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Tuesday, August 18, 2015

गजेन्द्र तो बहाना है...

पुणे के फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान के चेयरमैन के तौर पर महाभारत सीरियल में युधिष्ठिर के तौर पर काम कर अपनी पहचान बना चुके गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति पर विवाद जारी है । संस्थान में काम-काज और पढ़ाई लिखाई ठप है । गजेन्द्र के विरोधी ये तर्क दे रहे हैं कि चौहान में इस प्रतिष्ठित संस्थान की रहनुमाई करने के लिए अपेक्षित कद और काम नहीं है । यह बात सही है कि गजेन्द्र ने टीवी सीरियल्स के अलावा सी ग्रेड फिल्मों में काम किया है । उनकी उच्च बौद्धिकता को लेकर भी संदेह है । गजेन्द्र चौहान को फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान का चेयरमैन बनाने के पीछे सरकार की मंशा के बारे में आगे विस्तार से बात होगी। गजेन्द्र के विरोधियों का एक तर्क है कि जिस संस्थान के चेयरमैन पद को श्याम बेनेगल, अदूर गोपाल कृष्णन, महेश भट्ट, यू आर अनंतमूर्ति जैसे मूर्धन्य लोगों ने सुशोभित किया है उस पद पर गजेन्द्र कैसे बैठ सकते हैं । ये सही है कि गजेन्द्र चौहान के पास उन लोगों जितना अनुभव और उनके जैसा आभामंडल नहीं है । लेकिन यहां पर यह भी सवाल उठता है कि श्याम बेनेगल, अदूर गोपाल कृष्णनस महेश भट्ट और यू आर अनंतमूर्ति जैसे दिग्गजों ने फिल्म संस्थान के लिए क्या किया । इतने बड़े दिग्गजों के सालों तक इस संस्था के चेयरमैन रहते हुए भी इसका विकास आईआईटी या आईआईएम ती तर्ज पर क्यों नहीं हो सका । उन्नीस सौ साठ में स्थापित हुए इस फिल्म संस्थान के पचपन साल हो गए लेकिन क्या हम कह सकते हैं कि ये कोलंबिया यूनिवर्सिटी के फिल्म स्कूल के आसपास भी पहुंच पाया । क्या विश्व सिनेमा जगत में इस संस्थान ने अपना स्थान बना पाया । विश्व सिने जगत की बात ही छोड़िए क्या हम दावे के साथ कह सकते हैं कि इस संस्थान ने दक्षिण एशियाई देशें में अपना स्थान बनाया । क्या सिंगापुर के संस्थान की भी हम बराबरी कर पाए हैं ।  पिछले पचपन साल में क्या हम पचपन छात्रों का नाम गिना सकते हैं जिन्होंने इस संस्थान से पढ़ाई की और सिनेमा को अपनी विधा में प्रभावित किया । क्या हम निर्देशन, सिनेमेटोग्राफी, साउंड, म्यूजिक, वीडियो एडिटिंग आदि विधा से चार-चार लोगों को नाम ले सकते हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर लोगों को चौंकाया । साउंड में तो ले देकर रसूलपुकुट्टी को याद कर सकते हैं । अगर इन सवालों का उत्तर सकारात्मक होता तो हम कह सकते थे कि श्याम बेनेगल, अदूर गोपालकृष्णन, महेश भट्ट और यू आर अनंतमूर्ति की प्रतिभा का लाभ इस संस्थान को मिला । लेकिन अफसोस कि इन सवालों का जवाब नकारात्मक है लिहाजा इन बौद्धिकों से ये सवाल तो किए जाने चाहिए कि आपने इस संस्था के लिए क्या किया । दरअसल हकीकत यह है कि इन बड़े नामों के पास इस संस्था के लिए वक्त ही नहीं था । श्याम बेनेगल के दौर में फिल्म इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर और चेयरमैन की मुलाकात साल में एक बार हो जाए तो संस्थान में चर्चा का विषय होती थी । एक डायरेक्टर के तौर पर श्याम बेनेगल की प्रतिभा और प्रतिष्ठा पर कोई उंगली नहीं उठा सकता है, इसी तरह से अदूर गोपालकृष्णन के भी निर्देशक, स्क्रिप्ट राइटर और प्रोड्यूसर के तौर पर कोई सवाल नहीं उठ सकता । महेश भट्ट और यू आर अनंतमूर्ति पर भी नहीं। दरअसल अगर हम इन तमाम बड़े लोगों के कार्यकाल का अगर आंकलन करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि इनमें से ज्यादातर के पास संस्थान के लिए वक्त ही नहीं था । बड़े नाम होने की वजह से इनकी नियुक्ति होती थी और कभी कभार किसी सभा- संगोष्ठी में इनके दर्शन हो जाया करते थे । भला हो गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति पर उठे विवाद का कि इस संस्थान के क्रियाकलाप पर बहस शुरू हो गई । उनके काम काज का हिसाब पूछा जाने लगा । इस संस्थान को इन बड़े लोगों से फायदा हुआ हो या नहींइनके नाम से साथ ये चस्पां अवश्य हो गया कि ये इस संस्थान के पूर्व अध्यक्ष रह चुके हैं । यह जानकार हैरानी होती है कि इस संस्थान में कई छात्र दो हजार आठ से छात्रावासों में रह रहे हैं । यह नए छात्रों के साथ बेईमानी तो है ही उनके अधिकारों पर डाका भी है । यह संस्थान भारत सरकार के अनुदान पर चलती है यानि कि इसमें हमारा आपका सभी करदाताओं का पैसा लगता है । हमारी गाढ़ी कमाई का इतना अपव्यय इतने सालों से हो रहा था और ये तमाम बड़े नाम यहां गद्दीनशीं थे, खामोश थे । यह जानकर तो और हैरानी होती है कि करोड़ों के बजट के बावजूद इस संस्थान के उपकरणों का आधुनिकीकरण नहीं किया गया । यह तो वैसी ही बात हुई कि दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में कुछ सालों पहले तक लैटर प्रेस और उसकी तकनीक पढ़ाई जाती है। हमारे देश के विश्वविद्यालयों के कई विभाग प्रतिभा के कब्रगाह बने हुए हैं । उसी तरह से एफटीआईआई में भी पुरानी तकनीक और पुराने तरीके से स्क्रिप्ट राइटिंग सिखाई जा रही है । कुछ ऐसे प्रतिभाशाली लोग स्क्रिप्ट राइटिंग सिखा रहे हैं जिनकी स्क्रिप्ट की वजह से एक मशहूर निर्देशक को झटका लग चुका है ।

दरअसल गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति पर सरकार और वामपंथी विचारधारा के लोगों की टकराव की वजह एकदम से अलहदा है । इसके राजनीतिक कारण हैं । आजाद भारत के इतिहास में पहली बार, मैं जो देकर कह रहा हूं, पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई है । इस सरकार का नेतृत्व नरेन्द्र मोदी कर रहे हैं जिनके विचार अटल बिहारी वाजपेयी से मेल खा सकते हैं लेकिन मिजाज नहीं । अटल बिहारी वाजपेयी इस मामले में थोड़े साफ्ट थे लेकिन नरेन्द्र मोदी विचारधारा को लेकर सजग ही नहीं हैं बल्कि उसको स्थापित करने के लिए मजबूती के साथ प्रयत्नशील भी हैं । इस बार सरकार ने तय किया है कि सभी संस्थानों पर अपने लोग बिठाए जाएं । अब इन्हीं अपने लोगों को बिठाने की प्रक्रिया में गजेन्द्र चौहान जैसे लोगों की नियुक्तियां हो रही हैं । अभी आनेवाले दिनों में इस तरह की और नियुक्तियां होंगी । विश्वविद्यालय के कुलपतियों से लेकर भाषा, कला और संस्कृति संगठनों तक में । यह सच है कि बैद्धिक जगत में वामपंथी विचारधारा की तुलना में दक्षिणपंथी विचारधारा में विद्वानों की संख्या कम है । लेकिन जो हैं उसके आधार पर ही सबकुछ अपने माफिक करने की कोशिश हो रही है और आगे भी होती रही है । हम देखें तो दक्षिणपंथी विद्वानों की संख्या इस वजह से कम नजर आती है कि आजादी के पैंसठ साल बाद तक उनको अवसर से वंचित किया जाता रहा । जो भी राष्ट्रवादी बातें करता , या राष्ट्रवादी विषयों पर शोध करता या जो भी वामपंथ से अलग हटकर भारत और भारतीयता की बात करता उसको आगे बढ़ने से रोक दिया जाता रहा है । ना तो विश्वविद्यालयों में उनकी नियुक्ति हो पाती थी और ना ही किसी शोध संस्थान में उनको शोध करने दिया जाता था । ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां वामपंथ से इतर सोच रखनेवाले छात्रों और शोधार्थियों को बेवजह तंग किया गया हो और उनको समान अवसर से वंचित रखा गया हो । इस तरह की बौद्धिक अस्पृश्यता ने वामपंथ से इतर विचार रखनेवालों को हतोत्साहित किया । गजेन्द्र के मसले पर जारी संघर्ष का वृहत्तर अर्थ है । वामपंथी विचारधारा वाले लोगों को यह लगने लगा है कि ये सरकार आनेवाले दिनों में उनके सांस्कृतिक साम्राज्य को खत्म कर देगी लिहाजा वो भी आक्रामक हो गई है । गजेन्द्र तो एक बहाना मात्र है जिसकी आड़ में वामपंथी अपने खत्म होते साम्राज्य को बचाने की जुगत में हैं । दूसरी वजह यह है कि उनको यह भी लगने लगा है कि अगर उनकी विचारधारा के लोग सत्तानशीं नहीं रहे तो उनके कारनामे खुलेंगे । जैसे भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद में सत्ता परिवर्तन के बाद यह बात सामने आने लगी है कि किस तरह से करदाताओं के पैसों की लूट चल रही थी और एक एक प्रोजेक्ट चार दशक से अधिक वक्त से तैंतालीस साल से एक ही व्यक्ति कर रहा था । इस तरह के खुलासों से बचने केलिए गजेन्द्र जैसी नियुक्तिों पर विवाद खडे होते रहेंगे । नियुक्तियों की आड़ में खेले जा रहे इस खेल में छात्रों को मोहरा बनाया जा रहा है, लेकिन हाल के अनुभवों को देखते हुए यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि सरकार इस मसले पर अपना कदम पीछे खींचनेवाली नहीं है । यह राजनीतिक लड़ाई है और उसी के औजारों से लड़ी भी जा रही है । राजनीति के इस खेल में यथास्थितिवाद को चुनौती देने से विरोध का बवंडर को उठेगा । यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार उस बवंडर को किस तरह से शांत कर अपनी विचारधारा को स्थापित करती है ।  

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