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Saturday, April 15, 2017

आलोचना की जड़ता पर प्रहार


हिंदी में आलोचना की स्थिति को लेकर बहुधा सवाल खड़े होते रहे हैं। रचनाकारों से लेकर छोटे-मोटे आलोचना पुरस्कार से नवाजे गए चंद प्राध्यापकनुमा आलोचक भी इस विधा को कठघरे में खड़ा करते रहे हैं। इन छोटे मोटे आलोचकों को फेसबुक ने एक ऐसा मंच दे दिया जहां वो तीन चार लाइन की फतवेबाजी करके निकल लेते हैं, लेख आदि लिखने की मेहनत कौन करे । आलोचना एक गंभीर कर्म है और वो गहन और विशद अध्ययन की मांग करता है । बगैर अध्ययन के आलोचना करनेवाले बहुधा कृति या प्रवृत्ति के अंदर प्रवेश नहीं कर पाते हैं बल्कि रचना को छूकर और ज्यादातर उसका सार-संक्षेप बताकर निकल जाते हैं ।कहना ना होगा कि आलोचकों ने आलोचनात्मक कृतियों को इतना गंभीर बना दिया गया कि पाठक उससे दूर होते चले गए। आलोचना को पाठकों तक ले जाने की गंभीर कोशिशें हुई नहीं, बल्कि इसको और बोझिल करने की कोशिश लगातार होती रही क्योंकि ये माना जाता रहा कि आलोचना जितनी गूढ़ होगा या पाठकों की समझ में नहीं आएगी वो उतनी ही श्रेष्ठ होगी । आलोचना की भाषा को सायास कठिन बनाया गया जो अंतत: बोझिल हो गई । इसके अलावा आलोचना पिछले तीन चार दशक में एक और दुर्गुण का शिकार हुई वो ये कि उसमें देशी विदेशी विद्वानों के उद्धरणों की भरमार होती चली गई । आलोचक एक पंक्ति लिखते और फिर पूरे पृष्ठ का उद्धरण और फिर उसको जोड़ते हुए दो तीन पंक्तियां और फिर लंबे उद्धरण। पूरी किताब पढ़ने के बाद पाठक के मन में यह सवाल उठता कि आखिर लेखक क्या कहना चाहता था। इसका उत्तर उनको नहीं मिलता। जन और लोक के तमाम औजारों से आलोचना करनेवालों ने इस विधा को जन और लोक से ही दूर कर दिया ।
अभी हाल ही में आलोचर सुधीश पचौरी की एक किताब हाथ लगी जिसके शीर्षक ने बेहद चौंकाया । इस पुस्तक का शीर्षक है रीतिकाल, सेक्ससुअलिटी का समारोह और इसको वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है । सुधीश पचौरी ने हिंदी में अपने लेखन के लिए बिल्कुल नए किस्म की भाषा गढ़ी, अंग्रेजी के शब्दों की बहुतायत के साथ साथ उत्तर प्रदेश की बोलियों से शब्दों को उठाकर इस्तेमाल करने की कला उन्होंने विकसित की। हिंदी के लिए यह कितनी अच्छी स्थिति है जब हिंदी के शब्द रहते हुए वहां अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया गया। यह विमर्श का विषय है ।कई बार तो हमें भी लगता है कि पचौरी जी को अंग्रेजी के इतने ज्यादा शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए क्योंकि उन शब्दों के लिए हिंदी में सरल शब्द हैं । यह एक अलहदा विषय है जो अलग से संवाद की मांग करता है । फिलहाल हम बात कर रहे थे कि सुधीश पचौरी की नई किताब जो रीतिकाल पर लिखी गई है । रीतिकाल के बारे में यह आम धारणा प्रचलित है कि उस काल खंड में कवियों ने स्त्री देह का, श्रृंगार आदि का रसपूर्ण वर्णन किया है। जब से हिंदी में स्त्री विमर्श की आंधी उठी है तबसे कई बार देखा गा है कि स्त्री अधिकारों की बात करनेवालों को स्त्रियों की रीतिकालीन परिभाषा या उनके वर्णन से आपत्ति है । कई बार यह बात सामने आती है कि रीतिकालीन कवियों ने नायिकाओं के नख-शिख वर्णन किया और उनके संघर्ष आदि के बारे में कुछ भी लिखने की जहमत नहीं उठाई ।कहा तो यह जाता है कि हिंदी कविता में स्त्रीदेह की सत्ता स्थापित हुई। सुधीश पचौरी की यह किताब इस तरह की चालू धारणाओं को निगेट करती है और स्त्रीदेह की सत्ता की गंभीरता से व्याख्या करते हुए सवाल उठाती है। इस किताब से सुधीश पचौरी ये भी स्थापित करते चलते हैं कि रीतिकाल में स्त्रीदेह का वर्णन और स्त्रियों के कामुक हाव-भाव का प्रदर्शन एक अलग तरह के विमर्श की मांग करत है ।लेखक के मुताबिक देह इतिहास यानि देह पर वे दबाव जिनके जरिए जीवन की गतिविधि और इतिहास की प्रक्रियाएं एक दूसरे में हस्तक्षेप करती हैं और देह सत्ता का मतलब है ऐसी सत्ता जो मानवीय जीवन के रूपान्तरण में भूमिका निभाती हैं ।
सुधीश पचौरी कहते हैं कि रीतिकालीन स्त्रियां अपने ढंग से अपने समय की प्रोफेशनल थीं। वे बहुत हद तक पुरुषों के ऊपर निर्भर और अधीन स्त्रियां थीं। उनके हित उन्हीं को साधने पड़ते थे। वे भीअपने तरह से ताकतवर नायिकाएं थीं भले ही आजकी स्त्रियों की तुलना में उनके पास चुनाव की स्वतंत्रता नहीं थीष न स्त्री के प्रापर्टी राइट्स थे, न आधुनिक काल मे स्त्री-हित में काम करने वाले कानूनों का सहारा था, न स्त्री मुक्ति के आंदोलन थे । सुधीश पचौरी अपनी इल कृति में नायिकाभेद के समाजशास्त्र पर विस्तार से चर्चा करते हैं जो काफी पठनीय और दिलचस्प बन पड़ा है जो आमतौर पर आलोचना में मिलता नहीं है ।
रीतिकाल पर अब से पहले जितने भी आलोचनात्मक लेख आदि लिखे गए वो आचार्य शुक्ल की स्थापना को ध्यान में रखते हुए लिखे गए। सुधीश पचौरी उससे कुछ अलग ङटकर इस काल की रचनाओं में सेक्सुअलिटी को व्याख्यायित करने की कोशिश करते हैं । जब वो बिहारी सतसई के आधार पर इस काल खंड में घुसते हैं तो वो ये कहते हैं कि उस वक्त का समाज यौन-व्यस्त समाज था, जहां दोहों में परिवार भीनजर आते हैं और कई बार नायक-नायिका का प्रेम-संवाद, गुरुजनों यानि परिवार के बड़े बूढ़ों की उपस्थिति के बीच भी होता था । यह संवाद नेत्र-भाषा और अनुभावों में होता था। यहां की ज्यादातर नायिकाएं प्रेमचतुरा हैं जो आंखों के इशारों से ज्यादा काम लेती हैं । आंखों पर बिहारी की सतसई का एक दोहा है – चलत देत आभरु सुनि,उहौ परोसिंह नाह/ लसी तमासे की दृगनु हांसी आसुन माही । मतलब कि नायिका किसी पड़ोसी पर अनुरक्त है । इस समय उसका पति विदेश जा रहा है, जिससे वो अपनी आंखों में आंसू भरे हुए है । इतने में ही इसने सुना की उसका पति उसी पड़ोसी को घर संभालने का भार दे रहा है ।यह सुनते ही, हर्ष के कारण, उसकी आंसू भरी आंखों में हंसी आ गई। यह एक सखी दूसरे सखी से कहती है । अब आंखों में हंसी की तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। सुधीश पचौरी की इस किताब से आलोचना की जड़ता पर प्रहार तो होता ही है, पचौरी की लाख आलोचना करें लेकिन उनकी स्थापनाओं को इग्नोर नही कर सकते ।          



  

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