मुबई में आयोजित लिट ओ फेस्ट के एक सत्र- मीडिया मंडी के बदलते नियम- सोशल मीडिया
के बढ़ते कदम के आलोक में था । इस सत्र में इस बात लेकर जबरदस्त मतभेद थे कि सोशल मीडिया
के आने से मुख्यधारा की मीडिया का अंत हो जाएगा । एक विद्वान लेखक ने तो उत्साह में
यह तक कह डाला कि आने वाले दिनों में सोशल मीडिया और इंटरनेट का उपयोग इतना बढ़ जाएगा
कि अखबारों पर बंद होने का संकट आएगा और राजकमल और वाणी प्रकाशन जैसे संस्थान बंद हो
जाएंगें । लेकिन अमूमन ये होता है कि जोश में कही गई बातें आंशिकक रूप में ही सही होती
हैं । वही यहां भी हुआ । सोशल मीडिया के चंद पैरोकारों ने इसके आगमन के बाद से ही मुख्य
धारा की मीडिया का मर्सिया पढ़ना शुरू कर दिया है । पाठकों को याद होगा कि जब नब्बे
के दशक में हमारे देश में टीवी चैनलों का आना शुरू हुआ तो कई तरह की आशंकाएं जताई जाने
लगी । कालांतर में जब इक्कीसवीमं सदी की शुरुआत में निजी न्यूज चैनलों का विस्तार होने
लगा तो फिर कुछ विशेषज्ञों ने फैसला सुना दियाकि अखबार उद्योग गंभीर संकट में है और
उसका बंद हो जाना तय है । उस वक्त यह तर्क दिया गया था कि दिनभर जो खबरें चलती रहेंगी
उसको लोग अगले दिन क्यों कर पढ़ना चाहेंगे । तमाम आशंकाओं के विपरीत अखबारों की प्रसार
संख्या और पाठक संख्या दोनों बढ़े । यहां यह बताना आवश्यक है कि फ्रांस और जर्मनी के
अलावा यूरोप और अमेरिका में किताबों की बिक्री पर ईबुक्स के बढ़ते चलन का कोई खास असर
पड़ा नहीं है । दूसरे इस सत्र में सोशल मीडियाकी अराजकता के बारे में चर्चा कम हुई
। सोशल मीडिया पर जो आजादी है वो लगभग अराजक है । अभी हाल ही में तीसरी बार ट्विटर
पर दिलीप कुमार साहब की मौत की खबर आम हो गई थी । बाद में पता चला कि खबर गलत थी ।
इसी तरह से मन्ना डे की मौत की खबर भी चल पड़ी थी । दरअसल सोशल मीडिया पर अकांउटिबिलिटी
का कोई सिस्टम अभी तक बन नहीं पाया है । यहां की अराजकता को समझना और उसको संभलना मुख्य
धारा की मीडिया के लिए चुनौती है ।
गैर हिंदी प्रदेश में आयोजित लिट ओ फेस्ट में गगन गिल, सुंदर ठाकुर, स्मिता पारिख
और अशोक चक्रधर को सुनने के लिए सुबह का सत्र खचाखच भरा था । हिंदी कविता को लेकर गैर
हिंदी प्रदेश में श्रोताओं की उपस्थिति आश्वस्ति कारक रही क्योंकि हिंदी में तो यह
माना जाने लगा है कि कविता के पाठक नहीं हैं । प्रकाशकों ने कविता पुस्तकें छापने से
मना करना शुरू कर दिया है । हिंदी की लोकप्रियता के सत्र में अरुण माहेश्वरी ने हिंदी
और भारतीय भाषाओं को लेकर कई जरूरी सवाल उठाए । इस सत्र का विषय था कि क्या प्रकाशक
हिंदी के लेखकों को समान अवसर देते हैं । यह सवाल वहां अवश्य उठा लेकिन इसको लिट ओ
फेस्ट से बाहर ले जाकर बड़े फलक पर देखने की आवश्यकता है । अगर हम विदेशी प्रकाशकों
को देखें तो साफ हैकि उनकी प्राथमिकता अंग्रेजी और उस भाषा के लेखक हैं । अंग्रेजी
में भी वो वैसे लेखकों को तरजीह देते हैं जिनके नाम या पद से किताबें बिक जाएं । अंग्रेजी
की पुस्तकों के बरक्श अगर हम भारत में काम कर रहे विदेशी प्रकाशकों या मूल रूप से अंग्रेजी
के प्रकाशकों की बात करें तो यह साफ दिखाई देता है कि वो ना सिर्फ हिंदी बल्कि अन्य
भारतीय भाषाओं को भी तरजीह नहीं देते हैं । इस तरह के सवालों से मुठभेड़ करता मुंबई
का लिट ओ फेस्ट खत्म हो गया लेकिन दो दिनों तक मुंबई की साहित्यक फिजां को विचारों
के स्तर पर उत्तेजित कर गया ।
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