हिंदी साहित्य के इतिहास में पत्र साहित्य की समृद्धशाली परंपरा रही है । हिंदी
में पत्र साहित्य को अमूमन तीन भागों में बांटा जाता है- पहला व्यक्तिगत पत्रों के
संकलन, कई किताबों के परिशिष्ट आदि में उससे जुड़े पत्रों का संकलन और पत्र-पत्रिकाओं
में प्रकाशित पत्रों का संकलन । ये तीनों ही हिंदी के लिए बेहद अहम हैं लेकिन व्यक्तिगत
पत्रों के संकलन से कई बार ऐसे राज खुलते हैं जो अबतक किसी के संज्ञान में नहीं आया
था । माना यह जाता रहा है कि हिंदी के पत्र साहित्य नए पाठकों के साथ साथ अन्य विधाओं
में रुचि रखनेवालों को भी ज्ञान और अनुभव के ऐसे प्रदेश में लेकर जाता जो कि उसके लिए
एकदम से अनजाना होता है । हाल ही में मैने एक ऐसे ही अनजाने प्रदेश में प्रवेश किया
। आज की युवा पीढ़ी कल्याण पत्रिका के नाम से अंजान है लेकिन वो लोग जो अभी अपने युवावस्था
के उतर्रार्ध में हैं उनके लिए कल्याण पत्रिका का नाम अनजाना नहीं है । एक जमाना था
जब कल्याण पत्रिका हर घर के लिए जरूरी पत्रिका हुआ करती थी । हमें याद है कि हर महीने
की लगभग नियत तारीख को डाकिया एक खाकी कागज में लिपटी मुड़ी हुई पत्रिका देकर जाता
था । उस तारीख का घर में सबको इंतजार रहता था । कालांतर में कल्याण की प्रसार संख्या
कम होती चली गई । यह भी शोध का विषय है कि कल्याण जैसी अत्यंत लोकप्रिय पत्रिका लगभग
समाप्त कैसे हो गई । शोध तो इस बात की भी होनी चाहिए कि कल्याण को धार्मिक पत्रिका
के तौर पर प्रचारित किसने और क्यों किया। उनकी मंशा क्या थी । कल्याण में सामाजिक बुराइयों
और धार्मिक पाखंड पर भी लेख छपते थे । खैर यह एक अवांतर प्रसंग जो विस्तार से एक स्वतंत्र
लेख की मांग करता है । हम बात कर रहे थे हिंदी में पत्र साहित्य की और उसके माध्यम
से पाठकों के ज्ञान के अछूते संसार में प्रवेश की । कल्याण के संस्थापक हनुमान प्रसाद
पोद्दार जी के पत्रों के कुछ ऐसे ही राज ऱुल रहे हैं जिनके बारे में अभी देश के कम
ही लोगों को मालूम होगा । हनुमान प्रस्दा पोद्दार जी ने गोविंद वल्लभ पंत को एक पत्र
लिखा है जिसमें वो पंत जी जी के ही पत्र को उद्धृत करते हैं – ‘आप इतने महान हैं, इतने ऊंचे महामानव हैं कि भारतवर्ष
को क्या, सारी मानवी दुनिया को इसके लिए गर्व होना
चाहिए । मैं आपके स्वरूप के महत्व को न समझकर ही आपको भारत रत्न कीउपाधि से सम्मानित
करना चाहता था । आपने उसे स्वीकार नहीं किया, यह बहुत अच्छा किया । आप इस उपाधि से
बहुत ऊंचे स्तर पर हैं । मैं तो हृद्य से आपको नमस्कार करता हूं ।‘ अपने उसी पत्र में हनुमान प्रसाद पोद्दार
ने यह भी लिखा है कि यह सब पढ़कर उनको संकोच हुआ है और अंत में लिखते हैं- “आपके आदेशानुसार पत्र को जला दिया है, आप भी मेरे इस पत्र को गुप्त ही रखिएगा ।‘ इस पत्र से यह बात खुलती है कि गोविंद वल्लभ पंत, जो उस वक्त के गृह मंत्री थे,
ने उनको भारत रत्न देने का प्रस्ताव किया था । भारत रत्न देने का फैसला उस वक्त के
राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सहमति से हुआ था
। गोविंद वल्लभ पंत को महावीर प्रसाद पोद्दार से सहमति लेने का जिम्मा सौंपा गया था
। लेकिन पोद्दार जी ने भारत रत्न लेने से विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया था । इस बात
की पुष्टि डॉ राजेन्द्र प्रसाद के पुत्र मृत्युंजय प्रसाद की एक टिप्पणी से भी साबित
होती है – ‘पूज्य पिताजी की यह आंतरिक
अभिलाषा थी कि श्रीभाई जी को ( हनुमान प्रसाद पोद्दार को लोग भाईजी ही रहते थे) भारत
रत्न की उपाधि से विभूषित करके उनके आध्यात्मिक व्यक्तित्व को राजकीय सम्मान प्रदान
करने का अवसर मिले । परंतु ऐसे सम्मानों अभिनंदनों के प्रति श्रीभाई जी की घोर उपरामता
के कारण उनकी वह सात्विक अभिलाषा पूर्ण नहीं हो सकी ।‘ अब अगर पंत को लिखे हनुमानप्रसाद पोद्दार
जी के पत्र और मृत्युंजय प्रसाद की टिप्पणी को जोड़कर देखते हैं तो यह बात साफ हो जाती
है कि हनुमानप्रसाद पोद्दार जी ने देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान लेने से इंकार कर
दिया था । अब ये तथ्य और प्रसंग कहीं अन्यत्र नहीं मिलते हैं । इस तरह के प्रामाणिक
खुलासे साहित्य की इस विधा पत्र साहित्य में संभव है । पत्रकारिता और पत्रकारों के
सरोकारों से जुड़े एक बड़े नाम अच्युतानंद मिश्र के संपादन में निकली एक किताब पत्रों
में समय संस्कृति से इन तथ्यों पर से पर्दा हटा है । पत्रों में समय संस्कृति जिसे
प्रभात प्रकाशन ने छापा है ।
अच्युतानंद मिश्र के संपादन में निकली इस किताब को पढ़ने के बाद उस दौर के साहित्य
और साहित्यकारों के पुनर्मूल्यांकन का सवाल उठता है । हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के
पत्रों को पढ़ते हुए यह साफ तौर पर सामने आती है कि उस वक्त कल्याण में समाज के हर
क्षेत्र और वर्ग के विद्वान लिखा करते थे । हनुमान प्रसाद पोद्दार का पत्र व्वहार नंद
दुलारे वाजपेयी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त,
सियारामशरण गुप्त, कन्हैयालाल मिश्र, चतुरसेन शास्त्री आदि के सात लगातार होता रहता
था । तीन मार्च बत्तीस का प्रेमचंद का एक पत्र है जिसमें वो कहते हैं – ‘आपके दो कृपा पत्र मिले। काशी से पत्र यहां आ गया था
। हंस के विषय में आपने जो सम्मति दी है उससे मेरा उत्साह बढ़ा । मैं कल्याण के ईश्वरांक
के लिए अवश्य लिखूंगा । क्या कहें आप काशी गए और मेरा दुर्भाग्य कि मैं लखनऊ में हूं
। भाई महावीर प्रसाद बाहर हैं या भीतर मुझे ज्ञात नहीं । उनकी स्नेह स्मृतियां मेरे
जीवन की बहुमूल्य वस्तु हैं । वह तो तपस्वी हैं, उन्हें क्या खबर कि ‘प्रेम’ भी कोई चीज है ।‘ इसी तरह के कई
पत्र हैं जिनसे उस वक्त के परिदृश्य से परदा हटता है, धुंध भी छंटती है ।
इस किताब को पढ़ते हुए जेहन में एक बात बार बार कौंध रही थी कि वर्तमान समय को पकड़ने
और उसको दर्ज करवने के लिए पत्र तो नहीं होंगे । इंटरनेट के फैलाव ने पत्रों की लगभग
हत्या कर दी है । पत्रों की जगह ईमेल ने ली है । पत्रों की जगह एसएमएस ने ले ली है
। पत्रों की बजाए अब फेसबुक पर संवाद होने लगे हैं । तकनीक ने पत्रों को महसूस करने
के अहसास से हमें महरूम कर दिया । इन भावनात्मक नुकसान के अलावा एक और नुकसान हुआ है
वह ये कि पत्रों में एक वक्त का इतिहास बनता था । उस वक्त चल रहे विमर्शों और सामाजिक
स्थितियों पर प्रामाणिक प्रकाश डाला जा सकता था लेकिन पत्रों के खत्म होने से साहित्य
की एक समृद्ध विधा तो लगभग खत्म हो ही गई है इतिहास का एक अहम स्त्रोत भी खत्म होने
के कगार पर है । अब अगर हम महावीर प्रसाद पोद्दार जी के पत्रों की बात करें या मुक्तिबोध
को लिखे पत्रों की बात करें तो यह साफ तौर पर कह सकते हैं कि इन संग्रहों में उस दौर
को जिया जा सकता है । अच्युतानंद मिश्र जी द्वारा संपादित इस किताब में निराला जी का
एक पत्र है सत्रह अक्तूबर उन्नीस सौ इकतीस का जिसमें वो लिखते हैं – ‘प्रिय श्री पोद्दार जी, नमो नम: । आपका पत्र मिला । मैं कलकत्ता सम्मेलन में जाकर बीमार पड़ गया । पश्चात घर लौटने
पर अनेक गृह प्रबंधों में उलझा रहा । कई बार विचार करने पर भी आपके प्रतिष्ठित पत्र
के लिए कुछ नहीं लिख सका । क्या लिखूं , आपके सहृद्य सज्जनोचित बर्ताब के लिए मैं बहुत
लज्जित हूं । आपके आगे के अंकों के लिए कुछ-कुछ अवश्य भेजता रहूंगा । एक प्रबंध कुछ
ही दिनों में भेजूंगा । ‘ अब निराला के इन पत्रों
या कल्याण में छपे निराला के लेखों का सामने आना शेष है । अगर मेरी स्मृति मेरा साथ
दे रही है तो नंदकिशोर नवल द्वारा संपादित निराला रचनावली में ना तो ये पत्र हैं और
ना ही कल्याण में छपी उनकी रचनाएं । निराला की राम की शक्ति पूजा और अन्य रचनाओं के
आधार पर जिस तरह से उनको प्रगतिशीलता या जनवादिता का ताज पहनाकर वामपंथी घूम रहे हैं
यह उनके रचना पक्ष का एक चेहरा है । जिस तरह से निराला को अनीश्वरवादी बताकर कुछ अज्ञानी
आलोचत यश लूट रहे हैं वह निराला के प्रति अन्याय है । जिस तरह से निराला ने अपने अभिवादन
में नमो नम: का इस्तेमाल किया है उसपर ध्यान देने की जरूरत है । इसका
यह मतलब कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि निराला हिंदूवादी थी या निराला धार्मिक थे
। अनुरोध इस बात का है कि अगर निराला के बारे में कुछ नए तथ्य सामने आए हैं तो उनके
समग्र मूल्यांकन में उन लेखों और तथ्यों को भी शामिल किया जाना चाहिए । कहने का अर्थ
यह है कि निराला के इन पत्रों के माध्यम से अगर साहित्येतास सही किया जा सकता है तो
हमें बगैर किसी वाद विवाद में पड़े संवाद के आधार पर उसोक दुरुस्त कर देना चाहिए ।
2 comments:
एक विचारणीय लेख। श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार के विशाल व्यक्तित्व
पर आपने अच्छा प्रकाश डाला है।
बढ़िया और जानकारी युक्त लेख। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो पत्र लेखन और उसको संजोने के विषय में आप पहले भी पाठकों का ध्यान आकर्षित कर चुके हैं किन्तु इस धरोहर के प्रति अब भागती दौड़ती दुनिया कितनी सचेत है...कह पाना मुश्किल है।इस ज्ञानवर्धक लेख के लिए आपको पुनः बधाई।
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