एक साहित्यकार थे राजेन्द्र यादव । बेहद जीवंत और जिंदादिल
। 28 सितंबर की देर रात वो है से थे हो गए । जिनकी जिंदादिली से हिंदी साहित्य गुलजार
रहा करता था, जिनके ठहाकों की गूंज हिंदी जगत में लगभग छह सात दशक तक गूंजती रही थी,
जिनकी प्रेरणा से सैकड़ों लेखक तैयार हुए, जिनके विचारों ने लंबे समय तक हिंदी जगत
को झकझोरा, जिनकी लेखनी ने सांप्रदायिकता के खिलाफ जंग लड़ी, जिन्होंने अट्ठाइस साल
तक बगैर किसी संस्थागत पूंजी के हंस पत्रिका का निर्बाध संपादन किया, जिन्होंने हंस
के मंच का उपयोग सामाजिक आंदोलन को उभारने में किया, जिन्होंने अपने विचारों से दलित
साहित्य को हिंदी साहुत्य के केंद्र में ला दिया, जिन्होंने हंस के माध्यम से हिंदी
में स्त्री विमर्श को एक नई धार दी , जिन्होंने साठ के दशक में हिंदी कहानी को मनोरंजन
के चौखटे बाहर निकाल कर हिंदी साहित्य को चौंकाया, जिनमें चौरासी साल की उम्र के बावजूद
किशोरों जैसी चपलता और उम्र के इस पड़ाव पर किसी भी जवान से ज्यादा रोमांटिक। यह सूची
बहुत लंबी हो सकती है । लेकिन अब ये सारी बातें इतिहास हो गईं । हिंदी साहित्य के सबसे
लोकतांत्रिक लेखक राजेन्द्र यादव के विधन के बाद उनके ठहाके को अब सिर्फ याद किया जा
सकता है, उनके पुराने संपादकीयों को पढ़कर अब सिर्फ उनका मूल्यांकन किया जा सकता है
। उनका किशोरोचित स्वभाव और रोमांटिक व्यक्तित्व अब कहानियों में याद किए जाएंगे ।
लेकिन यादव जी बहुत दृढता से कहते थे कि- अतीत मेरे लिए कभी पलायन, प्रस्थान की शरणस्थली
नहीं रहा । वे दिन कितने सुंदर थे...काश वही अतीत हमारा भविष्य भी होता – की आकांक्षा व्यक्ति को स्मृति-जीवी
निठल्ला बनाती है । लेकिन साहित्य में तो अतीत को ही कसौटी पर कस कर लेखक का मूल्यांकन
करने की परंपरा रही है । सो यादव जी के साथ भी यह होना तया है । उनेक निधन के बाद हिंदी
जहत को उनके योगदान से लेकर उनकी रचनात्मकता को कसौटी पर कसा जाना शेष लेकिन तय है
। राजेन्द्र यादव की रचनात्मकता के अलावा उनके व्यक्तित्व का भी मूल्यांकन भी हमारे
युग के आलोचकों के लिए बड़ी चुनौती है । दरअसल उनके व्यक्तित्व के बिना उनकी रचनात्मकता
का मूल्यांकन अधूरा सा लगेगा । उनकी पत्नी और मशहूर कथाकार मन्नू भंडारी ने अक्तूबर
1964 में औरों के बहाने में लिखा था- मैं आजतक यह नहीं समझ पाई कि इस व्यक्ति को पति-रूप
में पाना मेरे जीवन में सबसे बड़ा सौभाग्य है अथवा सबसे बड़ा दुर्भाग्य । कई लगता है,
मेरी छुपी हुई प्रतिभा को कितने यत्न से उन्होंने तराशा है । प्रशंसा और प्रेरणा दे-देकर,
कुछ कर डालने के लिए कितना उत्साहित किया है और इतनी ही तीव्रता के साथ इस बात का बोध
भी होता है कि इस व्यक्ति ने मेरी सारी प्रतिभा का हनन कर डाला ।‘ दरअसल यादव जी की रचनात्मकता और व्यक्तित्व के अनेक छोर हैं,
इतने कि एक पकड़ो तो दूसरे के छूटने का खतरा पैदा हो जाता है । लेकिन मुख्यतया यादव
जी के लेखकीय और संपादकीय जीवन में को हम चार खांचे में बांटकर देख सकते हैं । पहला
एक कहानीकार के तौर पर जब उन्होंने मोहन राकेश और कमलेश्वर के साथ मिलकर हिंदी कहानी
की चौहद्दी को तहस नहस कर दिया । दूसरे साहित्यक पत्रिरा हंस के संपादक के रूप में
हिंदी के नए लेखकों की कई पीढ़ी तैयार करने की भूमिका । तीसरा -अपने विचारों से कट्टरपंथियों
पर लगातार हमले करते रहना और उनके खिलाफ वैचारिक जंग छेड़ना और चौथा साहित्य में हाशिए
पर पड़े दलित और स्त्री लेखन को साहित्य के केंद्र में ला देना ।
साठ के दशक में राजेन्द्र यादव की कहानियों में दिखाई देने
वाला अंतर्विरोध कहानी के स्थापित मान्यताओं को ध्वस्त कर रहा था, समाज के पवित्र समझे
जानेवाले रिश्तों पर हमले कर रहा था । लेकिन उस दौर में भी आलोचक राजेन्द्र यादव की
कहानियों के अंतर्विरोध के आदार पर उसे अपने औजारों से खारिज नहीं कर पा रहे थे । एक
आलोचक ने लिखा भी था- राजेन्द्र यादव का लेखन बहुत उलझा हुआ होता है । नामवर जी ने
भी अपने एक लेख में कहा था कि प्राय: वो चक्करदार शिल्प गढ़ने के चक्कर में रहते हैं और उनकी भाषा
की पेचीदगी भी इसी का परिणाम है । इन तमाम अंतर्विरोधों और कमजोरियों के बावजूद राजेन्द्र
यादव की कहानियों ने उस वक्त की कहानी को एक नई राह दिखाई थी जिसकी हिंदी कहानी की
विकासयात्रा में एक अहमियत है, अपना स्थान है । दरअसल मैं इसमें एक बात जोड़ना चाहता
हूं – राजेन्द्र यादव की कहानियों में जो पेचीदगी दिखाई देती है वो उनके व्यक्तित्व
का प्रतिबिंब है । याद कीजिए टी एस इलियट ने कहा था कि- लेखन अपने व्यक्तित्व से पलायन
का दूसरा नाम है- शायद विरोध का भी । लेकिन बाद के दिनों में राजेन्द्र यादव और उनके
नई कहानी के साथी एक सीमित दुनिया की वास्तविकता में उलझ कर रह गए जिससे कि ना सिर्फ
नई कहानी आंदोलन का विकास अवरुद्ध हो गया बल्कि आंदोलनों के अगुवा के लिए भी रचनात्मक
लेखन असंभव होता चला गया । राजेन्द्र यादव भी इसके शिकार हुए ।
जब राजेन्द्र यादव ने देखा कि कहानियों में उनका हाथ तंग
होता जा रहा है तो उन्होंने साहित्यक पत्रिका निकालने का जोखिम उठाया । यह वो दौर था
जब एक एक करके हिंदी की पत्रिकाएं बंद हो रही थी तब हंस के प्रकाशन का जुआ (राजेन्द्र
यादव के ही शब्द ) यादव जी ने खेला । पिछले अट्ठाइस साल से राजेन्द्र यादव ये जुआ जीते
जा रहे थे लेकिन काल से वो जीत नहीं पाए । नामवर सिंह तो कहते हैं कि राजेन्द्र यादव
का नाम हिंदी साहित्य जगत में इस वजह से सुनहले अक्षर में लिखा जाएगा कि उसने अट्ठाइस
वर्षों तक हंस का संपादन किया । नामवर जी के कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि वो सिर्फ
हंस संपादन के लिए याद किए जाएंगे । नामवर जी का अभिप्राय यादव जी के इस अहम योगदान
को भी रेखांकित करना है । हंस में अपने संपादीकय के माध्यम से राजेन्द्र यादव ने साप्रदायिकता
की राजनीति पर जमकर प्रहार किया । उन संपदकीयों की वजह से देश के कई हिस्सों में उनपर
केस भी हुए । हंस की प्रतिया जलाईं गईं और उनके दफ्तर के सामने प्रदर्शन भी हुए । एक
व्कत तो ऐसा भी आ गया था कि लगने लगा था कि वो गिरफ्तार हो जाएंगे । लेकिन तमाम दबावों
के बावजूद राजेन्द्र यादव के रुख में जरा भी बदलाव नहीं आया और वो इस मोर्चे पर अंत
तक डटे रहे हलांकि कुछ दिनों पहले उन्हें वामपंथी कट्टरतावाद का भी शिकार होना पड़ा
और हंस के सालाना जलसे में वरवरा राव के वादाखिलाफी से वो आहत थे ।
राजेन्द्र यादव ने दलित विमर्श के माध्यम से जिस तरह से समकालीन हिंदी साहित्य
में हस्तक्षेप किया उसका मूल्यांकन होना भी शेष है । यादव जी के स्त्री विमर्श पर भी
देह विमर्श का आरोप लगा । मुझे लगता है कि यादव जी का स्त्री विमर्श जर्मन ग्रीयर और
सिमोन द बुआ के स्त्री विमर्श के बीच का रूप था जहां वो परिवार के विघटन और यौन स्वच्छंदता
के अलावा आपसी समझदारी की बात भी करते चलते हैं । जर्मन ग्रीयर की तरह यादव जी मानते
थे कि स्त्रियां अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण में लगें और संबंधों को बाधा
नहीं बनने दें लेकिन उनके लेखन से यह साफ नहीं होता है कि वो परिवार के विघटन की शर्त
पर ये करने की सलाह देते हैं । हलांकि राजेन्द्र यादव खुद कहा करते थे कि वो किसी तरह
के बंधन को स्वीकार नहीं कर सकते हैं । किया भी नहीं । सिर्फ मत्रता की डोर को वो टूटने
नहीं देते थे । राजेन्द्र यादव ने कई नए तरह के प्रयोग किए । उन्होंने खुद ही लिखा
था – अचानक ख्याल आया कि अगर कानून रूप से अग्रिम जमानत ली जा सकती है तो अग्रिम श्रद्धांजलि
क्यों नहीं लिखी जा सकती । आज जिंदा बने रहना भी तो अपराध ही है । मरने के बाद लोग
दिवंगत के बारे में क्या-क्या लिखते और बोलते हैं वह बेचारा ना उसका प्रतिवाद कर सकता
है और न उसमें कुछ घटा बढ़ा सकता है । दरअसल मेरे ये संस्मरण उसी लाचार आदमी के प्रतिवाद
हैं ।‘ इसी प्रतिवाद में उन्होंने खुद और अपने साथियों के जीवित
रहते ही उनपर श्रद्धांजलि लेख लिख डाले थे । उसी में एक जगह यादव जी ने लिखा है – मझे सबसे ईमानदार आत्मकथा गालिब
की ये पंक्तियां लगती हैं जहां वह कहता है कुछ अपनों की प्रिय तस्वीरें और कुछ सुंदरियों
के पत्र- यही तो मरने के बाद मेरी अपनी कहानी है । राजेन्द्र जी यही आपकी भी कहानी
है । अलविदा दोस्त ।
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