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Saturday, May 24, 2025

अत्यधिक प्रशंसा से दोषपूर्ण निष्कर्ष


रील की दुनिया गजब है। वहां कई तरह की मनोरंजक सामग्री मिल जाती है। हाल ही में एक एक रील दिखा जिसमें अभिनेता मनोज वाजपेयी, पंकज त्रिपाठी, कवि कुमार विश्वास और हास्य कलाकार कपिल शर्मा एक शो में बैठे बातें कर रहे थे। सब एक दूसरे की प्रशंसा कर रहे थे। चारों वाकपटु हैं इस कारण प्रशंसा की अति बुरी नहीं लग रही थी। पहले कुमार विश्वास ने अभिनेता मनोज वाजपेयी की प्रशंसा की। मनोज बाजपेयी ने भी कुमार विश्वास की तारीफों के पुल बांध दिए। मनोज ने भाषा से बात आरंभ की, कुमार के बारे में एक बात मैं बताऊं कि जब हमलोग तीस के आसपास हो रहे थे तो हमारी पूरी की पूरी कोशिश ये थी कि हमारी अंग्रेजी अच्छी हो जाए। वो अंग्रेजी को भाषा नहीं मानते खासकर हिन्दुस्तान में इसको भाषा के तौर पर कभी लिया नहीं गया। इसको स्किल के तौर पर लिया गया। अगर आपको अंग्रेजी नहीं आती है तो आपको मौका नहीं मिलेगा। उस दौर में एक युवा कवि आता है और पूरा का पूरा जो साहित्य है उसको पलट देता है। उसको जनमानस तक लेकर जाता है। वो हैं कुमार विश्वास। मनोज वाजपेयी इतने पर ही नहीं रुके और कहने लगे कि ये काम अपने समय में दिनकर साहब ने किया था। जब क्लिष्ट हिंदी को उन्होंने बोलने चालने की भाषा में परिवर्तित किया और उसमें बड़ी बड़ी बातें की और गांव गांव तक कविता को पहुंचाया था। वही काम श्री हरिवंश राय बच्चन ने भी किया था।  

मैंने इस क्लिप को तीन बार सुना क्योंकि मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। लग रहा था कि किसी ने एआई से बनाकर शरारत की है। पता चला कि मनोज वाजपेयी ने सच में पंच वर्ष पूर्व ऐसा कहा था। रील के मूल वीडियो तक जाकर पुष्टि की। कुमार विश्वास बेहद लोकप्रिय कवि हैं। उनकी कविता, कोई दीवाना कहता है, लोकप्रिय है। इस कविता के उनकी कविताओं से हमारा परिचय नहीं है इसलिए टिप्पणी नहीं करूंगा। पर मनोज वाजपेयी के इस कथन- कि जब उनकी उम्र तीस वर्ष के आसपास थी तब कुमार विश्वास ने पूरे साहित्य को पलट कर रख दिया था- पर चर्चा अवश्य होनी चाहिए। पता नहीं मनोज वाजपेयी किस दिव्य दृष्टि से साहित्य को देख रहे थे और साहित्य के पलटने का उनका पैमाना क्या था। इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार मनोज वाजपेयी का जन्म वर्ष 1969 है। उनके हिसाब से कुमार विश्वास ने अपनी रचनात्मकता से 1999-2000 के आसपास हिंदी साहित्य को पलट दिया था। उन वर्षों में ऐसा कुछ हुआ होगा ये साहित्य जगत को ज्ञात नहीं है। उस समय कुमार विश्वास हास्य और मंचीय कवि के रूप में अपनी पहचान के लिए संघर्ष अवश्य कर रहे थे। कुमार विश्वास को देश ने अन्ना आंदोलन के समय जाना और उसके बाद उनकी सफलता एक किवदंती की तरह है। बावबूद इसके उनकी रचनात्मकता से साहित्य को कोई नई दिशा मिली हो ये सामने आना शेष है। कुमार के पास बोलने की कला है। वो श्रोताओं को बांध लेते हैं, लेकिन कवि के तौर पर उनका मूल्यांकन होना भी शेष है। 

प्रशंसा करते समय अति उत्साह में मनोज वाजपेयी ने कुमार की तुलना दिनकर और हरिवंश राय बच्चन से कर डाली। दिनकर के बारे में मनोज ने बताया कि उन्होंने हिंदी को क्लिष्टता से मुक्त किया और आम बोलचाल की भाषा में काव्य रचना कर जन जन तक पहुंचा दिया। पता नहीं आम बोलचाल की भाषा क्या होती है और उसके शब्द कैसे होते हैं। दिनकर की कविता हिमालय में उपयोग किए गए शब्द देख लेते हैं- साकार दिव्य गौरव विराट, पौरुष के पूंजीभूत ज्वाल। इसके अलावा इस कविता में भाल, निस्समीम व्योम, गर्वोन्नत, वितान, दग्ध, विगलित, कराल, व्याल, ज्वाल, अंबुधि, अंतस्थल, अग्निज्वाल, प्रल्य नृत्य, शंखध्वनि। इसी तरह से अगर हम दिनकर की अन्य कविताओं को देखें तो उसमें भी हिंदी के इस तरह के शब्दों का ही उपयोग हुआ है। खून या रक्त की जगह रुधिर का उपयोग करते हैं दिनकर। रश्मिरथी से लेकर हुंकार तक में दिनकर की कविताओं में शब्दों का चयन विशिष्ट है। ये कहना कि दिनकर ने बोलचाल की भाषा में कविता को गांव-गांव तक पहुंचा दिया, उचित नहीं होगा। दिनकर ने कविता को लोकप्रिय बनाया अवश्य, पर ये संभव हुआ कविता के भावों से, उसकी संवेदनाओं के लोगों से जुड़ने की शक्ति से। बच्चन की कविताओं की भाषा और उसमें प्रयुक्त शब्दों को देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि मनोज उदारता में बच्चन से कुमार की तुलना कर गए। उनकी कविता जो बीत गई में कुसुम, मधुवन, वल्लरियां, मदिरालय, मादकता और मधु, अग्निपथ में अश्रु, स्वेद और रक्त, मुझे पुकार लो में तिमिर, नेत्र, विनष्ट, विभावरी, निदाघ और सुधामयी जैसे शब्द आते हैं। क्या ये बोलचाल के शब्द हैं? 

प्रशंसा करना अच्छी बात है लेकिन तुलना तो ऐसी होनी चाहिए कि लोगों के गले उतर सके। माना कि वो हास्य का मंच था। वहां सबकुछ हास्यभाव से कहा जा रहा होगा। हास्य के मंच पर भी जब दिनकर और बच्चन की कविताओं पर बात होती है तो चुटकुलेबाजी नहीं चल सकती। हल्की टिप्पणी भी नहीं। इन दोनों कवियों का शब्द भंडार इतना समृद्ध था कि उसको पढ़कर साहित्य की कई पीढ़ियां संस्कारित हुईं। मनोज वाजपेयी एक गंभीर अभिनेता हैं, उन्होंने अभिनय की वो ऊंचाई छू ली है जहां कम ही लोग पहुंच पाते हैं। उनको समाज सुनता है और उनके कहे को गंभीरता से याद ही नहीं रखता बल्कि समय समय पर उद्धृत भी करता है। मनोज को इसका ध्यान रखना चाहिए था। इसी तरह से इन दिनों इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर कुमार को युगकवि या महाकवि लिखा जा रहा है। कई बार पोस्टरों आदि पर भी दिख जाता है। यह भी एक प्रकार का अतिरेक है। युगकवि/महाकवि अपनी रचनाओं से बना जा सकता है इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर समर्थकों की टिप्पणी से नहीं। ये वैसा ही है जैसे न्यूज चैनलों पर चलनेवाली बहस में किसी नाम के आगे चिंतक या विचारक लिख दिया जाता है। प्रश्न ये उठता है कि क्या वो सही अर्थ में विचारक या चिंतक हैं। सफल अभिनेता और सफल नेता को अब भी हमारा समाज ध्यान से सुनता है। इस कारण उनकी जिम्मेदारी है कि वो जब बोलें तो सतर्क रहें। दोषपूर्ण टिप्पणियों से बचना चाहिए क्योंकि आनेवाली पीढ़ियां जब इतिहास पर नजर डालेंगी तो ये दोषपूर्ण टिप्पणियां उनको भ्रमित कर सकती हैं। 

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