही प्रविधि रही है, संदर्भ से काटकर तथ्यों को प्रस्तुत करने की। 

आलोचक होने के दंभ में इस बातचीत में एक सफेद झूठ परोसा गया। एक किस्सा सुनाया गया जो कल्याण पत्रिका और हनुमानप्रसाद पोद्दार से संबंधित है। कहा गया कि ‘प्रेमचंद धर्म को लेकर इतने सचेत थे कि जब कल्याण पत्रिका के संपादक-प्रकाशक हनुमानप्रसाद पोद्दार ने प्रेमचंद से कहा कि हमारी पत्रिका में सारे बड़े साहित्यकार लिख रहे हैं, सारे बड़े लेखक लिख रहे हैं, आपने अभी तक कोई लेख नहीं दिया। तो प्रेमचंद ने कहा कि आपकी तो धार्मिक पत्रिका है, इस धार्मिक पत्रिका में मेरा की लिखने का स्थान नहीं बनता। समझ में नहीं आता कि मैं किस विषय पर लिखूं क्योंकि ये हिंदू धर्म पर केंद्रित पत्रिका है। अब जरा खुद को विद्वान मानने और मनवाने की जिद करनेवाले इस व्यक्ति की सुनाई कहानी की पड़ताल करते हैं। वो किस्से के मार्फत बताते हैं कि प्रेमचंद ने हनुमानप्रसाद पोद्दार को धार्मिक पत्रिका कल्याण में लिखने से मना कर दिया था। कथित आलोचक जी से अगर कोई प्रमाण मांगा जाएगा तो वो कागज मांगने की बात करके उपहास उड़ा सकते हैं। हम ही प्रमाण देते हैं। 1931 में प्रकाशित कल्याण के कृष्णांक में प्रेमचंद का एक लेख प्रकाशित है। इस लेख का शीर्षक है श्रीकृष्ण और भावी जगत। कल्याण का ये विशेषांक कालांतर में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। अब भी बाजार में उपलब्ध है। इस लेख में प्रेमचंद ने भगवान श्रीकृष्ण को कर्मयोग के जन्मदाता के रूप में संसार का उद्धारकर्ता माना है। वो लिखते हैं कि यूरोप ने अपनी परंपरागत संस्कृति के अनुसार स्वार्थ को मिटाने का प्रयत्न किया और कर रहा है। समष्टिवाद और बोल्शेविज्म उसके वह नये अविष्कार हैं जिनसे वो संसार का युगांतर कर देना चाहता है। उनके समाज का आदर्श इसके आगे और जा भी न सकता था, किंतु अध्यात्मवादी भारत इससे संतुष्ट होनेवाला नहीं है। ये वो प्रमाण है जिससे स्वयंभू आलोचक का सफेद झूठ सामने आता है। आश्चर्य तब होता है जब सार्वजनिक रूप से झूठ का प्रचार करते हैं और प्रेमचंद को अधार्मिक भी बताते हैं। 

प्रेमचंद को लेकर इस बातचीत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघियों (इस शब्द को बार-बार कहा गया) पर प्रश्नकर्ता और उत्तरदाता दोनों आरोप लगाता हैं। इन आरोपों में कोई तथ्य नहीं सिर्फ अज्ञान और प्रेमचंद का कुपाठ झलकता है। ऐसा प्रतीत होता कि बगैर किसी तैयारी के ये साक्षात्कार किया गया। ऐसे व्यक्ति को मंच दिया गया जो झूठ का प्रचारक बन सके। प्रेमचंद ने ना सिर्फ कल्याण के अपने लेख बल्कि एक अन्य लेख स्वराज्य के फायदे में भी लिखा ‘अंग्रेज जाति का प्रधान गुण पराक्रम है, फ्रांसिसियों का प्रधान गुण स्वतंत्र प्रेम है, उसी भांति भारत का प्रधान गुण धर्मपरायणता है। हमारे जीवन का मुख्य आधार धर्म था। हमारा जीवन धर्म के सूत्र में बंधा हुआ था। लेकिन पश्चिमी विचारों के असर से हमारे धर्म का सर्वनाश हुआ जाता है, हमारा वर्तमान धर्म मिटता जाता है, हम अपनी विद्या को भूलते जाते हैं।‘ हिंदू-मुसलमान संबंध पर बात करते हुए प्रेमचंद को इस तरह से पेश किया गया जैसे कि उनको मुसलमानों से बहुत प्रेम था।  इसको भी परखते हैं। अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम को 1 सितंबर 1915 को प्रेमचंद एक पत्र लिखते हैं जिसका एक अंश, ‘अब हिंदी लिखने की मश्क (अभ्यास) भी कर रहा हूं। उर्दू में अब गुजर नहीं। यह मालूम होता है कि बालमुकुंद गुप्त मरहूम की तरह मैं भी हिंदी लिखने में जिंदगी सर्फ (खर्च) कर दूंगा। उर्दू नवीसी में किस हिंदू को फैज (लाभ) हुआ है, जो मुझे हो जाएगा।‘  इससे प्रेमचंद के आहत मन का पता चलता है। प्रेमचंद के साथ बेईमानियों की एक लंबी सूची है। हद तो तब हो गई जब उनके कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ का नाम ही बदल दिया गया। पंडित जनार्दन झा ‘द्विज’ ने अपनी ‘पुस्तक प्रेमचंद की उपन्यास कला’ में स्पष्ट किया है कि प्रेमचंद ने पहले अपने उपन्यास का नाम गौ-दान रखा था। द्विज जी के कहने पर उसका नाम गो-दान किया गया। गो-दान 1936 में सरस्वती प्रेस, बनारस और हिंदी ग्रंथ-रत्नाकर कार्यालय, बंबई (अब मुंबई) से प्रकाशित हुआ था। गो-दान कब और कैसे गोदान बन गया उसपर चर्चा होनी चाहिए।। बेईमान आलोचकों ने सोचा कि क्यों ना उनके उपन्यास का नाम ही बदल दिया जाए ताकि मनमाफिक विमर्श चलाने में सुविधा हो। ऐसा ही हुआ। अगर गौ-दान या गो-दान के आलोक में इस उपन्यास को देखेंगे तो उसकी पूरी व्याख्या ही बदल जाएगी। दरअसल प्रेमचंद पूरे तौर पर एक धार्मिक हिंदू लेखक थे जो अपने धर्म में व्याप्त कुरीतियों पर निरंतर अपनी लेखनी के माध्यम से वार करते थे। इस धार पर उनको ना तो कम्युनिस्ट बनाया जा सकता है और ना ही नास्तिक। हां, झूठे किस्से सुनाकर भ्रम जरूर फैला सकते हैं। पीढ़ियों तक प्रेमचंद के पाठकों को बरगला सकते हैं। प्रेमचंद की धार्मिक आस्था और धर्मपरायणता को संदिग्ध कर उनको कम्युनिस्ट बताने का झूठा उपक्रम चला सकते हैं। पर सच अधिक देर तक दबता नहीं है।