आज पूरा देश हिंदी के महान कथाकार और तमस जैसी कालजयी कृति के रचनाकार भीष्म साहनी
की जन्म शतवार्षिकी मना रहा है । दिल्ली में संस्तृति मंत्रालय और साहित्य अकादमी के
सहयोग से तीन दिनों का समारोह भी शुरू हो चुका है जो दस अगस्त तक चलेगा । भीष्म साहनी
निश्चित हिंदी के उन कथाकारों में से हैं जिनको विश्व की किसी भी भाषा के रचनाकार के
साथ खड़ा किया जा सकता है । भारत पाकिस्तान के विभाजन पर लिखी उनकी कृति तमस ही उनको
विश्व लेखक की श्रेणी में खड़ा करने के लिए काफी है । तमस में जिस तरह से सांप्रदायिक
दंगों की शुरुआत और उसके पीछे की मंशा का चित्रण है वह उस उपन्यास को आज भीमौजूं बनाता
है । इस उपन्यास में सांप्रदायिक उन्माद का जीवंत वर्णन है । तमस में यह दिखाया गया
है कि किस तरह से अंग्रेज हुक्मरानों के इशारे पर नगरपालिका कमेटी के मुराद अली नत्थू
से सूअर मरवाकर मस्जिद की सीढियों पर रखवा देते हैं और उसके बाद दंगा शुकू हो जाता
है । सैदपुर गांव में सिखों और मुसलमानों के बीच का संघर्ष सामाजिक ताने को छिन्न भिन्न
कर देता है । अंग्रेजों को जब लगा कि उनकी हुकूमत हिन्दुस्तान में नहीं चलनेवाली है
तब उन्होंने दोनों समुदायों का लड़ाने का काम किया और उनका वह विष बीज आजतक फल फूल
रहा है । भीष्म साहनी के पहले यशपाल ने अपने उपन्यास झूठा सच में सांप्रदायिकता की
समस्या को व्यापक स्तर पर उठाया था । तमस भीष्म साहनी का तीसरा उपन्यास था, उसके पहले
वो झरोखे और कड़ियां दो उपन्यास लिख चुके थे । उसके बाद उन्होंने मय्यादास की माड़ी,
कुंतो, नीलू, नीलिमा और नीलोफर जैसे उपन्यास लिखे । भीष्म साहनी की आत्मकथा आज के अतीत
भी प्रकाशित है ।
यह तो हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों का दुर्भाग्य है कि वो नोबेल पुरस्कार
का गणित नहीं समझ रहे हैं या फिर उनके पास नोबेल पुरस्कार के गणित के हिसाब से काम
करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, अन्यथा भीष्म साहनी, अज्ञेय जैसे हमारे लेखकों
को ये पुरस्कार मिल सकता था । साहित्य अकादमी तो जो काम करना चाहिए वो वह नहीं कर रही
है । भारतीय भाषाओं के लेखकों को विश्व पटल पर ले जाने का काम करने में साहित्य अकादमी
बुरी तरह से विफल रही है । खैर ये अवांतर प्रसंग है जिसपर फिर कभी चर्चा होगी । हमारे
देश में एक और ऐसी परंपरा है जो लेखकों के दिवंगत होने के बाद उनके मूल्यांकन में उदारता
बरतता है । लेखन और लेखकीय हितों के लिए किए गए उनके कामों का मूल्यांकन करते वक्त
हिंदी समाज मूर्तिपूजा की हद तक आस्था से सराबोर हो जाता है । ऐसा लगता है कि दिवंग
साहित्यकार लगभग ईश्वर सरीखा था और उसने कोई गलती कभी की ही नहीं । सब अच्छा अच्छा
। अब जैसे भीष्म साहनी पर लिखते या बोलते हुए तकरीबन सभी लोग उनकी कमजोरियों को उघाड़ने
से झिझकते हैं । भीष्म साहनी प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे । भीष्म साहनी के संगठन
में रहते हुए प्रगतिशील लेखक संघ ने इंदिरा गांधी द्वारा देश में इमरजेंसी थोपे जाने
का समर्थन किया था । क्या भीष्म साहनी का मूल्यांकन करते वक्त इस तथ्य की अनदेखी की
जा सकती है । अगर उस वक्त वो अपनी पार्टी के फैसले से बंधे थे तब भी उनके विचारों को
इस आलोक में देखा जाना चाहिए । हमें लगता है कि किसी भी साहित्यकार या लेखक का मूल्यांकन
करते हुए सम्रगता में विचार करना होगा, अंधी आस्था के साथ नहीं । मूर्तिपूजक होने के
बजाए मूर्तिभंजक को इतिहास ज्यादा दिनों तक याद रखता है । भीष्म साहनी का भी समग्रता
में मूल्यांकन होना चाहिए, शतवार्षिकी का मौका बेहतर है और लोगों को खुलकर अपनी बात
कहनी चाहिेए ।
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