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Saturday, October 31, 2020

विसंगतियों की जकड़न में फिल्म विभाग


कोविड काल में कई महीनों तक सिनेमा हॉल बंद रहने के बाद जब खुला तो एक दिन सोचा कि फिल्म देखने चला जाए। पहुंचा। कम लोग थे। थोड़े इंतजार के बाद फिल्म का प्रदर्शन शुरू हुआ। फिल्म के पहले कुछ विज्ञापन भी चले। राष्ट्रगान भी हुआ। राष्ट्रगान खत्म हुआ तो दिमाग में एक बात कौंधी। कई साल पहले सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने के पहले फिल्म प्रभाग, भारत सरकार की शॉर्ट फिल्में चला करती थीं। इन फिल्मों में भारत सरकार की उपलब्धियों का बखान होता था। देश के प्रधानमंत्री के कामों को उनके देश विदेश के दौरों को दिखाया जाता था। अगर वो किसी महत्वपूर्ण इमारत का शिलान्यास आदि करते थे को उसको भी इन फिल्मों में दिखाया जाता था। सिर्फ सिनेमाघरों में ही नहीं बल्कि विद्यालयों आदि में जब साप्ताहिक फिल्मों का प्रदर्शन होता था तब भी फिल्म प्रभाग की ये छोटी फिल्में चला करती थीं। ये वो दौर था जब स्कूलों में छात्रों को हर महीने के तीसरे या चौथे शुक्रवार को फिल्में दिखाई जाती थीं। भारत सरकार का फिल्म प्रभाग ही इसका आयोजन करती थी और स्कूलों में पर्दा और प्रोजेक्टर लगाकर फिल्में दिखाई जाती थीं। फिल्मों के पहले दिखाई जाने वाली फिल्म प्रभाग की ये छोटी छोटी प्रमोशनल फिल्में इस तरह से पेश की जाती थीं कि दर्शकों को लगता था कि उसमें दिखाई जानेवाली उपलब्धियां देश की हैं। जबकि परोक्ष रूप से वो उस समय के प्रधानमंत्रियों की छवि चमकाने का काम करती थी।

महेन्द्र मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय सिनेमा’ में लिखा है, ‘सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत फिल्म्स डिवीजन की स्थापना 1948 में हुई। फिल्म्स डिवीजन उस समय शायद दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक केंद्र था जिसमें समाचार और अन्य राष्ट्रीय विषयों पर वृत्तचित्र बनाए जाते थे। ये वृत्तचित्र, समाचार चित्र और लघु फिल्में पूरे देश में प्रदर्शन के लिए बनती थीं। प्रत्येक फिल्म की नौ हजार प्रतियां बनती थीं जिनकी संख्या कभी कभी चालीस हजार तक पहुंच जाती थीं। ये भारत की तेरह प्रमुख भाषाओं और अंग्रेजी में पूरे देश में सभी सिनेमाहॉलों में मुफ्त प्रदर्शित की जाती थीं। समाचर चित्रों और लघु फिल्मों एवं वृत्तचित्रों का परोक्ष रूप से दर्शकों पर व्यापक प्रभाव पड़ा जिसने उनकी रुचि बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।‘  

दर्शकों पर व्यापक प्रभाव और रुचि बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका की बात, हो सकता है, महेन्द्र जी सिनेमा के संदर्भ में कह रहे हों लेकिन इस बात पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि इन लघु फिल्मों के माध्यम से राजनीतिक हित कितने सधे। किसके सधे। जब फिल्म प्रभाग की न्यूज रील चला करती थी और नेहरू जी, इंदिरा जी और राजीव जी के सर भारत की तमाम उपलब्धियों का सेहरा बंधता था तो दर्शकों पर उसका क्या प्रभाव पड़ता होगा। स्कूली छात्रों पर उसका कितना और कैसा प्रभाव पड़ता होगा। किस तरह से राजनीतिक रुचि बदलती होगी?  फिल्म प्रभाग की स्थापना तो इस उद्देश्य से की गई थी कि ये देश में फिल्मों की संस्कृति को विकसित और मजबूत करेगा। लेकिन अपनी स्थापना के शुरुआती दिनों से लेकर उदारीकरण के दौर शुरू होने से पहले तक इसने अपनी ज्यादा ऊर्जा प्रधानमंत्रियों के पब्लिसिटी विभाग के तौर पर काम करने में लगाया। 1991 में जब देश में उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो प्रचार के माध्यमों का स्वरूप भी बदलने लगा। प्रचार के अन्य माध्यम सामने आए तो फिल्म प्रभाग में बनने वाले वृत्तचित्र या समाचार चित्र देश के सिनेमा घरों में कम दिखने लगे। ऐसा प्रतीत होने लगा कि इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों से तालमेल बिठाने में फिल्म प्रभाग पिछड़ गया। बावजूद इसके फिल्म्स डिवीजन अब भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वतंत्र विभाग के तौर पर काम कर रहा है।

फिल्म प्रभाग की आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक मुंबई मुख्यालय के अलावा दिल्ली, कोलकाता और बेगलुरू में भी इसकी शाखाएं हैं। यहां अब भी दावा किया जा रहा है कि पूरे देश के सिनेमाघरों में लघु फिल्मों का प्रदर्शन किया जाता है। इसके अलावा ये प्रभाग डॉक्यूमेंट्री, शॉर्ट और एनिमेशन फिल्मों के लिए द्विवार्षिक मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन भी करता है। इसके अलावा पूरे देश में फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करना भी इसका एक दायित्व है। इस संस्था का बजट देखने पर पता चलता है कि वित्त वर्ष 2019-20 में केंद्रीय स्कीम के लिए 7.7 करोड़, कर्मचारियों के वेतन पर 41.5 करोड़ और नेशनल म्यूजियम ऑफ इंडियन सिनेमा को चलाने के लिए 2.98 करोड़ रु का प्रावधान रखा गया है। करीब 52 करोड़ रुपए के बजट वाले इस विभाग में कई काम ऐसे हो रहे हैं जो इसी मंत्रालय के दूसरे विभाग में भी हो रहे हैं। जैसे उदाहरण के लिए अगर हम देखें तो फिल्म प्रभाग भी फिल्मों का निर्माण करता है और राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम और चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी भी फिल्मों का निर्माण करती है। फिल्म प्रभाग भी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करता है, चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी भी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करती है और फिल्म फेस्टिवल निदेशालय भी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करता है। कई एक जैसे काम हैं जो सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अलग अलग विभाग करते हैं।

दरअसल अगर हम इसपर विचार करें तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत फिल्मों से सबंधित कई विभाग ऐसे हैं जिनका गठन उदारीकरण के दौर के पहले हुआ था। उस समय की मांग के अनुसार उनके दायित्व तय किए गए थे। समय बदलता चला गया, सिनेमा के व्याकरण से लेकर उसके तकनीक तक में आमूल चूल बदलाव आ गया लेकिन फिल्मों से संबंधित इन संस्थाओं में अपेक्षित बदलाव नहीं हो पाया। अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे तो उस समय भारत सरकार की एक समिति ने इन संस्थाओं में युक्तिसंगत बदलाव की सिफारिश की थी पर उसके बाद कुछ हो नहीं सका। यूपीए के दस साल के शासनकाल में सबकुछ पूर्ववत चलता रहा। 2016 में नीति आयोग ने फिर से इन संस्थाओं के क्रियाकलापों को लेकर कुछ सिफारिशें की थीं। फिर 2017 के अंत में इस तरह की खबरें आईं कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय अपने विभागों के कामकाज को युक्तिसंगत बनाने जा रहा है। फिर कई महीने बीत गए। पिछले साल ये खबर आई कि पूर्व सूचना और प्रसारण सचिव विमल जुल्का की अगुवाई में फिल्म से जुड़े लोगों की एक समिति बनाई गई, राहुल रवैल भी उसके सदस्य थे। उनकी सिफारिशें भी आ गईं। लेकिन उन सिफारिशों का क्या हुआ अबतक सार्वजनिक नहीं हुआ है। सभी विभाग पूर्ववत चल रहे हैं।

दरअसल सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत चलनेवाले और फिल्मों से जुड़े कई विभागों में बेहतर तालमेल की तो जरूरत है ही, उनके कार्यों को भी समय के अनुरूप करने की आवश्यकता है। अब तो फिल्मों का स्वरूप और बदल रहा है। कोविड की वजह से ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी) लोकप्रिय हो रहे हैं। सिनेमाघरों में लोगों की उपस्थिति कम है। कोविड के भय से मुक्ति के बाद भी ओटीटी की लोकप्रियता कम होगी इसमें संदेह है। बदलते तकनीक की वजह से भी फिल्मों का लैंडस्केप बदलेगा। फिल्म संस्कृति को मजबूती देने और विदेशों में भारतीय फिल्मों को पहचान दिलाने के उद्देश्यों पर भी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।यह तभी संभव है जब मंत्रालय के स्तर पर पहल हो, योजनाएं बनें और उसको यथार्थ रूप देने के लिए उन लोगों का चयन किया जाए जो फिल्मों से जुड़े हों। पिछले दिनों फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे में शेखर कपूर की नियुक्ति सही दिशा में उठाया गया एक कदम है। रचनात्मक कार्य के लिए रचनात्मक लोगों को चिन्हित करके उनको सही जगह देना और राजनीति और लालफीताशाही से मुक्त करना सरकार का प्रमुख दायित्व है।  

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