देश में लोकसभा चुनाव संपन्न हो चुके हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को जनादेश मिला है। नरेन्द्र मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे हैं। स्वाधीन भारत के इतिहास में ये दूसरा मौका है जब कोई प्रधानमंत्री लगातार तीसरी बार देश की बागडोर संभालने जा रहा है। प्रचंड गर्मी में आयोजित लोकसभा चुनाव कई मायनों में पिछले चुनावों से भिन्न रहा। इस चुनाव के दौरान कई मिथक टूटे। कई नए बने।इसपर विस्तार से बात होगी लेकिन पहले एक कहानी, जो इमरजेंसी के बाद हुए लोकसभा चुनाव से जुड़ा है। संजय गांधी अमेठी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रह थे। उनके चुनाव प्रचार के लिए अभिनेता दिलीप कुमार को बुलाया गया था। अमेठी लोकसभा क्षेत्र में दिलीप कुमार के पोस्टर लगा दिए गए थे।पोस्टर में बताया गया था कि दिलीप कुमार सात मार्च को अमेठी आ रहे हैं। अपील की गई थी कि भारी संख्या में लोग दिलीप कुमार की सभा में शामिल हों। सुबह से ही लोग अपने पसंदीदा अभिनेता को देखने के लिए सभास्थल पर जमा होने लगे थे। लंबी प्रतीक्षा। दिलीप कुमार नहीं आए। लोग निराशहोकर घर लौट गए। दरअसल किसी ने दिलीप कुमार को आठ मार्च की तिथि बता दी थी और संजय गांधी का चुनाव प्रचार देख रही टीम को गलती से सात मार्ट बता दिया था। सात मार्च को जब दिलीप कुमार नहीं आए तो किसी ने उनसे संपर्क भीनहीं किया। माना गया कि वो नहीं आएंगे। लेकिन दिलीप कुमार को तो आठ मार्च की तारीख दी गई थी। वो आठ मार्च को फुरसतगंज हवाई पट्टी पर उतरे। वहां उनको रिसीव करनेवाला कोई नहीं था। 1977 में अमेठी में टैक्सी आदि नहीं मिलती थी, बस का आसरा था। दिलीप कुमार फुरसतगंज हवाई पट्टी के बाहर एक पीपल के पेड़ के नीचे दो घंटे तक खड़े रहे। दो घंटे के बाद एक बस मिली जो उनको अमेठी तक ले गईऔर एक चाय की दुकान पर छोड़ा। फिल्मों के सपरस्टार दिलीप कुमार ने वहीं चाय पी। किसी तरह संजय गांधी की टीम तक खबर भिजवाई गई। थोड़ी देर बाद एक जीप उनको लेने वहां पहुंची। आनन फानन में उसी दिन दिलीप कुमार की एक सभा तय की गई लेकिन जनता तक सूचना नहीं पहुंच पाने के कारण वो सभा बुरी तरह से फ्लाप रही। विनोद मेहता ने इस पूरे प्रसंग को अपनी पुस्तक में लिखा है।
इस कहानी को बताने का उद्देश्य ये है कि चुनाव के दौरान पहले फिल्मी सितारों को आमंत्रित किया जाता था। उसे प्रत्याशी विशेष के पक्ष में प्रचार करवाया जाता था। उनके रोड शो आयोजित किए जाते थे। कई बार तो इस तरह की बातें भी सामने आती थी कि फलां सितारे को फलां उम्मीदवार ने इतनी धनराशि देकर अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए बुलाया। फिल्मी सितारों का राजनीति से कोई लेना देना नहीं होता था। भीड़ जुटाने के लिए और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए उनको रैलियों में बुलाया जाता था। अब जरा सोचिए कि महिमा चौधरी का बिहार की राजनीति से क्या लेना देना हो सकता है। बिहार की जमीनी हकीकत की कितनी जानकारी उनको होगी।लेकिन करीब तीन दशक पहले बिहार में होने वाले चुनावों में उनको आमंत्रित किया जाता था। अमेठी में दिलीप कुमार का किस्सा आप पढ़ चुके हैं इसके अलावा उन्नाव में भी एक प्रत्याशी के पक्ष में कई फिल्मी सितारों ने प्रचार किया था।बंगाल में तो फिल्मी सितारे आवश्यक रूप से प्रचार करते रहे हैं, अब भी कर रहे हैं। ममता बनर्जी तो हर लोकसभा चुनाव में बंगाली फिल्म इंडस्ट्री के अलावा अन्य क्षेत्र के ख्यातनाम व्यक्तित्व को लोकसभा में टिकट देकर भी सफलता हासिल करती रही हैं। इस वर्ष मार्च में एकनाथ शिंदे की शिवसेना में फिल्मी सितारे गोविंदा को शामिल करवाया गया था पर चुनाव प्रचार के दौरान गोविंदा दिखे नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि शिंद की शिवसेना ने गोविंदा को अपनी पार्टी में सिर्फ खबर बनाने और विरोधी उद्धव गुट पर दबाव बनाने के लिए शामिल करवाया। उत्तर प्रदेश में हुए चुनाव प्रचार में भी इस बार सितारे नहीं दिखे। समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह जब तक जीवित थे तो वो हिंदी फिल्मों के सितारों को चुनाव प्रचार में लाते रहते थे। चुनाव प्रचार में सितारों को ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में घुमाया जाता था। उद्देश्य ये होता था कि फिल्मीसितारों के प्रशंसकों के वोट हासिल किए जाएं। अभिनेता या अभिनेत्री को न तो क्षेत्र की जानकारी होती थी न ही स्थानीय समस्याओं की। संबंधित पार्टी के विचारधारा को जानने की अपेक्षा करना तो व्यर्थ ही है। पर तब ऐसा देखा जाता था कि फिल्मी अभिनेता और अभिनेत्रियों के आने से बहुत हद तक वोटर प्रभावित हो जाते थे। जिस प्रत्याशी के लिए ये लोग घूमते थे उनको थोड़ा बहुत लाभ हो जाता था। धीरे धीरे ये परंपरा कम होती चली गई और इस चुनाव में तो लगभग समाप्त हो गई।
फिल्मी सितारों के चुनाव के दौरान उपयोगिता समाप्त होने के कारणों पर विचार करते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि अब हमारे देश का मतदाता अपेक्षाकृत परिपक्व हो गया है। वो इस तरह के चुनावी हथकंडों से प्रभावित नहीं होता। अब ग्लैमर से प्रभावित होकर वोट नहीं डालता। मतदाता अब अपने बेहतर भविष्य, स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दों को ध्यान में रखकर मतदान करता है। अब अगर हम मतदाताओं के परिपक्व होने के कारणों को देखें। जिस तरह से देश में साक्षरता की दर बढ़ी है उसने देश के वोटरों को अपने अधिकारों को सजग किया। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में साक्षरता दर करीब 73 प्रतिशत थी जो बढ़कर करीब 78 प्रतिशत हो गई है। साक्षरता दर को शैक्षणिक विकास का आधारभूत संकेत माना जाता है। समाजशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार साक्षरता दर लोगों के जीवन स्तर को बेहतर करने का माध्यम है। इससे सामाजिक स्तर के बेहतर होने का अनुमान भी लगाया जाता है। भारत सरकार के साक्षरता दर के आंकड़ों के विश्लेषण से एक महत्वपूर्ण बात सामने आती है कि देश में ग्रामीण महिलाओं की साक्षरता दर काफी बेहतर हुई है। अब महिलाओं और पुरुषों के साक्षरता दर का अंतर भी काफी घटा है। महिलाओं की साक्षरता का प्रभाव भी लोकसभा चुनाव के मतदान पर दिखता है। महिलाओं जितनी अधिक साक्षर होंगी हमारा लोकतंत्र उतना ही अधिक मजबूत होगा। महिलाएं अब अपने मुद्दों को बेहतर समझती हैं। मतदान के लिए उनकी खुद की समझ विकसित हो चुकी है। वो अब पुरुषों के बताए मुद्दों पर मतदान नहीं करती बल्कि अपना निर्णय स्वयं लेती हैं। इसके अलावा अगर देखें तो हमारे देश में प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी हुई है। भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2022-23 में प्रति व्यक्ति आय 98374 रु है। साक्षरता में जब आय जुड़ जाती है तो लोगों की आकाक्षाएं बढ़ जाती हैं। इस तरह के सोशल इंडिकेटर्स के विश्लेषण से साफ होता है कि मतदाता क्यों परिपक्व हो रहे हैं। क्यों अब चुनाव के दौरान फिल्मी सितारों की उपयोगिता समाप्त हो गई है। राजनीति का तो ये आधारभूत सिद्धांत है कि अगर आप उपयोगी हैं तो ठीक है अन्यथा आपको भुलाने में जरा भी वक्त नहीं लगता है। हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में इसी आकांक्षा का प्रकटीकरण हुआ है। ये लोकतंत्र के मजबूत होने और मतदाताओं के परिपक्व होने की ये कहानी आशान्वित करती है।
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