इन दिनों उत्तर प्रदेश की राजनीति में संगठन बड़ा या सरकार को लेकर खूब चर्चा हो रही है। उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव मौर्य के बयान कि सरकार से संगठन बड़ा होता है, के बाद ये चर्चा तेज हो गई थी। उनके बयान के इस वाक्य की अलग अलग तरीके से व्याख्या की गई। इसको सरकार और संगठन के बीच मनमुटाव के तौर पर भी रेखांकित किया गया। राजनीतिक विश्लेषकों ने लोकसभा चुनाव परिणाम में भारतीय जनता पार्टी को अपेक्षित सफलता नहीं मिलने से जोड़कर इसकी व्याख्या प्रस्तुत की। सरकार और संगठन के बीच चल रही इस चर्चा के बीच उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो सत्यकाम ने पुरुषोत्तम दास टंडन की जयंती पर एक व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया। उस व्याख्यान की तैयारी के सिलसिले में जानकारी जुटाने के क्रम में एक टंडन और नेहरू ने जुड़ा एक बेहद रोचक प्रसंग मिला। वो प्रसंग भी सरकार और संगठन से जुड़ता है। स्वाधीनता के बाद 1950 में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव होना था। पुरुषोत्तम दास टंडन कांग्रेस के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार होना चाहते थे। जबकि उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू नहीं चाहते थे कि पुरुषोत्तम दास टंडन कांग्रेस के अद्यक्ष बनें। टंडन अपनी उम्मीदावरी को लेकर अडिग थे। वो नेहरू की मुसलमानों की तुष्टीकरण की नीति को लेकर न केवल असहमत थे बल्कि उसका खुलकर विरोध भी करते थे। नेहरू ने कई नेताओं के जरिए टंडन को संदेश भिजवाया कि वो अध्यक्ष पद से अपनी उम्मीदवारी वापस ले लें। टंडन को सरदार पटेल से लेकर अन्य प्रदेशों के संगठन का समर्थन था। वो किसी भी कीमत पर अपनी उम्मीदावरी वापस लेने को तैयार नहीं थे। नेहरू को निरंतर ये संदेश मिल रहा था कि टंडन अपनी उम्मीदावरी वापस नहीं लेंगे।
इस बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने इस मसले को सार्वजनिक करने का निर्णय लिया। उन्होंने 8 अगस्त 1950 को एक पत्र टंडन को लिखा। इस पत्र के टंडन तक पहुंचते ही सरकार और संगठन के बीच का झगड़ा सार्वजनिक हो गया। नेहरू ने जो पत्र लिखा था उसमें उन्होंने टंडन को नसीहत दी थी। नेहरू ने लिखा था कि इस वक्त कांग्रेस बुरे दौर से गुजर रही है और उसको अगर फिर से पार्टी में उर्जा का संचार नहीं किया गया तो इसकी बुरी हालत हो सकती है। पार्टी आतंरिक कलह से जूझ रही है और पार्टी नेताओं की लालसा बढ़ती जा रही है। नेहरू ने अपने पत्र में आगे लिखा कि ऐसा प्रतीत होता है कि आपको लगता है कि मैं जो कुछ कर और कह रहा हूं वो गलत है। मैं भी आपके भाषणों के बारे में सुनता और पढ़ता हूं और मेरा ये विश्वास दृढ़ होता जाता है कि आप भारत में उन ताकतों का समर्थन कर रहे हैं जो देश के लिए ठीक नहीं हैं। मुझे लगता है कि इस समय देश के सामने जो चुनौतियां हैं उसमें पार्टी में एकता आवश्यक है। हमें मुसलमानों की समस्याओं पर एकजुट होकर न सिर्फ विचार करना चाहिए बल्कि उनको सुलझाने का प्रयास भी करना चाहिए। हम ऐसा तो नहीं ही कर पा रहे हैं बल्कि अल्पसंख्यकों के प्रति पाकिस्तान के कदमों की आड़ में असहिष्णुता दिखा रहे हैं। अफसोस है कि आप उस जमात को समर्थन कर रहे हैं जो सांप्रदायिक है। नेहरू के इस पत्र के बाद संगठन में खेमेबंदी और तेज हो गई। जो बातें अबतक पार्टी में चल रही थीं वो खुलकर सामने आ गई। टंडन मजबूती के साथ अपनी उम्मीदवारी पर अड़े रहे। नेहरू को इस बात का अनुमान होने लगा था कि कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में उनका खेमा कमजोर पड़ रहा है। पटेल समेत दक्षिण के कई नेता टंडन के समर्थन में थे।
अब जवारलाल नेहरू के सामने बड़ा संकट खड़ा हो गया क्योंकि उन्होंने तो सार्वजनिक रूप से टंडन की उम्मीदवारी का विरोध कर दिया था। अध्यक्ष का चुनाव उनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया था। जवाहरलाल नेहरू ने टंडन के विरोध नें जे बी कृपलानी को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया था। अब नेहरू ने एक ऐसा दांव चला जिसकी कल्पना उस समय के कांग्रेस के नेताओं को नहीं था। उन्होंने घोषणा कर दी कि अगर टंडन जीत जाते हैं तो वो उनकी अध्यक्षता वाली कांग्रेस कार्य समिति में किसी कीमत पर नहीं रहेंगे। नेहरू की इस घोषणा के बाद इस बात की चर्चा होने लगी थी कि संगठन बड़ा या सरकार। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि ये सब तब हो रहा था जब देश को स्वाधीन हुए लगभग तीन वर्ष हुए थे। विभाजन की विभीषिका का दंश पूरा देश झेल रहा था। पुरुषोत्तम दास टंडन विभाजन का दंश झेल रही बहुसंख्यक हिंदू जनता के पक्ष में खड़े थे। वो निरंतर उनकी समस्याओं को उठा रहे थे और मुसलमान और उनके समर्थक नेताओं को प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर रहे थे। मुसलमान नेताओं पर उनके प्रहार से नेहरू नाखुश थे लेकिन कांग्रेस में टंडन का समर्थन बढ़ता जा रहा था। गोविंद वल्लभ पंत ने भी टंडन का समर्थन कर दिया था। तत्कालीन मैसूर प्रांत के मुख्यमंत्री के हुनुमंथैय्या ने तो पत्र लिखकर टंडन को समर्थन दिया था। अपने पत्र में उन्होंने स्पष्ट किया था कि नेहरू सरकार ने स्वाधीन भारत के लिए जो राह चुनी है उससे वो असहमत हैं और चाहते हैं कि टंडन और पटेल मिलकर भारत को एक ऐसा नेतृत्व प्रदान करें जो नेहरू की नीतियों से पृथक हो।
नेहरू की तमाम कोशिशों के बावजूद पुरुषोत्तम दास टंडन ने उनके उम्मीदवार जे बी कृपलानी को संगठन चुनाव में पराजित कर दिया। ये कृपलानी की हार से अधिक नेहरू की हार थी। टंडन की जीत के बाद नेहरू बेहद खफा हुए थे। पर न तो उन्होंने सरकार में पद छोड़ा था और न ही कांग्रेस कार्य समिति की सदस्यता। कार्य समिति में वो टंडन के निर्णयों पर निरंतर प्रश्न चिन्ह लगाते रहते थे। उन्होंने अपनी हार के लिए सरदार पटेल और हनुमंथैय्या को भी जिम्मेदार माना था और दोनों के विरुद्ध लगातार काम करने लगे थे। टंडन करीब एक वर्ष से कुछ अधिक समय तक पार्टी के अध्यक्ष रहे पर नेहरू ने उनके खिलाफ ऐसा माहौल बनाया कि उन्हें आखिरकार इस्तीफा देना पड़ा। उन्होंने नेहरू की राजनीतिक चालों को समझते हुए भी पद छोड़ दिया था। वो नहीं चाहते थे कि सरकार और संगठन के बीच निरंतर हो रहे झगड़े के कारण पार्टी की छवि खराब हो। पहले आमचुनाव में पार्टी को नुकसान हो। टंडन के इस्तीफे के बाद नेहरू खुद पार्टी के अध्यक्ष बने। लंबे समय तक प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष दोनों पद पर रहे।
टंडन ने ये साबित किया था कि संगठन सरकार से बड़ा होता है लेकिन नेहरू ने टंडन को घेरकर इस्तीफा करवाकर ये दिखा दिया कि सरकार संगठन से बड़ा होता है। कालांतर में नेहरू ने पार्टी पर भी अपना दबदबा कायम कर लिया और अपनी मर्जी के अध्यक्ष बनवाते रहे। टंडन पर दबाव बनाकर नेहरू ने इस्तीफे तो ले लिया लेकिन पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र समाप्त होने की राह भी खोल दी।
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