हिंदी साहित्य में नेहरू युग या नेहरू के विचारों के प्रभाव की खूब चर्चा हुई है। नेहरू के बाद इंदिरा युग की भी चर्चा रही। आपातकाल को लेकर कुछ लेखकों ने इंदिरा गांधी के शासनकाल को परखने का प्रयास किया लेकिन अधिकतर वामपंथी लेखकों ने इंदिरा गांधी के संविधान को ध्वस्त कर आपातकाल लगाने के निर्णय को लेकर बहुत तीखी आलोचना नहीं की। नागार्जुन ने देश में आपातकाल लगाने के पहले ही इंदिरा गांधी के अंदर के अधिनायकवादी प्रवृत्ति को पहचान लिया था। इंदिरा गांधी ने जब देश पर आपातकाल थोपा था उसके दो वर्ष पूर्व ही नागार्जुन ने ‘देवी तुम तो कालेधन की वैसाखी पर टिकी हुई हो’ जैसी बहुत तीखी कविता लिखी थी। इस कविता को प्रगतिशील आलोचकों ने बहुत करीने से दबा दिया। उसकी चर्चा ही नहीं होने दी। आनेवाली पीढ़ी को ये बताने का प्रयास हुआ कि नागार्जुन स्वभाव से प्रगतिशील कवि थे। इस धारणा को पुष्ट करनेवाली नागार्जुन की कविताओं की ही चर्चा की गई। ‘देवी तुम तो कालेधन की वैसाखी पर टिकी हुई हो’ जैसी कविता में नागार्जुन ने इंदिरा गांधी और उनके क्रियाकलापों पर कठोर टिप्पणी की थी। अपनी इस कविता में नागार्जुन ने ना सिर्फ महंगाई को लेकर इंदिरा गांधी पर प्रहार किया था बल्कि उनको ठगों और उचक्कों की मलकाइन तक कह डाला था। पंक्तियां देखिए, महंगाई का तुझे पता क्या/जाने क्या तू पीर पराई/इर्द गिर्द बस तीस हजारी/साहबान की मुस्की छाई/तुझ को बहुत बहुत खलता है/’अपनी जनता’ का पिछड़ापन/महामूल्य रेशम में लिपटी/यों ही करती जीवन-यापन/ठगों- उचक्कों की मलकाइन/प्रजातंत्र की ओ हत्यारी/अबके हमको पता चल गया है/है तू किन वर्गों की प्यारी । यहां इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नागार्जुन ने आपातकाल की घोषणा के पूर्व ही इंदिरा गांधी को प्रजातंत्र की हत्यारी कहा था। इंदिरा युग में इस तरह के साहित्य को जानबूझकर ओझल कर दिया गया। तू किन वर्गों को प्यारी से नागार्जुन कटाक्ष कर रहे हैं कि किस तरह से आम आदमी की बात करते करते वो धनाढ्य लोगों के पक्ष में खड़ी हो गईं।
नेहरू युग में हिंदी के प्रगतिशील साहित्यकारों ने आधुनिकतावादी कम्युनिस्ट विचार ने ‘धर्म को अफीम’ बताया। जबकि मार्क्स ने उसको अफीम बताने के साथ मानव के दुखी मन का आर्तनाद भी बताया था लेकिन आधुनिकतावादियों और कम्युनिस्टों ने इस दुखी मन के मर्म को न कभी समझा न कभी सहलाया और वृहत्तर हिंदू समाज को क्रमिक तरीके से अपने से दूर कर दिया और अन्तत: खो दिया। ये बातें हिंदी के आलोचक सुधीश पचौरी ने सेतु प्रकाशन से प्रकाशित अपनी पुस्तक, हिंदी साहित्य के 75 वर्ष : नेहरू युग से मोदी युग तक में लिखी है। नेहरू युग से लेकर राजीव गांधी के दौर तक कम्युनिस्टों की चुनिंदा मामलों पर खामोशी से भी हिंदी साहित्य लेखन का सत्य से आंख मूंद लेने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। स्वाधीनता के समय जो देश विभाजन हुआ उसको हिंदी के अधिकतर साहित्यकारों ने अपने लेखन का विषय नहीं बनाया। दो चार लेखकों को छोड़कर मानवता के इतिहास की इतनी बड़ी घटना को कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित हिंदी के लेखकों ने अपनी कृतियों का विषय नहीं बनाया। सुधीश पचौरी प्रश्न उठाते हैं कि हिंदी के अधिकतर लेखक आश्विट्ज, जहां हिटलर ने लाखों यहूदियों को गैस चैंबर में मौत के घाट उतार दिया था, को तो याद करते हैं लेकिन उन्हें विभाजन की विभीषिका परेशान नहीं करती। मुक्तिबोध जैसा क्रांतिकारी कवि भी विभाजन की विभीषिका पर निरपेक्ष ही नजर आता है। इसका उत्तर भी मिलता है जब लेखक कहता है कि कम्युनिस्ट पार्टी की लाइन स्वयं टू नेशन थ्योरी पर आधारित थी। वह स्वयं प्रो विभाजन थी। उनके लिए तो विभाजन एकदम उचित था। ऐसे में प्रगतिवादियों को विभाजन का दर्द कैसे महसूस होता, यदि दर्द यत्र तत्र आया भी तो बेहद सेलेक्टिवली आया।
कम्युनिट विचारधारा से जुड़े हिंदी के लेखकों ने विभाजन की विभीषिका को अपने लेखन का विषय नहीं बनाया बल्कि उनकी कलम 1984 में दिल्ली में हुए सिखों के नरसंहार पर भी कमोबेश खामोश ही रही। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद तीन दिनों तक दूरदर्शन ने शोक को लाइव दिखाया। कहा जाता है कि उस उस दौरान किसी ने खून का बदला खून का नारा दिया और दूरदर्शन के जरिए वो बड़े समुदाय तक पहुंचा और सिखों का नरसंहार आरंभ हो गया। राजीव गांधी के बड़े पेड़ गिरने से धरती हिलने वाले बयान ने भी आग में घी का काम किया। सुधीश पचौरी का मानना है कि टीवी के सतत प्रसारण और शोक दृष्यों को लगातार देख इंदिरा के प्रति हमदर्दी और मारने वालों के प्रति क्षोभ पैदा होता था। पता नहीं किन तत्त्वों का शोक बेदर्द होकर आम सिखों पर टूटने लगा। सिख और हिंदू जो कल तक एक दूसरे के अनन्य थे वो एक दूसरे के अन्य हो गए। इस बात का समाजशास्त्रीय अध्ययन होना चाहिए कि हिंदू परिवारों में धर्म की रक्षा के लिए अपने बड़े बेटे को सिख बनाने की परंपरा थी वही हिंदू इंदिरा की हत्या के बाद सिखों को पराया समझने लगे। जाहिर है जब इस तरह के धार्मिक अस्मितामूल्क विमर्श अपनी जगह बनाने लगते हैं तब न यथार्थ बचता है न कोई तटस्थता बच पाती है। समूचा यथार्थ ही विभक्त हो जाता है। 1984 में सिखों के नरसंहार ने इसी प्रकार से यथार्थ को विभाजित कर दिया। जो कल तक अपने को सिख या हिंदू की तरह महसूस नहीं करता था वह भी अपनी अस्मिता पहनकर चलने लगा। स्वाधीनता के समय देश विभाजन के बाद यह दूसरा नया विभाजन था। इस विभाजन ने भले ही भौगोलिक विभाजन नहीं किया लेकिन हमारे आसपास के दैनिक यथार्थ और अनुभवों को भी विभक्त कर दिया। प्रश्न यही उठता है कि सिखों के नरसंहार को हिंदी के लेखकों ने प्राय: अनदेखा क्यों किया? सिखों का दर्द हिंदी लेखकों की रचनाओं में नहीं आ पाया। कुछ लेखकों ने लिखा लेकिन वृहत्तर हिंदी साहित्यिक समाज खामोश रहा। एकबार फिर हिंदी के साहित्यकार संवेदनहीन साबित हुए। सुधीश पचौरी कहते हैं कि वो दंगों में शामिल हुए बिना भी दंगों में ‘शामिल’ नजर आए।
आज बहुत सारे साहित्यकार भ्रमित नजर आते हैं। इंदिरा गांधी युग में साहित्य में जिस अवसरवाद का उदय हुआ भूमंडलीकरण तक चलता रहा। मंडल के बाद साहित्य में अस्मितामूलक विमर्श आरंभ हुआ। दलित और स्त्री चेतना का उभार होता है। ये दौर चलता है। मोदी युग में हिंदी साहित्य का इंटरनेट मीडिया युग आरंभ होता है। हिंदी साहित्य की रचना प्रक्रिया से लेकर अर्थ प्रक्रिया और उसकी आलोचना प्रक्रिया भी बदलती नजर आती है। मगर इस बदलाव का अहसास बहुत कम लोगों को है और उससे बाहर निकलने की छटपटाहट तो और भी कम लोगों को है। मोदी युग में हिंदी साहित्य में नए नए प्रश्न खड़े हो रहे हैं। विमर्श पर बहुत चर्चा होती है। विमर्श, आधुनिकता आदि को लेकर साहित्य में बहस कम दिखाई देती है। उपभोक्ता संस्कृति से लेकर बाजर को नए सिरे परिभाषित करने में साहित्य पिछड़ता नजर आता है। हिंदी के वामपंथी साहित्यकार अब भी पुरानी घिसी पिटी लीक पर चलते हुए नजर आते हैं। उनको अपनी रचनाओं में इन प्रश्नों से मुठभेड़ करने की आवश्यकता है। आवश्कता तो इस बात को रेखांकित करने की भी है कि हिंदू समाज किन कारणों से संगठित हुआ और अपने अधिकारों के लिए कृतसंकल्पित भी।
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