हिंदी कथा साहित्य की आलोचना को लेकर पिछले
लगभग एक दशक या उससे ज्यादा वक्त से समकालीन आलोचना में बहुत शिद्दत से या कह सकते
हैं कि योजनाबद्ध तरीके से काम नहीं हुआ है । कथालोचना को लेकर लेखकों ने कई बार सवाल
भी उठाए हैं, आलोचना पद्धति को कठघरे में खड़ा भी किया गया है । यह सही भी है कि क्योंकि
समकालीन परिदृश्य में गंभीरता के साथ कहानी और उपन्यास पर काम करनेवाले आलोचक कम ही
दिखाई देते हैं । पुस्तक समीक्षा को हिंदी आलोचवना माल लेने या मनवा लेने की एक जिद
दिखाई देती है । हिंदी कथा साहित्य पर नामवर सिंह, देवीशंकर अवस्थी, सुरेन्द्र चौधरी,
मलयज के अलावा विजय मोहन सिंह ने गंभीरता से विचार किया । मलयज अपेक्षाकृत कम चर्चित
रहे जिसके साहित्येत्तर कारण थे । कथा आलोचना के एक प्रमुख हस्ताक्षर और कहानीकार,उपन्यासकार
, संपादक विजयमोहन सिंह का गुजरात में निधन हो गया । उनके निधन से आलोचना की दुनिया
में सन्नाटा और बढ़ गया । विजय मोहन सिंह ने साहित्य की दुनिया में कहानी के मार्फत
प्रवेश किया था और उनकी कई कहानियां खासी चर्चित रही थी । साढोत्तरी कहानी के दौर में
उन्होंने जो कहानियां लिखी उसने उस वक्त की कहानी को एक नई दिशा देने में अपना सार्थक
योगदान किया था, हलांकि एरक कहानीकार के तौर पर विजय मोहन सिंह का मूल्यांकन नहीं हो पाया है । संभवत
अब किसी की नजर उनपर जाए औप कहानीकार विजय मोहन सिंह का मूल्यांकन हो सके । बाद में
विजय मोहन सिंह ने एक उपन्यास कोई वीरानी से वीरानी है भी लिखी लेकिन इस उपन्यास से
भी उनको कोई ख्याति नहीं मिली । विजय मोहन सिंह के कई कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए
जिनमें शेरपुर पंद्रह मील सबसे ज्यादा चर्चित रहा । विजय मोहन सिंह ने बाद में अज्ञेय
पर गंभीरता से विचार किया जिसकी परिणति अज्ञेय कथाकार और विचारक नाम की किताब में हुई
। इसके अलावा विजय मोहन सिंह ने हिंदी उपन्यासों में प्रेम की परिकल्पना और आज की कहानी
नाम की दो महत्वपूर्ण किताबें लिखीं ।
बिहार के शाहाबाद में एक जनवरी उन्नीस सौ
छत्तीस को जमींदार परिवार में पैदा होनेवाले विजय मोहन सिंह ने बनारस से शिक्षा ग्रहण
किया । साहित्य में ये चर्चा होती रही है कि विजय मोहन सिंह का परिवार इतना समृद्ध
था कि जब वो पढ़ने के लिए बनारस आए तो उनके लिए वहां एक घर खरीदा गया जहां रहकर बाबू
साहब ने पढ़ाई की। कई बार विजय मोहन सिंह के व्यक्तित्व में उनकी या पारिवारिक पृष्ठभूमि
की सामंती प्रवृत्ति दृष्टिगोटर भी होती थी
। विजय मोहन सिंह कहीं लंबे समय तक टिककर नहीं रहे और अपने जीवन काल में उन्होंने कई
जगह नौकरियां की । बिहार के आरा से लेकर हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कॉलेजों में अध्यापन
किया । उन्होंने बिहार से निकलनेवाली ऐतिहासिक पत्रिका नई धारा का भी कई सालों तक संपादन
किया । विजय मोहन सिंह ने दिल्ली की हिंदी अकादमी के सचिव का पद भी संभाला । हिंदी
साहित्य के जानकारों का कहना है कि हिंदी अकादमी में विजय मोहन सिंह का कार्यकाल बेहतर
रहा था । उन्होंने इस संस्था को सरकारी ढर्रे से मुक्त कर उसको साहित्य की मुख्यधारा
में लाने की कोशिश की थी । उनके समय में हिंदी अकादमी की पत्रिका इंद्रपस्थ भारती भी
चर्चित हो गई थी। उन्होंने अकादमी से कई महत्वपूर्ण लेखकों को जोड़ा और कई संग्रह प्रकाशित
करवाए । अब हिंदी की स्थिति की कल्पना करिए कि अकादमी के सचिव से जो अपेक्षा की जाती
है उस काम को कर देने भर से वो स्वर्णकाल हो जाता है । तो अगर सचमुच में पहल आदि लेकर
महत्वपूर्ण काम किए जाते तो वो कौन सा काल होता । खैर ये एक अवांतर प्रसंग है इसपर
फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी । फिलहाल इतना तो कहा ही जा सकता है कि विजय मोहन सिंह
के जाने से हिंदी आलोचना का कोना और सूना हो गया है ।
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