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Saturday, July 12, 2025

और फिल्मिस्तान बिक गया...


हिंदी फिल्मों में जब स्टूडियो युग का आरंभ हुआ तो न्यू थिएटर्स और प्रभात स्टूडियो ने कई फिल्में बनाई। अनेक फिल्मी प्रतिभाओं को तराश कर दर्शकों के सामने पेश किया। यह कालखंड 1935 से 1955 तक का रहा। एक और स्टूडियो की स्थापना हुई थी जिसका नाम था बंबई टाकीज। हिमांशु राय और देविका रानी ने मिलकर इसे स्थापित किया था। विदेश से वापस भारत लौटे हिमांशु राय और देविका रानी ने बंबई टाकीज को प्रोफेशनल तरीके से स्थापित ही नहीं किया उसी ढंग से चलाया भी। स्टूडियो की स्थापना के लिए हिमांशु राय ने फरवरी 1934 में अपनी कंपनी के 100 रुपए के शेयर जारी किए थे। 25 हजार शेयर बेचकर जुटाई पूंजी से बंबई टाकीज की स्थापना की गई। कंपनी को चलाने के लिए एक बोर्ड का गठन हुआ। इस स्टूडियो से बनी पहली कुछ फिल्में असफल हुईं। बंबई टाकीज ने धीरे-धीरे भारतीय दर्शकों की पसंद के हिसाब से फिल्में बनानी आरंभ की और सफलता मिलने लगी। हिमांशु राय ने देशभर से कई युवाओं को फिल्म से जोड़ा। इन युवाओं ने कालांतर में हिंदी सिनेमा को अपनी प्रतिभा और मेहनत से समृद्ध किया। इनमें शशधर मुखर्जी, सेवक वाचा, आर के परीजा, अशोक कुमार आदि प्रमुख हैं। अशोक कुमार को तो हिमांशु राय ने लैब सहायक से सुपरस्टार बना दिया। वो फिल्मों में अभिनेता का काम नहीं करना चाहते थे लेकिन राय के दबाव में अभिनेता बने। ये बेहद ही दिलचस्प किस्सा है जिसके बारे में फिर कभी चर्चा होगी। 

स्टूडियो की स्थापना के करीब 6 वर्ष बाद हिमांशु राय के असामयिक निधन ने बंबई टाकीज की नींव हिला दी थी। उसके बाद इस कंपनी के शेयरधारकों और हिमांशु राय के प्रिय कलाकारों में से कुछ ने मिलकर देविका रानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इस मोर्चे का नेतृत्व शशधर मुखर्जी कर रहे थे। शशधर मुखर्जी हिमांशु राय के जीवनकाल में ही बंबई टाकीज में महत्वपूर्ण हो गए थे। कुछ फिल्म इतिहासकारों का मानना है कि देविका रानी के व्यवहार और उनके अपने पसंदीदा लोगों को बढ़ाने के निर्णयों से शशधर मुखर्जी आहत थे। हिमांशु राय के निधन के बाद बंबई टाकीज में जो घटा वो एक फिल्मी कहानी है। शशधर मुखर्जी चाहते थे कि बंबई टाकीज उनकी मर्जी से चले और देविका रानी उनके हिसाब से निर्णय लें। ये देविका रानी को स्वेकार्य नहीं था। वो अपनी मर्जी से निर्णय ले रही थीं। अमिय मुखर्जी उनको सहयोग कर रहे थे। उस दौर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से संकेत मिलता है बंबई टाकिज में कुछ लोगों को देविका रानी के महिला होने के कारण उनको संस्था प्रमुख मानने और उनसे निर्देश लेने में दिक्कत होती थी। चूंकि बंबई टाकीज में होनेवाले प्रमुख निर्णयों को कंपनी का बोर्ड तय करता था। इस कारण जब देविका रानी ने अपने निर्णयों को लागू करना आरंभ किया तो कारपोरेट दांव पेच भी चले गए। शेयरधारकों का बहुमत जुटाने के लिए भी देविका रानी ने भी प्रयास किया। इस काम में उनको सहयोग मिला केशवलाल का। देविका प्रतिदिन सुबह आठ बजे कार्यलय पहुंच जातीं और देर रात तक वहीं रहती। शशधर मुखर्जी समेत अन्य लोगों के निर्णयों की समीक्षा होने लगी थी। देविका रानी के दखल के बाद शशधर मुखर्जी आदि असहज होने लगे थे। शशधर मुखर्जी प्रोडक्शन का पूरा काम संभालते थे लेकिन देविका रानी ने इस विभाग में भी दखल देना आरंभ कर दिया था। फिल्मों की स्क्रिप्ट से लेकर उसके प्रोडक्शन तक हर विभाग पर वो नजर ही नहीं रखती बल्कि अपने निर्णयों को लागू भी करवाने लगीं। 

उधर बंबई टाकीज के शेयरों को लेकर मामला कोर्ट कचहरी तक गया। बोर्ड में देविका रानी का बहुमत होने के कारण उनको अपने निर्णयों को लागू करवाने में परेशानी नहीं हुई। बंबई टाकीज के इतिहास में जून 1942 में हुई बोर्ड मीटिंग बहुत महत्वपूर्ण है। इस दिन बोर्ड ने ये फैसला लिया कि बंबई टाकीज में देविका रानी प्रोडक्शन कंट्रोलर होंगी और शशधर मुखर्जी प्रोड्यूसर होंगे। देविका रानी को ये अधिकार दे दिया गया कि वो बंबई टाकीज की हर फिल्म में उनका दखल होगा। इसके पहले ये व्यवस्था थी कि एक फिल्म शशधर मुखर्जी प्रोड्यूस करेंगे और उसके बाद देविका रानी फिर शशधर। बोर्ड के निर्णय के बाद देविका रानी बंबई टाकीज में उस पद पर पहुंच जगई जहां हिमांशु राय होते थे। इन दो वर्षों में बंबई टाकीज में स्पष्ट रूप से दो गुट बन गए थे। एक गुट में देविका रानी और अमिय मुखर्जी थे और दूसरे में शशधर मुखर्जी, अशोक कुमार, राय बहादुर चुन्नी लाल, ज्ञान मुखर्जी आदि प्रमुख थे। बंबई टाकीज की इसी गुटबाजी और कारपोरेट वार ने फिल्मिस्तान की नींव डाली। शशधर मुखर्जी, अशोक कुमार, राय बहादुर चुन्नीलाल और ज्ञान मुखर्जी ने बंबई टाकीज से इस्तीफा दे दिया जिसे देविका रानी से फौरन स्वीकार कर लिया। फिल्मिस्तान की स्थापना बंबई (अब मुंबई) के गोरेगांव में स्थापित की गई। अशोक कुमार ने बंबई टाकीज छोड़ा था तब उनका मासिक वेतन एक हजार रु था। ये वो दौर था जब फिल्म अभिनेता और अन्य मासिक वेतन पर स्टूडियो में नौकरी करते थे। फिल्मिस्तान ने अशोक कुमार को रु 2000 प्रतिमाह देना तय किया था।  

फिल्मिस्तान आरंभ हुआ तो कंपनी ने देविका रानी को भी इसके उद्घाटन समारोह का आमंत्रण भेजा। देविका रानी इस समारोह में नहीं गई लेकिन उन्होंने जो पत्र लिखा उसमें खुद को मिसेज हिमांशु राय बताते हुए अपनी व्यस्तता का हवाला दिया था। फिल्मिस्तान ने जो पहली फिल्म बनाई उसका नाम था चल चल रे नौजवान। उसके बाद भी फिल्मिस्तान ने कई फिल्में बनाई। थोड़े दिनों तक तो उत्साह रहा लेकिन फिर इसके संस्थापकों को एहसास होने लगा था कि फिल्म कंपनी चलाना आसान नहीं। इसके लिए काफी मेहनत की आवश्यकता होती है। संसाधान जुटाना एक बड़ी समस्या थी। पांच वर्ष होते होते फिल्मिस्तान के संस्थापकों के बीच मतभेद उभरने लगे थे। उधर बंबई टाकीज भी देविका रानी के छोड़ने के बाद सही नहीं चल रहा था। अशोक कुमार ने बंबई टाकीज में निवेश किया और उसका आंशिक मालिकाना हक ले लिया। पांच वर्षों बाद जब अशोक कुमार ने बंबई टाकीज में कदम रखा तो हिमांशु राय की अर्ध प्रतिमा (बस्ट) को देखकर भावुक हो गए थे और उसको गले लगा लिया था। कहना न होगा कि फिल्मिस्तान की स्थापना फिल्म जगत के पहले कारपोर्ट वार के परिणामस्वरूप हुई थी। मुंबई के गोरेगांव में करीब 5 एकड़ में फैले इस स्टूडियो में कई अच्छी फिल्में भी बनीं जिनमें सरगम, मजदूर, शिकारी दो भाई आदि प्रमुख हैं। बाद में फिल्मिस्तान का मालिकाना हक बदला। फिल्में बनती रहीं। हाल के कुछ वर्षों में फिल्मिस्तान में गाने या टीवी सीरियल आदि शूट होने लगे थे। हाल में फिल्मिस्तान के मालिकों ने इसको बेच दिया। खबरों के मुताबिक इसकी जगह अब अपार्टमेंट बनाए जाएंगे। आरे के स्टूडियो के बाद फिल्मिस्तान का बिकना भारतीय सिनेमा के बदलते स्वरूप का संकेत है। लेकिन जब भी हिंदी फिल्मों के इतिहास पर बात होगी तो देविका रानी की बात होगी और देविका रानी के साथ साथ फिल्मितान का जिक्र भी होगा। 

Thursday, July 10, 2025

व्याकुल मन और संवेदना की धुन


किसे पता था कि अपराध कथाओं पर सफल फिल्म बनाने वाला एक निर्देशक दर्द और संवेदना के तार को ऐसे छुएगा कि उसकी फिल्में क्लासिक और कल्ट फिल्म बन जाएंगी। मात्र 39 वर्ष की आयु मिली लेकिन उस लघु अवधि में हिंदी सिनेमा को अपनी कला कौशल से झंकृत कर देने वाले कलाकार का नाम है गुरुदत्त। गुरुदत्त की अपराध कथाओं पर आधारित सफल फिल्मों, बाजी, जाल, बाज और सैलाब, की चर्चा कम होती है। गुरुदत्त को हिंदी सिनेमा में इन्हीं फिल्मों से पहचान मिली थी। गुरुदत्त ने ज्ञान मुखर्जी के सहायक के तौर पर कार्य करना आरंभ किया था। माना जाता है कि हिंदी फिल्मों में ज्ञान मुखर्जी अपराध कथाओं पर आधारित फिल्मों के पहले कुछ निर्देशकों में से एक थे। अब उन कारणों की चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है कि एक अपराध कथाओं पर फिल्म निर्देशित करनेवाला सिद्धहस्त निर्देशक कैसे इतनी संवेदनशील फिल्मों को कैसे साध सके। गुरुदत्त के शताब्दी वर्ष में जब हम उनकी कलात्मकता पर बात करते हैं तो उनके साथ के लोगों की बात करनी चाहिए जिनके साथ ने गुरुदत्त को महान बनाया। कलाकार गुरुदत्त की शख्सियत तीन व्यक्तियों के बिना पूरी नहीं होती है। यै हैं गीता दत्त, वहीदा रहमान और अबरार अल्वी। जब गुरुदत्त अपनी पहली फिल्म बाजी निर्देशित कर रहे थे तो वो गीता राय को दिल दे बैठे। गुरुदत्त शादी के लिए जल्दी कर रहे थे। दोनों में महीनों तक रोमांस चला और शादी हुई। गीता दत्त के बाद उनकी जिंदगी में वहीदा रहमान का प्रवेश होता है । यहीं से आरंभ होता है प्यार से असफल होकर स्वयं से दूर भागने की उनकी प्रवृत्ति। 

जब प्यासा फिल्म बन रही थी तो इस बात की चर्चा थी कि इसकी कहानी गुरुदत्त की निजी जिंदगी पर आधारित है। पर ये कहानी सिर्फ गुरुदत्त की कहानी नहीं है। इसमें लेखक अबरार अल्वी की जिंदगी की घटनाएं भी शामिल हैं। ये भी कहा जाता है कि इस फिल्म की कहानी गुरुदत्त ने लिखी थी। पर अबरार अल्वी ने बताया था कि गुरुदत्त ने सिर्फ छह पन्ने की कहानी लिखी थी और उसमें नायिका सिर्फ मीना थी। गुलाबो का चरित्र तो अबरार अल्वी ने जोड़ा। दरअसल जब अबरार मुंबई आए थे तो वो एक वेश्या के पास जाते थे। उस वेश्या के साथ के उनके अनुभव और गुरुदत्त की प्रेमिका रही मीना के किस्से को जोड़कर प्यासा की कहानी बुनी गई थी। गुरुदत्त की एक और अदा थी कि वो किसी चीज से बहुत जल्दी संतुष्ट नहीं होते थे। कई बार तो उन्होंने कई रील शूट होने के बाद फिल्म को रद करके नए सिरे से शूट किया। प्यासा फिल्म के कई रील शूट हो चुके थे। गुरुदत्त को अपना रोल पसंद नहीं आ रहा था। उन्होंने सोचा कि इस भूमिका के लिए दिलीप कुमार बेहतर अभिनेता हैं। वो दिलीप साहब के पास पहुंच गए। दिलीप कुमार ने कई शर्तें रखीं। गुरुदत्त ने सभी मान लीं। दिलीप कुमार ने डेट्स दीं लेकिन तय समय पर स्टूडियो के सेट पर नहीं पहुंचे। घंटों की प्रतीक्षा के बाद गुरुदत्त ने फिर से मेकअप किया और फिल्म पूरी की। फिल्म के प्रीमियर पर दिलीप कुमार, निर्देशक के आसिफ और बी आर चोपड़ा के साथ पहुंचे थे। फिल्म समाप्त होने के बाद दिलीप कुमार ने बी आर चोपड़ा से कहा, थैंक गाड, मैं बाल-बाल बच गया, इस फिल्म की भूमिका करता तो खूब हंसी उड़ती। ये अलग बात है कि बाद के दिनों में दिलीप कुमार को प्यासा में काम नहीं करने का अफसोस रहा। प्यासा लोगों को खूब पसंद आई थी और फिल्म जबरदस्त हिट रही। 

प्यासा के बाद गुरुदत्त ने फिल्म कागज के फूल बनाई। इसमें भी वो अशोक कुमार को लेना चाहते थे। फिल्म बाजी के समय से ही गुरुदत्त की इच्छा थी कि वो अशोक कुमार को डायरेक्ट करें लेकिन कई तरह की समस्याओं के कारण अशोक कुमार फिल्म नहीं कर पाए। गुरुदत्त ने चेतन आनंद से संपर्क किया। उन्होंने इतने पैसे मांग लिए कि गुरुदत्त को फिर से खुद ही मेकअप करवाकर फिल्म करनी पड़ी। फिल्म को दर्शकों ने नकार दिया। इस फिल्म में भी गुरुदत्त ने नायक की पीड़ा को उभारने का प्रयास किया लेकिन वो दर्शकों के गले नहीं उतरी। प्यासा का नायक बेहद गरीब था उसके दुख को दर्शकों ने स्वीकार कर लिया। कागज के फूल के नायक की अमीरी उसके दुख से दर्शकों को जोड़ नहीं पाई। एक अमीर आदमी का पारिवारिक दुख दर्शकों के गले नहीं उतर सका। फिल्म बेहद कलात्मक बनी पर भावनात्मक संघर्ष का चित्रण कमजोर माना गया। इस फिल्म की असफलता ने गुरुदत्त को अंदर से तोड़ दिया। तबतक उनकी पारिवारिक जिंदगी संघर्ष के रपटीली पथ पर आ चुकी थी। शराब की आदत बढ़ने लगी थी। वहीदा रहमान के साथ उनके संबंधों की चर्चा चरम पर थी। इस दौर में ही उन्होंने फिल्म चौदहवीं का चांद बनाने की सोची। फिल्म बन गई। इसके प्रदर्शन में बाधा खड़ी हो गई। ये फिल्म मुस्लिम समाज पर बनी है। देश का विभाजन हो चुका था। फिल्म डिस्ट्रीव्यूटर्स का मानना था कि विभाजन के बाद मुस्लिम समाज का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान चला गया था। मुस्लिम समाज की कहानियों का बाजार सिकुड़ गया था। दरवाजा और चांदनी चौक जैसी फिल्में फ्लाप हो गई थीं। किसी तरह गुरुदत्त ने डिस्ट्रीव्यूटर्स को तैयार किया। फिल्म जबरदस्त हिट रही। 

इसके बाद गुरुदत्त ने साहब बीवी और गुलाम बनाई। मीना कुमारी से छोटी बहू का ऐसा अभिनय करवाया कि उनकी भूमिका अमर हो गई। इस फिल्म के दौरान भी अनेक बधाएं आईं। ऐसा प्रतीत होता है कि जिंदगी और कारोबार की बाधाएं और उससे उपजे दर्द से गुरुदत्त को बेहतर करने की उर्जा मिलती थी। वो व्याकुल मन से अपने दर्द को रूपहले पर्दे पर इस तरह से पेश करते थे कि दर्शक उसके मोहपाश में बंधता चला जाता था। कागज के फूल भले ही फ्लाप रही हो लेकिन आज उसकी कलात्मकता भारतीय फिल्म को गर्व का अवसर देती है। गुरुदत्त ने अपनी छोटी सी जिंदगी में हिंदी सिनेमा को वो ऊंचाई दी जहां पहुंचना किसी भी निर्देशक के लिए एक सपने जैसा है। फिल्मकार गुरुदत्त में बेहतर करने की जो ललक थी वो उनको हमेशा व्याकुल कर देती थी। व्याकुलता और दर्द ने असमय गुरुदत्त की जीवन लीला समाप्त कर दी। 

Saturday, July 5, 2025

फिल्म प्रचार का औजार सेंसर बोर्ड !


तीन वर्ष बाद आमिर खान की फिल्म सितारे जमीं पर रिलीज होनेवाली थी। लंबे अंतराल के बाद आमिर खान की फिल्म रूपहले पर्दे पर आ रही थी। इसको लेकर दर्शकों में जिस तरह का उत्साह होना चाहिए था वो दिख नहीं रहा था। तीन वर्ष पहले आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा आई थी जो बुरी तरह फ्लाप रही थी। दर्शकों ने उसको नकार दिया था। जब सितारे जमीं पर का ट्रेलर लांच हुआ था तो इस फिल्म की थोड़ी चर्चा हुई थी। लेकिन जब इसके गाने रिलीज हुए तो वो दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाए। फिल्म मार्केटिंग की भाषा में कहें तो इस फिल्म को लेकर बज नहीं क्रिएट हो सका। यहां तक तो बहुत सामान्य बात थी। उसके बाद इस तरह के समाचार प्रकाशित होने लगे कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड, जिसको बोलचाल में सेंसर बोर्ड कहा जाता है, ने फिल्म में कट लगाने को कहा है, जिसके लिए आमिर तैयार नहीं हैं। विभिन्न माध्यमों में इस पर चर्चा होने लगी कि सेंसर बोर्ड आमिर खान की फिल्म को रोक रहा है। फिर ये बात सामने आई कि आमिर और फिल्म के निर्देशक सेंसर बोर्ड की समिति से मिलकर अपनी बात कहेंगे। इस तरह का समाचार भी सामने आया कि चूंकि सेंसर बोर्ड फिल्म को अटका रहा है इस कारण फिल्म की एडवांस बुकिंग आरंभ नहीं हो पा रही है। बताया जाता है कि ऐसा नियम है कि जबतक फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट नहीं मिल जाता है तब तक एडवांस बुकिंग आरंभ नहीं हो सकती है। ये सब जून के दूसरे सप्ताह में घटित हो रहा था। फिल्म के प्रदर्शन की तिथि 20 जून थी। यहां तक तो सब ठीक था लेकिन इसके बाद इसमें प्रधानमंत्री मोदी का नाम भी समाचार में आया। कहा गया कि सेंसर बोर्ड ने फिल्म निर्माताओं को आरंभ में प्रधानमंत्री की विकसित भारत को लेकर कही एक बात उद्धृत करने का आदेश दिया है। आमिर खान की फिल्म, सेंसर बोर्ड की तरफ से कट्स लगाने का आदेश और फिर प्रघानमंत्री मोदी का नाम। फिल्म को प्रचार मिलने लगा। वेबसाइट्स के अलावा समाचारपत्रों में भी इसको जगह मिल गई। जिस फिल्म को लेकर दर्शक लगभग उदासीन से थे उसको लेकर अचानक एक वातावरण बना। 

फिल्म को 17 जून को फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाण पत्र मिल गया। फिल्म समय पर रिलीज भी हो गई। आमिर खान तमाम छोटे बड़े मीडिया संस्थानों में घंटों इस फिल्म के प्रचार के लिए बैठे, इंटरव्यू दिया। परिणाम क्या रहा वो सबको पता है। फिल्म सफल नहीं हो पाई। यह फिल्म 2018 में स्पेनिश भाषा में रिलीज फिल्म चैंपियंस का रीमेक है। आमिर और जेनेलिया इसमें लीड रोल में हैं। इसके अलावा कुछ स्पेशल बच्चों ने भी अभिनय किया है। फिल्म के रिलीज होते ही या यों कहें कि सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट मिलते ही इसको लेकर हो रही चर्चा बंद हो गई। ये सिर्फ आमिर खान की फिल्म के साथ ही नहीं हुआ। इसके पहले अनंत महादेवन की फिल्म फुले आई थी जो ज्योतिराव फुले और सावित्री फुले की जिंदगी पर आधारित थी। इस फिल्म और सेंसर बोर्ड को लेकर भी तमाम तरह की खबरें आईं। इंटरनेट मीडिया पर सेंसर बोर्ड के विरोध में काफी कुछ लिखा गया। एक विशेष इकोसिस्टम के लोगों ने इसको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ जोड़कर भी देखा। समुदाय विशेष की अस्मिता से जोड़कर भी देखा गया। वर्तमान सरकार को भी इस विवाद में खींचने की कोशिश की गई। फिल्म के प्रदर्शन के बाद सब ठंडा पर गया। ऐसा क्यों होता है। इसको समझने की आवश्यकता है। दरअसल कुछ निर्माता अब सेंसर बोर्ड को अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिए इस्तेमाल करने लगे हैं। जिन फिल्मों को लेकर उसके मार्केटिंग गुरु दर्शकों के बीच उत्सुकता नहीं जगा पाते हैं वो इसको चर्चित करने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाने लगे हैं। कुछ वर्षों पूर्व जब दीपिका पादुकोण की फिल्म छपाक रिलीज होनेवाली थी तो उस फिल्म का पीआर करनेवालों ने दीपिका को सलाह दी थी कि वो दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों का समर्थन करें। दीपिका वहां पहुंची भी थीं। पर फिल्म फिर भी नहीं चल पाई थी। 

फिल्मकारों को मालूम होता है कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड किन परिस्थितियों में कट्स लगाने या दृश्यों को बदलने का आदेश देता है। दरअसल होता ये है कि जब फिल्मकार या फिल्म कंपनी सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करती है तो आवेदन के साथ फिल्म की अवधि, उसकी स्क्रिप्ट, फिल्म का नाम और उसकी भाषा का उल्लेख करना होता है। अगर आवेदन के समय फिल्म की अवधि तीन घंटे बताई गई है और जब फिल्म देखी जा रही है और वो तीन घंटे तीन मिनट की निकलती है तो बोर्ड ये कह सकता है कि फिल्म को तय सीमा में खत्म करें। फिर संबंधित से एक अंडरटेकिंग ली जाती है कि उसकी फिल्म थोड़ी लंबी हो गई है और अब उसकी अवधि तीन घंटे तीन मिनट ही मानी जाए। इसके अलावा अगर एक्जामिनिंग कमेटी को किसी संवाद पर संशय होता है तो वो फिल्म के मूल स्क्रिप्ट से उसका मिलान करती है। अगर वहां विचलन पाया जाता है तो उसको भी ठीक करने को कहा जाता है। जो भी कट्स लगाने के लिए बोर्ड कहता है वो फिल्मकार की सहमति के बाद ही संभव हो पाता है। अन्यथा उसको रिवाइजिंग कमेटी के पास जाने का अधिकार होता है। कई बार फिल्म की श्रेणी को लेकर भी फिल्मकार और सेंसर बोर्ड के बीच मतैक्य नहीं होता है तो मामला लंबा खिंच जाता है। पर इन दिनों एक नई प्रवृत्ति सामने आई है कि सेंसर बोर्ड के क्रियाकलापों को फिल्म के प्रचार के लिए उपयोग किया जाने लगा है। इंटरनेट मीडिया के युग में ये आसान भी हो गया है। 

कुछ फिल्मकार ऐसे होते हैं जो सेंसर बोर्ड की सलाह को सकारात्मक तरीके से लेते हैं। रोहित शेट्टी की एक फिल्म आई थी सिंघम अगेन। इसमें रामकथा को आधुनिक तरीके से दिखाया गया था। फिल्म सेंसर में अटकी क्योंकि राम और हनुमान के बीच का संवाद बेहद अनौपचारिक और हल्की फुल्की भाषा में था। राम और हनुमान का संबंध भी दोस्ताना दिखाया गया था। भक्त और भगवान का भाव अनुपस्थित था। इस फिल्म में गृहमंत्री को भी नकारात्मक तरीके से दिखाया गया था। विशेषज्ञों की समिति ने फिल्म देखी। फिल्मकार रोहित शेट्टी और अभिनेता अजय देवगन के साथ संवाद किया, उनको वस्तुस्थिति से अवगत करवाया। दोनों ने इस बात को समझा और अपेक्षित बदलाव करके फिल्म समय पर रिलीज हो गई। प्रश्न यही है कि जो निर्माता निर्देशक अपनी फिल्म के प्रमोशन से अपेक्षित परिणाम नहीं पाते हैं वो सेंसर बोर्ड को प्रचार के औजार के तौर पर उपयोग करने की चेष्टा करते हैं। वो ये भूल जाते हैं कि ऐसा करके वो एक संवैधानिक संस्था के क्रियाकलापों को लेकर जनता के मन में भ्रम उत्पन्न करते हैं। यह लोकतांत्रिक नहीं बल्कि एक आपराधिक कृत्य की श्रेणी में आ सकता है। अनैतिक तो है ही।      


Saturday, June 28, 2025

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का हिंदू मन


कुछ दिनों पूर्व हिंदी के आलोचक नन्ददुलारे वाजपेयी का मैथिलीशरण गुप्त के कृतित्व पर लिखा एक लेख पढ़ रहा था। उसमें एक पंक्ति पढकर ठिठक गया। हिंदू उत्कर्ष के हामी, भारत-भारती के रचयिता रामोपासक मैथिलीशरण गुप्त। मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएं छात्र जीवन में पढ़ी थीं। जब हिंदू उत्कर्ष के हामी और रामोपासक जैसे विशेषण देखा तो लगा कि एक बार मैथिलीशरण गुप्त को फिर से पढ़ा जाए। उनकी कृति साकेत के बारे में ज्ञात था, स्मरण में भी था। सोचा कि भारत-भारती पढ़ी जाए। भारत-भारती की प्रस्तावना के पहले शब्द से स्पष्ट हो गया कि मैथिलीशरण गुप्त रामोपासक थे। प्रस्तावना का आरंभ ही श्री राम: से होता है। फिर वो लिखते हैं आज जन्माष्टमी है, भारत के लिए गौरव का दिन...। आगे लिखते हैं कि भला मेरे लिए इससे शुभ दिन और कौन सा होता कि मैं प्रस्तुत पुस्तक आपलोगों के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए पूर्ण करूं। आगे वो इस बात को और स्पष्ट करते हैं कि श्रीरामनवमी के दिन आरंभ करके इसको जन्माष्टमी के दिन पूर्ण कर रहा हूं। फिर मंगलाचरण में वो कहते हैं कि मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती। भारत-भारती की पंक्तियों पर आगे चर्चा करूंगा जिससे वो हिंदू उत्कर्ष के हामी भी सिद्ध होते हैं। उसके पूर्व एक और आलोचक की पंक्ति याद आ रही है। मैथिलीशरण गुप्त पर भारी-भरकम पुस्तक लिखनेवाले आलोचक ने माना कि जिन बड़ी पुस्तकों को मैंने छोड़ दिया है, उनमें से ‘हिंदू’ और ‘गुरुकुल’ से अधिकांश लोग परिचित हैं। उनके अपने तर्क हैं लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या मैथिलीशरण जी की रचना साकेत, भारत-भारती, जयद्रथ-वध लोकप्रिय नहीं हैं जिसपर विचार किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि यहां भी वही प्रविधि अपनाई गई जो निराला के कल्याण में लिखे लेखों को उनकी रचनाओं में शामिल नहीं करने की रही। आज के युवाओं को मैथिलीशरण गुप्त की पुस्तक हिंदू के बारे में जानने का अधिकार है। अगर हम मैथिलीशरण जी की दो कृतियों भारत-भारती और हिंदू पर विचार करें तो पाते हैं कि उनके लेखन के दो छोर हैं। एक छोर पर हिंदू या सनातन धर्म है और दूसरे छोर पर हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियां। एक छोर पर वो गर्व से खड़े होते हैं और दूसरे छोर पर जोरदार प्रहार करते हैं।

मैथिलीशरण गुप्त अपनी कृति हिंदू में कहते हैं श्री श्रीरामकृष्ण के भक्त/रह सकते हैं कभी अशक्त/दुर्बल हो तुम क्यों हे तात/उठो हिंदुओ हुआ प्रभात। विस्मृति नाम की इस कविता में मैथिलीशरण हिंदुओं से पराधीनता पाश में फंसे होने की बात करते हुए हिंदी समाज को जागृत करने का उपक्रम करते हैं। उनके हताश और दुखी होने को लेकर प्रश्न खड़े करते हैं। वो भारत का गौरव गान करते हुए कहते हैं कि हिंदुओं को धर्मप्रचार प्रिय था लेकिन हथियार लेकर नहीं बल्कि अपनी आध्यात्मिकता की शक्ति के आधार पर ये कर्म किया जाता था। लूटमार और तलवार के बल पर धर्म प्रचार पर प्रहार करते हुए मैथिलीशरण गुप्त हिंदू शासन की बात करते हैं उसके विकास को संसार के इतिहास से जोड़ते हैं । साथ ही वो ये कहना नहीं भूलते कि हिंदू शासन पद्धति में विभंजक नीति दुर्लभ थी। वो इतने पर ही नहीं रुकते हैं बल्कि हिन्दूओं को बतलाते हैं कि उनका धर्म धन्य है, उनकी ज्ञानासक्ति, श्रद्धा, भक्ति, प्रेम की महिमा का बखान करते हुए लिखते हैं कि हरि नर होकर भी खर्च नहीं हुए बल्कि अपने पुण्य स्पर्श से एक दिव्य आदर्श की स्थापना की। वो भारत की जनता से एक होने की अपेक्षा भी करते हैं और हिंदू जातीयता को संगठित करने की बात करते हैं- ऐसा है वह कौन विवेक/करता हो जो हमको एक/और बढ़ा सकता हो मान/केवल हिंदू-हिन्दुस्तान। अब इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि मैथिलीशरण गुप्त की हिंदू धर्म और उसकी शक्ति में कितनी जबरदस्त आस्था थी। वो जैन, बौद्ध, सिख, शैव और वैष्णवों के बीच मतभिन्नता को लेकर परेशान तो हैं पर इस बात को लेकर आश्वस्त हैं हिंदू इससे खिन्न नहीं होंगे और इस बात पर जोर देते हैं कि सबके मत भिन्न हो सकते हैं पर वो हैं अभिन्न। हिंदू धर्म को लेकर मैथिलीशरण गुप्त अपने दृढ़ मत पर अड़े हैं। वो विधवा विवाह के पक्षधर हैं। बाल विवाह और बेमेल विवाह पर वो अपनी कृति हिंदू में कविता के माध्यम से प्रहार करते हैं। घर में वो स्त्री को लक्ष्मी, वन में सावित्री और रण में असुर नाशिनी मानते हुए महिला शक्ति का जयघोष करते चलते हैं। उनकी कविताओं में जिस तरह के शब्दों का उपयोग हुआ है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वो स्त्री-पुरुष में भेद को गलत मानते थे। इसके अलावा मैथिलीशरण गुप्त ग्रामीण जीवन को सशक्त करने की बात भी करते थे। 

मार्क्सवादी आलोचकों ने भारत-भारती पर विचार करते हुए इस बात का उल्लेख किया कि मैथिलीशरण गुप्त की कृति भारत-भारती मौलाना हाली के मुसद्दस से प्रेरित है या उसके ही तर्ज पर लिखी गई है। हाली के साथ कैफी का नाम भी जोड़ा गया। बताया ये भी गया कि ऐसा मैथिलीशरण जी ने पुस्तक की भूमिका में इस बात को स्वीकार किया है। अब ये देख लेते हैं कि भूमिका में क्या लिखा है- कुछ ही दिन बाद उक्त राजा साहब का कृपा -पत्र मुझे मिला, जिसमें श्रीमान ने मौलाना हाली के मुसद्दस को लक्ष्य करके इस ढंग की पुस्तक हिंदुओं के लिए लिखने का मुझसे अनुग्रहपूर्वक अनुरोध किया। इसके बाद उन्होंने ये कहीं नहीं लिखा कि उसी पद्धति से भारत-भारती लिखी गई। पर मार्क्सवादी आलोचकों के प्रभाव में ये बात अकादमिक जगत में स्थापित हो गई। इस पुस्तक में उन्होंने भारतवर्ष की श्रेष्ठता, हमारे पूर्वज, हमारे आदर्श, हमारी सभ्यता आदि पर विस्तार से लिखा। मैथिलीशरण गुप्त इस पुस्तक में भी बार-बार हिंदू धर्म की श्रेष्ठता की बात करते चलते हैं। वो हिंदू सभ्यता के वैराट्य को उद्घाटित भी करते हैं। साथ ही हिंदू समाज में व्याप्त तरह-तरह की कुरीतियों पर भी प्रहार करते हैं। अपेक्षा करते हैं कि हिंदू समाज उनको दूर करेगा। भारत-भारती और हिंदू दो काव्यग्रंथों को पढ़ने के बाद ये स्पष्ट होता है कि मैथिलीशरण गुप्त के हिंदू मन में हिंदू सभ्यता को लेकर कितनी गहरी आसक्ति थी। आक्रांताओं के कारण हिंदू समाज में आई दुर्बलता को लेकर व्यथित भी थे।  

कुछ सप्ताह पूर्व जब इस स्तंभ में नामवर सिंह के बहाने से प्रेमचंद की रचनाओं में भारतीयता की बात की गई थी तो मृतप्राय लेखक संगठन चला रहे एक कथित और आत्मुग्ध मार्क्सवादी आलोचक ने तर्कों पर बात नहीं की थी। अपेक्षा भी नहीं थी। दरअसल वो जिस फासीवादी विचार के समर्थक और पोषक हैं उनमें तर्क और तथ्य की गुंजाइश होती नहीं है। मार्क्सवादी आलोचना पद्धति में झुंड बनाकर किसी लेखक को श्रेष्ठ बताने या उनके लिखे को ओझल करने का प्रयत्न होता है। वो चाहे प्रेमचंद हों, निराला हों, रामचंद्र शुक्ल हों। कुबेरनाथ राय जैसे श्रेष्ठ सनातनी लेखक का इस झुंडवादी आलोचना ने इतनी उपेक्षा कि उनके लेखों और निबंधों के बारे में हिंदी समाज की आनेवाली पीढ़ियों को पता ही नहीं चल सके। पर ऐसा होता नहीं है, सभी लेखकों की कृतियां अपने मूल प्रकृति में पाठकों के सामने आ रही हैं। 


Saturday, June 21, 2025

विमोचन के बहाने विदेशी भाषा पर प्रहार


पुस्तकों के विमोचन कार्यक्रमों में आमतौर पर चर्चा पुस्तक केंदित होती है। वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी आशुतोष अग्निहोत्री के काव्य संग्रह ‘मैं बूंद स्वयं खुद सागर हूं’ के विमोचन में इस परंपरा से हटकर बातचीत हुई। मंच पर गृह मंत्री अमित शाह और गृह सचिव गोविंद मोहन थे। इस कारण वहां जो चर्चा हुई उसके महत्व को रेखांकित करना आवश्यक है। मंच पर पहले तो एक दिलचस्प वाकया हुआ। विमोचन के लिए सबको आग्रह किया जा रहा था। अमित शाह को लगा कि गृह सचिव के बोले बिना उनको आमंत्रित किया जा रहा है। उन्होंने इशारों से बताया कि गोविंद मोहन जी को बोलना है। खैर..स्थिति स्पष्ट हुई और पुस्तक विमोचन के बाद गृह सचिव बोलने आए। उन्होंने आशुतोष अग्निहोत्री की पुस्तक पर टिप्पणी करने के पहले विस्तार से हिंदी की विकास यात्रा पर अपनी बात रखी। हिंदी-उर्दू संबंध पर चर्चा करते हुए दोनों भाषा को बहन बताया। हिंदी के परिष्कृत शब्दों को लेकर समाज में जिस तरह उपहास होता है उसको रेखांकित किया। अतीत में जिस तरह से हिंदी और भारतीय भाषाओं को एक दूसरे विरुद्ध खड़ा करके हिंदी को नुकसान पहुंचाया गया उसका भी उल्लेख हुआ। अंत में उन्होंने कहा कि हिंदी का सूरज लुप्त हो रहा है लेकिन आशा की जानी चाहिए कि एक दिन उसका उदय होगा। गृह सचिव ने हिंदी के संदर्भ में कई बार विलुप्त होने जैसे शब्द बोले। विस्तार का समय नहीं रहा होगा अन्यथा वो इस बात की चर्चा अवश्य करते कि हिंदी कैसे विलुप्त हो रही है। गोविंद मोहन की ये बात भी कि हिंदी-उर्दू बहनें हैं, विस्तृत और गंभीर चर्चा की अपेक्षा रखती है।

अब बारी गृह मंत्री अमित शाह की थी। उन्होंने आशुतोष अग्निहोत्री और उनके संग्रह की प्रशंसा की। परिवर्तन में लगनेवाले समय और मेहनत पर भी बोले। अंत में वो भाषा पर आए। उन्होंने गृह सचिव से असहमति प्रकट करते हुए कहा कि गोविंद मोहन जी ने हिंदी के प्रति चिंता व्यक्त की, हिंदी की यात्रा का अच्छे से वर्णन किया लेकिन मैं उनसे थोड़ा असहमत हूं। गृह मंत्री ने कहा कि हिंदी पर कोई संकट नहीं है।  अमित शाह ने कहा कि हमारे देश की भाषाएं हमारी संस्कृति का गहना है। हमारे देश की भाषाओं के बगैर हम भारतीय ही नहीं रहते हैं। हमारा देश, इसका इतिहास, इसकी संस्कृति और हमारे धर्म को किसी विदेशी भाषा से नहीं समझ सकते। भारतीय भाषाओं पर जब अमित शाह बोल रहे थे तो उनकी वाणी में दृढता महसूस की जा सकती थी। वो इतने पर ही नहीं रुके बल्कि यहां तक कह गए कि आधी अधूरी विदेशी भाषाओं से संपूर्ण भारत की कल्पना नहीं हो सकती। वो केवल और केवल भारतीय भाषाओं से हो सकती है। अमित शाह ने ये भी माना कि लड़ाई बड़ी है, लेकिन भारत का समाज इतना सक्षम है कि इस लड़ाई में विजय प्राप्त कर सके। इस विजय के बाद एक बार फिर आत्मगौरव के साथ हमारी भाषाओं में हम हमारा देश भी चलाएंगे, सोचेंगे भी, शोध भी करेंगे, परिणाम भी निकालेंगे और विश्व का नेतृत्व भी करेंगे। अमित शाह ने जिस सभागार में ये बात कही वहां बड़ी संख्या में भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में काम करने वाले वरिष्ठ अधिकारी उपस्थित थे। बताते चलें कि अब भी भारत सरकार के मंत्रालयों के कामकाज में अंग्रेजी का बोलबाला है। 

गृह मंत्री अमित शाह की बातों का विश्लेषण कर रहा था। अचानक एक घटना दिमाग में कौंधी। पिछले दिनों मित्र-मिलन कार्यक्रम में गया था। वहां कई मित्र थे जो अलग अलग मंत्रालयों और विभागों में कार्यरत थे। हम कुछ मित्र एक जगह खड़े होकर बातें कर रहे थे। एक मित्र के फोन की घंटी बजी। उसने कहा जी सर मैं पहुंचता हूं, करके आपको भेजता हूं। उसने हमसे विदा लेने का उपक्रम आरंभ किया तो हमने पूछा कि क्या बात है? क्या करने की जल्दी है। उसने बताया कि गृह मंत्री अमित शाह हमारे विभाग के एक कार्यक्रम में आ रहे हैं। उस कार्यक्रम का विवरण उनको भेजा जाना है। मुझे आफिस जाना होगा। मैंने मजे लेने के लिए बोला कि क्या अपने आफिस में तुम्हीं एक हो जिसको विवरण बनाना आता है। उसने जो बोला वो चौंकानेवाला था। उसने बताया कि किसी भी मंत्रालय से कोई भी पत्र अगर गृह मंत्रालय जाता है और उस पत्र को गृह मंत्री तक जाना होता है तो वो हिंदी में ही जाता है। गृह मंत्री हिंदी के ही पत्र या फाइल नोटिंग पढते और निर्णय करते हैं। बाद में मैंने गृह मंत्रालय में कार्यरत एक दो लोगों से जानकारी ली। पता चला कि मेरा मित्र सही कह रहा था। एक ऐसा बदलाव जिसका असर गृह मंत्रालय की कार्यशैली पर स्वाभाविक है। अमित शाह का हिंदी प्रेम जगजाहिर है। हिंदी के साथ वो हमेशा भारतीय भाषाओं की बात आवश्यक रूप से करते हैं। हिंदी चूंकि उनके मंत्रालय से संबद्ध है इस कारण उनका दायित्व भी है कि वो इसको बढ़ावा दें। दे भी रहे हैं। 

अमित शाह के गृह मंत्री रहते ही अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन का आरंभ हुआ था। सूरत में पहला सम्मेलन आयोजित किया गया था। उसमें देशभर के हिंदी अधिकारी आए थे। विभिन्न सत्रों में अलग अलग क्षेत्र के विद्वानों ने हिंदी पर मंथन किया था। साहित्य, कला, संस्कृति और फिल्म से जुड़े लोग जो हिंदी से प्यार करते हैं, आमंत्रित किए गए थे। उस राजभाषा सम्मेलन की व्यापक चर्चा हुई थी। उसके बाद के सम्मेलन में हिंदी भाषी वक्ता तो थे पर इस बात का भी ध्यान रखा गया था कि वो सभागार के लोगों को बांध सकें। उन फिल्मी लोगों का आमंत्रित किया गया जो पर्दे पर तो हिंदी बोलते हैं लेकिन उनके रोमन में स्क्रिप्ट पढ़ने की बात सामने आती रहती है। सरकारी कार्यक्रमों की सीमा होती है। वहां हर तरह और वर्ग के लोगों को समायोजित करना पड़ता है। आशुतोष अग्निहोत्री के कविता संग्रह के विमोचन समारोह में जिस तरह से पहले गृह सचिव ने चिंता जताई और उसके बाद गृह मंत्री ने उन चिंताओं को दूर करते हुए लंबी लड़ाई की बात की है उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। लंबी लड़ाई विदेशी भाषा से तो है ही, औपनिवेशिक मानसिकता से भी है। उस मानसिकता से जो ये तय करती है कि ज्ञान की भाषा अंग्रेजी ही हो सकती है। उस मानसिकता से जो ये भ्रम फैलाती है कि विज्ञान और तकनीक को जानने के लिए विदेशी भाषा का ज्ञान आवश्यक है। इन भ्रमों का, इन धारणाओं का प्रतिकार आवश्यक है। इनका प्रतिकार गोष्ठियों में दिए जानेवाले भाषणों से नहीं होगा। इनका प्रतिकार अपने काम से करना होगा। गृह मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय और संस्कृति मंत्रालय को इसके लिए बेहतर समन्वय करके साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा। समग्रता में एक दिशा में साथ चलकर भारतीय भाषा को समृद्ध करना होगा। तब जाकर भारतीय भाषा का ध्वज लहरा सकेगा। 

Monday, June 16, 2025

चाहने और हासिल करने का अंतर


हम दिल दे चुके सनम, नाम से ही पता चलता है कि ये प्रेम कहानी है। शीर्षक में चुके शब्द इस बात की ओर भी संकेत करता है कि ये प्रेम त्रिकोण होगा। आज से 25 वर्ष पूर्व फिल्म हम दिल दे चुके सनम प्रदर्शित हुई थी। इसमें सलमान खान और ऐश्वर्या राय के साथ तीसरे कोण के रूप में अजय देवगन थे। उस समय की फिल्मी पत्रिकाओँ में इस बात की चर्चा मिलती है कि निर्देशक संजय लीला भंसाली अपनी फिल्म में अभिनेत्री के रूप में माधुरी दीक्षित को लेना चाह रहे थे। माधुरी के पास डेट्स की समस्या थी। माधुरी के इंकार के बाद दूसरी नायिका की तलाश आरंभ हुई। इसी दौर में संजय लीला भंसाली ने ऐश्वर्या को कहीं देखा और तय कर लिया कि यही उनकी फिल्म की नायिका है। ऐश्वर्या राय तबतक मिस वर्ल्ड का खिताब जीतकर तमिल फिल्मों में सफल हो चुकी थीं। हिंदी फिल्मों में सफलता मिलनी शेष थी। ऐश्वर्या की मुस्कुराहट को फिल्म समीक्षक प्लास्टिक मुस्कान करार दे चुके थे। इस स्थिति में संजय लीला भंसाली ने ऐश्वर्या को अपनी फिल्म में कास्ट करने का जोखिम उठाया। उसके बाद की कहानी को इतिहास बन गई। फिल्म जबरदस्त हिट रही थी। हलांकि इसके बाद सलमान और ऐश्वर्या राय ने कभी भी एक साथ किसी फिल्म में लीड रोल नहीं किया।  

हम दिल दे चुके सनम फिल्म का कथानक मैत्रेयी देवी के उपन्यास ना हन्यते और रोमानिया के लेखक मिरसिया के उपन्यास से प्रेरित लगता है। फिल्म के रिलीज होने के बाद इसकी चर्चा भी हुई थी। मिरसिया के उपन्यास का नायक भी भारत पढ़ने आया था, नायिका के घर रुका था, साथ पढ़ाई की थी, प्रेम हुआ था और फिर अलगाव। उपन्यास में बंगाल का परिवेश है जबकि फिल्म में गुजरात का। कथानक का फिल्मांकन संजय लीला भंसाली ने बेहद खूबसूरती के साथ किया है। विदेशी लोकेशन पर आकर्षक दृश्यों मे फिल्म की कहानी के साथ न्याय किया है। फिल्म रिलीज होने के पहले ही इसके गाने दर्शकों के बीच बेहद लोकप्रिय हो चुके थे। कविता कृष्णूमूर्ति और करसन की आवाज में गाया गाना ‘निंबूड़ा निंबूडा’ हो या कविता विनोद राठौर और करसन की आवाज में गाया ‘ढोली तारो ढोल बाजे’ हो आज भी पसंद किए जाते हैं। संजय लीला भंसाली की एक विशेषता ये है कि वो अपनी फिल्म में लोक से उठाकर एक गीत अवश्य रखते हैं। बोल और संगीत भी उसी अनुसार तय करते हैं। आप पद्मावत का गाना घूमर घूमर या बाजीराव मस्तानी का पिंगा गपोरी याद करिए। भंसाली भारतीय लोक के मन को पकड़ना जानते हैं। उन्होंने हम दिन दे चुके सनम के गीतों से दर्शकों को खींचा। 

इन दिनों इंदौर की एक लड़की का अपने प्रेमी के लिए पति का कत्ल करने का समाचार चर्चा में है। हम दिल दे चुके सनम की नायिका नंदिनी माता पिता की मर्जी से शादी करती है। वो समीर से प्यार करती है लेकिन शादी वनराज से करनी पड़ती है। पति को जब समीर के बारे में पता चलता है तो वो उसकी खोज में पत्नी के साथ इटली जाता है। वहां नंदिनी और समीर मिलते हैं। दोनों को साथ छोड़कर वनराज वहां से हट जाता है। समीर अपने सामने नंदिनी को पाकर बेहद खुश है। कहता है कि मुझे पता था कि तुम जरूर आओगी, आई लव यू। वो उसको अपने आलिंगन में लेता है लेकिन नंदिनी बेजान सी खड़ी रही है। कहती है, चाहने और हासिल करने में बहुत फर्क है। बात आगे बढ़ती है तो नंदिनी अपने प्रेमी को कहती है, प्यार करना तुमने सिखाया लेकिन प्यार निभाना मैंने अपने पति से सीखा। रोचक संवाद के बाद नंदिनी आंसू पोछती है और अपने प्रेमी को छोड़कर पति के पास वापस लौट जाती है। आज इस बात को लेकर हिंदी के फिल्मकार परेशान हैं कि उनकी फिल्में सफल नहीं हो रही हैं। असफलता का एक कारण ये हो सकता है कि हिंदी फिल्में भारतीय मूल्यों से दूर चली गई हैं जो दर्शकों को भा नहीं रही हैं। 

Saturday, June 14, 2025

रील्स की मायावी दुनिया का धोखा


आज से करीब दो दशक पूर्व की बात है। तब मैत्रेयी पुष्पा का हिंदी साहित्य में डंका बज रहा था। एक के बाद एक चर्चित उपन्यास लिखकर उन्होंने साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज की थी। गोष्ठियों में भी उनकी मांग थी। लोग उनको सुनना चाहते थे। मैत्रेयी पुष्पा भी अपने ग्रामीण अनुभवों के आधार पर बात रखती तो महानगरीय परिवेश में रहनेवालों को नया जैसा लगता। मुझे जहां तक याद पड़ता है कि दिल्ली के हिंदी भवन में एक गोष्ठी थी। उसमें मैत्रेयी पुष्पा भी वक्ता थीं। विषय स्त्री विमर्श से जुड़ा हुआ था। मैत्रेयी के अलावा जो भी वक्ता थीं वो स्त्री विमर्श को लेकर सैद्धांतिक बातें कर रही थी। मंच से बार बार सीमोन द बोव्आर के उपन्यास सेकेंड सेक्स का नाम लिया जा रहा था। सीमोन की स्थापनाओं पर बात हो रही थी और उसको भारतीय परिदृष्य से जोड़कर बातें रखी जा रही थीं। उनमें से अधिकतर ऐसी बातें थीं जो अमूमन स्त्री विमर्श की गोष्ठियों में सुनाई पड़ती ही थीं। अब बारी मैत्रेयी के बोलने की थी। उन्होंने माइक संभाला और फिर बोलना आरंभ किया। स्त्री विमर्श पर आने के पहले उन्होंने एक ऐसी बात कही जो उस समय नितांत मौलिक और उनके स्वयं के अनुभवों पर आधारित थी। उन्होंने कहा कि जब से औरतों के हाथ में मोबाइल पहुंचा है वो बहुत सश्कत हो गई हैं। उनको एक ऐसा सहारा या साथी मिल गया जो वक्त वेवक्त उनके काम आता है, उनकी मदद करता है। गांव की महिलाएं भी घूंघट की आड़ से अपनी पीड़ा दूर बैठे अपने हितचिंतकों को या अपने रिश्तेदारों को बता सकती हैं। संकट के समय मदद मांग सकती हैं। इस संबंध में मैत्रेयी पुष्पा ने कई किस्से बताए जो उनकी भाभी से जुड़े हुए थे। मैत्रेयी पुष्पा ने अपने गंवई अंदाज में मोबाइल को स्त्री सशक्तीकरण से जोड़कर ऐसी बात कह दी जो उनके साथ मंच पर बैठी अन्य स्त्रियों ने शायद सोची भी न होगी। जब मैत्रेयी बोल रही थीं तो सभागार में जिस प्रकार की चुप्पी थी उससे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अधिकतर लोग उनकी इस स्थापना से सहमत हों। 

आज से दो दशक पहले मैत्रेयी पुष्पा ने जब ऐसा बोला था तब शायद ही सोचा होगा कि मोबाइल स्त्रियों और पुरुषों की दबी आकांक्षाओं के प्रदर्शन का भी कारक भी बनेगा। पिछले दिनों मित्रों के साथ स्क्रीन पर व्यतीत होनेवाले समय पर बातचीत हो रही थी। चर्चा में सभी ये बताने में लगे थे कि किन किन प्लेटफार्म पर उनका अधिक समय व्यतीत होता है। ज्यादातर मित्रों का कहना था कि इंस्टा और एक्स की रील्स देखने में समय जाता है। इस चर्चा में ही एक मित्र ने कहा कि वो जब घरेलू और अन्य महिलाओं के वीडियो देखते हैं तो आनंद दुगुना हो जाता है। जिनको डांस करना नहीं आता वो भी डांस करते हुए वीडियो डालती हैं। कई बार तो पति पत्नी के बीच के संवाद भी रील्स में नजर आते हैं। उसमें वो रितेश देशमुख और जेनेलिया की भोंडी नकल करने का प्रयास करते हैं। इस चर्चा के बीच एक बहुत मार्के की बात निकल कर आई। इंस्टा की रील्स एक ऐसा मंच बन गया है जो महिलाओं और पुरुषों के मन में दबी आकांक्षाओं को भी सामने ला रही हैं। जिन महिलाओं को चर्चित होने का शौक था, जिनको पर्दे पर आने की इच्छा थी, जिनको डांस सीखने और मंच पर अपनी कला को प्रदर्शित करने की इच्छा थी वो सारी इच्छाएं पूरी हो रही हैं। रील्स और इंस्टा के पहले इस तरह की आकांक्षाएं मन में ही दबी रही जाती थीं। उनके अंदर कुंठा पैदा करती थीं। मोबाइल और इंटरनेट की सुविधा नहीं होने से जो महिलाएं नृत्य कला का प्रदर्शन करना चाहती थीं वो कर नहीं पाती थीं। इसमें बहुत सी अधेड़ उम्र की महिलाओं को भी रील्स में देखा जा सकता है। कई तो अजीबोगरीब करतब करते हुए नजर आती हैं। लेकिन अपने मन का कर तो रही हैं। रील्स का ये एक सकारात्मक पक्ष माना जा सकता है। जैसे मोबाइल फोन ने महिलाओं को सशक्त किया उसी तरह से इंटरनेट और इंटरनेट प्लेटफार्म्स ने महिलाओं की आकांक्षाओं को पंख दिए। अब वो बगैर किसी लज्जा के, संकोच के अपने मन का कर रही हैं और समाज के सामने उसको प्रदर्शित भी कर रही हैं। 

रील्स को लेकर पहले भी इस स्तंभ में चर्चा हो चुकी है जिसमें रोग से लेकर शेयर बाजार में निवेश के टिप्स तक और धन कमाने से लेकर भाग्योदय तक के नुस्खों को केंद्र में रखा गया था। रील्स पर हो रही चर्चा में एक चिकित्सक मित्र ने एक मजेदार बात कही। उन्होंने कहा कि रील्स ने डाक्टरों का बहुत फायदा करवाया है। रील्स देखकर स्वस्थ रहने के नुस्खे अपनाने वाले लोग बढ़ते जा रहे हैं। स्वस्थ रहने के तरीकों को देखकर उनको अपनाने से बहुधा समस्या हो जा रही है। जैसे रील्स में सेंधा नमक को लेकर बहुत अच्छी-अच्छी बातें कही जाती हैं। सलाह देनेवाले सेंधा नमक को स्वास्थ्य के लिए उपयोगी बताते हैं। रील्स देखकर लोग सेंधा नमक खाने लग जाते हैं। बगैर ये सोचे समझे कि आयोडाइज्ड नमक खाने के क्या लाभ थे और छोड़ देने के क्या नुकसान। जब शरीर में सोडियम पोटाशियम का संतुलन बिगड़ता है तो चिकित्सकों के पास भागते हैं। पता चलता है कि ये असंतुलन निरंतर सेंधा नमक ही खाते रहने से हुआ। अगर आयोडाइज्ड नमक भी खाते रहते तो सभवत: ऐसा नहीं होता। स्वस्थ रहने के इसी तरह के कई नुस्खे आपको इंस्टाग्राम पर मिल जाएंगे। सभी इस तरह से बताए जाते हैं कि देखनेवालों का एक बार तो मन कर ही जाता है कि वो उसको अपना लें। इस बात का उल्लेख रील्स में नहीं होता है कि सलाह देनेवाले चिकित्सक या न्यूट्रिशनिस्ट हैं या नहीं। 

रील की दुनिया बहुत मनोरंजक है। समय बहुत सोखती है। कई बार वहां अच्छी सामग्री भी मिल जाती है लेकिन एआई के इस दौर में प्रामाणिकता को लेकर संशय मन में बना रहता है। किसी का भी वीडियो बनाकर उसमें उनकी ही आवाज पिरोकर वायरल करने का चलन भी बढ़ रहा है। ऐसे में इस आभासी दुनिया को सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के लिए ही उपयोग किया जाना चाहिए। मन में दबी इच्छाओं को पूर्ण करने का मंच माना या बनाया जा सकता है। इस माध्यम को गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि वो दिन दूर नहीं जब लोग इससे ऊबकर फिर से छपे हुए अक्षरों की ओर लौटेंगे। जिस प्रकार की प्रामाणिकता प्रकाशित शब्दों या अक्षरों की होती है वैसी इन आभासी माध्यमों में नहीं होती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अभी इस माध्यम का समाज पर प्रभाव पड़ रहा है। लोग कई बार यहां सुझाई या कही गई बातों को सही मानकर अपनी राय बना लेते हैं। लेकिन जैसे-जैसे देश में शिक्षितों की संख्या बढ़ेगी, लोगों की समझ बनेगी तो इसको विशुद्ध मनोरंजन के तौर पर ही देखा जाएगा सूचना के माध्यम के तौर पर नहीं। 


Saturday, June 7, 2025

कम्युनिस्ट नैरेटिव के नामवर आलोचक

हिंदी आलोचना में नामवर सिंह का नाम आदर के साथ लिया जाता रहा है। आरंभिक दिनों में उन्होंने विपुल लेखन किया। कालांतर में लेखन उनसे छूटा। वो भाषण और व्याख्यान की ओर मुड़ गए। दोनों स्थितियों में नामवर सिंह ने कम्युनिस्ट पार्टी के लिए कार्य किया। उनके निर्देशों के आधार पर नैरेटिव बनाने और बिगाड़ने का खेल खेला। आलोचना में भी उन्होंने नैरेटिव ही गढ़ा। उनके लेखों के विश्लेषण से ये स्पष्ट है। नामवर सिंह के शिष्यों ने उनके व्याख्यानों का लिप्यांतरण करके पुस्तकें प्रकाशित करवाईं। पिछले दिनों नामवर सिंह के पुत्र विजय प्रकाश सिंह और उनके जीवनीकार अंकित नरवाल ने एक पुस्तक संकलित-संपादित की, जमाने के नायक। प्रकाशन वाणी प्रकाशन से हुआ है। पुस्तक की भूमिका में नरवाल ने नामवर सिंह के बनने और सुदृढ होने को रेखांकित किया। उनकी प्रशंसा की, जो स्वाभाविक ही है। इस पुस्तक के लेखों में नामवर सिंह की आलोचना में फांक दिखती है। आलोचक कम पार्टी कार्यकर्ता अधिक लगते हैं। जिन साहित्यिक घटनाओं और कथनों को उद्धृत करके स्थापना देते हैं वो उनकी आलोचकीय ईमानदारी और विवेक
को संदिग्ध बनाती है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित पुस्तक ‘लेनिन और भारतीय साहित्य’ से साभार नामवर सिंह का एक लेख इस पुस्तक में है। नामवरीय आलोचना का ऐसा उदाहरण जो उनकी छवि को धूमिल करता है। नामवर सिंह 1917 के बाद भारत की राजनीति को लेनिन से जोड़कर रूसी क्रांति के प्रभाव की पताका फहराते हैं। साहित्य में भी।  वो लिखते हैं, साहित्य का इस वातावरण से सर्वथा अस्पृष्ट रहना असंभव था। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना आकस्मिक नहीं बल्कि इन घटनाओं की सहज परिणति थी जिसके संगठनकर्ता लेनिन के विचारों को मानने वाले नौजवान कम्युनिस्ट थे, किंतु जिसमें निराला और पंत जैसे हिंदी के कवियों ने सहर्ष भाग लिया और अखिल भारतीय ख्याति के कथाकार प्रेमचंद ने जिसके अधिवेशन की अध्यक्षता की।

इसी पुस्तक में एक और लेख संकलित है, गोर्की और हिंदी साहित्य। यहां वो जोर देकर कहते हैं कि, तथ्य है कि गोर्की की मृत्यु से तीन महीने पहले प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में योग देकर भारत में प्रगतिशील साहित्य के आंदोलन का सूत्रपात कर चुके थे। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष पद से उन्होंने जो भाषण दिया था, वो गोर्की के विचारों का भारतीय भाष्य मात्र नहीं बल्कि भारत को अपने ऐतिहासिक संदर्भ में निर्मित साहित्य का सर्जनात्मक दस्तावेज है। यहां वो फिर से ये कहते हैं कि प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता की। नामवर ऐसा कहते हुए कहीं भी किसी सोर्स का उल्लेख नहीं करते हैं। सुनी-सुनाई बातें बार-बार लिखते हैं। नामवर सिंह और उन जैसे अन्य पार्टी लेखकों के कहने पर मान लिया गया कि प्रेमचंद ने अध्यक्षता की थी। नामवर को किसी दस्तावेज आदि के आधार पर ये कहना चाहिए था। उल्लेख तो इस बात का भी मिलता है कि प्रेमचंद जैनेन्द्र के कहने पर अधिवेशन में शामिल होने चले गए थे। उनका भाषण देने का कार्यक्रम नहीं था। जब अधिवेशन में पहुंचे तो वहां उपस्थित साहित्यकारों ने उनसे आग्रह किया और वो मंच से बोले। इसको प्रचारित करवा दिया गया कि प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापकों में से थे। बाद में संशोधन कर कहा जाने लगा कि वो पहले अधिवेशन के अध्यक्ष थे। अब प्रेमचंद के प्रगतिशील लेख संघ में दिए गए भाषण के अंश को देखते हैं, ‘प्रगतिशील लेखक संघ यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावत: प्रगतिशील होता है। अगर वो इसका स्वभाव न होता तो शायद वो साहित्कार ही नहीं होता। उसे अपने अंदर भी एक कमी महसूस होती है, इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है।‘ सामान्य सी बात है कि अगर वो अध्यक्षता कर रहे होते तो ये प्रश्न नहीं उठाते। नामवर सिंह कहते हैं कि प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में उनका योगदान था। अगर योगदान होता तो प्रगतिशीलता के नाम पर प्रेमचंद संघ के संस्थापकों के साथ पहले चर्चा करते। मंच से आपत्ति क्यों करते। अजीब मनोरंजक बात है कि लेखक संघ का नाम तय हो रहा था और स्थापना में योगदान करनेवाले को पता नहीं था। 

नामवर सिंह कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े थे। पार्टी के बाहर के लेखकों को वो येन केन प्रकारेण कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित साबित करने में लगे रहते थे। इसके लिए चाहे किसी भी शब्द की कैसी भी व्याख्या क्यों न करनी पड़े। इसके पीछे भी लेनिन की सीख थी। उक्त लेख में नामवर सिंह ने उल्लेख किया है, लेनिन का एक निबंध पार्टी साहित्य और पार्टी संगठन, जिसमें पार्टी लेखकों से पूरी पक्षधरता का आग्रह किया गया था। नामवर सिंह ने लेनिन की पक्षधरता वाली बात अपना ली। अब निराला को लेनिन के प्रभाव में बताने के लिए वो उनकी 1920 की एक कविता बादल राग की पंक्तियां लेकर आए। पंक्ति है- तुझे बुलाता कृषक अधीर/ऐ विप्लव के वीर। अब इस पंक्ति में चूंकि कृषक भी है और विप्लव भी तो निराला कम्युनिस्ट हो गए। विप्लव शब्द का प्रयोग निराला बांग्ला के प्रभाव में करते रहे हैं। राम की शक्ति पूजा से लेकर तुलसीदास जैसी उनकी लंबी कविता में भी ये प्रभाव दिखता है। खेत-खलिहान, किसान-मजदूर को बहुत आसानी से नामवर सिंह जैसे नैरेटिव-मेकर्स ने सर्वाहारा बना दिया था। नामवर सिंह ने तो जयशंकर प्रसाद को भी लेनिन से प्रभावित बता दिया। दिनकर की कविता में लेनिन शब्द आया तो उसपर लेनिन के विचारों का प्रभाव। वो स्वाधीनता के आंदोलन और आंदोलनकर्ताओं की भावनाओं को नजरअंदाज करके उसपर लेनिन की छाप बताने में लगे रहे। लेखकों को कम्युनिस्ट घोषित और स्थापित करते रहे, तथ्यों की व्याख्या से छल करते हुए। प्रेमचंद अगर कह रहे हैं कि आनेवाला जमाना अब किसानों मजदूरों का है तो उनको कम्युनिस्ट या लेनिन के प्रभाव वाले बताने में नामवर ने जरा भी विलंब नहीं किया। वो कम्युनिस्टों को लाभ पहुंचानेवाला नैरेटिव गढ़ रहे थे। नामवरी आलोचना का एक और उदाहरण देखिए, ‘निराला ने भी प्रेमचंद की तरह लेनिन पर स्पष्टत: कहीं कुछ नहीं लिखा पर उनकी विद्रोही प्रतिभा में लेनिन का प्रभाव बीज रूप में सुरक्षित अवश्य था।‘ ये विद्रोही प्रतिभा अंग्रेजों के खिलाफ उस दौर के सभी लेखकों कवियों में मिलता है। एक जगह कहते हैं कि प्रेमचंद समाजवादी यथार्थवाद से प्रभावित थे या नहीं, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है लेकिन इतना निश्चित है कि...। यह वही प्रविधि है जिसका निर्वाह इतिहास लेखन में रोमिला थापर और बिपिन चंद्रा जैसे इतिहासकारों ने किया। वो अपनी स्थापना तो देते हैं लेकिन साथ ही लिख देते हैं, इट अपीयर्स टू बी, पासेबली, प्रोबैबिली आदि। इस प्रविधि का लाभ ये होता है कि आम पाठक वही समझता है जो लेखक कहना चाहता है। कभी अगर स्थापना पर सवाल उठे तो इन शब्दों की आड़ लेकर बचकर निकल सके। आज इस बात की आवश्कता प्रबल होती जा रही है कि नामवर सिंह ने कम्युनिस्ट पार्टी के लिए जो नैरेटिव गढ़ा उसको उजागर किया जाए क्योंकि उस नैरेटिव से किसी भी रचनाकार का सही आकलन संभव नहीं। 


Monday, June 2, 2025

हिंदी भाषा व साहित्य के तपस्वी


कुछ समय पूर्व सरस्वती पत्रिका के अंक देखने और उसकी सामग्री के बारे में जानने की आकांक्षा के साथ प्रयागराज पहुंचा था। पता चला था कि सरस्वती पत्रिका के संपादक रहे देवीदत्त शुक्ल के पौत्र व्रतशील शर्मा के पास सरस्वती के पुराने अंक हैं। प्रयागराज में उनके अलोपीबाग स्थित घर पहुंचा। सरस्वती के कई अंक देखे, उसमें प्रकाशित सामग्री पर व्रतशील जी से चर्चा हुई। सरस्वती पर हो रही चर्चा में महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी के अन्य आधार स्तंभों की चर्चा हुई। चर्चा में पंडित बालकृष्ण भट्ट जी का नाम आया। ये तो याद नहीं कि क्यों कैसे ये तय हुआ कि पंडित बालकृष्ण भट्ट के घर चला जाए। लेकिन हमलोग अलोपीबाग से मालवीय नगर की गलियों से होते हुए पंडित बालकृष्ण भट्ट जी के घर पहुंचे थे। घर की हालत बहुत अच्छी नहीं थी। भट्ट जी के परिवार ने सत्कार किया। हमलोगों ने वो काठ की छोटी चौकोर चौकी भी देखी जिसपर बैठकर भट्ट जी प्रदीप का संपादन किया करते थे। पता चला कि वो घंटों इस चौकी पर बैठकर कालेखन-संपादन किया करते रहते थे। घर के छोटे से कक्ष में कई तस्वीरें लगी थीं। एक चित्र उनके हस्तलेख का भी था। उनके घर के पास ही मदन मोहन मालवीय भी रहा करते थे। उनके नाम पर उस मुहल्ले का नाम मालवीय नगर रखा गया है। संभवत: इस इलाके को पहले अतरसुइंया कहा जाता था। उनके परिवारीजनों से बातचीत करके ये आभास हुआ कि किस तरह से बालकृष्ण भट्ट जी ने अपना जीवन हिंदी के विकास और सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में होम कर दिया था। 

पंडित बालकृष्ण भट्ट का हिंदी और हिंदी पत्रकारिता के विकास में बड़ा योगदान है। कई लोग उनके हिंदी के पहले आलोचकों में गिनते हैं। लाला श्रीनिवासदास के नाटक संयोगिता स्वयंवर की उन्होंने विस्तार से आलोचनात्मक लेख लिखा था।  सितंबर 1877 में बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी प्रदीप निकालना आरंभ किया। इस पत्र को निकालने में उनको काफी कठिनाई का समाना करना पड़ा पर उन्होंने तमाम आर्थिक कठिनाइयों को झेलते हुए अकेले ही इस कार्य को अंजाम दिया। भट्ट जी ने तीन दशकों से अधिक समय तक इसका प्रकाशन और संपादन किया। एक तरफ काशी से भारतेन्दु कवि वचन सुधा  से हिंदी पत्रकारिता को संवार रहे थे तो दूसरी तरफ बालकृष्ण भट्ट हिंदी प्रदीप के माध्यम से हिंदी पत्रकारिता की नई राह बना रहे थे। इन दोनों के प्रयास से हिंदी पत्रकारिता का विकास हुआ। बालकृष्ण भट्ट के संपादन में निकलने वाले पत्र में अधिकतर साहित्यिक सामग्री होती थी। इसके अलावा लेखों और कविताओं के माध्यम से अंग्रेज सरकार के विरोध में जनजागरण का कार्य भी होता था। पंडित बालकृष्ण भट्ट ने जब हिंदी प्रदीप के प्रकाशन का निर्णय लिया तो भारतेन्दु से उनकी बातचीत हुई। कई जगह इस बात का उल्लेख मिलता है कि प्रदीप के पहले अंक को जारी करने के लिए भारतेन्दु प्रयागराज आए थे। 

पंडित बालकृष्ण भट्ट ने  ना केवल हिंदी पत्रकारिता बल्कि हिंदी भाषा को भी समृद्ध किया। उनका कार्य इतना बड़ा है लेकिन अफसोस कि हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने भट्ट जी पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। हलांकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उनका उल्लेख करते हुए लिखा- पं. बालकृष्ण भट्ट की भाषा अधिकतर वैसी ही होती थी जैसी खरी खरी सुनाने में काम में लाई जाती है। जिन लेखों में उनकी चिड़चिड़ाहट झलकती है वे विशेष मनोरंजक हैं। नूतन पुरातन का वह संघर्षकाल था इसमें भट्टजी को चिढ़ाने की पर्याप्त सामग्री मिल जाया करती थी। समय के प्रतिकूल पुराने बद्ध मूल विचारों को उखाड़ने और परिस्थिति के अनुकूल नए विचारों को जमाने में उनकी लेखनी सदा तत्पर रहती थी। रामचंद्र शुक्ल ने आगे लिखा कि बालकृष्ण भट्ट का जन्म प्रयाग में संवत् 1901 में और परलोकवास संवत् 1971 में हुआ। ये प्रयाग के 'कायस्थ पाठशाला' कॉलेज में संस्कृत के अध्यापक थे। उन्होंने संवत् 1933 में अपना 'हिन्दी प्रदीप'  गद्य साहित्य का ढर्रा निकालने के लिए ही निकाला था। सामाजिक, साहित्यिक, राजनीतिक, नैतिक सब प्रकार के छोटे छोटे गद्य प्रबंध ये अपने पत्र में तीस वर्ष तक निकालते रहे। उनके लिखने का ढंग पं. प्रतापनारायण के ढंग से मिलता-जुलता है। उनकी भाषा में पूरबी प्रयोग बराबर मिलते हैं 'समझा बुझाकर' के स्थान पर 'समझाय बुझाय' वे प्राय: लिख जाते थे। उनके लिखने के ढंग से यह जान पड़ता है कि वे अंग्रेजी पढ़े लिखे नवशिक्षित लोगों को हिन्दी की ओर आकर्षित करने के लिए लिख रहे हैं। उनकी भाषा में हास्य का पुट भी होता था। लगता है जैसे वो लेखन से आनंद लेते हों। एक किस्सा बहुत ही प्रचलित है कि एक बार भट्ट जी अपने परिचित के घर गए। वहां एक किशोर आंख पर हाथ रखे था। उन्होंने जानना चाहा कि वो आंख पर हाथ क्यों धरे है। पता लगा कि उसकी आंख आई है। भट्ट जी ने विनोदपूर्वक कहा था यह आंख बड़ी बला है, इसका आना, जाना, उठना, बैठना सब बुरा है। 

पंडित बालकृष्ण भट्ट बाल गंगाधर तिलक के विचारों से बहुत प्रभावित थे। हिंदी साहित्य और भाषा को समृद्ध करने के अलावा भट्ट ने पराधीन भारत में समाज में व्याप्त कुरीतियों पर भी प्रहार किया था। विधवा विवाह के वो प्रबल समर्थक थे और छूआछूत और जाति व्यवस्था के विरोधी। अपनी लेखनी के माध्यम से समाजिक विसंगतियों को ना केवल उजागर करते थे बल्कि उसका निदान भी सुझाते थे। बालकृष्ण भट्ट जी प्रदीप के संपादन और उसके अन्य कार्यों से समय निकालकर अपने घर के बाहर ही बालिकाओं को पढ़ाया करते थे। उनका मानना था कि सबल राष्ट्र के लिए स्त्रियों का शिक्षित होना बहुत आवश्यक है। आज प्रयागराज में जो गौरी महाविद्यालय है उसकी स्थापना के तार भट्ट जी की बालिका शिक्षा के प्रयासों से जुड़े बताए जाते हैं। ऐसे तपस्वी और मनीषी पत्रकार और साहित्यकार बालकृष्ण भट्ट के बारे में नई पीढ़ी को बताने का उपक्रम राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए था। अफसोस कि कहीं भी बड़े स्तर पर भट्ट जी की स्मृति को संजोने का कार्य नहीं हो सका है।  


Saturday, May 31, 2025

भाषा के नाम पर विभाजनकारी खेल


भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध और उसके बाद की राजनीति के घमासान के बीच एक मुद्दे पर चर्चा नहीं हो पाई। ये मुद्दा देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। मुद्दा है भारतीय भाषाओं के बीच परस्पर सामंजस्य बढ़ाने का। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कार्यान्वयन में इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य हो रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गैर-हिंदी प्रदेश की जनसभाओं में जनता के अनुमति लेकर हिंदी में बोलते हैं। हाल ही में गुजरात की एक जनसभा में उन्होंने गुजराती में बोलना आरंभ किया। सभा में उपस्थित लोगों से गुजराती में पूछा कि क्या वो हिंदी में भाषण दे सकते हैं। जब सभा में सकारात्मक स्वर गूंजा तब प्रधानमंत्री मोदी ने हिंदी में भाषण दिया। एक सरफ सरकार के स्तर पर भारतीय भाषाओं के बीच मतभेद कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ बीच-बीच में कुछ ऐसा घटित हो जाता है जो भारतीय भाषाओं के बीच वैमनस्यता बढ़ाने वाला होता है। हाल ही में अपनी फिल्म के प्रमोशन के सिलसिले में अभिनेता कमल हासन ने एक ऐसा बयान दे दिया जिसके बाद दक्षिण भारत की दो भाषाओं के समर्थकों के बीच तनाव हो गया है। कमल हासन ने कहा कि कन्नड भाषा तमिल से पैदा हुई है। इसके बाद कर्नाटक में कमल हासन का विरोध आरंभ हो गया। उनकी फिल्म के पोस्टर जलाए गए। कहा जा रहा है कि उनकी फिल्म का प्रदर्शन भी कर्नाटक में नहीं होगा। हर रोज कमल हासन का विरोध हो रहा है लेकिन वो निरंतर अपनी बात पर डटे हुए हैं। कह रहे हैं कि अपने बयान के लिए क्षमा नहीं मांगेगे। अब पता नहीं इस विवाद से उनकी फिल्म को लाभ होगा या नहीं। जो भी हो वो तो समय बताएगा। 

इस बीच एक ऐसी खबर आई जिसको सुनकर चौंका। पता चला कि तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) ने कमल हासन  की राज्यसभा की उम्मीदवारी को समर्थन देने का निर्णय लिया है। उनके समर्थन के बाद मक्कल निधि माय्यम पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर कमल हासन की जीत तय है। मक्कल निधि माय्यम कमल हासन की ही पार्टी है। तमिलनाडू में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होनेवाले हैं। ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि कमल हासन के राज्यसभा में जाने के बाद वहां की राजनीति में क्या बदलाव आते हैं। कमल हासन अभिनेता के तौर पर तो तमिलनाडू में लोकप्रिय हैं लेकिन राजनीति में बहुत दिनों से हाथ पैर मारने के बावजूद कुछ विशेष कर नहीं पाए । कमल हासन ने 2018 में मक्कल निधि मायय्म नाम से एक पार्टी बनाई थी। उसके बैनर तले 2019 का लोकसभा चुनाव भी लड़ा था। उस चुनाव में भी उनकी पार्टी का खाता नहीं खुल पाया था। कुछ चुनावी विशेषज्ञों और वामपंथी उदारवादी राजनीतिज्ञों को उम्मीद थी कि कमल हासन और उनकी पार्टी विधानसभा चुनाव में बेहतर करेगी । चुनाव को त्रिकोणीय कर देगी। पर ऐसा हो नहीं सका था। जब तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के परिणाम आए थे तो कमल हासन कोयंबटूर दक्षिण सीट से भारतीय जनता पार्टी महिला मोर्चा की अध्यक्ष वनाथी श्रीनिवासन से पराजित हो गए। उनकी पार्टी का भी बुरा हाल रहा। तमिल-कन्नड़ विवाद के बीच कमल हासन को डीएमके ने राज्यसभा में भेजने का निर्णयय लिया है, पता नहीं ये संयोग है या प्रयोग। अगर संयोग है तो राजनीति में इस तरह के संयोग बिरले होते हैं। अगर ये प्रयोग है तो खतरनाक है। क्योंकि इसकी बुनियाद में भाषाई वैमनस्यता है। दो राज्यों के बीच तनाव बढ़ाने वाले को पुरस्कृत करने का प्रयोग उचित नहीं कहा जा सकता है। 

एक तरफ तमिल और तेलुगु के बीच विवाद खड़ा किया जा रहा है तो दूसरी ओर 22 मई को केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने अपने से संबद्ध सभी स्कूलों को एक 2023 के राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा के आलोक में आरंभिक शिक्षा की भाषा को लेकर एक दिशानिर्देश जारी किया है। स्कूली शिक्षा के लिए तैयार किए गए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा में आरंभिक शिक्षा मातृभाषा में करवाने की अनुशंसा की गई थी। प्री प्राइमरी से लेकर ग्रेड दो तक को आर 1 और आर 2 की भाषा पढ़ाने की सलाह दी गई है। अबतक चले आ रहे त्रिभाषा फार्मूले में बदलाव किया गया है। पहले त्रिभाषा फार्मूला का मतलब होता था कि मातृभाषा, अंग्रेजी और तीसरी भाषा के तौर पर अहिंदी भाषी राज्य में हिंदी। लेकिन आर-1 और आर 2 में इसको पलट दिया गया है। इसमें अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त की गई है। उसके स्थान पर भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता दी गई है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा में किसी भाषा विशेष का उल्लेख न करते हुए उसे समभाव से परिभाषित किया गया। एक नए सोच को सामने रखते हुए पहली, दूसरी और तीसरी भाषा की जगह आर-1, आर-2 और आर-3 शब्द  का प्रयोग किया गया। आर-1 में मातृभाषा या राज्य की भाषा को स्थान दिया गया। इसमें मातृभाषा और राज्य दोनों को रखा गया क्योंकि यह जरूरी नहीं कि मातृभाषा और राज्य भाषा एक हो। आर-2 में आर-1 के अलावा कोई भी भाषा, आर-3 में आर-1 और आर-2 के अलावा कोई भी भारतीय भाषा। इसका परिणाम ये हो रहा है कि अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त हो गई। सीबीएसई ने अपने स्कूलों को इसी फार्मूले को लागू करने का दिशा निर्देश जारी किया है।

सीबीएसई के इस नए दिशा निर्देश के पीछे के उद्देश्यों को समझने की आवश्यकता है। बच्चों को जब आरंभिक शिक्षा दी जी है तो वो मौखिक होती है। मौखिक शिक्षा जब मातृभाषा में दी जाएगी तो वो ना केवल पनी भाषा से परिचित होंगे बल्कि उनके घर परिवार का जो वातावरण होगा उसको समझने में भी मदद होगी। कुछ लोग महानगरीय स्कूलों का हवाला देकर इस फार्मूले में मीनमेख निकालने का प्रयास कर रहे हैं। उनका कहना है कि महानगरों के स्कूलों में विभिन्न मातृभाषा वाले बच्चे आते हैं। ऐसे में उनकी मातृभाषा के अनुसार पढ़ाई का माध्यम तय करने में कठिनाई होगी। कठिनाई तो हर नए काम में आती है लेकिन फिर रास्ता भी उन्हीं कठिनाइयों के बीच से निकलता है। जब मानस में अंग्रेजी अटकी होगी तो इस कठिनाई को दूर करने में बाधाएं आएंगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति इस बाधा को दूर करने का उपाय ढूंढती है। कुछ लोगों का कहना है कि ऐसा करके हिंदी थोपी जा रही है। इस तरह की बातें भी वही लोग कर रहे हैं जिनको भारतीय भाषाओं के उन्नयन से परेशानी है। वो चाहते हैं कि अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहे। आर 1 को व्यावहारिक नहीं मानने वालों का तर्क है कि अगर एक ही स्कूल में गुजराती, मराठी और कन्नड़ भाषी परिवार के बच्चे पहुंचते हैं तो वो क्या पढ़ेंगे। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा में इस बात का ध्यान रखा गया है और उनके लिए राज्य भाषा का विकल्प उपलब्ध करवाया गया है। अब समय आ गया है कि भाषा के नाम पर जो विभाजनकारी खेल खेला जा रहा है उसको रोका जाए क्योंकि उससे किसी हितधारक का लाभ नहीं है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने से हमारी शिक्षा पद्धति औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होगी जो अकादमिक क्षेत्र के लिए अति आवश्यक है। 

Saturday, May 24, 2025

अत्यधिक प्रशंसा से दोषपूर्ण निष्कर्ष


रील की दुनिया गजब है। वहां कई तरह की मनोरंजक सामग्री मिल जाती है। हाल ही में एक एक रील दिखा जिसमें अभिनेता मनोज वाजपेयी, पंकज त्रिपाठी, कवि कुमार विश्वास और हास्य कलाकार कपिल शर्मा एक शो में बैठे बातें कर रहे थे। सब एक दूसरे की प्रशंसा कर रहे थे। चारों वाकपटु हैं इस कारण प्रशंसा की अति बुरी नहीं लग रही थी। पहले कुमार विश्वास ने अभिनेता मनोज वाजपेयी की प्रशंसा की। मनोज बाजपेयी ने भी कुमार विश्वास की तारीफों के पुल बांध दिए। मनोज ने भाषा से बात आरंभ की, कुमार के बारे में एक बात मैं बताऊं कि जब हमलोग तीस के आसपास हो रहे थे तो हमारी पूरी की पूरी कोशिश ये थी कि हमारी अंग्रेजी अच्छी हो जाए। वो अंग्रेजी को भाषा नहीं मानते खासकर हिन्दुस्तान में इसको भाषा के तौर पर कभी लिया नहीं गया। इसको स्किल के तौर पर लिया गया। अगर आपको अंग्रेजी नहीं आती है तो आपको मौका नहीं मिलेगा। उस दौर में एक युवा कवि आता है और पूरा का पूरा जो साहित्य है उसको पलट देता है। उसको जनमानस तक लेकर जाता है। वो हैं कुमार विश्वास। मनोज वाजपेयी इतने पर ही नहीं रुके और कहने लगे कि ये काम अपने समय में दिनकर साहब ने किया था। जब क्लिष्ट हिंदी को उन्होंने बोलने चालने की भाषा में परिवर्तित किया और उसमें बड़ी बड़ी बातें की और गांव गांव तक कविता को पहुंचाया था। वही काम श्री हरिवंश राय बच्चन ने भी किया था।  

मैंने इस क्लिप को तीन बार सुना क्योंकि मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। लग रहा था कि किसी ने एआई से बनाकर शरारत की है। पता चला कि मनोज वाजपेयी ने सच में पंच वर्ष पूर्व ऐसा कहा था। रील के मूल वीडियो तक जाकर पुष्टि की। कुमार विश्वास बेहद लोकप्रिय कवि हैं। उनकी कविता, कोई दीवाना कहता है, लोकप्रिय है। इस कविता के उनकी कविताओं से हमारा परिचय नहीं है इसलिए टिप्पणी नहीं करूंगा। पर मनोज वाजपेयी के इस कथन- कि जब उनकी उम्र तीस वर्ष के आसपास थी तब कुमार विश्वास ने पूरे साहित्य को पलट कर रख दिया था- पर चर्चा अवश्य होनी चाहिए। पता नहीं मनोज वाजपेयी किस दिव्य दृष्टि से साहित्य को देख रहे थे और साहित्य के पलटने का उनका पैमाना क्या था। इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार मनोज वाजपेयी का जन्म वर्ष 1969 है। उनके हिसाब से कुमार विश्वास ने अपनी रचनात्मकता से 1999-2000 के आसपास हिंदी साहित्य को पलट दिया था। उन वर्षों में ऐसा कुछ हुआ होगा ये साहित्य जगत को ज्ञात नहीं है। उस समय कुमार विश्वास हास्य और मंचीय कवि के रूप में अपनी पहचान के लिए संघर्ष अवश्य कर रहे थे। कुमार विश्वास को देश ने अन्ना आंदोलन के समय जाना और उसके बाद उनकी सफलता एक किवदंती की तरह है। बावबूद इसके उनकी रचनात्मकता से साहित्य को कोई नई दिशा मिली हो ये सामने आना शेष है। कुमार के पास बोलने की कला है। वो श्रोताओं को बांध लेते हैं, लेकिन कवि के तौर पर उनका मूल्यांकन होना भी शेष है। 

प्रशंसा करते समय अति उत्साह में मनोज वाजपेयी ने कुमार की तुलना दिनकर और हरिवंश राय बच्चन से कर डाली। दिनकर के बारे में मनोज ने बताया कि उन्होंने हिंदी को क्लिष्टता से मुक्त किया और आम बोलचाल की भाषा में काव्य रचना कर जन जन तक पहुंचा दिया। पता नहीं आम बोलचाल की भाषा क्या होती है और उसके शब्द कैसे होते हैं। दिनकर की कविता हिमालय में उपयोग किए गए शब्द देख लेते हैं- साकार दिव्य गौरव विराट, पौरुष के पूंजीभूत ज्वाल। इसके अलावा इस कविता में भाल, निस्समीम व्योम, गर्वोन्नत, वितान, दग्ध, विगलित, कराल, व्याल, ज्वाल, अंबुधि, अंतस्थल, अग्निज्वाल, प्रल्य नृत्य, शंखध्वनि। इसी तरह से अगर हम दिनकर की अन्य कविताओं को देखें तो उसमें भी हिंदी के इस तरह के शब्दों का ही उपयोग हुआ है। खून या रक्त की जगह रुधिर का उपयोग करते हैं दिनकर। रश्मिरथी से लेकर हुंकार तक में दिनकर की कविताओं में शब्दों का चयन विशिष्ट है। ये कहना कि दिनकर ने बोलचाल की भाषा में कविता को गांव-गांव तक पहुंचा दिया, उचित नहीं होगा। दिनकर ने कविता को लोकप्रिय बनाया अवश्य, पर ये संभव हुआ कविता के भावों से, उसकी संवेदनाओं के लोगों से जुड़ने की शक्ति से। बच्चन की कविताओं की भाषा और उसमें प्रयुक्त शब्दों को देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि मनोज उदारता में बच्चन से कुमार की तुलना कर गए। उनकी कविता जो बीत गई में कुसुम, मधुवन, वल्लरियां, मदिरालय, मादकता और मधु, अग्निपथ में अश्रु, स्वेद और रक्त, मुझे पुकार लो में तिमिर, नेत्र, विनष्ट, विभावरी, निदाघ और सुधामयी जैसे शब्द आते हैं। क्या ये बोलचाल के शब्द हैं? 

प्रशंसा करना अच्छी बात है लेकिन तुलना तो ऐसी होनी चाहिए कि लोगों के गले उतर सके। माना कि वो हास्य का मंच था। वहां सबकुछ हास्यभाव से कहा जा रहा होगा। हास्य के मंच पर भी जब दिनकर और बच्चन की कविताओं पर बात होती है तो चुटकुलेबाजी नहीं चल सकती। हल्की टिप्पणी भी नहीं। इन दोनों कवियों का शब्द भंडार इतना समृद्ध था कि उसको पढ़कर साहित्य की कई पीढ़ियां संस्कारित हुईं। मनोज वाजपेयी एक गंभीर अभिनेता हैं, उन्होंने अभिनय की वो ऊंचाई छू ली है जहां कम ही लोग पहुंच पाते हैं। उनको समाज सुनता है और उनके कहे को गंभीरता से याद ही नहीं रखता बल्कि समय समय पर उद्धृत भी करता है। मनोज को इसका ध्यान रखना चाहिए था। इसी तरह से इन दिनों इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर कुमार को युगकवि या महाकवि लिखा जा रहा है। कई बार पोस्टरों आदि पर भी दिख जाता है। यह भी एक प्रकार का अतिरेक है। युगकवि/महाकवि अपनी रचनाओं से बना जा सकता है इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर समर्थकों की टिप्पणी से नहीं। ये वैसा ही है जैसे न्यूज चैनलों पर चलनेवाली बहस में किसी नाम के आगे चिंतक या विचारक लिख दिया जाता है। प्रश्न ये उठता है कि क्या वो सही अर्थ में विचारक या चिंतक हैं। सफल अभिनेता और सफल नेता को अब भी हमारा समाज ध्यान से सुनता है। इस कारण उनकी जिम्मेदारी है कि वो जब बोलें तो सतर्क रहें। दोषपूर्ण टिप्पणियों से बचना चाहिए क्योंकि आनेवाली पीढ़ियां जब इतिहास पर नजर डालेंगी तो ये दोषपूर्ण टिप्पणियां उनको भ्रमित कर सकती हैं। 

पलामू से फ्रांस तक


कान फिल्म फेस्टिवल और प्रख्यात फिल्मकार सत्यजित राय का विशेष रिश्ता रहा है। फेस्टिवल में उपस्थित दर्शक राय की फिल्मों को दीवानगी की हद तक पसंद करते हैं। सत्यजित राय की 1970 में प्रदर्शित फिल्म अरण्येर दिन रात्रि को तकनीक का उपयोग कर प्रदर्शन योग्य बनाया गया। इस वर्ष जब रिस्टोर्ड फिल्म का कान फिल्म फेस्टिवल के दौरान प्रदर्शन किया गया तो दुनिया भर के फिल्मों से जुड़े दिग्गज इसे देखने पहुंचे। करीब 55 वर्ष पूर्व सत्यजित राय ने ये फिल्म बनाई थी। ये फिल्म बांग्ला के मशहूर लेखक सुनील गंगोपाध्याय के इसी नाम से प्रकाशित उपन्यास पर आधारित है। इस फिल्म के बनने की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। इस फिल्म के कलाकारों में से किसी एक को कभी सुना था कि इसकी शूटिंग बिहार में हुई थी। पता करने पर मालूम हुआ कि शूटिंग अविभाजित बिहार के पलामू क्षेत्र में हुई थी। जब सत्यजित राय ने सुनील गंगोपाध्याय के 120 पेज के इस उपन्यास को पढ़ा तो काफी प्रभावित हुए। उपन्यास की कहानी पलामू के जंगल में ही सेट है। सत्यजित राय रेकी के लिए पलामू पहुंचे। काफी घूमने के बाद उन्होंने केचकी और कोयल नदी के आसपास के जंगल को अपनी फिल्म की शूटिंग के लिए चुना। 

झारखंड जनसंपर्क विभाग के अधिकारी आनंद के मुताबिक 1969 में अरणेयर दिन रात्रि की शूटिंग पलामू टाइगर रिजर्व के केचकी, गारू, छिपादोहर और बेतला में हुई थी। एक सीन की शूटिंग चंदवा में भी की गई थी। फिल्म की शूटिंग के लिए सत्यजित राय पूरी टीम के साथ पलामू पहुंचे थे। अभिनेत्री शर्मिला टैगोर, सिमी ग्रेवाल, अभिनेता सौमित्रो चटर्जी, टीनू आनंद, गौतम घोष, सोमित भांजा उनके साथ थे। सभी करीब तीन महीने तक पलामू में रहे थे। दरअसल फिल्म की कहानी चार दोस्तों के के इर्द गिर्द घूमती है जो शहरी जिंदगी से ऊबकर जंगल पहुंचते हैं। वहीं उनकी मुलाकात जंगल में रहनेवाली महिलाओं से होती है। इन्हीं पात्रों के सहारे कहानी आगे बढ़ती है। सत्यजित राय ने जिस तरह से शूटिंग में प्राकृतिक दृश्यों और लाइट्स का उपयोग किया है वो देखने लायक है। आज की अभिनेत्रियों के लिए मुंबई जैसे महानगरों में शूटिंग के दौरान वैनिटी वैन खड़ी होती हैं। वो एक-दो सीन शूट करके आराम या अन्य कार्य करती हैं। कल्पना करिए 1969 में पलामू के जंगलों में शूटिंग के दौरान शर्मिला टैगोर और सिमी को कितनी परेशानी  हुई होगी। न तो वाशरूम की सुविधा और ना ही शूटिंग के अंतराल के दौरान आराम की व्यवस्था। सूरज की रोशन  के हिसाब से शूटिंग करनी होती थी। सत्यजित राय और फिल्म के कलाकार केचकी और कोयल नदी के संगम के पास बने डाक बंगला में रहते थे। इस डाकबंगला को माओवादियों ने उड़ा दिया था। अब फिर से उसका पुनर्निमाण कर रहरने योगय् बनाया गया है। 


Saturday, May 17, 2025

काल की चौहद्दी तोड़ती कविताएं


पहलगाम  में आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया तो देश के माहौल में अलग ही स्तर की राष्ट्रभक्ति दिखाई दे रही थी। हर भारतीय अपनी इस राष्ट्रभक्ति को भिन्न भिन्न तरीके से प्रकट कर रहा था। आतंकी हमले के बाद और इसके पहले भी कई महत्वपूर्ण अवसरों पर राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्तियों से लोग और संस्थाएं अपनी भावनाओं को प्रकट करती रहीं। आपरेशन सिंदूर के बाद जब भारतीय सेना पूरे घटनाक्रम की जानकारी देने आई तो दिनकर की प्रसिद्ध कविता की पंक्तियों से आरंभ किया। वे पंक्तियां कुछ इस तरह से हैं –हित वचन नहीं तूने माना/मैत्री का मूल्य न पहचाना/तो ले, मैं भी अब जाता हूं/अंतिम संकल्प सुनाता हूं/याचना नहीं, अब रण होगा/जीवन जय या कि मरण होगा। दिनकर की ये पंक्तियां रश्मिरथी के तृतीय सर्ग में है। इस कविता के माध्यम से भारत ने पाकिस्तान को संदेश देते हुए अपना अंतिम संकल्प सुना दिया। इसके पहले जब पहलगाम आतंकी हमला हुआ था। जनता आतंकवादियों से प्रतिशोध की अपेक्षा कर रही थी, तब भी दिनकर की पंक्तियां सुनाई दे रही थीं। रे रोक युधिष्ठिर को न यहां/ जाने दे उसको स्वर्ग धीर/ पर फिरा हमें गांडीव गदा/ लौटा दे अर्जुन भीम वीर। कह दे शंकर से आज, करें वो प्रलय नृत्य फिर एक बार/सारे भारत में गूंज उठे, हर हर बम का फिर महोच्चार। दिनकर की इस कविता का शीर्षक हिमालय है। जनता के मन में आतंकवादी हमला का बदला लेने की आकांक्षा प्रबल होने लगी तो वे इन पंक्तियों के माध्यम से अपनी भावनाओं का प्रकटीकरण कर रहे थे। आशय ये था कि बहुत हुई बातचीत, बहुत हुई समाझाने बुझाने की प्रक्रिया। अब समय है सबक सिखाने का । सबक सिखाने के लिए धर्मराज युधिष्ठिर की आवश्यकता नहीं है उसके लिए बलशाली अर्जुन और भीम की जरूरत है।

दिनकर की ये कविता हिमालय, भारत चीन युद्ध के दौरान भी खूब गाई गई थी। उस समय जवाहरलाल नेहरू की छवि शांति चाहनेवाले नेता के रूप में थी। जब चीन, भारतीय सेना पर भारी पड़ने लगा था तब दिनकर की इस कविता से नेहरू को ललकारा गया था। इसी तरह से दिनकर के प्रबंध काव्य रश्मिरथी के तीसरे सर्ग की ही कुछ और पंक्तियां बहुधा सुनाई देती हैं। वे पंक्तियां हैं, जब नाश मनुज पर छाता है तो पहले विवेक मर जाता है। दिनकर हिंदी कविता के ऐसे कवि हैं जो देश काल और परिस्थिति से ऊपर उठ चुके हैं। सही मायनों में अगर देखा जाए तो तुलसीदास के बाद दिनकर ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं लोक में काफी पसंद की जाती हैं। कई लोगों को कंठस्थ भी हैं। चाहे वो उर्वशी के सर्ग हों या कुरुक्षेत्र या रश्मिरथी के। सिर्फ युद्ध ही नहीं, इमरजेंसी के दौरान भी दिनकर की कविताएं गाई जा रही थीं। पूरा देश इंदिरा गांधी के विरुद्ध खड़ा था। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन जोर पकड़ रहा था। कहा तो यहां तक जाता है कि दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण ने दिनकर की कविता का पाठ किया था। इसकी कविता की अंतिम पंक्तियां हैं, फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं /धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है/दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो /सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। समय का घर्घर-नाद है उसके माद्यम से इंदिरा गांधी को जयप्रकाश नारायण संदेश दे रहे थे। क्या जनता पार्ची का चुनाव चिन्ह हलधर किसान भी इस कविता से ही प्रेरित है? दिनकर की यही पंक्तियां 2011 में दिल्ली में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान भी सुनने को मिली थीं। दिनकर ने ये कविता देश में इमरजेंसी लगाए जाने के दशकों पहले लिखी थी। इतने वर्षों बाद भी लोगों के मानस पर अंकित थीं। इसी तरह से रश्मिरथी का रचनाकाल भी 1952 का है, लेकिन जब सेना को 2025 में पाकिस्तान को संदेश देना था तो उसने दिनकर की कविता चुनी।

इतना ही नहीं आप न्यूज चैनलों पर चलनेवाले डिबेट्स में या विचार गोष्ठियों में एक पंक्ति अवश्य सुनते होंगे। कई बार नेता अपनी चुनावी रैलियों में भी इस पंक्ति का उपयोग करते हुए दिखाई देते हैं। वो पंक्ति है, समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध। अब दिनकर की कविता के साथ एक खूबसूरत बात ये है कि अलग अलग पक्षों के लोग उनकी पंक्तियों का उपयोग अपने तर्कों को बल प्रदान करने के लिए करते हैं। अगर विपक्षी दलों को प्रधानमंत्री मोदी के समर्थकों को घेरना होता है तो वो इस पंक्ति का उपयोग करते हैं। मोदी के कुछ समर्थक जिनका दिनकर की इस कविता से परिचय है वो विपक्षी दलों को इसी कविता की अन्य पंक्ति से घेर लेते हैं। वो पंक्ति है, समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल। इस तरह से देखें तो दिनकर की एक ही कविता पक्ष और विपक्ष दोनों उद्धृत करते हैं। इतना ही नहीं जब देश में जाति गणना की बात हुई तो समाचार चैनलों पर बहस चलने लगी थी। अलग अलग पक्ष के लोग अलग अलग दलीलें दे रहे थे। जाति गणना में भी दिनकर की कविता की पंक्ति सामने आ रही थी। रश्मिरथी के प्रथम सर्ग में जब कर्ण से कहा जाता है कि वो अगर अर्जुन से लड़ना चाहता है तो उसको अपनी जाति बतानी होगी। तब कर्ण व्यथित होता है। झुब्ध भी। कर्ण की मनोदशा को चित्रित करते हुए दिनकर रचते हैं- ‘जाति!, हाय री जाति!’ कर्ण का ह्रदय क्षोभ से डोला/कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला/जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड/मैं क्या जानूं जाति?/जाति हैं मेरे ये भुजदंड। इस कविता की पंक्ति जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड जमकर उद्धृत होती है।    

दरअसल दिनकर की कविताओं विशेषकर उनके प्रबंध काव्य या कथा काव्य पर गंभीरता से विचार करें तो ये स्पष्ट होता है कि दिनकर अतीत और वर्तमान दोनों को साथ लेकर चलते हैं। ना केवल साथ लेकर चलते हैं बल्कि परंपरा और आधुनिकता का निर्वाह भी करते हैं। कई लोग उनके इन काव्यों को युद्ध काव्य कहते हैं लेकिन अगर समग्रता में विचार करें तो दिनकर अपने इन प्रबंध काव्यों में कहीं भी युद्ध का समर्थन नहीं करते हैं। दिनकर का कवित्व इन्हीं गुणों के कारण समकालीन बना रहता है। दिनकर की सिर्फ कविताएं ही नहीं बल्कि उनके लिखे गद्या भी असाधारण रूप से काल की चौहद्दी को तोड़ते चलते हैं। इसी असाधारण गुण के कारण उनकी रचनाएं कालजयी हो गई हैं।  

Saturday, May 10, 2025

साइबर आतंकवादी भी युद्ध में सक्रिय


भरत-पाकिस्तान के बीच भले ही युद्ध विराम की सहमति बन गई हो लेकिन  एक युद्ध इंटरनेट मीडिया पर भी लड़ा गया और ऐसा लगता है कि आगे भी लड़ा जाएगा। एक्स, फेसबुक और अन्य इंटरनेट प्लेटफार्म पर तरह तरह के वीडियो की बाढ आई है। पुराने वीडियो भी नए बताकर चलाए जा रहे हैं। कई पाकिस्तानी हैंडल से फेक सूचनाओं को प्रसारित किया जा रहा है। एआई का उपयोग करके फेक वीडियो इंटरनेट मीडिया पर प्रचलित हो रहे हैं। आपरेशन सिंदूर के चौथे दिन एआई से बना एक वीडियो इंटनेट मीडिया पर खूब प्रचलित हो रहा है। इस फेक वीडियो में विदेश मंत्री डा एस जयशंकर युद्ध के लिए क्षमा मांगते दिख रहे हैं। एआई की मदद से बने इस फेक वीडियो को इंटरनेट मीडिया पर पाकिस्तानी साइबर आतंकवादी प्रचलित कर रहे हैं। इस कारण सूचनाओं के लिए इन प्लेटफार्म्स पर आ रहे वीडियो को सही मानना जोखिम भरा है। दो देशों के बीच गोला बारूद से लड़े गए युद्ध में एक युद्ध साइबर स्पेस में भी लड़ा गया और आगे भी ये जारी रह सकता है। दिन रात कई साइबर लड़ाके इस काम में लगे हुए हैं। उनका काम ही मिसइनफार्मेशन फैलाना है। ये एक ऐसा स्पेस है जहां मनोबल बढ़ाने या तोड़ने का काम होता है। पाकिस्तान से सक्रिय कई एक्स हैंडल हिंदू नाम से बनाए गए। वो प्रामाणिक तरीके से पोस्ट करते हैं जिससे ये प्रतीत हो कि वो भारत से पोस्ट हो रहे हैं। इन फेक पोस्ट को लेकर पाकिस्तान  मीडिया अपने चैनलों पर चलाने लगते हैं। शनिवार को पाकिस्तान के साइबर फिदायीनों ने इसी तरह का समाचार चलाया। इसे पहले तो राष्ट्रभक्त नाम के एक हैंडल से प्रसारित किया गया। लेकिन अब इन मूर्खों को कौन समझाए कि युद्ध के समय थोड़ी सी चूक भी किसी भी पक्ष के लिए भारी पड़ सकती है। इस हैंडल ने लिख दिया कि पाकिस्तानी नेवी के हमले में बेंगलुरू और पटना के पोर्ट तबाह हो गए। इसको लेकर पाकिस्तान के एक न्यूज चैनल ने खबर चला दी। कहने लगे कि भारतीय खुद मान रहे हैं कि पाकिस्तानी नेवी के हमले में उनके दो बंदरगाह तबाह हो गए। अब इन अक्ल के कच्चों को कौन बताए कि ना तो पटना में बंदरगाह है और ना ही बेंगलुरू में। थोड़ी बाद ये खबर पाकिस्तानी न्यूज चैनल से हटा। 

दरअसल एआई के आने और उसके टूल्स के निरंतर विकसित होने से से ये सब काम आसान हो गया है। अब किसी भी व्यक्ति की आवाज में वक्तव्य दिलवाया जा सकता है। अगर जनता शिक्षित नहीं है और उसको एआई और उसके कारनामों का ज्ञान नहीं है तो वो इनको सच मान लेती है। वक्तव्यों के अलावा भी एआई से कई ऐसे वीडियो बनाए जा रहे हैं जिसमें विमानों को नष्ट करते हुए दिखाया जा सकता है।किसी भी पुराने वीडियो को नए स्वरूप में ढालकर पेश किया जा सकता है। जब तक फैक्ट चेक होगा तब तक उसका असर हो चुका होता है। जैसे भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान पाकिस्तानी हैंडल से साइबर आतंकवादियों ने एक वीडियो पोस्ट किया जिसमें वो ये दिखा रहे हैं कि एक पायलट पैराशूट से किसी खेत में उतर रही है और उसके सामने पाकिस्तानी सैनिक खड़ा है। फिर महिला पायलट की एक जमीन पर लेटी फोटो आती है जिसमें वो मुंह ढ़के है। उसके हाथ में फोन है। इसमें टिप्पणी लिखी है कि इंडियन फीमेल पायलट अरेस्टेड। माशाअल्लाह फोन नहीं छूटा लेकिन जहाज नष्ट हो गया। इस फेक वीडियो और फोटो को इस तरह से चलाया गया कि भारतीय पायलट शिवांगी सिंह के विमान को पाकिस्तानी फाइटर प्लेन ने गिरा दिया। शिवांगी सिंह बच गई और पाकिस्तानी सेना के कब्जे में है। सचाई ये है कि ये पुरानी इमेज है। जून 2023 में कर्नाटक में एक ट्रेनर विमान गिरा था उसकी महिला पायलट की फोटो है। भारत के प्रेस इंफैर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) ने फैक्ट चेक करके बता दिया। इस युद्ध के दौरान प्रोपगैंडा को थामने में पीआईबी की फैक्ट चेकिंग यूनिट ने शानदार काम किया है। 

दूसरी समस्या भारत के कथित बुद्धिजीवियों की है। जो पता नहीं किस दबाव में या किन परिस्थितियों के चलते युद्ध के विरोध में लिखने लगते हैं। कुछ कथित नारीवादियों ने आपरेशन सिंदूर को लेकर प्रश्न उठाए। उनको इस नाम में पितृसत्तात्मकता की बू आ रही थी। ऐसे लोगों की मानसिक स्थिति का सहसा अनुमान लगाना कठिन है। इनके लिखे का नोटिस लेकर अकारण इनको चर्चित करने से भी बचा जाना चाहिए। सिंदूर की भारतीय समाज में क्या महत्ता है इसको ये नारीवादी शायद समझती नहीं हैं। भारतीय समाज, यहां की परंपरा, यहां के रीति रिवाजों को मूर्खतापूर्ण विदेशी वाक्यांशों और अधकचरे ज्ञान से समझना मुश्किल है। हां इतना अवश्य है कि उनको फेसबुक आदि पर थोड़ी चर्चा मिल जाती है। इंगेजमेंट से रीच बढ़ाने में मदद मिलती है। इस तरह की ऊलजलूल टिप्पणी भी तकनीक और उससे होनेवाले लाभ को ध्यान में रखकर की जाती है। फेसबुक के प्रोफेशनल डैशबोर्ड पर जाकर इंगेजमेंट से होनेवाले लाभ को देखा जा सकता है। जिस तरह से कुछ यूट्यूबर्स हर दिन मोदी की सरकार गिरा देते हैं, मोदी और अमित शाह के बीच झगड़ा करवा देते हैं जैसे मूर्खतापूर्ण और मनोरंजक थंबनेल लगाकर दर्शकों को खींचने का प्रयास करते हैं उसी तरह से फेसबुकिया फेमीनाजी भी इस तरह का उपक्रम करती हैं। 

भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान भारत सरकार ने कुछ यूट्यूब चैनल्स को उनकी कंटेंट के आधार पर प्रतिबंधित किया। इसके अलावा कुछेक वेबसाइट्स को भी प्रतिबंधित किया गया। ऐसे ही एक बेवसाइट को प्रतिबंधित करने की खबर पर हिंदी की बुजुर्ग साहित्यकार मृदुला गर्ग ने लिखा, लास्ट नेल इन द काफीन आफ डेमोक्रेसी। मृदुला जी की प्रतिष्ठा एक पढ़ी लिखी समझदार लेखिका के तौर पर हिंदी समाज में थी। पहलगाम में आतंकवादी हमले के बाद से उन्होंने जिस तरह की टिप्पणियां करनी आरंभ की जिससे लगा कि उनकी समझ पर उनकी उम्र हावी हो गई है। उपरोक्त टिपप्णी से तो ऐसा प्रतीत होता है कि मृदुला जी को ना तो लोकतंत्र की समझ है और ना ही युद्ध के समय सरकार के निर्णयों को लेकर उनकी समझ परिपक्व हुई है। कहीं से कुछ सुन लिया किसी ने कुछ समझा दिया और फेसबुक पर आकर टिप्पणी कर क्रांति करने लगीं। मृदुला जी जैसी कई अन्य लेखिकाएं हिंदी में हैं जो इस कारण से हर विषय में कूदती हैं ताकि उनको भी वैचारिक रूप से समृद्ध माना जाए। ऐसा करने के क्रम में वो खुद को उपहास का पात्र बना डालती हैं।  

Saturday, May 3, 2025

स्क्रीन का आकार छोटा संभावनाएं अनंत


भारत कथावाचकों का देश रहा है, इस बात की लंबे समय से चर्चा होती रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पिछले कार्यकाल में मन की बात कार्यक्रम में इस बात को रेखांकित भी किया था। मनोरंजन के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर इस बात को कहा जाता रहा है। इस स्तंभ में भी इसकी चर्चा होती रही है। मुंबई के नीता मुकेश अंबानी कल्चरल सेंटर में 1 से 4 मई तक विश्व दृश्य श्रव्य और मनोरंजन शिखर सम्मेलन- वेव्स का आयोजन हुआ। इसके शुभारंभ के अवसर भी प्रधानमंत्री ने इस बात को दोहराया कि भारत कथावाचकों की भूमि रही है। उन्होंने कहा कि भारत न केवल एक अरब से अधिक आबादी का घर है, बल्कि एक अरब से अधिक कहानियों का भी घर है। देश के समृद्ध कलात्मक इतिहास का संदर्भ  देते हुए उन्होंने याद दिलाया कि दो हज़ार साल पहले, भरत मुनि के नाट्य शास्त्र ने भावनाओं और मानवीय अनुभवों को आकार देने में कला की शक्ति पर बल दिया था। उन्होंने कहा कि सदियों पहले, कालिदास के अभिज्ञान-शाकुंतलम ने शास्त्रीय नाटक में एक नई दिशा प्रस्तुत की। प्रधानमंत्री ने भारत की गहरी सांस्कृतिक जड़ों को रेखांकित करते हुए कहा कि हर गली की एक कहानी है, हर पहाड़ का एक गीत है और हर नदी एक धुन गुनगुनाती है। उन्होंने कहा कि भारत के छह लाख गांवों में से प्रत्येक की अपनी लोक परंपराएं और अनूठी कहानी कहने की शैली है, जहां समुदाय लोकगीतों के माध्यम से अपने इतिहास को संरक्षित करते हैं। उन्होंने भारतीय संगीत के आध्यात्मिक महत्व का भी उल्लेख करते हुए कहा कि चाहे वह भजन हो, ग़ज़ल हो, शास्त्रीय रचनाएं हों या समकालीन धुनें हों, हर धुन में एक कहानी होती है और हर लय में एक आत्मा होती है। इस शिखर सम्मेलन में चार दिनों तक कई सत्रों में देश विदेश के फिल्मों, ब्राडिंग, मार्केटिंग,गेमिंग और एनिमेशन से जुड़े लोगों ने इन क्षेत्रों में वैश्विक स्तर पर उफलब्ध संभावनाओं पर चर्चा की। कई देशों के मंत्री भी इसमें शामिल हुए।

इस सम्मेलन के दौरान काफी बड़ी संख्या में लोग जुटे। इससे ये पता चलता है कि मनोरंजन जगत में लोगों की बहुत रुचि है। यहां गेमिंग और एनिमेशन से जुड़े युवाओं को प्रोत्साहित किया गया। मंच पर पुरस्कृत होनेवाले कटेंट क्रिएटर्स की औसत उम्र 25 वर्ष के आसपास लग रही थी। लगभग सभी युवा थे जिन्होंने बेहतर कटेंट क्रिएट किया। भारत को विकसित राष्ट्र बनाना है तो सिर्फ पारपंरिक तरीके से विकास के रास्ते पर चलकर इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता है। इसके लिए गैर पारंपरिक क्षेत्रों से देश की आर्थिकी को मजबूती प्रदान करनेवाले और आय बढ़ाने के रास्ते खोजने होंगे। भारत में जिस तरह की कहानियों का भंडार है और उन कहानियों पर बेहतर कटेंट क्रिएट करने की प्रतिभा है उसका वैश्विक स्तर पर उपयोग करके देश की आय बढ़ाई जा सकती है। भारत में हर क्षेत्र में कितनी प्रतिभा है इसका आकलन सिलिकान वैली में कंप्यूटर साफ्टवेयर के क्षेत्र में कार्य कर रहे भारतीयों और उनकी उपल्बधियों को देखकर सहज ही किया जा सकता है। गेमिंग के बढ़ते हुए बाजार को ध्यान में रखते हुए उस दिशा में कार्य करना होगा। गेमिंग का वैश्विक बाजार बहुत बड़ा हो गया है। बड़ी बड़ी कंपनियां इसमें हजारों करोड़ रुपए का निवेश कर रही हैं। इस शिखर सम्मेलन के दौरान होने वाली चर्चाओं में ये बात स्पष्ट रूप से निकलकर आई कि भारत को इस क्षेत्र में मजबूती से स्थापित होने की आवश्यकता है। सरकार ने इस दिशा में पहल की है। इसका स्वागत अभिनेता आमिर खान जैसे लोगों ने भी किया। आमिर खान ने माना कि पहली बार किसी सरकार ने मनोरंजन जगत के लोगों से संवाद करने की पहल की है। उनके साथ बैठकर इस क्षेत्र को आगे बढ़ाने की योजनों और संभावनों पर विचार किया है। वेव्स में दुनिया भर के क्रिएटर्स, स्टार्टअप्स, उद्योग प्रमुखों और नीति निर्माताओं को एक मंच पर लाकर मीडिया, मनोरंजन और डिजिटल नवाचार का वैश्विक केंद्र बनाना लक्ष्य है।

भारत की फिल्मों को साफ्ट पावर के तौर पर उपयोग करने की बात भी लंबे समय से होती रही है। मुझे याद आ रहा है 2012 का एक किस्सा। इस वर्ष जोहानिसबर्ग में विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ था। मारीशस के तत्कालीन कला और संस्कृति मंत्री चुन्नी रामप्रकाश ने कहा था कि हिंदी के प्रचार प्रसार में फिल्में और टेलीविजन पर चलनेवाले सीरियल्स का बड़ा योगदान है। उन्होंने मंच से स्वीकार किया कि हिंदी फिल्मों और टीवी सीरियल्स के कारण ही उन्होंने हिंदी सीखी। अपने वक्तव्य में उन्होंने भारत में बनने वाले टीवी सीरियल्स के नाम भी लिए और कहा उनकी लोकप्रियता की वजह से विदेश में गैर हिंदी भाषी भी उसको देखते हैं। इसी तरह 2023 में फिजी के नांदी में विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान मंच पर भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और फिजी के राष्ट्रपति रातू विलियामे काटोनिवेरी बैठे थे। दोनों के बीच बातचीत हो रही थी। राष्ट्रपति रातू हिंदी फिल्मों की चर्चा कर रहे थे। जयशंकर ने इनसे पूछा कि उनको सबसे अच्छी हिंदी फिल्म कौन से लगी तो राष्ट्रपति ने उनसे कहा कि शोले। इस फिल्म का कोई मुकाबला नहीं है। 

वेव्स का आयोजन पहले दिल्ली में होना था लेकिन बाद में किसी कारणवश इसको मुंबई शिफ्ट किया गया। आयोजन की भव्यता और भागीदारी देखने के बाद लगा कि मुंबई ही सही जगह है। वेव्स के आयोजन के बाद अब गोवा में होनेवाले अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल (ईफ्फी) के कई आयामों को लेकर संशय उत्पन्न हो गया है। ईफ्फी में फिल्म बाजार लगता है और वेव्स में भी इस प्रकार का ही एक आयोजन है। ईफ्फी में 75 क्रिएटिव माइडंस का आयोजन होता है, वेव्स में भी क्रिएटिव अवार्ड दिए गए। ईफ्फी में फिल्मकारों को कई तरह के पुरस्कार दिए जाते हैं, वेव्स के लिए भी प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि अगले संस्करणों में पुरस्कार देने की योजना है। दोनों आयोजन भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के हैं। जब वेव्स के आयोजन को सरकार प्राथमिकता देगी तो ईफ्फी पर इसका असर पड़ सकता है। वैसे भी ईफ्फी को लेकर एक कंफ्यूजन लंबे समय से है कि वो फिल्म फेस्टिवल रहे या उसको अवार्ड का मंच बने। ईफ्फी के आयोजन के दौरान ये ब्रम दिखता है। ईफ्फी को बेहतरीन फिल्म फेस्टिवल बनाने पर जोर देना चाहिए। वहां जिस तरह से प्रदर्शनियां और फूड कोर्ट आदि लगाए जाते हैं उससे बचना होगा। इसमें खर्च होनेवाले संसाधनों को फेस्टिवल में बेहतर फिल्मों को लाने और चर्चा सत्रों पर उपयोग किया जा सकता है। वेव्स के सफल आयोजन के बाद ईफ्फी को लेकर सूचना और प्रसारण मंत्रालय को पुनर्विचार करना चाहिए। 

वेव्स का आयोजन मनोरंजन जगत के लिए अच्छे दिन का संकेत तो है भविष्य में इनसे जुड़कर युवाओं को रोजगार की संभावनाएं तलाशने में मदद मिलेगी। प्रधानमंत्री ने भी माना कि स्क्रीन का आकार छोटा हो सकता है, लेकिन दायरा अनंत होता जा रहा है, स्क्रीन छोटी हो रही है, लेकिन संदेश व्‍यापक होता जा रहा है। कहा जा सकता है कि यही समय है सही समय है। 


Saturday, April 26, 2025

सीन के बाद रील आधारित लेखन


पिछले सप्ताह कुछ मित्रों के साथ हिंदी में प्रकाशित नई पुस्तकों पर चर्चा हो रही थी। हिंदी में लिखा जा रहा साहित्य भी इस चर्चा में आया। साहित्य में जिस तरह का लेखन हो रहा है उसको लेकर एक दो मित्रों की राय नकारात्मक थी। चर्चा में ये बात भी आई कि औसत या खराब तो हर काल में लिखा जाता रहा है। जो रचना अच्छी या स्तरीय होती है वो लंबे समय तक पाठकों की पसंद बनी रहती है। इसी चर्चा में एक दिलचस्प बात निकलकर आई। वो ये कि इन दिनों हिंदी के कई प्रकाशक उन्हीं विषयों को प्राथमिकता दे रहे हैं जिन विषयों पर बहुतायत में रील्स इंस्टा या एक्स पर प्रसारित हो रहे हैं। इसके लिए प्रकाशक किसी भी भाषा में लिखी पुस्तक के अधिकार खरीदकर उसको हिंदी में प्रकाशित भी कर रहे हैं। आज रील्स की दुनिया में सफल बनने के नुस्खे, पैसे कमाने की विधि, जल्द से जल्द अमीर कैसे बनें, करियर में बेहतर कैसे करें, नौकरी कैसे मिलेगी, शेयर बाजार में निवेश से कैसे बनें करोड़पति, भगवान की aपूजा कैसे करें, किस भगवान की पूजा किस दिन करने से प्रभु प्रसन्न होते हैं आदि आदि विषय पर काफी कंटेंट है। सफलता कैसे प्राप्त करें, नौकरी में कैसे व्यवहार करें, टाइम मैनेजमेंट, शेयर बाजार में निवेश पर दर्जनों किताब हाल के दिनों में मेरी नजर से गुजरी है। एक और विषय इन दिनों हिंदी के प्रकाशकों को लुभा रहा है वो है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस( एआई) यानि कृत्रिम बुद्धिमत्ता। इस वुषय पर भी हिंदी में कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं लेकिन अभी इन पुस्तकों को स्तर प्राप्त करना शेष है। इस विषय की अधिकतर पुस्तकें गूगल बाबा की कृपा से प्रकाशित हुई हैं। 

चर्चा में ही एक बात और निकल कर आई कि इन दिनों कई प्रकाशक नए लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित करने के पहले  जानना चाहते हैं कि उनके इंस्टाग्राम और एक्स या फेसबुक पर कितने फालोवर हैं। पुस्तक प्रकाशन की शर्त पहले बेहतर कृति होती थी लेकिन समय बदला और पुस्तक प्रकाशन के मानक और निर्णय के कारक भी बदलने लगे। इस शताब्दी के आरंभिक वर्षों तक इंटरनेट मीडिया का चलन इतना अधिक नहीं था। डाटा की उपलब्धता भी कम थी। इंटरनेट का देश में घनत्व कम था और डाटा इतना सस्ता भी नहीं था। जैसे जैसे कम मूल्य पर डाटा की उपलब्धता बढ़ी तो लोग इंटरनेट मीडिया का उपयोग करने लगे। 2009 के आसपास फेसबुक और ट्विटर (अब एक्स) पर लोग जुड़ने लगे थे। ये जुड़ाव समय के साथ बढ़ता चला गया। याद है कि 2014-15 के आसपास मेरे कई मित्र कहा करते थे कि फेसबुक समय बर्बादी की जगह है। वे इस माध्यम पर कभी नहीं आएंगे। उन्हीं मित्रों के फेसबुक अकाउंट की हरी बत्ती दिनभर जली देखकर मजा आता है। अब तो अधिकतर साहित्यिक बहसें फेसबुक पर ही होती हैं, कई बार सकारात्मक और बहुधा नकारात्मक। साहित्यकारों के कुंठा प्रदर्शन का भी सार्वजनिक मंच बन गया है फेसबुक। पहलगाम में हिंदुओं के नरसंहार पर कई साहित्यकारों ने ना केवल अपनी अज्ञान का सार्वजनिक प्रदर्शन किया बल्कि अपनी विचारधारा के पोषण की वफादारी में अपनी जगहंसाई भी करवाई। खैर ये अवांतर प्रसंग है जिसकी चर्चा फिर कभी। 

हम बात कर रहे थे रील प्रेरित लेखन की। दरअसल हुआ ये है कि रील्स की विषयों की लोकप्रियता को देखते हुए कुछ प्रकाशकों ने पुस्तक प्रकाशन में भी उसका प्रयोग किया। पटना और दिल्ली में आयोजित पुस्तक मेला के अनुभव ये बताते हैं कि युवा पाठक इस तरह की पुस्तकों की ओर आकर्षित हुए। अब भी हो रहे हैं। एक बात तो तय माननी चाहिए कि हिंदी के प्रकाशकों को अगर लाभ नहीं होगा तो वो बहुत दिनों तक किसी भी ट्रेंड को लेकर नहीं चलेंगे। ये कारोबार का आधार भी है। हिंदी में कविता के पाठक कम होने आरंभ हुए तो प्रकाशकों ने कविता संग्रह का प्रकाशन लगभग बंद कर दिया। कुछ दिनों पहले नई वाली हिंदी के कई लेखक आए थे। उनकी पुस्तकें खूब बिकीं । दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की सूची में कईयों को स्थान मिला, अब भी मिल रहा है। नई वाली हिंदी का परचम लेकर चलनेवाले लेखकों में से सत्य व्यास और नीलोत्पल मृणाल के अलावा कम ही लेखकों के यहां विषयों कि विविधता दिखती है। 

सत्य व्यास ने अपने उपन्यासों में लिखने की प्रविधि में बदलाव किया। कथा के प्रवाह के साथ नहीं बहे बल्कि इन्होंने शिल्प में बदलाव किया। सत्य ने अपने उपन्यासों में सीन लिखना आरंभ किया। लंबे लंबे सीन जिसका उपयोग या तो फिल्म में या फिर वेब सीरीज में किया जा सकता हो। सत्य के एक उपन्यास पर बेव सीरीज भी बनी, एकाध पर और बनने की खबर है। सत्य की सफलता से उत्साहित होकर कई नए लेखकों ने अपनी कहानियों के शिल्प में बदलाव करके सीन को अपनाया। छोटी कहानियां और छोटो उपन्यासों में सीन लेखन आसान भी है। अगर आप 600 पन्ने का कोई उपन्यास लिखेंगे तो आपको सीन की निरंतरता को बरकार रखने में पसीने छूट जाएंगे। क्रमभंग का खतरा भी उपस्थित हो सकता है। इस कारण से भी उपन्यास 150-200 पृष्ठों के आने लगे। इसको पाठकों ने भी पसंद किया। पुरानी प्रविधि से लिखे जा रहे कथा साहित्य को अपेक्षाकृत कम पाठक मिल रहे हैं। पहले इस तरह के सीन लिखने का प्रयोग सुरेन्द्र मोहन पाठक से लेकर वेद प्रकाश शर्मा, और इस जानर के ही अन्य उपन्यासकार करते थे। उन सबकी लोकप्रियता का एक कारण ये भी था। 

अब हिंदी के पाठक सीन को तो पसंद कर ही रहे हैं लेकिन सीन के बाद अब रील वाले विषयों को भी पसंद करने लगे हैं। हिंदी लेखन में आए इस बदलाव को या इस नए ट्रेंड को समझना आवश्यक है। आज के इस भौतिकवादी युग में हर कोई सफल और अमीर बनना चाहता है। इंटरनेट और मीडिया के प्रसार ने भारत की अधिकांश जनता को भैतिक सुख सुविधाओं से परिचित करवा दिया। हमारे देश में प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है, साक्षरता भी। जाहिर है सपने भी बड़े होते जा रहे हैं। इन सपनों और आकांक्षाओं को पुरानी प्रविधि से लेखन करनेवाले पकड़ नहीं पा रहे हैं। वे अब भी खेत-खलिहान, गरीब-अमीर, शोषण-शोषित, जात-पात जैसे विषयों में उलझे हैं। हमारा समाज काफी आगे बढ़ गया है। जो युवा लेखक नए विषयों को लेकर आगे बढ़े और कहानी का ट्रीटमेंट अलग तरीके से किया उनकी  पुस्तकें बिक रही हैं। प्रकाशक भी उनको छापने के लिए पलक पांवड़े बिछाए हैं। इस बात का सामने आना शेष है कि जिन लेखकों के फेसबुक या इंस्टाग्राम के फालोवर्स अधिक हैं उनकी पुस्तकें उसी अनुपात में बिक पाती हैं या नहीं। बिकने की बात हिंदी में जरा मुश्किल से पता चलती हैं। पर इतना तय है कि जिनके इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स पर फालोवर्स की संख्या अधिक है उनको अपनी पुस्तकों के प्रचार प्रसार में सहूलियत होती है। अगर ढंग से प्रचार हो जाए तो पुस्तकों के बारे में आनलाइन और आफलाइन प्लेटफार्म पर एक प्रकार की जिज्ञासा देखी जाती है। कई बार ये जिज्ञासा बिक्री तक पहुंचती है। 


Saturday, April 19, 2025

उर्दू अलग भाषा नहीं, हिंदी की बोली


हिंदी से उर्दू बनी है, उर्दू से हिंदी नहीं। हिंदी में अरबी, फारसी, तुर्की शब्द बढ़ा देने और फारसी मुहावरे चला देने से उर्दू का जन्म हुआ। वस्तुस्थिति यह है कि हिंदी के बिना उर्दू एक पग नहीं धर सकती और उर्दू के बिना हिंदी के महाग्रंथ लिखे जा सकते हैं- पंडित अंबिका प्रसाद वाजपेयी ।

आज से उन्नीस वर्ष पहले जब हिंदी साहित्य सम्मेलन का जन्म नहीं हुआ था और उसके जन्म के पश्चात भी कई वर्षों तक अपनी मातृभाषा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए पग-पग पर न केवल संस्कृत, प्राकृत, शौरसैनी, मागधी, सौराष्ट्री आदि की छानबीन करते हुए शब्द-विज्ञान और भाषा-विज्ञान के आधार पर यह सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ा करती थी कि हिंदी भाषा संस्कृत या प्राकृत की बड़ी कन्या है, किंतु बहुधा बात यहां तक पहुंच जाया करती थी और यह भी सिद्ध करना पड़ता था कि नानक और कबीर, सूर और तुलसी की भाषा का बादशाह शाहजहां के समय जन्म लेनेवाली उर्दू बोली के पहले, कोई अलग गद्य रूप भी था- गणेश शंकर विद्यार्थी- 2 मार्च 1930, गोरखपुर। 

उर्दू जिस जमीन पर खड़ी है. वह जमीन हिंदी की है। हिंदी को हम अपनी जबान के लिए उम्मुलिसान (भाषा की जननी) और हमूलाए-अव्वल (मूल तत्व) कह सकते हैं। इसके बगैर हमारे जबान की कोई हस्ती नहीं है। इसकी मदद के बगैर हम एक जुमला भी नहीं बोल सकते। जो लोग हिंदी से मुहब्बत नहीं रखते वे उर्दू जबान के हामी नहीं हैं। फारसी, अरबी या किसी दूसरी जबान के हामी हों तो हों- प्रोफेसर मौलवी वहीउद्दीन अपनी पुस्तक वजै-इस्तलाहात (परिभाषा निर्माण) में। 

इन तीन विद्वानों के उर्दू के संबंध में जो बात कही है लगभग वही बात 15 अप्रैल 2025 के अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीशों ने कही। दो जजों की बेंच ने अपने फैसले में हिंदी और उर्दू के विद्वानों के कथन के आधार पर हिंदी और उर्दू को एक ही माना प्रतीत होता है। जब अपने जमनेंट में डा रामविलास शर्मा को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि, हिंदी और उर्दू दो अलग भाषाएं नहीं है बल्कि मूलत: दोनों एक ही हैं। दोनों के सर्वनाम, क्रिया और शब्द भंडार भी लगभग एक जैसे हैं। पूरी दुनिया में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जहां दो भाषाओं के सर्वनाम और क्रिया एक ही हों। रूसी और यूक्रेनियन भाषा एक जैसे हैं लेकिन उनमें भी वो समानता नहीं है जो हिंदी और उर्दू में है। इसके अलावा भी कई लोगों के लेखन को विद्वान जजों ने उद्धृत करते हुए हिंदी और उर्दू को एक ही बताया है। बावजूद इसके सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद बहुत ही करीने से उर्दू को अलग भाषा के तौर पर स्थापित करने वाली टिप्पणियां देखने को मिली। कुछ लोगों ने लेख लिखकर उर्दू को बहुत खूबसूरत भाषा के तौर पर रेखांकित करने का प्रयास किया। 

अपने इस जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने विस्तार से हिन्दुस्तानी का उल्लेख किया है। हिन्दुस्तानी के पक्ष में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के संविधान को भी देखा और उसके अंश फैसले में लिखे। 1923 के एक संशोधन का उल्लेख करते हुए जजों ने हिन्दुस्तानी को भाषा के तौर पर लिखा है। कांग्रेस पार्टी ने अगर तय कर लिया कि उसकी कार्यवाही हिन्दुस्तानी में लिखी जाएगी तो उससे ये कैसे तय होता है कि हिन्दुस्तानी एक भाषा के तौर पर चलन में आ गया था। किसी भी भाषा का अपना विज्ञान और व्याकरण होता है। हिन्दुस्तानी का क्या है ? भारतेन्दु हरिश्चंद्र के समय भी हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर विवाद उठा था। तब राजा शिव प्रसाद ने जो भाषा फारसी में चल रही थी उसको देवनागरी में लिखने का दुस्साहस किया, लेकिन उनको सफलता नहीं मिली। राजा शिवप्रसाद अंग्रेजों की नौकरी ही नहीं कर रहे थे उनके हिसाब से कार्य भी कर रहे थे। अंग्रेजों ने उनको सितारे-हिंद का खिताब भी दिया। दिनकर जी ने लिखा है कि राजा शिवप्रसाद जिसको हिंदुस्तानी कहकर चलाना चाहते थे वो चली नहीं, चली वो हिंदी जो फोर्ट विलियम में पंडित सदल मिश्र ने लिखी थी अथवा जिस शैली का प्रवर्तन मुंशी सदासुखलाल ने सन 1800 के आसपास किया था अथवा जो हिंदी काशी में हरिश्चंद्र लिख रहे थे। इसपर भी विद्वान जजों को ध्यान देना चाहिए कि भाषा किसी राजनीतिक दल के संविधान से नहीं बनती भाषा बनती है जनस्वीकार्यता और अपने स्वभाव से। गांधी जी ने हिंदुस्तानी की बहुत वकालत की थी। उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन के लोगों को मना लिया था लेकिन उस समय मुसलमानों ने गांधी पर आरोप लगा दिया कि वो हिन्दुस्तानी कि आड़ में हिंदी का प्रचार कर रहे हैं और उर्दू की हस्ती को मिटाना चाहते हैं। तब गांधी जी को 1 फरवरी 1942 के हरिजन में लिखना पड़ा- कभी कभी लोग उर्दू को ही हिन्दुस्तानी कहते हैं। तो क्या कांग्रेस ने अपने विधान में उर्दू को ही हिन्दुस्तानी माना है। क्या उसमें हिंदी का, जो सबसे अधिक बोली जाती है, कोई स्थान नहीं है। यह तो अर्थ का अनर्थ करना होगा। कहना ना होगा कि हिन्दुस्तानी के नाम पर हर जगह भ्रम की स्थिति बनी रही।  

दरअसल हिंदी की बोली उर्दू को अलग करने का काम अंग्रेजों ने आरंभ किया जब वो फोर्ट विलियम में भाषा पर काम करने लगे। अंग्रेजों ने हिंदी और उर्दू को दो अलग अलग भाषा माना और उसके आधार पर ही काम करवाना आरंभ किया। इसका कारण भी दिनकर बताते हैं जब वो कहते हैं कि नागरी का आंदोलन अगर 1857 की क्रांति की पीठ पर चलकर आया होता तो अंग्रेज इस मांग को तुरंत स्वीकार कर लेते। मगर अंग्रेज अबतक समझ चुके थे कि भारत में राष्ट्रीयता की रीढ हिंदू जाति है, अतएव, मुसलमानों का पक्ष लिए बिना हिंदुओं का उत्थान रोका नहीं जा सकता। इसके बाद अंग्रेजों ने मुसलामानों को उर्दू के पक्ष में गोलबंद करना आरंभ कर दिया। इसका भयंकर परिणाम विभाजन के समय देखने को मिला। जब इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान अलग देश बना तो जिन्ना ने उर्दू को मुसलमानौं की भाषा करार दे दिया। जो बीज अंग्रेजों ने बोया था उसको जिन्ना ने खूब सींचा। हिंदुओं में इसकी प्रतिक्रिया हुई। वो हिंदी के पक्ष में खड़े हो गए। बाद में कुछ लोगों ने हिंदी को सांप्रदायिक भाषा भी कहा। संस्कृत के शब्दों को लेकर फिर उसके कठिन होने को लेकर प्रश्न खड़े किए गए। लेकिन अगर समग्रता में विचार करेंगे तो पाएंगे कि मजहब के नाम पर देश बनानेवालों मे उर्दू को मुसलमानों की भाषा बताकर हिंदी की बोली को सांप्रदायिक बना दिया। संस्कृत के शब्द तो कई भारतीय भाषाओं में मिलते हैं। आज अगर उर्दू को लेकर हिंदुओं के एक वर्ग के मन में शंका है तो उसके ऐतिहासिक कारण हैं। इसके लिए मुसलमानों का एक वर्ग जिम्मेदार है। हंस पत्रिका में एक लेख बासी भात में खुदा का साझा में नामवर सिंह ने भी स्पष्ट किया था कैसे सर सैयद अहमद ने अलीगढ़ में उर्दू डिफेंस एकेडमी कायम किया था। जब 1900 में संयुक्त प्रांत के गवर्नर मैकडानल ने हिंदी को उर्दू के बराबर दर्जा देने का ऐलान किया तो सर सैयद अहमद के उत्तराधिकारी नवाब मोहसिन ने विरोध की अगुवाई की। सुप्रीम कोर्ट को भाषा जैसे मुद्दे पर निर्णय देते समय समग्रता का ध्यान रखना चाहिए था।