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Saturday, December 21, 2019

पुरस्कार प्रक्रिया से बेनकाब प्रपंच


देशभर को साहित्य अकादमी पुरस्कारों का इंतजार रहता है। साहित्य अकादमी पुरस्कार को लेकर हमेशा विवाद होते रहते हैं, कभी छिटपुट तो कभी बड़ा। इस वर्ष भी हुआ। पहले तो मैथिली भाषा के संयोजक प्रेम मोहन मिश्रा ने इस्तीफा का मेल भेजकर विवाद को हवा देने की कोशिश की। मिश्र को पुरस्कार की प्रक्रिया से ही परेशानी थी। खबरों के मुताबिक प्रेम मोहन मिश्र ने अकादमी को जो पत्र भेजा उसमें पुरस्कार देने की लिए जूरी के गठन पर सवाल उठाते हुए वहां एक रैकेट के सक्रिय होने का आरोप जड़ा। उनका आरोप है कि इस बार जूरी के सदस्यों का नाम पहले ही सार्वजनिक हो गया और ये भी सबको पता था कि इस वर्ष का पुरस्कार किसको दिया जाएगा। उनकी मांग है कि जूरी के चयन और पुरस्कार की प्रक्रिया गोपनीय होनी चाहिए। अभी तक जो प्रक्रिया है उसके मुताबिक हर भाषा के जो प्रतिनिधि होते हैं वही जूरी के सदस्यों का नाम प्रस्तावित करते हैं। जब नई आम सभा का गठन होता है तो सभी सदस्यों को एक पत्र भेजा जाता है और उनसे, आधार सूची बनाने के लिए, प्राथमिक सूची पर विचार करने के लिए और फिर अंतिम जूरी के सदस्यों के लिए संभावित लोगों के नाम मांगे जाते हैं। सभी भाषा के सदस्यों के नाम जब आ जाते हैं तो उसको मिलाकर एक विस्तृत सूची तैयार की जाती है। इसी सूची से पांच साल तक हर प्रकार की जूरी का चयन किया जाता है। साहित्य अकादमी के चारों पुरस्कार के लिए इसी विस्तृत सूची से हर वर्ष नाम निकालकर अध्यक्ष के सामने रख दिया जाता है।
अध्यक्ष के सामने जूरी के सदस्यों का नाम रखने के पहले ये जांच लिया जाता है कि कोई भी नाम पिछले साल के दौरान तो जूरी का सदस्य नामित नहीं हुआ। नियम ये है कि एक बार जो व्यक्ति जूरी का सदस्य नामित हो जाता है वो अगले साल किसी स्तर पर जूरी का सदस्य नामित नहीं किया जाता है। इस जांच पड़ताल के बाद जो भी नाम अध्यक्ष के सामने आते हैं उसमें से वो तीन नाम का चयन करते हैं जो वर्ष और भाषा विशेष की जूरी में शामिल होते हैं। अगर साहित्य अकादमी में नियमानुसार जूरी के सदस्यों का चयन किया गया है तो प्रेम मोहन मिश्र भी उसके सहभागी माने जा सकते हैं क्योंकि नाम तो उन्होंने भी प्रस्तावित किया होगा। मिश्र जी के हवाले से जो खबर छपी है उसके मुताबिक उन्होंने दस दिसंबर को पहली बार आपत्ति की। दस दिसंबर को आपत्ति करने का अर्थ इस वजह से नहीं रह जाता है कि तबतक पुरस्कार का काम लगभग पूरा हो चुका था। अंतिम चयन पर विचार बाकी रह गया था।
मिश्र का एक आरोप पुरस्कार के रैकेट का भी है। इस तरह का रैकेट वामपंथियों के दबदबे वाले काल में सक्रिय रहता था लेकिन पिछले कई वर्षों से ऐसी बात सामने नहीं आई है। उस वक्त तो ये होता था कि महीनों पहले से साहित्य जगत को पता होता था कि साहित्य अकादमी का पुरस्कार किसको दिया जाना है। इस स्तंभ में कई बार इसकी चर्चा भी हो चुकी है और बता भी दिया गया था कि किसको पुरस्कार मिलनेवाला है, उसको ही मिलता भी था। गड़बड़ी तो यहां तक होती थी कि लंबी कहानी को उपन्यास मानकर उसी श्रेणी में पुरस्कार भी दे दिया जाता था।
राहुल गांधी से लेकर कांग्रेस के कई नेताओं के अलावा वामपंथी बुद्धिजीवी भी लगातार ये आरोप लगाते हैं कि मोदी सरकार संस्थाओं को नष्ट कर रही है। उसकी परंपराओं को भंग कर रही है और स्वयत्त संस्थाओं के कामकाज में हस्तक्षेप कर रही है। लेकिन इस बार साहित्य अकादमी में एक ऐसी घटना हुई जो कांग्रेस और वामपंथियों के इन आरोपों को नकारने के लिए काफी है। इस वर्ष अंग्रेजी के लिए कांग्रेस के तिरुवनंतपुरम से सांसद और लेखक शशि थरूर को उनकी पुस्तक एन एरा ऑफ डार्कनेस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। अगर साहित्य अकादमी की स्वायत्तता को बाधित करने या उसको कमजोर करने की कोशिश होती तो क्या शशि थरूर को पुरस्कार मिल पाता? क्या साहित्य अकादमी के फिछले छह दशक के इतिहास में कभी ऐसा हुआ है कि विरोधी विचारधारा ही नहीं प्रमुख विपक्षी दल के सांसद को पुरस्कृत किया गया हो। संभवत: नहीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लेखकों की तो छोड़िए भारतीयता की बात करनेवाले लेखकों के नाम पर भी साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए विचार हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं है। नरेन्द्र कोहली के के नाम पर कभी विचार भी हुआ ऐसी चर्चा तक नहीं हुई। पाठकों को ये तय करना चाहिए कि असहिष्णु कौन है या अपनी विचारधारा को सृजनात्मकता पर थोपने की कोशिश किस विचारधारा के लोग करते हैं। प्रेम मोहन मिश्र को इस तरह की बातों पर भी प्रकाश डालना चाहिए था।
पिछले सप्ताह के स्तंभ में इस बात की चर्चा की गई थी कि दो हजार पंद्रह के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले पुरस्कार वापसी का जो अभियान चला था उसमें शामिल उदय प्रकाश, मंगलेश, अशोक वाजपेयी जैसे लेखक किस तरह से अकादमी पुरस्कारों को अपने परिचय में शान से शामिल करते हैं। इस बार तो इस तरह के लेखक और बेनकाब हो गए और इस बात को और बल मिला कि पुरस्कार वापसी अभियान ना केवल मोदी सरकार को बदनाम करने के लिए किया गया था बल्कि अपने राजनीतिक आकाओं के कहने पर उनके राजनीतिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए साहित्य का इस्तेमाल किया गया। दरअसल लक्ष्य तो बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ माहौल बनाना था। उनको अभिव्यक्ति की आजादी की ना तो चिंता थी और ना ही वो लेखकों पर हो रहे हमलों से व्यथित थे।
शशि थरूर को जिस जूरी ने पुरस्कार योग्य माना उसमें शामिल लेखकों के नाम देख लेते हैं। इससे कुछ और लोग बेनकाब होंगे। पहला नाम है जी एन देवी, दूसरा के सच्चिदानंदन और तीसरे हैं सुकांत चौधरी। जी एन देवी वही शख्स हैं जिन्होंने जोर-शोर से पुरस्कार वापस करने की घोषणा की थी और मोदी सरकार पर तमाम तरह के आरोप जड़े थे। दूसरे शख्स हैं के सच्चिदानंदन जिन्होंने पुरस्कार तो वापस नहीं किया था लेकिन उस वक्त अंग्रेजी की सलाहकार समिति से विरोधस्वरूप इस्तीफा दे दिया था। साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी को एक ईमेल भेजकर विरोध जताया था और तिवारी को अहंकारी आदि कहा था। तब सच्चिदानंदन ने साहित्य अकादमी से भविष्य में किसी प्रकार का संबंध नहीं रखने का एलान भी किया था। बिहार विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार के बाद वो सब भूल गए और अकादमी से अपने संबंध बना लिया और इस वर्ष तो जूरी में भी शामिल रहे। अब ये बात समझ से परे है कि बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद अभिव्यक्ति की आजादी कैसे बहाल हो गई और किस तरह से लेखक सुरक्षित हो गए। अगर दोनों चीजें हो गईं तो स्वीकार की घोषणा भी होनी चाहिए।
ये बात सिर्फ इन दोनों तक सीमित नहीं है, हिंदी की जूरी में रहे नंद भारद्वाज ने भी अपना पुरस्कार वापस किया था लेकिन उनको भी अकादमी से कोई परहेज नहीं है। अकादमी के लोग बताते हैं कि नंद भारद्वाज ने चंद दिनों के बाद ही पुरस्कार वापसी का अपना फैसला चुपचाप वापस ले लिया था और अकादमी को भेजे चेक आदि भी वापस ले लिए थे। सरकार के खिलाफ माहौल बनाने के लिए सार्वजनिक घोषणा और सुर्खियां बटोर लेने के बाद अकादमी के कार्यक्रमों में चुपके से भागीदारी की ये कला पता नहीं कहां से सीखते हैं ये बौद्धिक। ऐसे ही कई और लेखक हैं जिनमें पंजाबी के सुरजीत पातर, अंग्रेजी के केकी एन दारूवाला, इन लोगों ने भी पुरस्कार वापस किया था लेकिन अब सक्रिय रूप से साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों और क्रियाकलापों में भागीदार दिखते हैं। नैतिकता की मांग तो ये है कि इस तरह से सभी लेखक सार्वजनिक रूप से ये स्वीकार करें कि मोदी सरकार के उस दौर में लेखकों को डर लगता था लेकिन अब मोदी सरकार के दौरान ही लेखकों का वो कथित डर समाप्त हो गया और अभिव्यक्ति की आजादी बहाल हो गई। क्या पुरस्कार वापसी करनेवाले इन लेखकों से इस नैतिकता की उम्मीद की जा सकती है। क्या इनमें इतना नैतिक साहस बचा है या ये मान लेना चाहिए कि लेखकों में जो नैतिक आभा होती है उसको स्वार्थ और लाभ-लोभ ने ढंक लिया। साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्थान है जो भारत सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं है और लेखक समुदाय के लिए ये आवश्यक है कि इसकी स्वायत्ता बरकरार रहे। ये तभी संभव है जब लेखक समुदाय इसको राजनीति का अखाड़ा न बनाएं और यहां सृजन की ऐसी जमीन तैयार करें जहां रचनात्मकता की फसल लहलहा सके।

6 comments:

विनीत उत्पल said...

सही और आंखें खोलने वाला सच

Niraj Sharma said...

विचारणीय प्रश्न हैं। पर उत्तर नहीं देंगे वे।

रूपसिंह चन्देल said...

बहुत सुन्दर। बधाई

रामप्रसाद राजभर said...

छद्मता आदरणीय

रामप्रसाद राजभर said...

छद्मता

Anonymous said...

मैं थरूर जी से अविलंब पुरस्कार लौटाने की अपील करता हूँ।