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Saturday, April 29, 2017

‘जुटान’ के बहाने प्रतिरोध का पाखंड

जब –जब चुनाव आते हैं तो वामदलों से संबद्ध लेखकों और लेखक संगठनों को उनके राजनीतिक आका काम पर लगा देते हैं। इन कामों का प्रकटीकरण कई बार अलग अलग रूपों में दिखाई देता है। बिहार चुनाव के पहले पुरस्कार वापसी से लेकर असहिष्णुता का शोर शराबा। चुनाव खत्म होते ही ये तमाम लोग शांत होकर बैठ जाते हैं और लगता है कि देश में अमन चैन कायम हो गया है और असहिणुता आदि जैसे मुद्दे नेपथ्य में चले गए हैं। एक तरफ जहां सारे राजनीतिक दल अब अगले कुछ महीनों में होनेवाले गुजरात, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में चुनाव प्रचार में लगे हैं वहीं वाम दलों के ये स्वयंसेवक लेखक दो हजार उन्नीस के लोकसभा चुनाव में अपने दलों के माहौल और भारतीय जनता पार्टी के विरोध में माहौल बनाने में जुटे हुए हैं। लेखकों के चोले में वामपंथी दलों के इन कार्यकर्ताओं ने जुटान के नाम से एक संगठन बनाया है जिसके तहत वो देशभर में विचार गोष्ठियां आयोजित करके केंद्र सरकार के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश करेंगे। हाल ही में दिनभर की एक गोष्ठी दिल्ली में हुई जिसमें कथित तौर पर प्रतिरोध का स्वर बुलंद करने की कोशिश की गई। इस कार्यक्रम में इस बात पर जोर दिया गया कि देशभर में प्रतिरोध के बिखरे हुए स्वर को एकजुट करने की जरूरत है। इसमें फिर से वही घिसा पिटा रिकॉर्ड भी बजा जिसमें ये बताया जाता है कि साहित्य का मतलब ही प्रतिरोध होता है, वह सत्ता के साथ नहीं होता है आदि आदि। पर अतीत में वामपंथी कार्यकर्ता लेखकों ने जो किया उससे उनके कथनी और करनी का भेद साफ तौर पर जनता के सामने खुल चुका है।
सत्ता के प्रतिरोध की बात करते करते वो कब सत्ता सुख का आस्वादान करने लगते हैं, इसका पता आम जनता को होने नहीं देते हैं। लंबे समय तक चले प्रतिरोध के इस पाखंड ने ईमानदार प्रतिरोध की जान ही निकाल दी। लेकिन चुनावों के वक्त इस तरह के संगठनों को राजनीतिक दलों, खासतौर पर सीपीएम और सीपीआई से जीवनी शक्ति मिलती है। इस जीवनी शक्ति को प्राप्त करते ही ये फिर से खड़े होने लगते हैं लेकिन ये अपने ही खेमे की अरुंधति राय की बात भूल जाते हैं जब वो कहतीं हैं- फंड लेकर क्रांति नहीं हो सकती है। ट्र्स्टों और फाउंडेशनों की कल्पनाओं से कोई असली बदलाव नहीं आएगा। अरुंधति जब यह बात कहती हैं तो उनके मन के किसी कोने अंतरे में वामपंथी संगठन थे या नहीं, यह कहा नहीं जा सकता है लेकिन चाहे अनचाहे उन्होंने जो भी कहा हो वो उनके वैचारिक दोस्तों पर भी लागू होता है।
अब एक और उदाहरण से वामपंथी दलों के इन छद्म कार्यकर्ताओं की बात समझी जा सकती है। मीडिया में छपी रिपोर्ट के मुताबिक जुटान की दिल्ली की गोष्ठी में कहा गया कि सिर्फ लिखने से नहीं चलेगा काम, सड़क पर उतरना होगा। इस वक्तव्य के बाद से इन छद्म कार्यकर्ताओं के चेहरे से मुखौटा हट गया है। कहना नहीं होगा कि अब इनके अंदर सत्ता हासिल करने की जो बेचैनी है फिर सत्ता छिन जाने का जो गम है वो उनको लेखकीय खोल से बाहर आने के लिए मजबूर कर रहा है। लुकाच ने समाजवादी परिप्रेक्ष्य की काफी चर्चा की थी। इस चर्चा से मार्क्सवादी लेखक का राजनीति से एक तरह का संबंध बनता चलता है। लुकाच के अलावा ब्रेख्त और बेंजामिन ने भी लेखकों के राजनीति से संबंध पर अपनी अपनी स्थापनाएं दी हैं । इन सबका मानना है कि लेखक और राजनीति का संबंध होना चाहिए लेकिन इनकी आड़ लेकर वामपंथी लेखक मित्र खुलकर राजनीति के मैदान में आने को जायज नहीं ठहरा सकते हैं। यह भूल जाते हैं कि उपर जिन भी लेखकों का नामोल्लेख किया गया है वो सब द्वितीय विश्वयुद्ध के वक्त के लेखक थे और इस वक्त लेखकों पर फासीवाद कहर बनकर टूटा था। इन्हीं लेखकों के मंतव्यों की आड़ में इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया कि लेखकों के राजनीतिक होने में कोई हर्ज नहीं है। इसमें किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि जो भी इंसान सजग होगा और जिसकी भी लोकतंत्र में आस्था होगी वो राजनीतिक होगा। लेखक भी इंसान ही होता है लिहाजा उसका राजनीतिक होना आपत्तिजनक नहीं होता है । आपत्ति तब शुरू होती है जब वो अपनी राजनीति को खास दल के साथ जोड़कर अपने लेखन में प्रतिपादित करना शुरू हो जाता है। अज्ञेय से लेकर मुक्तिबोध तक ने लेखकों में राजनीतिक चेतना की वकालत की है लेकिन दलगत राजनीति का वकालत करनेवाला बड़ा लेखक सामने नहीं आया है। बल्कि दलगत राजनीति करने का विरोध ही होता आया है, बावजूद इसके वामपंथी लेखक इससे बाज नहींआते रहे हैं।
जुटान की अध्यक्षता कर रहे हिंदी के कवि इब्बार रब्बी ने भी खतरे की ओर इशारा किया। उन्होंने कहा कि ये बेहद खतरनाक समय है और फासीवादी ताकतें देश को मध्यकाल में ले जाना चाहती हैं। इब्बार रब्बी के अलावा इस कार्यक्रम में अधिकतर वक्ताओं ने राग-फासीवाद गाया। कुछ लेखकों को एक बार फिर से दाभोलकर, कालबुर्गी और गोविंद पानसारे हत्याकांड की याद आई लेकिन जिस वक्ता को इन सारी हत्या की याद आ रही थी उनको मुजफ्फरनगर दंगे की याद और उसमें उस वक्त के सूबे की सरकार की भूमिका की याद नहीं आ रही थी। दरअसल लखटकिया पुरस्कार में बहुत ताकत होती है और वो लेखकों को सुविधाजनक तर्क ढूंढने के लिए मजबूर करता रहता है । लेखकों की स्वामीभक्ति का यह चरम है। दरअसल जिसको ये फासीवाद कह रहे हैं वो फासीवाद नहीं है बल्कि उनके हाथ से सत्ता जाने का दुख है। अगर वामपंथियों के हाथों में इन साहित्यक, सांस्कृतिक संगठनों की सत्ता बरकरार रहती तो संभव है देश पर फासीवाद का खतरा पैदा नहीं होता।

पाठकों को याद होगा कि जब बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त वामपंथी संगठनों से जुड़े लेखकों ने बड़ा मुद्दा बनाकर प्रदर्शन आदि शुरू कर दिया था तब राष्ट्रवादी लेखकों ने भी जवाबी प्रदर्शन आदि किया था। वामपंथी संगठनों से जुड़े लेखक लगातार केंद्र सरकार के खिलाफ प्रदर्शन आदि करते रहे लेकिन राष्ट्रवादी लेखकों का वो जमावड़ा फिर कभी दिखाई नहीं दिया। दरअसल होता यह है कि जब कोई संगठन तात्कालिता के दबाव में बनाया जाता है तो वो दीर्घजीवी नहीं हो सकता है। राष्ट्रवादी लेखकों के उस जुटान का भी वही हुआ। लेखकों का एक बड़ा वर्ग है जो वामपंथी या मार्क्सवादी विचारधारा से सहमत नहीं है लेकिन उनके पास वैकल्पिक प्लेटफॉर्म नहीं है और वामपंथियों की तरह का संरक्षण-तंत्र भी नहीं है। इन दोनों के आभाव में जो लेखक मार्क्सवादियों के विरोधी होते हैं वो भी खुलकर सामने नहीं आते हैं । इससे लगता है कि लेखकों के बीच वामपंथियों का ही दबदबा है। लेखकों के बीच वितार विनिमय के लिए भी यह आवश्यक है कि कोई वैकल्पित मंच बने जहां मार्क्सवाद से इतर विचारधारा के लोग भी मिल बैठकर आपस में संवाद कर सकें। भारत और भारतीयता की बात करनेवाली विचारधारा के बीच संवाद होना आवश्यक है क्योंकि इसी तरह के संवाद से कई तरह के भ्रम को फैलने या फैलाने का मौका नहीं मिलेगा। अब वामपंथी लेखकों का एक तबका यह कहकर मजाक उड़ाता है कि हिंदुओं ने वेदों में ही प्लास्टिक सर्जरी की खोज कर ली थी वर्ना हमारे एक देवता का सर हाथी का कैसे होता। इस तरह की बात फैलाने के बाद यह आरोप भी लगाते हैं कि इससे बातचीत का सार्वजनिक स्तर गिरता है। अब वामपंथियों को तो किसी भी बात को गढ़ने और उसको अपने कैडर के माध्यम से हर जगह फैलाने में महारथ हासिल है, लिहाजा वो इसको भी उसी विश्वास के साथ फैलाते हैं। अगर वैकल्पिक विचारधारा के लेखक बैठकर आपस में संवाद करने लगेंगे तो इस तरह की उलजलूल बातों को फैलने से रोका जा सकता है । आवश्यकता इस बात की है कि वैकल्पिक विचारधारा से जुड़े लेखकों को पहल करनी होगी। उनको अपना एक संगठन बनाना होगा और उस संगठन को सरकारी संरक्षण ना भी मिले तो उसके साथ सौतेला व्यवहार नहीं हो। क्योंकि लाख फासीवाद की बातें की जाएं, संस्थाओं पर संकट की बातें हो, लेकिन अब भी वामपंथी विचारधारा के कार्यकर्ता सरकारी और गैर सरकारी पदों पर बैठे हैं जो इस वैकल्पिक साहित्यक विचारों के एक जगह इकट्ठा होने में बाधा डाल सकते हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि देश में लेफ्ट की राजनीति कमजोर हुई है लेकिन खत्म नहीं हुई है। लेफ्ट से जुड़े लेखकों को दिल्ली की केजरीवाल सरकार से लेकर बिहार की नीतीश कुमार सरकार से भी संरक्षण मिलता रहा है । विचारों की इस लड़ाई में जितना आवश्यक इन लेखक कार्यकर्ताओं को बेनकाब करना है उतना ही आवश्यक है कि एक वैकल्पिक मंच का सृजन हो।         

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