नई लोकसभा के गठन के बाद जब संसद का सत्र आरंभ हुआ तो विपक्षी दल के सांसदों ने संविधान का उपयोग नए राजनीतिक औजार के रूप में करना आरंभ किया। संविधान की प्रति लेकर शपथ लेना आरंभ किया। संविधान को लेकर चुनाव के समय से जो चर्चा आरंभ हुई थी वो लोकसभा तक पहुंच गई। संविधान पर चर्चा और उसके बचाने के दावे के साथ उत्साहित विपक्ष ने नई लोकसभा में सेंगोल की स्थापना को लेकर भी प्रश्न उठाया। समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में अपनी सफलता से उत्साहित है। पार्टी के सांसद आर के चौधरी ने संसद में सेंगोल की जगह संविधान की प्रति लगाने की बात कहकर एक नए विवाद को जन्म दिया। आर के चौधरी ने कहा कि ‘सेंगोल राजा महाराज के टाइम का था। सेंगोल तमिल भाषा का शब्द है। जब यहां राजा महाराजा थे तब यहां सेंगोल तैयार किया गया। जब देश को स्वतंत्रता मिल गई या मिलनेवाली थी या जब सत्ता का हस्तांतरण होनेवाला था तो यहां के पुरोहितों ने प्रस्ताव दिया और उनके प्रस्ताव पर सेंगोल बनवाया गया। सेंगोल के तैयार होने के बाद उसको लार्ड माउंटबेटन को दे दिया गया जिन्होंने उसको जवाहरलाल नेहरू को ट्रांसफर कर दिया। नेहरू ने उसको इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के संग्रहालय में स्थापित करवा दिया। ये पुरानी बात हो गई। सेंगोल जहां था वहां था। वहां से सेंगोल को लाकर नई संसद भवन में रख दिया गया। संसद लोकतंत्र का मंदिर है। हम चाहते हैं कि वहां सेंगोल नहीं देश के संविधान की एक प्रति रखी जाए। उसी से देश चलेगा। देश संविधान से चलेगा। लोकतंत्र से चलेगा। अगर लोकतंत्र को बचाना है तो सेंगोल को हटाना है।‘
समाजवादी पार्टी के सांसद ने सेंगोल को लेकर जो टिप्पणी की उसपर विचार करने की आवश्यकता है। पहली बात तो 1950 में संविधान लागू होने के बाद से ही देश संविधान से ही चल रहा है। अगर इमरजेंसी के कालखंड को छोड़ दें जब संविधान की प्रस्तावना को न केवल अवैध तरीके बदला गया बल्कि संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों को भी खत्म कर दा गया था। प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दिया गया था। संविधान में संशोधन भी किए गए। शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद संविधान को बदला भी गया। इन घटनाओं के अलावा संविधान कभी खतरे में नहीं आया। दूसरी बात जो आर के चौधरी ने कही कि सेंगोल को पुरोहितों के कहने पर तैयार करवाया गया। यह तथ्य से परे प्रतीत होता है। सेंगोल से सत्ता हस्तांतरण का प्रस्ताव चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की पहल पर हुआ था। सेंगोल से सत्ता हस्तांतरण की परंपरा चोल राजवंश में थी उसको स्वतंत्र भारत में सनातन से जोड़कर अपनाया गया था। थिरूवावडुथुरई अधीनम तमिलनाडू के शिवभक्तों का एक बड़ा और प्रभावशाली समूह है। यह समूह सनातन में आस्था रखनेवाले पिछड़े समुदाय का है। समाज के उस हिस्से को सेंगोल बनाने और सत्ता हस्तांतरण समारोह की जिम्मेदारी दी गई जो गैर ब्राह्मण थे, लेकिन शिव और सनातन में उनकी आस्था थी। जब आर के चौधरी बोल रहे थे तो स्पष्ट हो रहा था कि वो सेंगोल के बारे में समग्र तथ्यों से अंजान थे। वो अपनी राजनीति करने के लिए अपनी सुविधानुसार बातों को रखने का प्रयास कर रहे हैं। आर के चौधरी के इस बयान के बाद कुछ राजनीतिक विश्लेषक भी अपने अपने तरीके से सेंगोल को हिंदू धर्म प्रतीक बताकर उसके विपोध की राजनीति को हवा देने में जुट गए। एक विश्लेषक ने तो यहां तक कह दिया कि सेंगोल की स्थापना के समय जिस तरह से सनातन धर्म के गुरुओं के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने संसद भवन में प्रवेश किया था वो पंथ निरपेक्ष संविधान के अनुकूल नहीं है। प्रधानमंत्री तक को ये सलाह दे दी गई कि उनको इस तरह से हिंदू धर्म प्रतीकों के सार्वजनिक प्रदर्शन से बचना चाहिए। उनको लगता है कि सेंगोल स्थापना या नई संसद भवन के शुभारंभ के अवसर पर किया गया आयोजन हिंदू वोटबैंक को ध्यान में रखकर किया गया था।
जब भी इस तरह की टिप्पणी सुनने को मिलती है तो इन राजनीतिक विश्लेषकों की खटाखट और फटाफट सोच पर हंसी आती है। आज जो लोग संविधान की बात कर रहे हैं। उसको हाथ में लेकर संविधान की कसमें खा रहे हैं उनको और उनके राजनीतिक विश्लेषकों को संविधान की प्रति को खोलकर देखना चाहिए। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की अगुवाई में जब संविधान का ड्राफ्ट तैयार हो गया था तब संविधान सभा में उसी साज सज्जा को लेकर चर्चा हुई थी। सदस्यों के साथ चर्चा के उपरांत ये तय किया गया कि प्रख्यात चित्रकार नंदलाल बोस से इसकी साज सज्जा करवाई जाए। संविधान को देखें तो उसका जो भाग तीन है, जिसमें मौलिक अधिकारों की चर्चा की गई है, उस भाग के आरंभ में प्रभु श्रीराम, सीता और लक्ष्मण की अयोध्या वापसी के चित्र अंकित हैं। इसी तरह से संविधान के भाग दो का आरंभ वैदिक काल के गुरुकुल के चित्र से की गई है। इस भाग में नागरिकता से संबंधित बातें हैं। संविधान के पहले भाग में सिंधु घाटी सभ्यता के प्रतीक जैबू, जो नंदी जैसे प्रतीत होते हैं, का चित्र है। इसके आलोक में देखा जाए तो क्या ये मान लिया जाए कि संविधान निर्माताओं ने हिंदू धर्म प्रतीकों को अंगीकार किया था। क्या वो सनातन के प्रतीक चिन्हों का सार्वजनिक प्रदर्शन था या संविधान सभा के सदस्यों की मूल भावना थी। दरअसल इसको और कालांतर में संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए पंथनिरपेक्षता से मिलाकर देखें तो ये स्पष्ट होता है कि संविधान और संविधान सभा के सदस्यों के मूल भावना के विरुद्ध जाकर प्रस्तावना में पंथ निरपेक्षता जैसे शब्द जोड़े गए।
संविधान और कानून के रक्षक सुप्रीम कोर्ट का ध्येय वाक्य देखा जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के लोगो पर लिखा है यतो धर्मस्ततो जय: । इसका अर्थ है जहां धर्म है वहां जय है। अब इन राजनीतिक विश्लेषकों को कौन समझाए कि ये वाक्य कहां से लिया गया है। महाभारत में अनेकों बार ये पंक्ति आती है। क्या ये भी हिंदू धर्म का सार्वजनिक प्रदर्शन है। संविधान सभा के सदस्य भारत भूमि और भारत की सनातन संस्कृति की विराटता के परिचित थे। इस कारण उन्होंने सनातन और हिंदू धर्म के प्रतीक चिन्हों को उसकी मूल भावना के साथ रखा। राम और प्रकृति को समान महत्व दिया गया। बाद के दिनों में जब संकुचित मानसिकता के लोग सत्ता में आए तो वो सनातन की विराटता और भारतीय संस्कृति को समझ नहीं पाए। पंथ निरपेक्षता जैसे संकुचित शब्द से भारतीय संस्कृति को बांधने की कुचेष्टा की गई। परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज की सनातन परंपरा खांचों में विभाजित होती चली गई। आज जो लोग संविधान और सनातन प्रतीकों पर शोर शराबा मचा रहे हैं दरअसल वो संविधान की मूल भावना के विरुद्ध ले जाने का प्रयास कर रहे हैं। संविधान को राजनीति का औजार बनाकर अपने राजनीतिक हित साध रहे हैं। संविधान का मूलाधार सनातन है जो आत्मा की तरह अजर अमर है। वो शरीर तो बदलता है लेकिन आत्मा वही रहता है। संविधान पर लाख बातें हो, खूब चर्चा हो लेकिन उसकी मूल भावना से खिलवाड़ न हो।
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