संस्कृति के चार अध्याय में
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है- विद्रोह, क्रांति या बगावत कोई ऐसी चीज
नहीं होती, जिसका विस्फोट अचानक होता हो । घाव फूटने से पहले बहुत काल तक पकता रहता
है । विचार भी. चुनौती लेकर खड़े होने के पहले वर्षों तक अर्धजाग्रत अवस्था में फैलते
रहते हैं । आज से तकरीबन साठ वर्ष पहले दिनकर ने वैदिक धर्म के खिलाफ खुले विद्रोह
की परिणिति के तौर पर जैन और बौद्ध धर्म को परिभाषित करते हुए कही थी । दिनकर का यह कथन उनके गृह प्रदेश बिहार की पुस्तक
संस्कृति और सांस्कृतिक जागरण के संदर्भ में दोहराई जा सकती है । पटना पुस्तक मेला
ने खुद को सांस्कृतिक आंदोलन में बदलने और सूबे के अलावा पूरे देश में अपनी पहचान स्थापित
करने में सफलता प्राप्त की है । दिनकर के उक्त कथन के आसपास ही बिहार में पुस्तक मेले
को लेकर सुगबुगाहट शुरू हो गई थी । साठ के दशक में ही पटना में एक पुस्तक प्रदर्शनी
लगी थी उसके बाद रुक रुक कर लंबे-लंबे अंतराल के बाद पटना में पुस्तक मेले का आयोजन
होता रहा । कभी केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने तो कभी नेशनल बुक ट्रस्ट ने तो कभी पुस्तक
व्यवसायी संघ ने पटना में पुस्तक मेले का आयोजन किया । हर बार बिहार की जनता ने अपने
उत्साह से आयोजकों को फिर से पुस्तक मेला आयोजित करने के लिए बाध्य किाय । लेकिन फिर
भी निरंतरता नहीं बन पाई थी । अस्सी के दशक के अंतिम वर्षों में इस बात की जरूरत महसूस
की गई कि कोई एक संगठन नियमित तौर पर पटना में पुस्तक मेले का आयोजन करे । बिहार शैक्षिक
संघ बना और उन्नीस सौ नब्बे में 14 दिनों तक चलनेवाले पुस्तक मेले का आयोजन किया गया
। यह पुस्तक मेला इतना सफल रहा कि 1991 और 1992 में आयोजित किया गया । फिर तो पुस्तक
मेला बिहार के सांस्कृतिक कैलेंडर में स्थायी हो गया । कालांतर में यह एक वर्ष रांची
और एक वर्ष पटना में आयोजित होने लगा । हर साल यह आयोजन दोनों जगहों पर सफल होता रहा
। मुझे याद है कि पटना पुस्तक मेले की चर्चा पटना से दूर गांवों और कस्वों तक पहुंचने
लगी थी। इस काम में बिहार के दैनिक अखबारों ने भी बड़ी भूमिका निभाई है । तमाम शिक्षाविद
यह कहते हैं कि लड़के स्कूल और कॉलेज छोड़कर या भागकर फिल्में देखने चले जाते हैं लेकिन
कोई भी स्कूल कॉलेज से भागकर पुस्तकालय या फिर पुस्तकों के पास नहीं पहुंचता है । यह
बात सत्य हो सकती है पर हमारा अनुभव बिल्कुल अलहदा है । हम तो कलेज छोड़कर अपने दोस्तों
के साथ 1992 के पुस्तक मेला को देखने तकरीबन सवा दो सौ किलोमीटर की यात्रा करके भागलपुर
से पटना पहुंचे थे । दो तीन दिनों तक पुस्तक मेले में खरीदारी की थी । वहीं कई हिंदी
के प्रकाशकों के स्टॉल पर जाकर पुस्तक क्लब आदि की सदस्यता भी ली थी । मेरे जैसे जाने
कितने नौजवान बिहार के दूर दूर के गांवों कस्बों से पटना पुस्तक मेले में पहुंचे थे
। बिहार की बारे में मान्यता है कि वहां सबसे ज्यादा पत्र-पत्रिकाएं बिकती हैं । लोग
सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यक रूप से जागरूक हैं । यह हकीकत भी है । यहां के लोग सिर्फ
पढ़ते ही नहीं हैं उसपर बेहिचक अपनी राय भी देते हैं । बिहार में इस जागरूकता को और
फैलाने और नई पीढ़ी की पढ़ने की रुचि को संस्कारित करने में पटना पुस्तक मेला ने बेहद
सकारात्मक और अहम भूमिका निभाई है । बिहार ने इस स्थापना को भी निगेट किया है कि युवा
साहित्य नहीं पढ़ते या युवाओं की साहित्य में रुचि नहीं है । पटना पुस्तक मेले के दौरान
युवाओं की भागीदारी और उनके उत्साह को देखकर संतोष होता है कि पाठक बचे हैं जरूरत सिर्फ
उनतर पहुंचने के उपक्रम की है ।
ऐसा नहीं है कि पटना पुस्तक मेला के आयोजन में बाधा नहीं आई । दो हजार में पटना जिला प्रशासन ने आयोजन स्थल गांधी मैदान के आवंटन के लिए व्यावसायिक दर से शुल्क मांगा जो कि इतना ज्यादा था कि आयोजकों को स्थान बदलने पर मजबूर होना पड़ा । पुस्तक मेला पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान से हटकर शहर के एक दूसरे छोर पर स्थित पाटिलपुत्रा कॉलोनी के मैदान जा पहुंचा । गांधी मैदान ना देने का फैसला सरकारी अफसरों की संवेदनहीनता का नमूना था । यह एक ऐसा कदम था जिसकी तुलना हम 1930 के बदनाम बुक बर्लिन ब्लास्ट के साथ कर सकते हैं । 1930 का वह दौर हिटलर के उत्थान और ताकतवर होने का दौर था । नाजीवादी यह मानते थे कि साहित्य मनुष्य की भावनाओं को जगाता है और भावना लोगों को दुर्बल बना देती है । उनका मानना था कि अगर जर्मनी को दुनिया फतह पर करना है तो कमजोर लोगों से काम नहीं चल सकता । लिहाजा विश्व साहित्य की महत्वपूर्ण कृतियों को बर्लिन विश्वविद्यालय के विशाल प्रांगण में जला दिया गया था । इसे बुक बर्लिन ब्लास्ट कहते हैं । हिटलर के पतन के बाद इस घटना की जोरदार प्रतिक्रिया हुई । जिस दिन किताबें जलाई गई उसी दिन अब हर साल बर्लिन विश्वविद्यालय के उसी जगह को विश्व भर की किताबों से पाट दिया जाता है । उन लेखकों के नाम लिखे जाते हैं जिनकी किताबें 1903 में जला दी गई थी । बर्लिन में उस दिन को किताब उत्सव की तरह मनाया जाता है । हर जगह पर लोग किताब पढ़कर एक दूसरे को सुनाते हैं, रेस्तरां से लेकर फुटपाथ तक, चौराहों से लेकर पार्कों तक में । यह विरोध का एक तरीका है । बर्लिन की तरह ही पटना के लोगों ने भी गांधी मैदान से पुस्तक मेले को हटाने का जोरदार विरोध किया था । शहर में जुलूस निकले थे । लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के जबरदस्त विरोध में सरकार ने नियमों में बदलाव कर पुस्तक मेला के लिए विशेष इंतजाम किया । ऐसा प्रतीत होता है कि गांधी मैदान से पुस्तक मेले को हटाने की प्रतिक्रिया में ही वहां हर साल यह आयोजन होने लगा । बागीदारी भी बढ़ी और पुस्तक मेले का दायरा भी । पुस्तकों से आगे जाकर उसने सांस्कृतिक आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर ली । पटना पुस्तक मेले में लेखकों, पत्रकारों और विशेषज्ञों के साथ विषय विशेष पर विमर्श भी होते हैं । फिल्मों पर गंभीर चर्चा के अलावा मेले के दौरान फिल्मों पर एक कार्यक्रम बाइस्कोप भी होता है । इसमें किसी एक थीम पर हर दिन एक फिल्म का प्रदर्शन होता है। पटना पुस्तक मेला ने सूबे में समाप्तप्राय नुक्कड़ नाटक को एक विधा के तौर फिर से संजीवनी प्रदान की।
एक ओर जहां देशभर में लिटरेचर फेस्टिवल साहित्य के मीना बाजार में तब्दील होते जा रहे हैं । जहां साहित्य और साहित्यकार को उपभोक्ता वस्तु में तब्दील करने का खेल खेला जा रहा है । साहित्य और संस्कृति की आड़ में मुनाफा कमाने का उद्यम हो रहा है ,ऐेसे माहौल में पटना पुस्तक मेला देश की साहित्यक सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने के अभियान में जुटी है । पटना पुस्तक मेला में देशभर के बुद्धिजीवियों की भागीदारी उसको एक व्यापक फलक भी प्रदान करती है । हिंदी के तमाम साहित्यकरों और संस्कृतिकर्मियों को भी इस मेले में सहभागिता से चीजों को देखने की एक नई दृष्टि मिलती है । अब जरूरत इस बात की है कि पटना पुस्तक मेले को भारत सरकार अपने सांस्कृतिक कैलेंडर में शामिल करे और विश्व के साहित्यक पर्यटकों को यहां बुलाने का उद्यम करे । अगर ऐसा हो पाता है तो हिंदी के लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को विश्व के स्तर पर पहचान भी मिलेगी और शोहरत भी । जरूरत तो इस बात की भी है कि बिहार सरकार इस पुस्तक मेले को बिहार के गौरव के साथ जोड़कर प्रचारित करे ताकि बिहार की गंभीर छवि से पश्चिमी और दक्षिणी राज्यों का परिचय हो सके ।
ऐसा नहीं है कि पटना पुस्तक मेला के आयोजन में बाधा नहीं आई । दो हजार में पटना जिला प्रशासन ने आयोजन स्थल गांधी मैदान के आवंटन के लिए व्यावसायिक दर से शुल्क मांगा जो कि इतना ज्यादा था कि आयोजकों को स्थान बदलने पर मजबूर होना पड़ा । पुस्तक मेला पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान से हटकर शहर के एक दूसरे छोर पर स्थित पाटिलपुत्रा कॉलोनी के मैदान जा पहुंचा । गांधी मैदान ना देने का फैसला सरकारी अफसरों की संवेदनहीनता का नमूना था । यह एक ऐसा कदम था जिसकी तुलना हम 1930 के बदनाम बुक बर्लिन ब्लास्ट के साथ कर सकते हैं । 1930 का वह दौर हिटलर के उत्थान और ताकतवर होने का दौर था । नाजीवादी यह मानते थे कि साहित्य मनुष्य की भावनाओं को जगाता है और भावना लोगों को दुर्बल बना देती है । उनका मानना था कि अगर जर्मनी को दुनिया फतह पर करना है तो कमजोर लोगों से काम नहीं चल सकता । लिहाजा विश्व साहित्य की महत्वपूर्ण कृतियों को बर्लिन विश्वविद्यालय के विशाल प्रांगण में जला दिया गया था । इसे बुक बर्लिन ब्लास्ट कहते हैं । हिटलर के पतन के बाद इस घटना की जोरदार प्रतिक्रिया हुई । जिस दिन किताबें जलाई गई उसी दिन अब हर साल बर्लिन विश्वविद्यालय के उसी जगह को विश्व भर की किताबों से पाट दिया जाता है । उन लेखकों के नाम लिखे जाते हैं जिनकी किताबें 1903 में जला दी गई थी । बर्लिन में उस दिन को किताब उत्सव की तरह मनाया जाता है । हर जगह पर लोग किताब पढ़कर एक दूसरे को सुनाते हैं, रेस्तरां से लेकर फुटपाथ तक, चौराहों से लेकर पार्कों तक में । यह विरोध का एक तरीका है । बर्लिन की तरह ही पटना के लोगों ने भी गांधी मैदान से पुस्तक मेले को हटाने का जोरदार विरोध किया था । शहर में जुलूस निकले थे । लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के जबरदस्त विरोध में सरकार ने नियमों में बदलाव कर पुस्तक मेला के लिए विशेष इंतजाम किया । ऐसा प्रतीत होता है कि गांधी मैदान से पुस्तक मेले को हटाने की प्रतिक्रिया में ही वहां हर साल यह आयोजन होने लगा । बागीदारी भी बढ़ी और पुस्तक मेले का दायरा भी । पुस्तकों से आगे जाकर उसने सांस्कृतिक आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर ली । पटना पुस्तक मेले में लेखकों, पत्रकारों और विशेषज्ञों के साथ विषय विशेष पर विमर्श भी होते हैं । फिल्मों पर गंभीर चर्चा के अलावा मेले के दौरान फिल्मों पर एक कार्यक्रम बाइस्कोप भी होता है । इसमें किसी एक थीम पर हर दिन एक फिल्म का प्रदर्शन होता है। पटना पुस्तक मेला ने सूबे में समाप्तप्राय नुक्कड़ नाटक को एक विधा के तौर फिर से संजीवनी प्रदान की।
एक ओर जहां देशभर में लिटरेचर फेस्टिवल साहित्य के मीना बाजार में तब्दील होते जा रहे हैं । जहां साहित्य और साहित्यकार को उपभोक्ता वस्तु में तब्दील करने का खेल खेला जा रहा है । साहित्य और संस्कृति की आड़ में मुनाफा कमाने का उद्यम हो रहा है ,ऐेसे माहौल में पटना पुस्तक मेला देश की साहित्यक सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने के अभियान में जुटी है । पटना पुस्तक मेला में देशभर के बुद्धिजीवियों की भागीदारी उसको एक व्यापक फलक भी प्रदान करती है । हिंदी के तमाम साहित्यकरों और संस्कृतिकर्मियों को भी इस मेले में सहभागिता से चीजों को देखने की एक नई दृष्टि मिलती है । अब जरूरत इस बात की है कि पटना पुस्तक मेले को भारत सरकार अपने सांस्कृतिक कैलेंडर में शामिल करे और विश्व के साहित्यक पर्यटकों को यहां बुलाने का उद्यम करे । अगर ऐसा हो पाता है तो हिंदी के लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को विश्व के स्तर पर पहचान भी मिलेगी और शोहरत भी । जरूरत तो इस बात की भी है कि बिहार सरकार इस पुस्तक मेले को बिहार के गौरव के साथ जोड़कर प्रचारित करे ताकि बिहार की गंभीर छवि से पश्चिमी और दक्षिणी राज्यों का परिचय हो सके ।
1 comment:
prashansniye lekh.....shubhkamnayen......
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