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Monday, January 20, 2025

सशक्त कहानी, दमदार अभिनय


फिल्म दीवार ने अमिताभ बच्चन की एंग्री यंगमैन की छवि को मजबूती प्रदान की। साथ ही एक लेखक जोड़ी को भी स्थापित किया जिसकी कहानी सफलता की गारंटी मानी गई। सलीम जावेद की जोड़ी ने जब फिल्म दीवार की कहानी लिखी तो पहले अमिताभ बच्चन को ही सुनाई। अमिताभ उस समय फिल्म गर्दिश की शूटिंग कर रहे थे। सलीम-जावेद ने फिल्म के सेट पर ही कहानी सुनाई थी। अमिताभ कहानी सुनकर अभिभूत थे। तीनों ने मिलकर तय किया कि इसपर फिल्म बनाने के लिए यश चोपड़ा से संपर्क किया जाए। सलीम-जावेद और अमिताभ, यश चोपड़ा के पाली हिल, बांद्रा के घर गिरनार अपार्टमेंट पहुंचे। इसी अपार्टमेंट में पहली बार यश चोपड़ा ने दीवार की कहानी सुनी। नैरेशन के समय निर्माता गुलशन राय भी थे। इस बात का उल्लेख मिलता है कि कहानी सुनाते सुनाते जावेद साहब अचानक रुकते और कहते कि फिल्म कम से कम 25 सप्ताह चलेगी। कहानी फिर आगे बढ़ती और जब रुकते तो सलीम साहब कहते कि इसपर बनी फिल्म कम से कम 50 सप्ताह चलेगी। इनकी बात सच हुई और कई शहरों में तो दीवार फिल्म 100 से भी अधिक समय तक चली थी। कहानी सुनने के बाद यश चोपड़ा और गुलशन राय दोनों को लगा था कि स्टोरी बहुत रूखी है और फिल्म में गाने होने चाहिए। निर्माता की राय पर फिल्म में गाने डाले गए। आप ध्यान से फिल्म देखेंगे तो लगेगा कि इन गानों की आवश्यकता नहीं थी। इंटरवल के बाद शशि कपूर और नीतू सिंह का जो गीत है उसका लाजिक समझ में नहीं आता है।  

निर्माता और निर्देशक के तय होने के बाद अभिनेताओं  के चयन पर बात आरंभ हुई । सलीम जावेद ने लीड रोल के लिए अमिताभ का नाम सुझाया। निर्माता गुलशन राय चाहते थे कि राजेश खन्ना को लिया जाए। वो एक फिल्म के लिए साइन खन्ना को अग्रिम भुगतान कर चुके थे। वो अपने पैसे की चिंता कर रहे थे। सलीम-जावेद इसपर राजी नहीं हुए। भूमिका अमिताभ को मिली। उनके भाई रवि की भूमिका के लिए लेखकों ने ही शशि कपूर को तैयार किया। स्क्रिप्ट सुनने के बाद शशि तैयार हो गए। उनकी भूमिका छोटी पर सशक्त थी। उनके बोले गए संवाद दर्शकों को खूब पसंद आए। संवाद की बात हो रही है तो कहना न होगा कि फिल्म दीवार का संवाद हिंदी फिल्मों में संवाद लेखन का शीर्ष है। इसके छोटे छोटे टुकड़े कई बार अब भी दोहराए जाते हैं। मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता, मेरे पास मां है, या निरूपा राय का शशि कपूर को ये कहना कि भगवान करे कि गोली चलाते समय तुम्हारे हाथ नहीं कांपे जैसे संवाद बहुत ही पावरफुल हैं। ये फिल्म दर्शकों को मानसिक तौर पर झकझोरती है। जब एक बच्चे के हाथ पर ‘मेरा बाप चोर है’ लिख दिया जाता है तो उस बच्चे की मानसिक स्थिति की कल्पना की जा सकती है। फिल्म दीवार की कहानी में मदर इंडिया और गंगा जमुना का मिला जुला प्लाट नजर आते है लेकिन सलीम जावेद ने जिस तरह से कहानी का ट्रीटमेंट किया है वो इसको एकदम ही अलग जमीन पर लाकर खड़ा कर देता है। 

फिल्म दीवार के रिलीज होने के बाद ये प्रचारित किया गया था कि ये मुंबई के अंडरवर्ल्ड डान हाजी मस्तान के जीवन से प्रेरित है। समानता है भी। हाजी मस्तान ने भी मझगांव डाकयार्ड में कुली के तौर पर जीवन शुरु किया था। उसने भी वहां पठान गैंग की दादागीरी के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। फिल्म दीवार में भी विजय यही करता है। फिल्म दीवार के रिलीज होने के दौर को भी याद करना चाहिए। उस समय देश में छात्रों और युवाओं का असंतोष चरम पर था। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में देश का असंतुष्ट युवा आंदोलनरत था। फिल्म में भी उस वक्त के युवा वर्ग का सिस्टम के प्रति गुस्सा और अपने बूते पर ही सब करना होगा की मानसिकता का प्रतिबिंब नजर आता है। इस कारण जब फिल्म रिलीज हुई तो युवाओं को उसमें अपनी कहानी नजर आई । वो इससे जुड़ते चले गए। फिल्म के अंत में कानून, न्याय और सत्य की जीत दिखाकर नैतिकता का पाठ भी पढ़ाया गया है।कुल मिलाकर अगर फिल्म के रिलीज होने के 50 वर्ष बाद आज विचार करें तो यही लगता है कि पावरफुल कहानी, सही स्टारकास्ट और यश चोपड़ा जैसे मंझे हुए निर्देशक के बदौलत ये कल्ट फिल्म बन गई। एक निर्देशक के तौर पर यश चोपड़ा को भी इस फिल्म से एक नई पहचान मिली, अमिताभ तो स्थापित हो ही गए।    


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