राज कपूर एक ऐसे फिल्मकार थे जो अपनी जिंदगी में घटित घटनाओं को अपनी फिल्मों में इस तरह पिरोते थे कि वो कहानी का बेहद दिलचस्प हिस्सा हो जाता था। दो फिल्मों का जिक्र जिसमें उन्होंने अपनी जिंदगी की घटनाओं को फिल्मों में रिक्रिएट किया। संगम फिल्म में एक सीन है। राज कपूर जब वैजयंतीमाला के पहनने के लिए गहना निकाल रहे होते हैं तो उनको एक पत्र मिलता है। वो उसको पढ़ना चाहते हैं। अचानक फोन की घंटी बजती है और वैजंयतीमाला उनके हाथ से कागज छीनकर दूसरे कमरे में चली जाती है। फोन पर बात करते-करते वो उस कागज को फाड़कर खिड़की से बाहर फेंक देती है। राज कपूर ये देख लेते हैं। दोनों पार्टी में जाने के लिए निकलते हैं तो राज कपूर रुमाल भूलने का बहाना करके वापस लौटते हैं। खिड़की के बाहर फटे कागज को उठाने लगते हैं। वैजंयतीमाला को शक होता है। वो वापस कमरे में आती है। दोनों में झगड़ा होता है। ये सब राज कपूर की असली जिंदगी में घटित हुआ था जिसको उन्होंने फिल्म संगम में उतार दिया। 1955 में राज और नर्गिस फिल्म चोरी चोरी की मद्रास (अब चेन्नई) में शूटिंग कर रहे थे। एक होटल में रुके थे। दोनों एक पार्टी में जानेवाले थे। देर हो रही थी। वो नर्गिस के पास पहुंचे तो देखा उसके हाथ में एक कागज था। राज ने कागज के बारे में पूछा कि ये क्या है। कुछ नहीं, कुछ नहीं कहकर नर्गिस ने कागज को फाड़ कर फेंक दिया। जब दोनों कार तक पहुंचे तो राज रुमाल भूलने का बहाना बनाकर वापस उसी जगह पहुंचे और डस्टबिन से फटे हुए कागज उठाकर अपने कमरे की दराज मे रख दिया। पार्टी से लौटेने के बाद राज ने फटे कागजों को जोड़कर पढ़ा। वो शाहिद लतीफ नाम के एक प्रोड्यूसर का प्रणय निवेदन था। दोनों में जबरदस्त झगड़ा होता है। राज कपूर ने अपनी जिंदगी की इस सच्ची घटना को संगम फिल्म में रख दिया।
दूसरी घटना भी नर्गिस से ही जुड़ी हुई है। नर्गिस अपनी मां के साथ बांबे (अब मुंबई) के चित्तो मैंशन में रहती थीं। एक दिन राज कपूर उनके घर पहुंचे और उन्होंने घंटी बजाई। थोड़ी देर बाद एक सुंदर सी लड़की ने दरवाजा खोला। दरवाजा खोलते ही उसने अपने हाथ से बाल ठीक किए। वो सीधे रसोई से आई थी और उसके हाथ में बेसन लगा हुआ था। जब वो बाल ठीक कर रही थीं तो गीला बेसन उनके बालों में लग जाता है। राज कपूर के मन पर ये सुंदर दृश्य अंकित हो जाता है। वर्षों बाद जब वो बाबी फिल्म बनाते हैं तो ये दृष्य डिंपल कपाड़िया पर फिल्माते हैं।
राज कपूर ने अपने लंबे फिल्मी करियर में एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में उस सपने को पर्दे पर उतारा जो कि भारतीय मध्यमवर्ग लगातार देख रहा था। अपने आंरंभिक दिनों में राज कपूर ने फिल्मों का व्याकरण और निर्माण कला की बारीकियों को सीखने के लिए इससे जुड़े प्रत्येक विभाग में कार्य किया। किशोरावस्था से ही वो सुंदर लड़कियों और महिलाओं के प्रति आकर्षित रहने लगे थे। कलकत्ता (तब कोलकाता) के अपने घर में उन्होंने जब बलराज साहनी की खूबसूरत पत्नी को देखा तो आसक्त हो गए थे। जब उनको केदार शर्मा ने फिल्म का आफर दिया तो उन्होंने बहुत संकोच के साथ उनके कान में फुसफुसफाते हुए कहा था कि प्लीज अंकल प्लीज मेरे साथ हीरोइन के तौर पर बेबी मुमताज तो रख लेना, वो बेहद खूबसूरत है। बेबी मुमताज को मधुबाला के नाम से जाना गया।
स्वाधीनता के पहले राज कपूर ने ‘आग’ फिल्म बनाने की सोची जो आजादी के बाद प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में राज कपूर ने स्वाधीन भारत के युवा मन को पकड़ने का प्रयास किया। इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। इसके बाद राज कपूर ने ‘बरसात’ बनाई। इस फिल्म से राज कपूर पर धन और प्रसिद्धि दोनों की बरसात हुई। यहीं से राज ने एक टीम बनाई जिसने साथ मिलकर हिंदी फिल्मों में सार्थक हस्तक्षेप किया। नर्गिस, गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी, गायक मुकेश और लता मंगेशकर, संगीतकार शंकर जयकिशन, कैमरापर्सन राधू करमाकर और कला निर्देशक एम आर आचरेकर की टीम ने राज कपूर के साथ मिलकर हिंदी फिल्मों को एक ऐसी ऊंचाई प्रदान की जिसको छूने का प्रयत्न अब भी हो रहा है।
शैलेन्द्र और राज कपूर के मिलने की दिलचस्प कहानी है। स्वाधीनता का संघर्ष अपने चरम पर था। बांबे (अब मुंबई) में प्रोफेशनल राइटर्स एसोसिएशन के एक कार्यक्रम में शैलेन्द्र ने एक गीत गाया था, मेरी बगिया में आग लगा गया रे गोरा परदेशी। वहां राज कपूर भी थे। कार्.क्रम के बाद राज ने शैलेन्द्र से अपनी फिल्म आग के लिए गीत लिखने का अनुरोध किया। शैलेन्द्र ने ये रहकर मना कर दिया कि वो पैसे के लिए कविता नहीं लिखते हैं। बात आई गई हो गई। आग के बाद जब राज कपूर अपनी अगली फिल्म की तैयारी कर रहे थे। एक दिन शैलेन्द्र उनके महालक्ष्मी वाले आफिस में पहुंचे। राज कपूर से मिलकर बोले शायद आप मुझे पहचान रहे हों। मेरी पत्नी गर्भवती और बीमार है, मुझे 500 रुपयों की आवश्यकता है। कुछ दिनों के लिए उधार दें। मैं रेलवे में नौकरी करता हूं। दो तीन महीने में वापस कर दूंगा। राज कपूर ने उनको रुपए दे दिए। दो महीने बाद शैलेन्द्र पैसे वापस करने आए। राज कपूर ने वापस लेने से मना कर दिया, बोले कि आपकी जरूरत के समय पैसे दिए थे मैं साहूकार नहीं कि पैसे देकर वापस लूं। स्वाभिमानी शैलेन्द्र को ये बात जंची नहीं। उन्होंने कहा कि मैं कर्ज कैसे उतारूं। राज कपूर ने हंसते हुए कहा कि अगर कर्ज उतारना चाहते हैं तो मेरी फिल्म बरसात के लिए गीत लिख दें। शैलेन्द्र ने बरसात के लिए दो गीत लिखे। राज की अगली आवारा के गीत लिखने के लिए शैलेन्द्र तैयार नहीं थे। ख्वाजा अहमद अब्बास के कहने पर उन्होंने आवारा के गीत लिखे। शैलेन्द्र और राज कपूर की मित्रता इस तरह से प्रगाढ़ हुई।
फिल्म बरसात के बाद राज कपूर ने आर के स्टूडियोज की स्थापना की। यहीं अपनी फिल्म आवारा बनाई। ये फिल्म भारतीय गणतंत्र की मासूमियत को सामने लाती है। राज कपूर ने कहा भी था कि ये भारत के गरीब युवाओं के निश्छल प्रेम की कहानी है। इस फिल्म ने राज कपूर को वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय बनाया। आलोचकों ने तब इस फिल्म को साम्यवादी दृष्टि की प्रतिनिधि फिल्म बताने की चेष्टा की थी लेकिन राज कपूर किसी वाद की चौहद्दी में नहीं घिरे थे। फिल्म आवारा से लेकर राम तेरी गंगा मैली पर विचार करने के बाद ये लगता है कि राज कपूर प्रेम के ऐसे कवि थे जिनकी कविता फिल्मी पर्दे पर साकार होती रही। प्रेम पगे दृश्यों के बीच वो भारतीय समाज की विसंगतियों पर प्रहार भी करते चलते हैं। वो कहते थे कि मेरा पहला काम मनोरंजन करना है। ऐसा करते हुए अगर समाज को कोई संदेश जाता है तो अच्छी बात है। राज कपूर के बारे में उनके भाई शशि कपूर ने कहा था कि वो घोर परंपरावादी हिंदू हैं। इसका संकेत उनकी फिल्म के आरंभ में भी मिला करता था जहां उनके पिता पृथ्वीराज कपूर के शिवलिंग के सामने बैठकर श्लोक पढ़ने के दृष्य से होता था।
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