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Sunday, March 22, 2015

समाज का दरकता विश्वास

नगालैंड में बालात्कार के आरोप में एक शख्स को जेल से निकालकर भीड़ ने बेरहमी से कत्ल कर दिया। इस खबर के सामने आने के बाद पूरा देश सन्न रह गया था । इसके बाद अब आगरा में भी एक लड़के को छेड़खानी के आरोप में पीट पीट कर मार डाला गया । दोनों मामलों में एक समानता भी देखने को मिली कि भीड़ जब हत्या पर उतारू थी तो कुछ लोग पूरी वारदात का वीडियो बनाने में जुटे थे । कत्ल के बाद इस वीडियो को व्हाट्सएप और अन्य सोशल मीडिया पर शेयर किया गया । अब ये दोनों प्रवत्ति खतरनाक है । हमारे संविधान में भीड़ के इंसाफ की कोई जगह नहीं है किसी को भी किसी की जान लेने का हक नहीं है । गुनाह चाहे जितना भी बड़ा हो फैसला अदालतें करती हैं । अदालत में आरोप और अभियोग तय होने के बाद एक निश्चित प्रक्रिया के तहत इंसाफ किया जाता है । लेकिन जिस तरह से भीड़ ने कानून को अपने हाथ में लिया यह समाज में बढ़ते असहिष्णुता का परिणाम है या फिर लोगों का कानून से भरोसा उठते जाने का । और ये दोनों ही स्थितियां हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं । भीड़ के इंसाफ की गंभीर समाजशास्त्रीय व्याख्या की आवश्यकता है । जिस तरह से दिल्ली के निर्भया बलात्कार कांड में फास्ट ट्रैक कोर्ट आदि से गुजर कर पूरा केस सुप्रीम कोर्ट में लटका है उससे कानूनी प्रक्रिया में लोगों का विश्वास कम होता जा रहा है । निर्भया के गुनहगारों को को फांसी की सजा में देरी से लोग हताश हैं । जनता को लगता है कि उतने बड़े देशव्यापी आंदोलन और सरकार और पुलिस की तमाम कोशिशों को बावजूद बलात्कारियों को सजा नहीं मिल पाई । जिस वारदात के बाद देश का कानून बदल गया हो जिसके बाद बलात्कार की परिभाषा में आमूल चूल बदलवा किया गया हो उसके बाद भी इंसाफ में देरी देश की जनता का मुंह चिढा रहा है । यह ठीक है कि कानून अपनी रफ्तार से इंसाफ करता है लेकिन देरी से मिला न्याय, न्यायिक व्यवस्था को कठघरे में तो खड़ा करता ही है । मामला सिर्फ निर्भया केस का नहीं है ऐसी कई निर्भया देश की अलग अलग अदालतों में इंसाफ की आस में कराह रही हैं । न्याय के बारे में कहा भी गया है कि न्याय होने से ज्यादा जरूरी है न्याय होते दिखना । न्यायिक प्रक्रिया में हो रही देरी से भारत का असहिष्णु समाज बेसब्र होने लगा है । नतीजे में भीड़ का ये इंसाफ देखने को मिल रहा है । हम इन दोनों घटनाओं को साधारण घटना समझ कर नजरअंदाज नहीं कर सकते । इसके बेहद खतरनाक और दूरगामी परिणाम हो सकते हैं जो हमारी मजबूत होती लोकतंत्र की जड़ें कमजोर कर सकती है । वक्त रहते समाज को, सरकार को इसपर ध्यान देना होगा । कानून बनाना ठीक है, कानून का पालन भी अपनी जगह है लेकिन कानून के राज में जनता का भरोसा सबसे बुनियादी और बड़ा है । 
दूसरी एक जो खतरनाक प्रवृत्ति इन दोनों घटनाओं में देखने को मिली है वो है वीडियो और फोटो का व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर पर वायरल होना । गांधी का देश जिसने अहिंसा से ब्रिटिश शासकों को हिला दिया था उसी समाज में हिंसा का उत्सव हो यह समझ से परे हैं । इस तरह के वीभत्स वीडियो और फोटो को साझा करके हम हासिल क्या करना चाहते हैं इस मानसिकता को समझने की भी जरूरत है । ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब व्हाट्सएप पर रेप की वारदात का एक वीडियो वायरल हुआ था। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था लेकिन कोर्ट के आदेश के बावजूद अबतक कार्रवाई नहीं हो पाई है । सोशल मीडिया का फैलाव ठीक है उससे किसी को कोई भी एतराज नहीं है लेकिन जिस तरह से इन माध्यमों के बाइप्रोडक्ट के रूप में अराजकता सामने आ रही है वह चिंता जनक है । दरअसल इस तरह के मामलों में अदालतें, पुलिस , सरकार से ज्यादा दायित्व समाज का है जहां इस तरह के कृत्यों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए । किसी हत्या या बलात्कार के वीडियो का शेयर होना हमारे समाज के बुनियादी उसूलों से हटने के संकेत दे रहा है । भारत में कभी भी हिंसा को महिमामंडित नहीं किया गया और ना ही इसको लोगों ने मजे के लिए इस्तेमाल किया । इन संकेतों को समझकर फौरन आवश्यक कदम उठाने होंगे ताकि हमारा देश, हमारा समाज बचा रह सके । और बची रह सके उसकी आत्मा भी । जब देश आजाद हुआ था तो हमारे महान नेताओं ने ऐसे भारत की कल्पना नहीं की थी । संविधान सभा की बहसों को अगर पढ़े तो साफ है कि उन महान नेताओं ने एक ऐसे देश का सपना देखा था जिसमें हर शख्स एक दूसरे का आदर करे । समाज सहिष्णु बने । देश में कानून का राज हो और कानून में लोगों की आस्था बढ़े । हमें यह नहीं भूलना चाहिए अगर भीड़ ने इंसाफ करना शुरू कर दिया और इस प्रवृत्ति को फौरन नहीं रोका गया तो भारत को पाकिस्तान बनने से नहीं रोका जा सकेगा । यह देश की जनता को तय करना है कि वो कैसे समाज में रहना चाहती है ।

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