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Saturday, December 28, 2019

हैशटैग पर बनकर सफल होती फिल्में


देश में आर्थिक मंदी पर कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के बयान का खूब मजाक बना था। रविशंकर प्रसाद ने तब कहा था कि जहां एक दिन में फिल्में सौ करोड़ से अधिक कमा रही हैं तो मंदी कैसे हो सकता है। जब उनका ये बयान आया था तब उसका ना सिर्फ मजाक बना था बल्कि विपक्ष समेत कई स्वतंत्र स्तंभकारों ने रविशंकर प्रसाद को घेरा था। टेलीविजन चैनलों पर बहस भी हुई थी। कई लोगों ने रवि बाबू के इस बयान को गंभीर मुद्दे को हल्के में लेनेवाला करार दिया था। बाद में इस मुद्दे पर सफाई आदि भी आई। लेकिन अब जो आंकड़ें आ रहे हैं वो इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि कम से कम हिंदी फिल्म उद्योग मंदी से प्रभावित नहीं है। रविशंकर प्रसाद भले ही मजाक मे कह रहे हों लेकिन अगर किसी सैक्टर में ग्रोथ तीस प्रतिशत से अधिक हो तो वहां मंदी जैसी बात तो नहीं ही कही जा सकती है। 2019 में फिल्मों के कारोबार का आंकड़ा चार हजार करोड़ को पार कर गया है। एक अनुमान के मुताबिक इस वर्ष फिल्मों का कारोबार चार हजार तीन सौ पचास करोड़ से ज्यादा का रहा जो पिछले वर्ष की तुलना में हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा है। इस वर्ष एक हिंदी फिल्म वॉर ने तीन सौ करोड़ से अधिक का बिजनेस किया जबकि तीन हिंदी फिल्मों ने दो सौ करोड़ रुपए से ज्यादा और दो ने दो सौ करोड़ का कारोबार किया। इसके अलावा तीन फिल्में ऐसी रहीं जिनका कारोबार डेढ़ सौ करोड़ से अधिक रहा। इस लिहाज से देखें तो दो हजार उन्नीस फिल्मों के कारोबार के लिहाज से अबतक का सबसे अधिक मुनाफा देने वाला वर्ष बन गया। सबसे अधिक कमाई तो फिल्म वॉर ने की जिसने तीन सौ करोड़ से अधिक का कारोबार किया और अगर इसमें तमिल और तेलुगू वर्जन को मिला दें तो ये आंकड़ा सवा तीन सौ करोड़ रुपए तक पहुंच जाता है।
वॉर के बाद कबीर सिंह ने दो सौ अस्सी करोड़ से अधिक का बिजनेस किया। इस फिल्म की काफी आलोचना भी हुई थी लेकिन बावजूद इसके दर्शकों ने इसको पसंद किया। कबीर सिंह तेलुगू फिल्म अर्जुन रेड्डी का हिंदी रीमेक है। इस फिल्म में शाहिद कपूर ने एक ऐसे शख्स की भूमिका निभाई है जिसको बहुत जल्दी गुस्सा आता है। सर्जन बनने के बाद भी वो शराब पीकर और ड्रग्स के डोज लेकर ऑपरेशन करता है। महिलाओं के प्रति हिंसा उसके व्यवहार उसके काम-काज के दौरान दिखता है। ये वही दौर था जब उरी और केसरी जैसी देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्में बॉक्स ऑफिस पर जोरदार कमाई कर रही थीं तो दूसरी तरफ कबीर सिंह जैसी फिल्म को भी दर्शक हाथों हाथ ले रहे थे। कबीर सिंह के अलावा उरी द सर्जिकल स्ट्राइक ने भी ढाई सौ करोड़ रुपए से अधिक का बिजनेस किया। हाउसफुल 4 और टोटल धमाल आदि भी कमाई में अव्वल रहीं।
इसके अलावा इस वर्ष हिंदी सिनेमा में एक और प्रवृत्ति दिखाई देती है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए। वो है देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्मों का जमकर कारोबार करना। 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से देश में राष्ट्रवाद को लेकर काफी बातें होने लगीं थीं। राष्ट्रवाद के पक्ष और विपक्ष में तर्क-कुतर्क भी हुए, हिंसा से लेकर आंदोलन भी हुए। सोशल मीडिया पर राष्ट्रवाद कई बार ट्रेंड भी करता रहता है। राष्ट्रवाद का ये विमर्श अब भी अलग अलग रूपों में जारी है। फिल्मकारों ने राष्ट्रवाद के इस विमर्श को अपनी फिल्मों का विषय बनाया और जमकर मुनाफ कमाया। अगर हम सिर्फ नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में बनी फिल्मों पर नजर डालते हैं तो ये पाते हैं कि इस दौर में तीन दर्जन ने अधिक फिल्में ऐसी बनीं जिसमें देशभक्ति और राष्ट्रवाद के साथ-साथ भारत और भारतीयता को सकारात्मकता के साथ पेश करनेवाली फिल्मों ने जमकर कमाई की। उरी द सर्जिकल स्ट्राइक का उदाहरण तो सबके सामने है ही। इसके अलावा अगर हम नाम शबाना और गाजी अटैक जैसी फिल्मों को भी लें तो उसने अच्छा मुनाफा कमाया। पहले ज्यादातर लगान जैसी फिल्में बनती थीं जिसमें अंग्रेजों से गुलामी का बदला लिया जाता था और देशप्रेम की भावना को उभार कर निर्माता निर्देशक दर्शकों को सिनेमा तक खींच कर लाते थे, लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद स्थितियां बदलने लगीं। अब तो देश के गौरव को स्थापित करनेवाली फिल्में दर्शकों को पसंद आने लगीं। दर्शकों को देश की सफलता की कहानी भी पसंद आने लगी। मिशन मंगल की सफलता इसकी एक बानगी भर है. इसमें भारत की अंतरिक्ष में कामयाबी की गौरव गाथा है। इस तरह हम ये कह सकते हैं कि राष्ट्रवाद की लहर से फिल्म उद्योग अछूता नहीं रहा। देशभक्ति, देश की गौरव गाथा, देश से जुड़ा गौरवशाली पल ये सब दर्शकों को पसंद आने लगा है। चाहे वो केसरी हो या बजरंगी भाईजान या फिर भारत
इस तरह की फिल्मों की सफलता से हिंदी फिल्मों से खान साम्राज्य के दबदबे में कमी की घोषणा भी हो गई है। आमिर खान की ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान बुरी तरह से फ्लॉप रही। शाहरुख खान की 2019 में कोई फिल्म आई नहीं। इसके पहले जीरो को दर्शक नकार चुके हैं। ले देकर सलमान खान अब भी मैदान में डटे हुए हैं। इससे अलग कुछ ऐसे चेहरे हिंदी फिल्मों में स्थापित हुए जिसमें लोग अपने जैसी छवि देखते हैं। आयुष्मान खुराना से लेकर विकी कौशल जैसे अभिनेताओं ने अपनी अदाकारी से खुद को तो स्थापित किया ही फिल्मों को कारोबार के लिहाज से भी सफल बनाया।
इन सबसे अलग हटकर एक और तथ्य है जिसकी ओर फिल्मकारों ने ध्यान दिया और वो सफल रहे। पिछले पांच सालों से फिल्मकारों ने खबरों पर फिल्में बनानी शुरू कर दी हैं। जिस भी खबर ने देशव्यापी चर्चा हासिल की या जिस भी खबर को लेकर सोशल मीडिया पर मुहिम चली और उसका हैशटैग ट्रेंड करने लगा उन खबरों पर देर सबेर फिल्म बनी। नोएडा में स्कूली छात्रा आरुषि कलवार हत्याकांड पर मेघना गुलजार ने तलवार फिल्म बनाई। इसी तरह से लखनऊ में हुए एनकाउंटर और फिर परिवार का मुठभेड़ में मारे गए अपने लड़के का शव लेने से इंकार कर देने की घटना पूरे देश में चर्चा का विषय बनी थी। उस समय इस खबर को पूरे देश में एक मिसाल के तौर पर देखा गया था। निर्देशक अनुभव सिन्हा ने इस घटना को केंद्र में रखकर फिल्म मुल्क का निर्माण किया। ये फिल्म दर्शकों को खूब पसंद आई। अनुभव ने ही उत्तर प्रदेश के बदायूं में दो बहनों की मौत और उनके शव पेड़ पर लटके मिलने की बेहद चर्चित खबर को केंद्र में रखकर आर्टिकल15 बनाई। इस खबर की भी देश-विदेश में चर्चा हुई थी। सीबीआई जांच तक हुई थी। कई दिनों तक न्यूज चैनलों के प्राइम टाइम पर पेड़ से लटकी दो लड़कियों की तस्वीरों पर चर्चा हुई थी। इसी तरह से अलीगढ़ के एक समलैंगिक प्रोफेसर की कहानी पर अलीगढ़ के नाम से फिल्म बनी। तलवार फिल्म बनाने वाली मेघना गुलजार अब छपाक लेकर आ रही हैं जो एसिड अटैक पीड़ित लक्ष्मी की कहानी है। इस फिल्म में दीपिका पादुकोण केंद्रीय भूमिका में हैं। ये वारदात भी देशभर में चर्चित रही थी। अगर हम विचार करें तो ये पाते हैं कि हैशटैग पर फिल्म बनने की जो शुरुआत कुछ सालों पहले शुरू हुई थी वो दो हजार उन्नीस में आकर और मजबूत हुई और अब इसने एक ट्रेंड का रूप ले लिया है।
कुछ फिल्मकार इसको फिल्मों में यथार्थवादी कहानियों की वापसी के तौर पर देखते हैं। उनका कहना है कि इस तरह की कहानियों से दर्शकों को उन प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है जो खबरों से नहीं मिल पाता है। फिल्मों में खबरों को फिक्शनलाइज करके दिखाया जाता है जिससे उनको ये छूट रहती है कि वो अपने हिसाब से खबर को उसके अंजाम तक पहुंचा सकें। इस प्रवृत्ति को साफ तौर पर फिल्म मुल्क से लेकर तलवार तक में देखा जा सकता है। इस तरह की फिल्मों के निर्देशकों को ये छूट भी मिल जाती है कि खबर को लेकर जन भावना के साथ अपनी फिल्म के क्लाइमैक्स को पहुंचा दे या फिर निर्देशक अपनी विचारधारा के हिसाब से दर्शकों को ज्ञान दे। लेकिन जनभावना अगर छूटती है तो फिल्म की सफलता संदिग्ध हो जाती है जिसका उदाहरण अलीगढ़ फिल्म की असफलता में देखा जा सकता है। तलवार में मेघना ने लगभग जन भावना के अनुरूप ही फिल्म का क्लाइमैक्स रचा। 2019 को हम फिल्मों के इतिहास में कारोबार के लिहाज से अबतक के सबसे सफलतम वर्ष में रख सकते हैं। इस वर्ष को फिल्मों के अधिक लोकतांत्रिक होने के वर्ष के रूप में भी याद किया जा सकता है।     

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