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Saturday, May 31, 2025

भाषा के नाम पर विभाजनकारी खेल


भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध और उसके बाद की राजनीति के घमासान के बीच एक मुद्दे पर चर्चा नहीं हो पाई। ये मुद्दा देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। मुद्दा है भारतीय भाषाओं के बीच परस्पर सामंजस्य बढ़ाने का। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कार्यान्वयन में इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य हो रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गैर-हिंदी प्रदेश की जनसभाओं में जनता के अनुमति लेकर हिंदी में बोलते हैं। हाल ही में गुजरात की एक जनसभा में उन्होंने गुजराती में बोलना आरंभ किया। सभा में उपस्थित लोगों से गुजराती में पूछा कि क्या वो हिंदी में भाषण दे सकते हैं। जब सभा में सकारात्मक स्वर गूंजा तब प्रधानमंत्री मोदी ने हिंदी में भाषण दिया। एक सरफ सरकार के स्तर पर भारतीय भाषाओं के बीच मतभेद कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ बीच-बीच में कुछ ऐसा घटित हो जाता है जो भारतीय भाषाओं के बीच वैमनस्यता बढ़ाने वाला होता है। हाल ही में अपनी फिल्म के प्रमोशन के सिलसिले में अभिनेता कमल हासन ने एक ऐसा बयान दे दिया जिसके बाद दक्षिण भारत की दो भाषाओं के समर्थकों के बीच तनाव हो गया है। कमल हासन ने कहा कि कन्नड भाषा तमिल से पैदा हुई है। इसके बाद कर्नाटक में कमल हासन का विरोध आरंभ हो गया। उनकी फिल्म के पोस्टर जलाए गए। कहा जा रहा है कि उनकी फिल्म का प्रदर्शन भी कर्नाटक में नहीं होगा। हर रोज कमल हासन का विरोध हो रहा है लेकिन वो निरंतर अपनी बात पर डटे हुए हैं। कह रहे हैं कि अपने बयान के लिए क्षमा नहीं मांगेगे। अब पता नहीं इस विवाद से उनकी फिल्म को लाभ होगा या नहीं। जो भी हो वो तो समय बताएगा। 

इस बीच एक ऐसी खबर आई जिसको सुनकर चौंका। पता चला कि तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) ने कमल हासन  की राज्यसभा की उम्मीदवारी को समर्थन देने का निर्णय लिया है। उनके समर्थन के बाद मक्कल निधि माय्यम पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर कमल हासन की जीत तय है। मक्कल निधि माय्यम कमल हासन की ही पार्टी है। तमिलनाडू में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होनेवाले हैं। ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि कमल हासन के राज्यसभा में जाने के बाद वहां की राजनीति में क्या बदलाव आते हैं। कमल हासन अभिनेता के तौर पर तो तमिलनाडू में लोकप्रिय हैं लेकिन राजनीति में बहुत दिनों से हाथ पैर मारने के बावजूद कुछ विशेष कर नहीं पाए । कमल हासन ने 2018 में मक्कल निधि मायय्म नाम से एक पार्टी बनाई थी। उसके बैनर तले 2019 का लोकसभा चुनाव भी लड़ा था। उस चुनाव में भी उनकी पार्टी का खाता नहीं खुल पाया था। कुछ चुनावी विशेषज्ञों और वामपंथी उदारवादी राजनीतिज्ञों को उम्मीद थी कि कमल हासन और उनकी पार्टी विधानसभा चुनाव में बेहतर करेगी । चुनाव को त्रिकोणीय कर देगी। पर ऐसा हो नहीं सका था। जब तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के परिणाम आए थे तो कमल हासन कोयंबटूर दक्षिण सीट से भारतीय जनता पार्टी महिला मोर्चा की अध्यक्ष वनाथी श्रीनिवासन से पराजित हो गए। उनकी पार्टी का भी बुरा हाल रहा। तमिल-कन्नड़ विवाद के बीच कमल हासन को डीएमके ने राज्यसभा में भेजने का निर्णयय लिया है, पता नहीं ये संयोग है या प्रयोग। अगर संयोग है तो राजनीति में इस तरह के संयोग बिरले होते हैं। अगर ये प्रयोग है तो खतरनाक है। क्योंकि इसकी बुनियाद में भाषाई वैमनस्यता है। दो राज्यों के बीच तनाव बढ़ाने वाले को पुरस्कृत करने का प्रयोग उचित नहीं कहा जा सकता है। 

एक तरफ तमिल और तेलुगु के बीच विवाद खड़ा किया जा रहा है तो दूसरी ओर 22 मई को केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने अपने से संबद्ध सभी स्कूलों को एक 2023 के राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा के आलोक में आरंभिक शिक्षा की भाषा को लेकर एक दिशानिर्देश जारी किया है। स्कूली शिक्षा के लिए तैयार किए गए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा में आरंभिक शिक्षा मातृभाषा में करवाने की अनुशंसा की गई थी। प्री प्राइमरी से लेकर ग्रेड दो तक को आर 1 और आर 2 की भाषा पढ़ाने की सलाह दी गई है। अबतक चले आ रहे त्रिभाषा फार्मूले में बदलाव किया गया है। पहले त्रिभाषा फार्मूला का मतलब होता था कि मातृभाषा, अंग्रेजी और तीसरी भाषा के तौर पर अहिंदी भाषी राज्य में हिंदी। लेकिन आर-1 और आर 2 में इसको पलट दिया गया है। इसमें अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त की गई है। उसके स्थान पर भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता दी गई है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा में किसी भाषा विशेष का उल्लेख न करते हुए उसे समभाव से परिभाषित किया गया। एक नए सोच को सामने रखते हुए पहली, दूसरी और तीसरी भाषा की जगह आर-1, आर-2 और आर-3 शब्द  का प्रयोग किया गया। आर-1 में मातृभाषा या राज्य की भाषा को स्थान दिया गया। इसमें मातृभाषा और राज्य दोनों को रखा गया क्योंकि यह जरूरी नहीं कि मातृभाषा और राज्य भाषा एक हो। आर-2 में आर-1 के अलावा कोई भी भाषा, आर-3 में आर-1 और आर-2 के अलावा कोई भी भारतीय भाषा। इसका परिणाम ये हो रहा है कि अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त हो गई। सीबीएसई ने अपने स्कूलों को इसी फार्मूले को लागू करने का दिशा निर्देश जारी किया है।

सीबीएसई के इस नए दिशा निर्देश के पीछे के उद्देश्यों को समझने की आवश्यकता है। बच्चों को जब आरंभिक शिक्षा दी जी है तो वो मौखिक होती है। मौखिक शिक्षा जब मातृभाषा में दी जाएगी तो वो ना केवल पनी भाषा से परिचित होंगे बल्कि उनके घर परिवार का जो वातावरण होगा उसको समझने में भी मदद होगी। कुछ लोग महानगरीय स्कूलों का हवाला देकर इस फार्मूले में मीनमेख निकालने का प्रयास कर रहे हैं। उनका कहना है कि महानगरों के स्कूलों में विभिन्न मातृभाषा वाले बच्चे आते हैं। ऐसे में उनकी मातृभाषा के अनुसार पढ़ाई का माध्यम तय करने में कठिनाई होगी। कठिनाई तो हर नए काम में आती है लेकिन फिर रास्ता भी उन्हीं कठिनाइयों के बीच से निकलता है। जब मानस में अंग्रेजी अटकी होगी तो इस कठिनाई को दूर करने में बाधाएं आएंगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति इस बाधा को दूर करने का उपाय ढूंढती है। कुछ लोगों का कहना है कि ऐसा करके हिंदी थोपी जा रही है। इस तरह की बातें भी वही लोग कर रहे हैं जिनको भारतीय भाषाओं के उन्नयन से परेशानी है। वो चाहते हैं कि अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहे। आर 1 को व्यावहारिक नहीं मानने वालों का तर्क है कि अगर एक ही स्कूल में गुजराती, मराठी और कन्नड़ भाषी परिवार के बच्चे पहुंचते हैं तो वो क्या पढ़ेंगे। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा में इस बात का ध्यान रखा गया है और उनके लिए राज्य भाषा का विकल्प उपलब्ध करवाया गया है। अब समय आ गया है कि भाषा के नाम पर जो विभाजनकारी खेल खेला जा रहा है उसको रोका जाए क्योंकि उससे किसी हितधारक का लाभ नहीं है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने से हमारी शिक्षा पद्धति औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होगी जो अकादमिक क्षेत्र के लिए अति आवश्यक है। 

Saturday, May 24, 2025

अत्यधिक प्रशंसा से दोषपूर्ण निष्कर्ष


रील की दुनिया गजब है। वहां कई तरह की मनोरंजक सामग्री मिल जाती है। हाल ही में एक एक रील दिखा जिसमें अभिनेता मनोज वाजपेयी, पंकज त्रिपाठी, कवि कुमार विश्वास और हास्य कलाकार कपिल शर्मा एक शो में बैठे बातें कर रहे थे। सब एक दूसरे की प्रशंसा कर रहे थे। चारों वाकपटु हैं इस कारण प्रशंसा की अति बुरी नहीं लग रही थी। पहले कुमार विश्वास ने अभिनेता मनोज वाजपेयी की प्रशंसा की। मनोज बाजपेयी ने भी कुमार विश्वास की तारीफों के पुल बांध दिए। मनोज ने भाषा से बात आरंभ की, कुमार के बारे में एक बात मैं बताऊं कि जब हमलोग तीस के आसपास हो रहे थे तो हमारी पूरी की पूरी कोशिश ये थी कि हमारी अंग्रेजी अच्छी हो जाए। वो अंग्रेजी को भाषा नहीं मानते खासकर हिन्दुस्तान में इसको भाषा के तौर पर कभी लिया नहीं गया। इसको स्किल के तौर पर लिया गया। अगर आपको अंग्रेजी नहीं आती है तो आपको मौका नहीं मिलेगा। उस दौर में एक युवा कवि आता है और पूरा का पूरा जो साहित्य है उसको पलट देता है। उसको जनमानस तक लेकर जाता है। वो हैं कुमार विश्वास। मनोज वाजपेयी इतने पर ही नहीं रुके और कहने लगे कि ये काम अपने समय में दिनकर साहब ने किया था। जब क्लिष्ट हिंदी को उन्होंने बोलने चालने की भाषा में परिवर्तित किया और उसमें बड़ी बड़ी बातें की और गांव गांव तक कविता को पहुंचाया था। वही काम श्री हरिवंश राय बच्चन ने भी किया था।  

मैंने इस क्लिप को तीन बार सुना क्योंकि मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। लग रहा था कि किसी ने एआई से बनाकर शरारत की है। पता चला कि मनोज वाजपेयी ने सच में पंच वर्ष पूर्व ऐसा कहा था। रील के मूल वीडियो तक जाकर पुष्टि की। कुमार विश्वास बेहद लोकप्रिय कवि हैं। उनकी कविता, कोई दीवाना कहता है, लोकप्रिय है। इस कविता के उनकी कविताओं से हमारा परिचय नहीं है इसलिए टिप्पणी नहीं करूंगा। पर मनोज वाजपेयी के इस कथन- कि जब उनकी उम्र तीस वर्ष के आसपास थी तब कुमार विश्वास ने पूरे साहित्य को पलट कर रख दिया था- पर चर्चा अवश्य होनी चाहिए। पता नहीं मनोज वाजपेयी किस दिव्य दृष्टि से साहित्य को देख रहे थे और साहित्य के पलटने का उनका पैमाना क्या था। इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार मनोज वाजपेयी का जन्म वर्ष 1969 है। उनके हिसाब से कुमार विश्वास ने अपनी रचनात्मकता से 1999-2000 के आसपास हिंदी साहित्य को पलट दिया था। उन वर्षों में ऐसा कुछ हुआ होगा ये साहित्य जगत को ज्ञात नहीं है। उस समय कुमार विश्वास हास्य और मंचीय कवि के रूप में अपनी पहचान के लिए संघर्ष अवश्य कर रहे थे। कुमार विश्वास को देश ने अन्ना आंदोलन के समय जाना और उसके बाद उनकी सफलता एक किवदंती की तरह है। बावबूद इसके उनकी रचनात्मकता से साहित्य को कोई नई दिशा मिली हो ये सामने आना शेष है। कुमार के पास बोलने की कला है। वो श्रोताओं को बांध लेते हैं, लेकिन कवि के तौर पर उनका मूल्यांकन होना भी शेष है। 

प्रशंसा करते समय अति उत्साह में मनोज वाजपेयी ने कुमार की तुलना दिनकर और हरिवंश राय बच्चन से कर डाली। दिनकर के बारे में मनोज ने बताया कि उन्होंने हिंदी को क्लिष्टता से मुक्त किया और आम बोलचाल की भाषा में काव्य रचना कर जन जन तक पहुंचा दिया। पता नहीं आम बोलचाल की भाषा क्या होती है और उसके शब्द कैसे होते हैं। दिनकर की कविता हिमालय में उपयोग किए गए शब्द देख लेते हैं- साकार दिव्य गौरव विराट, पौरुष के पूंजीभूत ज्वाल। इसके अलावा इस कविता में भाल, निस्समीम व्योम, गर्वोन्नत, वितान, दग्ध, विगलित, कराल, व्याल, ज्वाल, अंबुधि, अंतस्थल, अग्निज्वाल, प्रल्य नृत्य, शंखध्वनि। इसी तरह से अगर हम दिनकर की अन्य कविताओं को देखें तो उसमें भी हिंदी के इस तरह के शब्दों का ही उपयोग हुआ है। खून या रक्त की जगह रुधिर का उपयोग करते हैं दिनकर। रश्मिरथी से लेकर हुंकार तक में दिनकर की कविताओं में शब्दों का चयन विशिष्ट है। ये कहना कि दिनकर ने बोलचाल की भाषा में कविता को गांव-गांव तक पहुंचा दिया, उचित नहीं होगा। दिनकर ने कविता को लोकप्रिय बनाया अवश्य, पर ये संभव हुआ कविता के भावों से, उसकी संवेदनाओं के लोगों से जुड़ने की शक्ति से। बच्चन की कविताओं की भाषा और उसमें प्रयुक्त शब्दों को देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि मनोज उदारता में बच्चन से कुमार की तुलना कर गए। उनकी कविता जो बीत गई में कुसुम, मधुवन, वल्लरियां, मदिरालय, मादकता और मधु, अग्निपथ में अश्रु, स्वेद और रक्त, मुझे पुकार लो में तिमिर, नेत्र, विनष्ट, विभावरी, निदाघ और सुधामयी जैसे शब्द आते हैं। क्या ये बोलचाल के शब्द हैं? 

प्रशंसा करना अच्छी बात है लेकिन तुलना तो ऐसी होनी चाहिए कि लोगों के गले उतर सके। माना कि वो हास्य का मंच था। वहां सबकुछ हास्यभाव से कहा जा रहा होगा। हास्य के मंच पर भी जब दिनकर और बच्चन की कविताओं पर बात होती है तो चुटकुलेबाजी नहीं चल सकती। हल्की टिप्पणी भी नहीं। इन दोनों कवियों का शब्द भंडार इतना समृद्ध था कि उसको पढ़कर साहित्य की कई पीढ़ियां संस्कारित हुईं। मनोज वाजपेयी एक गंभीर अभिनेता हैं, उन्होंने अभिनय की वो ऊंचाई छू ली है जहां कम ही लोग पहुंच पाते हैं। उनको समाज सुनता है और उनके कहे को गंभीरता से याद ही नहीं रखता बल्कि समय समय पर उद्धृत भी करता है। मनोज को इसका ध्यान रखना चाहिए था। इसी तरह से इन दिनों इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर कुमार को युगकवि या महाकवि लिखा जा रहा है। कई बार पोस्टरों आदि पर भी दिख जाता है। यह भी एक प्रकार का अतिरेक है। युगकवि/महाकवि अपनी रचनाओं से बना जा सकता है इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर समर्थकों की टिप्पणी से नहीं। ये वैसा ही है जैसे न्यूज चैनलों पर चलनेवाली बहस में किसी नाम के आगे चिंतक या विचारक लिख दिया जाता है। प्रश्न ये उठता है कि क्या वो सही अर्थ में विचारक या चिंतक हैं। सफल अभिनेता और सफल नेता को अब भी हमारा समाज ध्यान से सुनता है। इस कारण उनकी जिम्मेदारी है कि वो जब बोलें तो सतर्क रहें। दोषपूर्ण टिप्पणियों से बचना चाहिए क्योंकि आनेवाली पीढ़ियां जब इतिहास पर नजर डालेंगी तो ये दोषपूर्ण टिप्पणियां उनको भ्रमित कर सकती हैं। 

पलामू से फ्रांस तक


कान फिल्म फेस्टिवल और प्रख्यात फिल्मकार सत्यजित राय का विशेष रिश्ता रहा है। फेस्टिवल में उपस्थित दर्शक राय की फिल्मों को दीवानगी की हद तक पसंद करते हैं। सत्यजित राय की 1970 में प्रदर्शित फिल्म अरण्येर दिन रात्रि को तकनीक का उपयोग कर प्रदर्शन योग्य बनाया गया। इस वर्ष जब रिस्टोर्ड फिल्म का कान फिल्म फेस्टिवल के दौरान प्रदर्शन किया गया तो दुनिया भर के फिल्मों से जुड़े दिग्गज इसे देखने पहुंचे। करीब 55 वर्ष पूर्व सत्यजित राय ने ये फिल्म बनाई थी। ये फिल्म बांग्ला के मशहूर लेखक सुनील गंगोपाध्याय के इसी नाम से प्रकाशित उपन्यास पर आधारित है। इस फिल्म के बनने की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। इस फिल्म के कलाकारों में से किसी एक को कभी सुना था कि इसकी शूटिंग बिहार में हुई थी। पता करने पर मालूम हुआ कि शूटिंग अविभाजित बिहार के पलामू क्षेत्र में हुई थी। जब सत्यजित राय ने सुनील गंगोपाध्याय के 120 पेज के इस उपन्यास को पढ़ा तो काफी प्रभावित हुए। उपन्यास की कहानी पलामू के जंगल में ही सेट है। सत्यजित राय रेकी के लिए पलामू पहुंचे। काफी घूमने के बाद उन्होंने केचकी और कोयल नदी के आसपास के जंगल को अपनी फिल्म की शूटिंग के लिए चुना। 

झारखंड जनसंपर्क विभाग के अधिकारी आनंद के मुताबिक 1969 में अरणेयर दिन रात्रि की शूटिंग पलामू टाइगर रिजर्व के केचकी, गारू, छिपादोहर और बेतला में हुई थी। एक सीन की शूटिंग चंदवा में भी की गई थी। फिल्म की शूटिंग के लिए सत्यजित राय पूरी टीम के साथ पलामू पहुंचे थे। अभिनेत्री शर्मिला टैगोर, सिमी ग्रेवाल, अभिनेता सौमित्रो चटर्जी, टीनू आनंद, गौतम घोष, सोमित भांजा उनके साथ थे। सभी करीब तीन महीने तक पलामू में रहे थे। दरअसल फिल्म की कहानी चार दोस्तों के के इर्द गिर्द घूमती है जो शहरी जिंदगी से ऊबकर जंगल पहुंचते हैं। वहीं उनकी मुलाकात जंगल में रहनेवाली महिलाओं से होती है। इन्हीं पात्रों के सहारे कहानी आगे बढ़ती है। सत्यजित राय ने जिस तरह से शूटिंग में प्राकृतिक दृश्यों और लाइट्स का उपयोग किया है वो देखने लायक है। आज की अभिनेत्रियों के लिए मुंबई जैसे महानगरों में शूटिंग के दौरान वैनिटी वैन खड़ी होती हैं। वो एक-दो सीन शूट करके आराम या अन्य कार्य करती हैं। कल्पना करिए 1969 में पलामू के जंगलों में शूटिंग के दौरान शर्मिला टैगोर और सिमी को कितनी परेशानी  हुई होगी। न तो वाशरूम की सुविधा और ना ही शूटिंग के अंतराल के दौरान आराम की व्यवस्था। सूरज की रोशन  के हिसाब से शूटिंग करनी होती थी। सत्यजित राय और फिल्म के कलाकार केचकी और कोयल नदी के संगम के पास बने डाक बंगला में रहते थे। इस डाकबंगला को माओवादियों ने उड़ा दिया था। अब फिर से उसका पुनर्निमाण कर रहरने योगय् बनाया गया है। 


Saturday, May 17, 2025

काल की चौहद्दी तोड़ती कविताएं


पहलगाम  में आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया तो देश के माहौल में अलग ही स्तर की राष्ट्रभक्ति दिखाई दे रही थी। हर भारतीय अपनी इस राष्ट्रभक्ति को भिन्न भिन्न तरीके से प्रकट कर रहा था। आतंकी हमले के बाद और इसके पहले भी कई महत्वपूर्ण अवसरों पर राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्तियों से लोग और संस्थाएं अपनी भावनाओं को प्रकट करती रहीं। आपरेशन सिंदूर के बाद जब भारतीय सेना पूरे घटनाक्रम की जानकारी देने आई तो दिनकर की प्रसिद्ध कविता की पंक्तियों से आरंभ किया। वे पंक्तियां कुछ इस तरह से हैं –हित वचन नहीं तूने माना/मैत्री का मूल्य न पहचाना/तो ले, मैं भी अब जाता हूं/अंतिम संकल्प सुनाता हूं/याचना नहीं, अब रण होगा/जीवन जय या कि मरण होगा। दिनकर की ये पंक्तियां रश्मिरथी के तृतीय सर्ग में है। इस कविता के माध्यम से भारत ने पाकिस्तान को संदेश देते हुए अपना अंतिम संकल्प सुना दिया। इसके पहले जब पहलगाम आतंकी हमला हुआ था। जनता आतंकवादियों से प्रतिशोध की अपेक्षा कर रही थी, तब भी दिनकर की पंक्तियां सुनाई दे रही थीं। रे रोक युधिष्ठिर को न यहां/ जाने दे उसको स्वर्ग धीर/ पर फिरा हमें गांडीव गदा/ लौटा दे अर्जुन भीम वीर। कह दे शंकर से आज, करें वो प्रलय नृत्य फिर एक बार/सारे भारत में गूंज उठे, हर हर बम का फिर महोच्चार। दिनकर की इस कविता का शीर्षक हिमालय है। जनता के मन में आतंकवादी हमला का बदला लेने की आकांक्षा प्रबल होने लगी तो वे इन पंक्तियों के माध्यम से अपनी भावनाओं का प्रकटीकरण कर रहे थे। आशय ये था कि बहुत हुई बातचीत, बहुत हुई समाझाने बुझाने की प्रक्रिया। अब समय है सबक सिखाने का । सबक सिखाने के लिए धर्मराज युधिष्ठिर की आवश्यकता नहीं है उसके लिए बलशाली अर्जुन और भीम की जरूरत है।

दिनकर की ये कविता हिमालय, भारत चीन युद्ध के दौरान भी खूब गाई गई थी। उस समय जवाहरलाल नेहरू की छवि शांति चाहनेवाले नेता के रूप में थी। जब चीन, भारतीय सेना पर भारी पड़ने लगा था तब दिनकर की इस कविता से नेहरू को ललकारा गया था। इसी तरह से दिनकर के प्रबंध काव्य रश्मिरथी के तीसरे सर्ग की ही कुछ और पंक्तियां बहुधा सुनाई देती हैं। वे पंक्तियां हैं, जब नाश मनुज पर छाता है तो पहले विवेक मर जाता है। दिनकर हिंदी कविता के ऐसे कवि हैं जो देश काल और परिस्थिति से ऊपर उठ चुके हैं। सही मायनों में अगर देखा जाए तो तुलसीदास के बाद दिनकर ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं लोक में काफी पसंद की जाती हैं। कई लोगों को कंठस्थ भी हैं। चाहे वो उर्वशी के सर्ग हों या कुरुक्षेत्र या रश्मिरथी के। सिर्फ युद्ध ही नहीं, इमरजेंसी के दौरान भी दिनकर की कविताएं गाई जा रही थीं। पूरा देश इंदिरा गांधी के विरुद्ध खड़ा था। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन जोर पकड़ रहा था। कहा तो यहां तक जाता है कि दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण ने दिनकर की कविता का पाठ किया था। इसकी कविता की अंतिम पंक्तियां हैं, फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं /धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है/दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो /सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। समय का घर्घर-नाद है उसके माद्यम से इंदिरा गांधी को जयप्रकाश नारायण संदेश दे रहे थे। क्या जनता पार्ची का चुनाव चिन्ह हलधर किसान भी इस कविता से ही प्रेरित है? दिनकर की यही पंक्तियां 2011 में दिल्ली में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान भी सुनने को मिली थीं। दिनकर ने ये कविता देश में इमरजेंसी लगाए जाने के दशकों पहले लिखी थी। इतने वर्षों बाद भी लोगों के मानस पर अंकित थीं। इसी तरह से रश्मिरथी का रचनाकाल भी 1952 का है, लेकिन जब सेना को 2025 में पाकिस्तान को संदेश देना था तो उसने दिनकर की कविता चुनी।

इतना ही नहीं आप न्यूज चैनलों पर चलनेवाले डिबेट्स में या विचार गोष्ठियों में एक पंक्ति अवश्य सुनते होंगे। कई बार नेता अपनी चुनावी रैलियों में भी इस पंक्ति का उपयोग करते हुए दिखाई देते हैं। वो पंक्ति है, समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध। अब दिनकर की कविता के साथ एक खूबसूरत बात ये है कि अलग अलग पक्षों के लोग उनकी पंक्तियों का उपयोग अपने तर्कों को बल प्रदान करने के लिए करते हैं। अगर विपक्षी दलों को प्रधानमंत्री मोदी के समर्थकों को घेरना होता है तो वो इस पंक्ति का उपयोग करते हैं। मोदी के कुछ समर्थक जिनका दिनकर की इस कविता से परिचय है वो विपक्षी दलों को इसी कविता की अन्य पंक्ति से घेर लेते हैं। वो पंक्ति है, समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल। इस तरह से देखें तो दिनकर की एक ही कविता पक्ष और विपक्ष दोनों उद्धृत करते हैं। इतना ही नहीं जब देश में जाति गणना की बात हुई तो समाचार चैनलों पर बहस चलने लगी थी। अलग अलग पक्ष के लोग अलग अलग दलीलें दे रहे थे। जाति गणना में भी दिनकर की कविता की पंक्ति सामने आ रही थी। रश्मिरथी के प्रथम सर्ग में जब कर्ण से कहा जाता है कि वो अगर अर्जुन से लड़ना चाहता है तो उसको अपनी जाति बतानी होगी। तब कर्ण व्यथित होता है। झुब्ध भी। कर्ण की मनोदशा को चित्रित करते हुए दिनकर रचते हैं- ‘जाति!, हाय री जाति!’ कर्ण का ह्रदय क्षोभ से डोला/कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला/जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड/मैं क्या जानूं जाति?/जाति हैं मेरे ये भुजदंड। इस कविता की पंक्ति जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड जमकर उद्धृत होती है।    

दरअसल दिनकर की कविताओं विशेषकर उनके प्रबंध काव्य या कथा काव्य पर गंभीरता से विचार करें तो ये स्पष्ट होता है कि दिनकर अतीत और वर्तमान दोनों को साथ लेकर चलते हैं। ना केवल साथ लेकर चलते हैं बल्कि परंपरा और आधुनिकता का निर्वाह भी करते हैं। कई लोग उनके इन काव्यों को युद्ध काव्य कहते हैं लेकिन अगर समग्रता में विचार करें तो दिनकर अपने इन प्रबंध काव्यों में कहीं भी युद्ध का समर्थन नहीं करते हैं। दिनकर का कवित्व इन्हीं गुणों के कारण समकालीन बना रहता है। दिनकर की सिर्फ कविताएं ही नहीं बल्कि उनके लिखे गद्या भी असाधारण रूप से काल की चौहद्दी को तोड़ते चलते हैं। इसी असाधारण गुण के कारण उनकी रचनाएं कालजयी हो गई हैं।  

Saturday, May 10, 2025

साइबर आतंकवादी भी युद्ध में सक्रिय


भरत-पाकिस्तान के बीच भले ही युद्ध विराम की सहमति बन गई हो लेकिन  एक युद्ध इंटरनेट मीडिया पर भी लड़ा गया और ऐसा लगता है कि आगे भी लड़ा जाएगा। एक्स, फेसबुक और अन्य इंटरनेट प्लेटफार्म पर तरह तरह के वीडियो की बाढ आई है। पुराने वीडियो भी नए बताकर चलाए जा रहे हैं। कई पाकिस्तानी हैंडल से फेक सूचनाओं को प्रसारित किया जा रहा है। एआई का उपयोग करके फेक वीडियो इंटरनेट मीडिया पर प्रचलित हो रहे हैं। आपरेशन सिंदूर के चौथे दिन एआई से बना एक वीडियो इंटनेट मीडिया पर खूब प्रचलित हो रहा है। इस फेक वीडियो में विदेश मंत्री डा एस जयशंकर युद्ध के लिए क्षमा मांगते दिख रहे हैं। एआई की मदद से बने इस फेक वीडियो को इंटरनेट मीडिया पर पाकिस्तानी साइबर आतंकवादी प्रचलित कर रहे हैं। इस कारण सूचनाओं के लिए इन प्लेटफार्म्स पर आ रहे वीडियो को सही मानना जोखिम भरा है। दो देशों के बीच गोला बारूद से लड़े गए युद्ध में एक युद्ध साइबर स्पेस में भी लड़ा गया और आगे भी ये जारी रह सकता है। दिन रात कई साइबर लड़ाके इस काम में लगे हुए हैं। उनका काम ही मिसइनफार्मेशन फैलाना है। ये एक ऐसा स्पेस है जहां मनोबल बढ़ाने या तोड़ने का काम होता है। पाकिस्तान से सक्रिय कई एक्स हैंडल हिंदू नाम से बनाए गए। वो प्रामाणिक तरीके से पोस्ट करते हैं जिससे ये प्रतीत हो कि वो भारत से पोस्ट हो रहे हैं। इन फेक पोस्ट को लेकर पाकिस्तान  मीडिया अपने चैनलों पर चलाने लगते हैं। शनिवार को पाकिस्तान के साइबर फिदायीनों ने इसी तरह का समाचार चलाया। इसे पहले तो राष्ट्रभक्त नाम के एक हैंडल से प्रसारित किया गया। लेकिन अब इन मूर्खों को कौन समझाए कि युद्ध के समय थोड़ी सी चूक भी किसी भी पक्ष के लिए भारी पड़ सकती है। इस हैंडल ने लिख दिया कि पाकिस्तानी नेवी के हमले में बेंगलुरू और पटना के पोर्ट तबाह हो गए। इसको लेकर पाकिस्तान के एक न्यूज चैनल ने खबर चला दी। कहने लगे कि भारतीय खुद मान रहे हैं कि पाकिस्तानी नेवी के हमले में उनके दो बंदरगाह तबाह हो गए। अब इन अक्ल के कच्चों को कौन बताए कि ना तो पटना में बंदरगाह है और ना ही बेंगलुरू में। थोड़ी बाद ये खबर पाकिस्तानी न्यूज चैनल से हटा। 

दरअसल एआई के आने और उसके टूल्स के निरंतर विकसित होने से से ये सब काम आसान हो गया है। अब किसी भी व्यक्ति की आवाज में वक्तव्य दिलवाया जा सकता है। अगर जनता शिक्षित नहीं है और उसको एआई और उसके कारनामों का ज्ञान नहीं है तो वो इनको सच मान लेती है। वक्तव्यों के अलावा भी एआई से कई ऐसे वीडियो बनाए जा रहे हैं जिसमें विमानों को नष्ट करते हुए दिखाया जा सकता है।किसी भी पुराने वीडियो को नए स्वरूप में ढालकर पेश किया जा सकता है। जब तक फैक्ट चेक होगा तब तक उसका असर हो चुका होता है। जैसे भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान पाकिस्तानी हैंडल से साइबर आतंकवादियों ने एक वीडियो पोस्ट किया जिसमें वो ये दिखा रहे हैं कि एक पायलट पैराशूट से किसी खेत में उतर रही है और उसके सामने पाकिस्तानी सैनिक खड़ा है। फिर महिला पायलट की एक जमीन पर लेटी फोटो आती है जिसमें वो मुंह ढ़के है। उसके हाथ में फोन है। इसमें टिप्पणी लिखी है कि इंडियन फीमेल पायलट अरेस्टेड। माशाअल्लाह फोन नहीं छूटा लेकिन जहाज नष्ट हो गया। इस फेक वीडियो और फोटो को इस तरह से चलाया गया कि भारतीय पायलट शिवांगी सिंह के विमान को पाकिस्तानी फाइटर प्लेन ने गिरा दिया। शिवांगी सिंह बच गई और पाकिस्तानी सेना के कब्जे में है। सचाई ये है कि ये पुरानी इमेज है। जून 2023 में कर्नाटक में एक ट्रेनर विमान गिरा था उसकी महिला पायलट की फोटो है। भारत के प्रेस इंफैर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) ने फैक्ट चेक करके बता दिया। इस युद्ध के दौरान प्रोपगैंडा को थामने में पीआईबी की फैक्ट चेकिंग यूनिट ने शानदार काम किया है। 

दूसरी समस्या भारत के कथित बुद्धिजीवियों की है। जो पता नहीं किस दबाव में या किन परिस्थितियों के चलते युद्ध के विरोध में लिखने लगते हैं। कुछ कथित नारीवादियों ने आपरेशन सिंदूर को लेकर प्रश्न उठाए। उनको इस नाम में पितृसत्तात्मकता की बू आ रही थी। ऐसे लोगों की मानसिक स्थिति का सहसा अनुमान लगाना कठिन है। इनके लिखे का नोटिस लेकर अकारण इनको चर्चित करने से भी बचा जाना चाहिए। सिंदूर की भारतीय समाज में क्या महत्ता है इसको ये नारीवादी शायद समझती नहीं हैं। भारतीय समाज, यहां की परंपरा, यहां के रीति रिवाजों को मूर्खतापूर्ण विदेशी वाक्यांशों और अधकचरे ज्ञान से समझना मुश्किल है। हां इतना अवश्य है कि उनको फेसबुक आदि पर थोड़ी चर्चा मिल जाती है। इंगेजमेंट से रीच बढ़ाने में मदद मिलती है। इस तरह की ऊलजलूल टिप्पणी भी तकनीक और उससे होनेवाले लाभ को ध्यान में रखकर की जाती है। फेसबुक के प्रोफेशनल डैशबोर्ड पर जाकर इंगेजमेंट से होनेवाले लाभ को देखा जा सकता है। जिस तरह से कुछ यूट्यूबर्स हर दिन मोदी की सरकार गिरा देते हैं, मोदी और अमित शाह के बीच झगड़ा करवा देते हैं जैसे मूर्खतापूर्ण और मनोरंजक थंबनेल लगाकर दर्शकों को खींचने का प्रयास करते हैं उसी तरह से फेसबुकिया फेमीनाजी भी इस तरह का उपक्रम करती हैं। 

भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान भारत सरकार ने कुछ यूट्यूब चैनल्स को उनकी कंटेंट के आधार पर प्रतिबंधित किया। इसके अलावा कुछेक वेबसाइट्स को भी प्रतिबंधित किया गया। ऐसे ही एक बेवसाइट को प्रतिबंधित करने की खबर पर हिंदी की बुजुर्ग साहित्यकार मृदुला गर्ग ने लिखा, लास्ट नेल इन द काफीन आफ डेमोक्रेसी। मृदुला जी की प्रतिष्ठा एक पढ़ी लिखी समझदार लेखिका के तौर पर हिंदी समाज में थी। पहलगाम में आतंकवादी हमले के बाद से उन्होंने जिस तरह की टिप्पणियां करनी आरंभ की जिससे लगा कि उनकी समझ पर उनकी उम्र हावी हो गई है। उपरोक्त टिपप्णी से तो ऐसा प्रतीत होता है कि मृदुला जी को ना तो लोकतंत्र की समझ है और ना ही युद्ध के समय सरकार के निर्णयों को लेकर उनकी समझ परिपक्व हुई है। कहीं से कुछ सुन लिया किसी ने कुछ समझा दिया और फेसबुक पर आकर टिप्पणी कर क्रांति करने लगीं। मृदुला जी जैसी कई अन्य लेखिकाएं हिंदी में हैं जो इस कारण से हर विषय में कूदती हैं ताकि उनको भी वैचारिक रूप से समृद्ध माना जाए। ऐसा करने के क्रम में वो खुद को उपहास का पात्र बना डालती हैं।  

Saturday, May 3, 2025

स्क्रीन का आकार छोटा संभावनाएं अनंत


भारत कथावाचकों का देश रहा है, इस बात की लंबे समय से चर्चा होती रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पिछले कार्यकाल में मन की बात कार्यक्रम में इस बात को रेखांकित भी किया था। मनोरंजन के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर इस बात को कहा जाता रहा है। इस स्तंभ में भी इसकी चर्चा होती रही है। मुंबई के नीता मुकेश अंबानी कल्चरल सेंटर में 1 से 4 मई तक विश्व दृश्य श्रव्य और मनोरंजन शिखर सम्मेलन- वेव्स का आयोजन हुआ। इसके शुभारंभ के अवसर भी प्रधानमंत्री ने इस बात को दोहराया कि भारत कथावाचकों की भूमि रही है। उन्होंने कहा कि भारत न केवल एक अरब से अधिक आबादी का घर है, बल्कि एक अरब से अधिक कहानियों का भी घर है। देश के समृद्ध कलात्मक इतिहास का संदर्भ  देते हुए उन्होंने याद दिलाया कि दो हज़ार साल पहले, भरत मुनि के नाट्य शास्त्र ने भावनाओं और मानवीय अनुभवों को आकार देने में कला की शक्ति पर बल दिया था। उन्होंने कहा कि सदियों पहले, कालिदास के अभिज्ञान-शाकुंतलम ने शास्त्रीय नाटक में एक नई दिशा प्रस्तुत की। प्रधानमंत्री ने भारत की गहरी सांस्कृतिक जड़ों को रेखांकित करते हुए कहा कि हर गली की एक कहानी है, हर पहाड़ का एक गीत है और हर नदी एक धुन गुनगुनाती है। उन्होंने कहा कि भारत के छह लाख गांवों में से प्रत्येक की अपनी लोक परंपराएं और अनूठी कहानी कहने की शैली है, जहां समुदाय लोकगीतों के माध्यम से अपने इतिहास को संरक्षित करते हैं। उन्होंने भारतीय संगीत के आध्यात्मिक महत्व का भी उल्लेख करते हुए कहा कि चाहे वह भजन हो, ग़ज़ल हो, शास्त्रीय रचनाएं हों या समकालीन धुनें हों, हर धुन में एक कहानी होती है और हर लय में एक आत्मा होती है। इस शिखर सम्मेलन में चार दिनों तक कई सत्रों में देश विदेश के फिल्मों, ब्राडिंग, मार्केटिंग,गेमिंग और एनिमेशन से जुड़े लोगों ने इन क्षेत्रों में वैश्विक स्तर पर उफलब्ध संभावनाओं पर चर्चा की। कई देशों के मंत्री भी इसमें शामिल हुए।

इस सम्मेलन के दौरान काफी बड़ी संख्या में लोग जुटे। इससे ये पता चलता है कि मनोरंजन जगत में लोगों की बहुत रुचि है। यहां गेमिंग और एनिमेशन से जुड़े युवाओं को प्रोत्साहित किया गया। मंच पर पुरस्कृत होनेवाले कटेंट क्रिएटर्स की औसत उम्र 25 वर्ष के आसपास लग रही थी। लगभग सभी युवा थे जिन्होंने बेहतर कटेंट क्रिएट किया। भारत को विकसित राष्ट्र बनाना है तो सिर्फ पारपंरिक तरीके से विकास के रास्ते पर चलकर इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता है। इसके लिए गैर पारंपरिक क्षेत्रों से देश की आर्थिकी को मजबूती प्रदान करनेवाले और आय बढ़ाने के रास्ते खोजने होंगे। भारत में जिस तरह की कहानियों का भंडार है और उन कहानियों पर बेहतर कटेंट क्रिएट करने की प्रतिभा है उसका वैश्विक स्तर पर उपयोग करके देश की आय बढ़ाई जा सकती है। भारत में हर क्षेत्र में कितनी प्रतिभा है इसका आकलन सिलिकान वैली में कंप्यूटर साफ्टवेयर के क्षेत्र में कार्य कर रहे भारतीयों और उनकी उपल्बधियों को देखकर सहज ही किया जा सकता है। गेमिंग के बढ़ते हुए बाजार को ध्यान में रखते हुए उस दिशा में कार्य करना होगा। गेमिंग का वैश्विक बाजार बहुत बड़ा हो गया है। बड़ी बड़ी कंपनियां इसमें हजारों करोड़ रुपए का निवेश कर रही हैं। इस शिखर सम्मेलन के दौरान होने वाली चर्चाओं में ये बात स्पष्ट रूप से निकलकर आई कि भारत को इस क्षेत्र में मजबूती से स्थापित होने की आवश्यकता है। सरकार ने इस दिशा में पहल की है। इसका स्वागत अभिनेता आमिर खान जैसे लोगों ने भी किया। आमिर खान ने माना कि पहली बार किसी सरकार ने मनोरंजन जगत के लोगों से संवाद करने की पहल की है। उनके साथ बैठकर इस क्षेत्र को आगे बढ़ाने की योजनों और संभावनों पर विचार किया है। वेव्स में दुनिया भर के क्रिएटर्स, स्टार्टअप्स, उद्योग प्रमुखों और नीति निर्माताओं को एक मंच पर लाकर मीडिया, मनोरंजन और डिजिटल नवाचार का वैश्विक केंद्र बनाना लक्ष्य है।

भारत की फिल्मों को साफ्ट पावर के तौर पर उपयोग करने की बात भी लंबे समय से होती रही है। मुझे याद आ रहा है 2012 का एक किस्सा। इस वर्ष जोहानिसबर्ग में विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ था। मारीशस के तत्कालीन कला और संस्कृति मंत्री चुन्नी रामप्रकाश ने कहा था कि हिंदी के प्रचार प्रसार में फिल्में और टेलीविजन पर चलनेवाले सीरियल्स का बड़ा योगदान है। उन्होंने मंच से स्वीकार किया कि हिंदी फिल्मों और टीवी सीरियल्स के कारण ही उन्होंने हिंदी सीखी। अपने वक्तव्य में उन्होंने भारत में बनने वाले टीवी सीरियल्स के नाम भी लिए और कहा उनकी लोकप्रियता की वजह से विदेश में गैर हिंदी भाषी भी उसको देखते हैं। इसी तरह 2023 में फिजी के नांदी में विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान मंच पर भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और फिजी के राष्ट्रपति रातू विलियामे काटोनिवेरी बैठे थे। दोनों के बीच बातचीत हो रही थी। राष्ट्रपति रातू हिंदी फिल्मों की चर्चा कर रहे थे। जयशंकर ने इनसे पूछा कि उनको सबसे अच्छी हिंदी फिल्म कौन से लगी तो राष्ट्रपति ने उनसे कहा कि शोले। इस फिल्म का कोई मुकाबला नहीं है। 

वेव्स का आयोजन पहले दिल्ली में होना था लेकिन बाद में किसी कारणवश इसको मुंबई शिफ्ट किया गया। आयोजन की भव्यता और भागीदारी देखने के बाद लगा कि मुंबई ही सही जगह है। वेव्स के आयोजन के बाद अब गोवा में होनेवाले अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल (ईफ्फी) के कई आयामों को लेकर संशय उत्पन्न हो गया है। ईफ्फी में फिल्म बाजार लगता है और वेव्स में भी इस प्रकार का ही एक आयोजन है। ईफ्फी में 75 क्रिएटिव माइडंस का आयोजन होता है, वेव्स में भी क्रिएटिव अवार्ड दिए गए। ईफ्फी में फिल्मकारों को कई तरह के पुरस्कार दिए जाते हैं, वेव्स के लिए भी प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि अगले संस्करणों में पुरस्कार देने की योजना है। दोनों आयोजन भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के हैं। जब वेव्स के आयोजन को सरकार प्राथमिकता देगी तो ईफ्फी पर इसका असर पड़ सकता है। वैसे भी ईफ्फी को लेकर एक कंफ्यूजन लंबे समय से है कि वो फिल्म फेस्टिवल रहे या उसको अवार्ड का मंच बने। ईफ्फी के आयोजन के दौरान ये ब्रम दिखता है। ईफ्फी को बेहतरीन फिल्म फेस्टिवल बनाने पर जोर देना चाहिए। वहां जिस तरह से प्रदर्शनियां और फूड कोर्ट आदि लगाए जाते हैं उससे बचना होगा। इसमें खर्च होनेवाले संसाधनों को फेस्टिवल में बेहतर फिल्मों को लाने और चर्चा सत्रों पर उपयोग किया जा सकता है। वेव्स के सफल आयोजन के बाद ईफ्फी को लेकर सूचना और प्रसारण मंत्रालय को पुनर्विचार करना चाहिए। 

वेव्स का आयोजन मनोरंजन जगत के लिए अच्छे दिन का संकेत तो है भविष्य में इनसे जुड़कर युवाओं को रोजगार की संभावनाएं तलाशने में मदद मिलेगी। प्रधानमंत्री ने भी माना कि स्क्रीन का आकार छोटा हो सकता है, लेकिन दायरा अनंत होता जा रहा है, स्क्रीन छोटी हो रही है, लेकिन संदेश व्‍यापक होता जा रहा है। कहा जा सकता है कि यही समय है सही समय है।