सआदत हसन मंटो जिनका नाम साहित्य की दुनिया में बेहद गंभीरता और एक ऐसे कालजयी
लेखक के तौर पर लिया जाता है जिसने साहित्य की प्रचलित मर्यादाओं को ना केवल छिन्न
भिन्न किया बल्कि उसको एक नया रास्ता भी दिखाया । मंटो के बारे में दस्तावेज के संपादक
बलराम मेनरा और शरद दत्त लिखते हैं – मंटो एक आदमी था
। वह एक विजय, एक संज्ञान, एक तलाश, एक शक्ति, हवा के झोंके की तरह चिंतन की एक शाश्वत
लहर भी था । इस लहर के सफर का सिलसिला अटूट है...मंटो जानता था कि आदमी सबसे बड़ा सच
है, और सच अटूट होता है । इसलिए मंटो ने आदमी को खानों में बांटने का कोई जतन नहीं
किया । वह जानता था कि आदमी अपने आप में एक ऐसी सृष्टि है, एक माइक्रोकॉज्म है, जिसमें
समय के तमाम आयाम अपना केंद्रबिंदु पाते हैं । यह बिल्कुल सही बात है कि मंटो की इसी साफगोई और
अंधेरी दुनिया के प्रसंगों को अपनी रचनाओं में लाने की वजह से उन्हें उर्दू का सबसे
बदनाम साहित्यकार तक कह दिया गया लेकिन समय बदलने के साथ साथ मंटो की रचनाएं क्रांकितारी
रटनाओं के रूप में स्थापित होती चली गईं और मंटो अपने समय से आगे देखने वाला रचनाकार
बन गया । मंटो को मुजरिमों की तरह साहित्यक कठघरे में भी खड़े करने की कोशिश की गई
। उनको किया भी गया लेकिन कालांतर में सारे जतन इतिहास के पन्नों में दफन हो गए । मंटो
की रचनाओं के इन दिनों विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद हो रहे हैं, उनके नए पाठक बन
रहे हैं लेकिन पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला ने एमए पंजाबी के कोर्स से मंटो के लेखन
को हटा दिया है । मंटो की रचनाओं को हटाने के पीछे ये तर्क दिया जा रहा है कि छात्रों
को विश्व की अन्य भाषाओं की रचनाओं से परिचय करवाने की कोशिश है । पंजाबी विभाग का
यह तर्क गले नहीं उतरता है क्योंकि मंटो के
लेखन को इस कोर्स में चंद साल पहले ही शामिल किया गया था । छात्रों को पहले अपने देश
में लिखे गए साहित्य की जानकारी होनी चाहिए फिर विदेशी साहित्य से परिचय करवाना चाहिए
क्योंकि तभी वो तुलनात्मक अध्ययन कर सकेगा ।
मंटो की रचनाओं को सिलेबस से उसी राज्य की विश्वविद्याल ने हटाया जहां उनका जन्म
हुआ था । उसी राज्य में ये काम हुआ जिसने विभाजन की पीड़ा सबसे ज्यादा झेली । मंटो
इसी विभाजन की पीडा के कुशल चितेरे हैं लेकिन विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों को कौन समझा
सकता है । विश्वविद्लायलय स्वायत्त हैं और प्रोफेसर स्वतंत्र । तभी तो राजेन्द्र यादव
विश्वविद्यालयों के साहित्यक विभागों को हिंदी की प्रतिभाओं की कब्रगाह कहा करते थे
। दरअसव सिलेबस विश्वविद्लायों की एक बड़ी समस्या है जिसपर ध्यान देने की जरूरत है
। अब यह सोचिए कि मंटो की रचनाओं को हटाकर एक अनाम जापानी कहानीकार की रचनाओं को लगा
देना यह कहां तक जायज है । जायज तब होता जब इसके पीछे कोई तार्किक वजह होती । विश्वविद्लाय
में बैठे कर्ताधर्ता साहित्य के मठाधीश हैं और भाषा विभाग उनके मठ । इन मठों में वही
होता है जो मठाधीश चाहते हैं । मठाधीशों को छात्रों की चिंता नहीं होती है वो अपनी
स्वायत्तता का बेजा फायदा उठाते हुए तमाम तरह के हड़बोड़ मचाते रहते हैं ताकि उनकी
प्रासंगिकता बनी रहे । प्रासंगिकता बचाए या बनाए रखने के इस हथकंडे में ही मंटो जैसे
महान लेखक की रचना को दरकिनार कर दिया जाता है । कम से कम पंजाबी विश्वविद्लाय से ये
अपेक्षा नहीं की जा सकती थी । अब भी अगर वक्त बचा हो तो इसपर पुनर्विचार हो ।
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