अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह में कई बातें अलक्षित रह गईं। शपथ ग्रहण के पहले एक्जूक्यिटिव आर्डर्स की इतनी चर्चा हो गई कि कुछ बातें नेपथ्य में चली गईं। दूसरा कारण ये रहा कि हमारे देश में खास विचारधारा के बुद्धिजीवियों ने वर्षों से उन मुद्दों को चर्चा के लायक नहीं समझे जाने का जन मानस बनाने का काम किया। ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह को देखें तो पता चलता है कि वहां धर्म का कितना उपयोग था। दुनिया का सबसे विकसित और आधुनिक राष्ट्र अमेरिका में धर्म की कितनी महत्ता है। ट्रंप को शपथ दिलवाने के पहले ईश्वर की प्रार्थना की गई। ट्रंप ने शपथ के दौरान दो बाइबल का उपयोग किया और कहा कि ईश्वर मेरी मदद करें (सो हेल्प मी गाड)। शपथ ग्रहण के ओपनिंग इनवोकेशन के लिए न्यूयार्क के आर्क बिशप और प्रमुख कैथोलिक नेता टिमोथी डोलन ने बुक आफ विजडम से प्रार्थना की। बाइबिल और ईसा में आस्था रखने वाले ईवैनजैलिकल लीडर फ्रैंकलिन ग्राहम ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। इतना ही नहीं समारोह में बैनेडिक्शन (आशीर्वाद) के लिए भी तीन प्रमुख धर्मगुरु वहां उपस्थित थे। न्यूयार्क के रब्बी अरि बमन ने अपनी प्रार्थना में राष्ट्रीय एकता और अखंडता की बात की। डेट्रोएट के 180 चर्चों के वरिष्ठ पेस्टर लारेंजो सीवैल और ब्रुकलिन के कैथोलिक पुजारी भी वहां थे। सीवैले ने तो ट्रंप के कैंपेन के दौरान कैथोलिक मतदाताओं को उनकी प्राथमिकताओं के बारे में बताया भी था।
ये बताना आवश्यक है कि मिशिगन के कर्बला इस्लामिक एडुकेशन सेंटर से जुड़े इमाम हुसैन अल-हुसैनी का नाम ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह के आमंत्रितों की सूची में था। वो समारोह में नहीं थे। उनकी अनुपस्थिति के जमकर कयास लगे क्योंकि उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप का समर्थन किया था। शपथ ग्रहण के बाद ट्रंप ने जोरदार भाषण दिया। उस भाषण में ट्रंप ने दर्जन भर से अधिक बार भगवान (गाड) को ना सिर्फ याद किया बल्कि नियमित अंतराल पर ईश्वर से काम करने की शक्ति भी मांगी। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति का धर्म और ईश्वर के नाम पर काम करने की मंशा सार्वजनिक तौर पर स्पष्ट करना। आप पूरे अमेरिकी चुनाव को याद करिए जब खुलेआम चर्च और जीजस को याद किया जाता रहा। पराजित उम्मीदवार कमला हैरिस ने जब अपनी एक रैली में जीजस इज किंग का नारा लगानेवाले को कहा था कि आप गलत रैली में आ गए हैं। उनके इस बयान के मतदाताओं पर नकारात्मक प्रभाव की काफी चर्चा हुई थी। अगर ट्रंप के भाषण को विश्लेषित करें तो उन्होंने साफ तौर पर अमेरिका फर्स्ट का ना सिर्फ उद्घोष किया बल्कि उसके आधार पर ही नीतियां बनाने की घोषणा की। अब जरा हम अपने देश लौटते हैं। नरेन्द्र मोदी जब चुनाव प्रचार के दौरान प्रसून जोशी के लिखे गीत देश नहीं झुकने दूंगा की बात करते थे तो उनके आलोचक इसको भावना का ज्वार उभारनेवाले नारे के तौर पर देखते थे। ट्रंप ने तो खुलेआम राष्ट्रपति बनने के बाद संदेश दिया कि वो अमेरिका को किसी हाल में झुकने नहीं देंगे।
याद करिए कि जब पिछले वर्ष जनवरी में राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में नरेन्द्र मोदी परंपरागत हिंदू वेशभूषा में पूजा की थाल लेकर मंदिर में प्रवेश कर रहे थे तो कई विश्लेषक इसको चुनाव जीतने का उपक्रम करार दे रहे थे। राजनीति में धर्म के उपयोग को लेकर उनकी तीखी आलोचना हो रही थी। जो लोग मोदी की तब आलोचना कर रहे थे उनको अब ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह में धर्म का उफयोग नहीं दिखाई दे रहा है। उनके मुंह सिले हुए हैं। जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्र सर्वप्रथम की बात करता है तो लोग संघ की इस सोच का आलोचना करते हैं । कई राजनीतिक दल तो यहां तक कहते हैं कि उनके लिए संविधान सर्वप्रथम है। ऐसा कहनेवाले ये भूल जाते हैं कि जब देश रहेगा तभी संविधान रहेगा। राष्ट्र को मजबूत करने के लिए संविधान बनाया गया है जहां सबको साथ लेकर समान अधिकार की बात की गई है। नरेन्द्र मोदी अगर किसी मंदिर में चले जाते हैं तो ये कहकर शोर मचाया जाता है कि वो हिंदू वोटरों को लुभाने या प्रभावित करने के लिए ऐसा कर रहे हैं। अमेरिका में तो खुलेआम राष्ट्रपति पद के उम्मीदावर चर्चों में जाते हैं, प्रमुख धर्मगुरुओं का समर्थन लेने का प्रयास करते हैं। धर्म को राजनीति से अलग करने का जो विचार है वो दोषपूर्ण है। धर्म को अफीम कहकर प्रचारित करना और लोकतंत्र को धर्म विहीन बनाने की चेष्टा करना भी अनुचित है। अगर ऐसा उचित होता तो हमारे संविधान के निर्माताओं ने संविधान की मूल प्रति में धार्मिक प्रतीकों के अंकन की अनुमति नहीं देते। संविधान सभा के विद्वान सदस्य धर्म की महत्ता को समझते थे। इस कारण कई संवैधानिक संस्थाओं के ध्येय वाक्य भी धर्म से जुड़े हुए हैं।
स्वाधीनता मिलने के बाद जवाहरलाल नेहरू के संरक्षण में धर्मविहीन राजनीति या धर्म को अफीम कहनेवाली विचारधारा ने जोर पकड़ा। धर्म की गलत व्याख्या करके जनता के मन में संदेह का बीजारोपण किया गया। जो अब वृक्ष बन चुका है। स्वाधीनता के संघर्ष के दौरान ऐसी स्थिति नहीं थी। तब धर्म और राजनीति को लेकर नेताओं के मन में किसी तरह का संशय नहीं था। अरविंदो घोष ने 1908 में लिखा था, राष्ट्रवाद एक ऐसा धर्म है जो सीधे ईश्वर से आया है। अगर आप राष्ट्रवादी बनने जा रहे हैं, राष्ट्रवादी विचार को स्वीकार करते हैं तो आपको इसके धार्मिक स्वरूप को ही अंगीकार करना होगा। आपको ये याद रखना होगा कि आप ईश्वर के कार्य करने का माध्यम हैं। वो इतने पर ही नहीं रुके थे। 30 मई 1909 को उत्तरपाड़ा के अपने प्रसिद्ध उद्बोधन में अरविंदो ने कहा था कि, मैं ये नहीं कहता कि राष्ट्रवाद एक धर्म है, एक विश्वास है, बल्कि मैं तो ये कहता हूं कि सनातन धर्म ही हमारे लिए राष्ट्रवाद है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने भी राजनीति में हिंदू धर्म प्रतीकों के उपयोग को सही करार दिया था। बंकिम ने भी अपने लेखों में हिंदू धर्म की बात की। लाला लाजपत राय से लेकप बिपिन चंद्र पाल ने भी धर्म को राजनीति से अलग करके नहीं देखा। अरविंदो घोष से लेकर पाल तक ने अपने भाषण और लेखन में हिंदू धर्म प्रतीकों का उल्लेख करके भारत की जनता को एकजुट होने का संदेश दिया था। इतिहासकार बिपान चंद्र ने अपनी पुस्तक कम्युनिलज्म इन मार्डन इंडिया में देश के स्वाधीनता सेनानियों के बारे में लिखा है, ‘आरंभिक दिनों में क्रांतिकारी उग्रवादी गीता और काली की शपथ लेते थे और हिंदू विचार को क्रांतिकारी समझते थे।‘ ये पुस्तक लंबे समय से रेफरेंस पुस्तक के तौर पर पढ़ी जा रही है। इसको पढकर छात्र प्रशासनिक अफसर बन रहे हैं। बिपान चंद्रा ये नहीं बता पाए कि इसमें गलत क्या था। इंटलैक्चुअल रोहिंग्याओं को ये भी बताना चाहिए कि इसमें गलत क्या है कि प्रधानमंत्री मोदी धर्म को राष्ट्रीयता से जोड़कर देखते हैं। इस पर तो देशव्यापी बहस होनी चाहिए। ट्रंप के शपथ ग्रहण ने तो इस बहस का आधार भी दे दिया है।
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