पिछले दिनों दैनिक जागरण ज्ञानवृत्ति की तैयारी के सिलसिले में कुछ शोध संस्थानों में जाकर उनकी कार्यविधि को समझने का प्रयास किया। इसी क्रम में दिल्ली के पब्लिक पालिसी थिंक टैंक, सेंटर आफ पालिसी रिसर्च एंड गवर्नेंस (सीपीआरजी) में कुछ समय बिताया। संस्था से संबद्ध लोगों से लंबी बातचीत की। बातचीत के क्रम में सीपीआरजी के निदेशक रामानंद जी से बहुत लंबी चर्चा हुई। इस क्रम में उन्होंने कई रोचक प्रोजेक्ट की चर्चा की। एक प्रोजेक्ट जिसने मेरा ध्यान खींचा वो था कुछ विशेष तिथियों पर नदी किनारे होनेवाले जमावड़ों और उसके सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव की। इसी क्रम में पता चला कि सीपीआरजी एक शोध वाराणसी और अयोध्या में होनेवाले श्रावण स्नान मेला में गंगा और सरयू के किनारे जुटनेवाले श्रद्धालुओं के मन को टटोलने का प्रयास कर रहा है। वो किस कारण से वहां आते हैं और उनपर इस जुटान का क्या असर पड़ता है, इसको जानने के लिए अध्ययन किया जा रहा है। कहा जा सकता है कि ये स्नान भक्ति का एक रूप है लेकिन इसमें सामाजिकता और परंपरा के निर्वाह का उमंग भी दिखता है। इस शोध में ये पता करने का प्रयास किया जा रहा है कि इस स्नान का पर्यावरण से कितना संबंध है या कितना प्रभाव पड़ता है। क्या इस स्नान से भारत की संस्कृति और उसके अंतर्गत मनाए जानेवाले विविधता के उत्सव की झलक देखने को मिलती है। इस दौरान प्रशासन किस तरह से कार्य करता है। बातचीत जब आगे बढ़ी को पता चला कि अभी इस अध्ययन का अंतिम परिणाम सामने नहीं आया है। जो आरंभिक बातें सामने आ रही हैं उसके बारे में जानना भी दिलचस्प है।
नदियों के किनारे स्नान के दौरान होनेवाले जुटान को लेकर अधिकतर लोग इसको भक्ति से जोड़कर देखते हैं। वहीं कुछ इसको सामाजिकता के प्रगाढ़ होते जाने के उत्सव के तौर पर इसमें हिस्सा लेते हैं। कई लोग पारिवारिक परंपरा के निर्वाह के लिए नदी तट पर जुटते हैं और सामूहिक स्नान करते हैं। ऐसे लोग अपने बच्चों को भी स्नान के लिए साथ लेकर आते हैं। उनको अपनी इस परंपरा की ऐतिहासिकता के बारे में बताते भी हैं। मौखिक रूप से अपनी परंपरा को बताने में कथावाचन के तत्व रहते हैं। मोटे तौर ये वर्गीकरण दिखता है। जब सूक्षम्ता से विश्लेषण किया गया तो पता चला कि जो युवा इस स्नान में शामिल होते हैं वो इसमें आध्यात्मिकता, सामाजिकता और अपनी जड़ों से जुड़ने के लिए नदियों के किनारे जुटते हैं। युवाओं के मुताबिक वो स्नान के अपने इन अनुभवों को अपने मोबाइल के कैमरे में समेट भी लेते हैं। इंटरनेट मीडिया के विभिन्न मंचों पर उसको साझा भी करते हैं। ये भी एक कारण है कि अन्य युवा भी इस स्सान के लिए प्रेरित होते हैं। वहीं जो अपेक्षाकृत अधिक उम्र के लोग हैं वो भक्तिभाव से अपनी परंपरा और पौऱाणिक स्मृतियों से स्वयं को जोड़ते हैं। इस कारण वो सरयू और गंगा में डुबकी लगाने के लिए श्रावण स्नान के समय जुटते हैं। इस स्टडी के आरंभिक नतीजों के बारे में जानकर ये लगता है कि कैसे भारतीय परंपरा में एक पर्व की कई परतें होती हैं जो भारतीय समाज को आपस में जोड़ती हैं। इस अध्ययन का जब परिणाम सामने आएगा तो पता चलेगा कि कैसे पुजारी, समाज के वरिष्ठ जन, परिवार, स्थानीय समितियां और युवा इन पर्वों के माध्यम से ना सिर्फ एक दूसरे से जुड़ते हैं बल्कि अपनी परंपरा को भी गाढ़ा करते हैं। इस तरह के कई शोध और अध्ययन हो रहे होंगे। दैनिक जागरण ज्ञानवृत्ति भी इस तरह के शोध को बढ़ावा देने का एक उपक्रम है। जिसमें अभ्यार्थियों से ये अपेक्षा की जाती है कि वो नौ महीने तक किसी विशेष भारतीय घटना या परंपरा का अध्ययन करें और उसके आधार पर पुस्तक लिखें। इसके लिए जागरण आर्थिक मदद भी करता है।
इस बीच एक और खबर आई कि भारत सरकार सूर्य उपासना के पर्व छठ पूजा को यूनेस्को की सांस्कृतिक विरासत की सूची में शामिल करवाना चाहती है। इसके लिए प्रयास आरंभ हो गए हैं। छठ पूजा भारत के प्राचीनतम पर्वों में से एक है। ये सूर्य की उपासना से तो जुड़ा ही है इसमें नदियों और घाटों की महत्ता भी है। स्वच्छता पर भी विशेष जोर दिया जाता है। संस्कृति मंत्रालय ने इसके लिए कई देशों के राजदूतों के साथ बैठक की है और छठ पूजा को वैश्विक सांस्कृतिक धरोहर की सूची में शामिल करवाने में उनका सहयोग मांगा है। दरअसल बिहार, उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से और बंगाल में छठ पूजा की प्राचीन परंपरा रही है। बिहार से जो श्रमिक काम करने के लिए मारीशस, सूरीनाम, फिजी आदि देशों में गए वो अपने साथ छठ पूजा को लेकर गए। वहां भी प्राचीन काल से छठ पूजा हो रही है। संस्कृति मंत्रालय ये चाहता है कि छठ पूजा की प्राचीनता को लेकर अन्य देश भी भारत के दावे को पुष्ट करें। छठ पूजा पर भी अगर गंभीरता से कोई अध्ययन किया जाए तो उसके भी रोचक परिणाम सामने आ सकते हैं। इस पर्व में पर्यावरण जुड़ता है। इसमें सामाजिकता है। मुझे याद पड़ता है कि हमारे गांव में जब महिलाएं छठ करती थीं तो अर्घ्य देने के लिए पूरे गांव के लोग जमा होते थे। तालाब के घाटों की सफाई की जाती थी। अगर संभव होता था तो तालाब पानी को भी साफ किया जाता था। गांव से तालाब तक जाने वाले रास्तों की सफाई की जाती थी ताकि पर्व करनेवाली महिलाओं, जिनको बिहार की स्थानीय भाषा में परवैतिन कहा जाता है, को किसी प्रकार की तकलीफ ना हो। इसमें ये आवश्यक नहीं होता है कि जिनके घर की महिलाएं पर्व कर रही हों वही साफ सफाई के कार्य मे जुटते हैं। ये सामुदायिक सेवा होती है। इस तरह से ये भारतीय पर्व स्वच्छता से भी जुड़ता है। छठ के अवसर पर सामाजिक जुटान भी होता है। हर समाज के लोग एक ही घाट पर पूजा करते हैं। वहां जात-पात का भेद नहीं होता है। लोग एक साथ पूजा के बाद प्रसाद ग्रहण करते हैं। ये सामाजिक समरसता को भी मजबूत करनेवाला पर्व है।
भारत के जो पर्व त्योहार हैं उनके पीछे कहीं ना कहीं किसी तरह से पर्यावरण से जुड़ने की बात देखने को मिलती है। पर्व-त्योहार को जो लोग रूढ़िवादिता से जोड़कर देखते हैं वो दरअसल किसी न किसी दृष्टिदोष के शिकार होते हैं। आज जिस तरह से भारतीय युवा अपने धर्म को लेकर, उसकी आध्यात्मिकता को लेकर उत्सुक है वो एक शुभ संकेत है। वो धर्म के नाम पर चलनेवाली कुरीतियों से, जड़ता से, नहीं जुड़ता है बल्कि उसकी प्रगतिशीलता से, उसकी वैज्ञानिकता से और उससे मिलने वाले आत्मिक संतोष से जुड़ता है। आज अगर बड़ी संख्या में भारतीय युवाओं के बीच अपने धर्म से जुड़ने की ललक दिखती है तो वो धार्मिकता और वैज्ञानिकता के संगम के कारण। युवा मन हर चीज में लाजिक खोजता है। जबर वो संतुष्ट होता है तभी वो किसी पर्व के साथ जुड़ता है। यह भारतीय परंपराओं की सनातनता है जो भारतीयों को जोड़ती है।
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