बिहार में विधानसभा चुनाव का शंखनाद हो चुका है, औपचारिक एलान बाकी है लेकिन सियासी
शतरंज की बिसात बिछ चुकी है । सभी राजनीतिक दल अपने अपने मोहरे चल रहे हैं । शह और
मात का खेल जारी है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बिहार दौरों ने चुनावी फिंजा को
संगीन बना दिया है । इस बार का विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार और बारतीय जनता पार्टी दोनों
के लिए बेहद अहम है, लालू के लिए तो अस्तित्व को बचाने की लड़ाई ही है । लेकिन इन सबसे
इतर भी एक वजह है जिसके कारण ये चुनाव चर्चित हो रहा है । विधानसभा की इस सियासी बाजी
में इस बार साहित्यक और सांस्कृतिक संस्थाओं को भी मोहरा बनाया जा रहा है । जिन संस्थाओं
पर भाषा और संस्कृति के विकास की जिम्मेदारी है वो अपने मंच का इस्तेमाल राजनीति चमकाने
के लिए करने की इजाजत दे रहे हैं । ताजा मामला है दिल्ली का । दिल्ली की मैथिली भोजपुरी
अकादमी ने दिल्ली में एक आयोजन किया । इस कार्यक्रम का उद्देश्य भाषा से जुड़े साहित्यकारों
कलाकारों और अहम शख्सियतों का सम्मान करना था । इस कार्यक्रम में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार
को भी बुलाया गया था । यहां तक तो सब कुछ ठीक था । कोई भी अकादमी किसी भी राजनेता को
साहित्यकारों को सम्मानित करने के लिए या सम्मान समारोह का गवाह बनने के लिए बुला सकती
है । लेकिन क्या किसी भी राजनीतिक दल के नेता या किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री को इस
मंच का इस्तेमाल अपनी राजनीति चमकाने के लिए करने की इजाजत दी जा सकती है । दिल्ली
की मैथिली भोजपुरी अकादमी के उद्देश्यों में राजनीतिक कार्यक्रमों के बारे में कुछ
लिखा लिखा नहीं है । ये राजनीतिक कार्यक्रम था भी नहीं । ये कार्यक्रम तो उस सरोगेट
विज्ञापन की तरह था जो हमारे यहां टेलीविजन पर चलते या अखबारों में छपते हैं । शराब
के विज्ञापन पर रोक है तो फिर शराब के नाम से ही पानी की बोतल बना लो और फिर उसके विज्ञापन
से जनता को बताओ कि अमुक नाम से शराब भी है । इसी तरह से दिल्ली की मैथिली भोजपुरी
अकादमी ने भी एक सरोगेट साहित्यक कार्यक्रम आयोजित किया था । इस कार्यक्रम में मंच
पर जेडीयू और आम आदमी पार्टी के नेता और मंत्री बैठे थे । हाथ में हाथ डालकर उपर उठाकर
नेताओं ने फोटो भी खिंचवाए और साथ होने का संदेश भी जनता को दिया । दिल्ली के मुख्यमंत्री
अरविंद केजरीवाल और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दोनों ने मैथिली भोजपुरी अकादमी के मंच से पूरी तरह से राजनैतिक
भाषण दिया । नीतीश और केजरीवाल दोनों ने मैथिली भोजपुरी अकादमी के मंच से प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी पर जोरदार हमला बोला । बिहार विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए नीतीश
कुमार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बयानों को खारिज किया बल्कि अपने तर्कों को
सामने रखने के लिए लंबा वक्त भी लिया । नीतीश कुमार को मालूम था कि कार्यक्रम दिल्ली
में है और केजरीवाल की मंच पर मौजूदगी सुर्खियां बनेंगी लिहाजा उन्होंने उस अवसर का
बेहतरीन इस्तेमाल किया । दिल्ली के मुख्यमंत्री और मैथिली भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष
अरविंद केजरीवाल ने भी इस मंच से भारतीय जनता पार्टी, नरेन्द्र मोदी, दिल्ली के उपराज्यपाल
नजीब जंग आदि की आलोचना की । साहित्यक सम्मान नेपथ्य में चला गया । सारी चर्चा मोदी
बनाम नीतीश-केजरीवाल पर आकर टिक गई । नीतीश और केजरीवाल की दोस्ती पर भी चर्चा शुरू
हो गई । इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए दिल्ली की अन्य भाषाई अकादमियों के कर्मचारियों
को भी काम पर लगाया गया था । जाहिर है कि दिल्ली सरकार इस कार्यक्रम को बेहतर करना
चाहती थी । कार्यक्रम में राजनेताओं को भी न्योता दिया गया था । उन राजनेताओं को भी
जिनका मैछिली भोजपुरी से कोई लेना देना नहीं था । आयोजकों की मंशा साफ थी । इस कार्यक्रम
को राजनीतिक रखना और दिल्ली और बिहार के मुख्यमंत्रियों को अपननी बात रखने का मंच देना
। उसमें मैथिली पंजाबी अकादमी सफल रही ।
दिल्ली में जब शीला दीक्षित की सरकार ने मैथिली भोजपुरी अकादमी का गठन किया था
तब उसका लक्ष्य था – मैथिली और भोजपुरी भाषओं व साहित्य-संस्कृति
का उन्नयन व पल्लवन । इसके अलावा इस अकादेमी की कार्य और उद्देश्यों की एक बड़ी लंबी
फेहरिश्त बेवसाइट पर मौजूद है लेकिन उसमें ये कहीं नहीं लिखा गया है कि इसके मंच से
राजनीति होगी । नई बनी कमेटी ने इन दोनों भाषाओं के उन्नयन और पल्लवन के लिए क्या काम
ये तो अभी ज्ञात नहीं हो सका है क्योंकि सरकार की बेवसाइट इपडेट नहीं है । हां इतना
अवश्य हुआ कि केजरीवाल- नीतीश को एक साथ मंच पर लाकर अकादमी ने अपने अध्यक्ष का काम
कर दिया । मैथिली भोजपुरी अकादमी के मंच के इस दुरुपयोग पर मुझे हरिशंकर परसाईं का
एक लेख – हम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं - का स्मरण हो आया है।
अपने उस लेख में परसाईं जी ने कई चुटीले वाक्य लिखे हैं जो आज भी वर्षों बाद मौजूं
हैं – ‘मेरे नाम, काम,, धाम सब
बदल गए हैं । मैं राजनीति में शिफ्ट हो गया हूं । उसी लेख में हरिशंकर परसाईं ने आगे
लिखा है – पार्टी का नाम जनमंगल कांग्रेस होगा । नाम में जन या
जनता, या लोक रखने का आधुनिक राजनीति में फैशन चल पड़ा है । इसलिए हमने भी जन शब्द
रख लिया । जनता से प्रार्थना है कि वो इसे गंभीरता से ना लें, इसे वर्तमान राजनीति
का एक मजाक समझें । ...जनता कच्चा माल है । इससे पक्का माल विधायक मंत्री आदि बनते
हैं । पक्का माल बनाने के लिए कच्चे माल को मिटाना ही पड़ता है । हम जनता को विश्वास
दिलाते हैं उसे मिटाकर हम ऊंची क्वालिटी की सरकार बनाएंगे । हमारा न्यूनतम कार्यक्रम
सरकार में रहना है । ‘ तो क्या ये मान लिया जा कि दिल्ली की मैथिलि भोजपुरी अकादमी राजनीति में ‘शिफ्ट’ हो गई है । क्या वो पक्का माल बनाने के काम में लग गई है । क्या वो साहित्य संस्कृति के
विकास के कामों को मिटाकर ऊंची क्वालिटी की सरकार बनाने में लग गई है । क्या उनका न्यूनतम
कार्यक्रम सरकार बनवाना हो गया है । अगर इन सारे प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक है तो
ये बेहद चिंता की बात है । कम से कम मैथिली
और भोजपुरी भाषा-भाषियों के लिए । पहले भी इन अकादमियों का राजनीति के लिए इस्तेमाल
होता रहा है लकिन इस तरह से खुले आम, अकादमी के मंच से राजनीतिक भाषण पहली बार हुआ
है । दरअसल दिल्ली में नई सरकार के गठन के बाद इन भाषाई अकादमियों में उपाध्यक्षों
की नियुक्तियां हुईं । सरकार ने अपने मनमाफिक लेखकों और पत्रकारों को इन पदों पर बैठाया
। यह सरकार का विशेषाधिकार है कि वो अपने मनमुताबिक लोगों का चयन करे लेकिन इन पद पर
बैठे लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वो भाषा और साहित्य के विकास के लिए कोई ठोस रूपरेखा
बनाएंम और उसको क्रियान्वित करें ।
अब अगर हम दिल्ली के अलावा पूरे देश की भाषाई अकादमियों पर विचार करें तो लगभग
सारी अकादमियां सरकारी कार्यक्रमों को ही बढ़ावा देती हैं । इन अकादमियों पर होनेवाला
खर्च करदाताओं के खून पसीने की कमाई से अर्जित किए गए पैसों की बर्बादी है । इनका उद्देश्य
देखने में बहुत अच्छा लगता है , आदर्शवाद की तमाम बातें भी होती हैं लेकिन जब कार्यक्रमों
को करने का वक्त आता है तो फिर राजनीतिक आकाओं की ओर देखा जाने लगता है । कभी मंत्री
तो कभी मुख्यमंत्री की इच्छा पर कार्यक्रम तय किए जाते हैं, बहुधा इस बात का ख्याल
रखा जाता है कि जिस पार्टी की सरकार हो उस पार्टी के विरोधियों को ना बुलाया जाए ।
इस चक्कर में कई बार कार्यक्रमों में भारी भरकम खर्च होने के बावजूद उससे भाषा और साहित्य
को कुछ हासिल नहीं होता है । इन अकादमियों का गठन भाषा और साहित्य को बढ़ाना देने के
लिए किया गया था लेकिन काला्ंतर में हुआ यह कि भाषा और साहित्य की बजाए ये अपने अपने
सूबे के मुख्यमंत्रियों की छवि के विकास के लिए काम करने लगीं । नतीजा क्या हुआ कि
ये अकादमियां राज्य सरकार के सूचना विभाग का एक्सटेंशन बन गईं और इसके सचिव वगैरह उस
विभाग के अफसरों की तरह काम करने लगे । इन अकादमियों को चलाने के लिए कभी कभार अच्छे
लेखकों का भी चयन हो जाता है लेकिन उन अच्छे लेखकों के सामने सरकारी बाबुओं से निपटने
की बड़ी चुनौती होती है । सुविधाएं भी कम होती हैं । उपाध्यक्षों के लिए मात्र चार
हजार रुपए महीने के मानदेय का प्रावधान है जो कि मेरी समझ से इस पद पर बैठनेवाले का
अपमान है । या तो इसको अवैतनिक कर देना चाहिए या फिर सम्मानजनक राशि का प्रावधान किया
जाना चाहिए । वर्ना वही होगा कि अकादमी के कार्यक्रमों को राजनीतक मंच बनाकर उसके कर्ताधर्ता
अपना रसूख बढ़ाने में लग जाएंगे, और यह एक खतरनाक परंपरा की शुरुआत है जो न इन अकादमियों
को खत्म कर दे सकती हैं ।
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